Pina

“रस भी अर्थ है, भाव भी अर्थ है, परन्तु ताण्डव ऐसा नाच है जिसमें रस भी नहीं, भाव भी नहीं. नाचनेवाले का कोई उद्देश्य नहीं, मतलब नहीं, ’अर्थ’ नहीं. केवल जड़ता के दुर्वार आकर्षण को छिन्न करके एकमात्र चैतन्य की अनुभूति का उल्लास!” – ’देवदारु’ से.

pina imageजब Pina Bausch के नर्तकों की टोली रंगमंच की तय चौहद्दी से बाहर निकल शीशे की बनी ख़ाली इमारतों, फुटपाथों, सार्वजनिक परिवहन, कॉफ़ी हाउस और औद्योगिक इकाइयों को अपनी काया के छंद की गिरफ़्त में ले लेती है, मुझे आचार्य द्विवेदी याद का निबंध ’देवदारु’ याद आता है. यह जीवन रस का नृत्य रूप है. आचार्य द्विवेदी के शब्दों में, यह नृत्य ’जड़ता के दुर्वार आकर्षण को छिन्न’ करता है. निरंतर एक मशीनी लय से बंधे इस समय में किताबों की याद, कविताओं की बात, कला का आग्रह.

कॉफ़ी हाउस की अनगिनत कुर्सियों के बीच अकेले खड़े दो प्रेमी एक-दूसरे को बांहों में भर लेते हैं. लेकिन व्यवस्था का आग्रह है कि उनका मिलन तय सांचों में हो. उनके प्रतिकार में छंद है, ताल है, लय है. यहाँ नृत्य जन्म लेता है. पीना बाउश के रचे नृत्यों में विचारों का विहंगम कोलाहल है. उनके रचना संसार में मनुष्य प्रकृति का विस्तार है. इसलिए उनके नृत्यों में यह दर्ज कर पाना बहुत मुश्किल है कि कहाँ स्त्री की सीमा ख़त्म होती है और कहाँ प्रकृति का असीमित वितान शुरु होता है.

वे नाचते हैं. नदियों में, पर्बतों पर, झरनों के साथ. वे नाचते हैं. शहर के बीचोंबीच. जैसे शहर के कोलाहल में राग तलाशते हैं. यह रंगमंच की चौहद्दी से बाहर निकल शहर के बीचोंबीच कला का आग्रह आज के इस एकायामी बाज़ार में खड़े होकर विचारों के बहुवचन की मांग है.

Wim Wenders का वृत्तचित्र ’पीना’ सिनेमाई कविता है. किसी तरुण मन स्त्री की कविता. उग्र, उद्दाम, उमंगों से भरी.

अराजकता के आकाश में उड़ता सिनेमा का जनतंत्र – 2

gatewayहम रीगल के बाहर खड़े थे. भीतर से ’दैट गर्ल इन येलो बूट्स’ का आदमकद पोस्टर झांक रहा था. हाँ, एक और डीएसएलआर कैमरे पर बनी फ़िल्म सिनेमाघरों में आने वाली थी. बम्बई की बरसात सुबह से इस बे-छतरी दिल्लीवाले से लुका-छिपी खेल रही थी. तय हुआ लिओपोल्ड चलेंगे. पहुंचने ही वाले थे कि ठीक लिओपोल्ड के पहले बाएं हाथ को एक रास्ता खुलता दिखा समन्दर की ओर. मैं ठहर गया. सामने गेटवे था. समन्दर देख दिल्लीवाले का मन मचल गया. मैंने रास्ता बदल लिया. स्वेतलाना और जगन्नाथन दूर खड़े मुझे घूर रहे थे. लेकिन मेरे पीछे मेरा घर था जिसकी याद हमेशा मुझे पानी की ओर धकेलती है. आसमान बरसने को था और मैं अपने डीएसएलआर को पानी से बचाता इन घनेरे बादलों को समन्दर में घुल जाने से पहले अपने कैमरे में कैद कर लेना चाहता था.

लेकिन पानी को कभी कोई बांध पाया है.

दो कॉफ़ी के प्यालों और एक बियर मग के बीच, उस दीवार के एकदम नज़दीक बैठे जहां गोलियों से बने निशानों को मेडल की तरह सजाया गया है, लियोपोल्ड की उस टेबल पर जगन्नाथन मुझे बम्बई को कुछ और पास से देखने के लिए ग्रांट रोड के सिंगल स्क्रीन थियेटर्स देखने जाने की सलाह देता है और मैं उसे अपनी टूटी-फ़ूटी याद्दाश्त से वीरेन डंगवाल की कविता ’पी टी ऊषा’ सुनाता हूँ. पिछले तीन दिन से मैं उसे हम सबकी बातें सुनते, कोरे कागज़ों पर स्कैच बनाते और अनवरत जेम्स हेडली चेज़ पढ़ते देख रहा हूँ. क्या कोई मानेगा कि मेरी और जगन्नाथन की दोस्ती के पीछे जिस लड़के का हाथ है उससे मैं आजतक नहीं मिला. “सगई राज मेरी फ़िल्म का केन्द्रीय चरित्र होगा यह पहले से तय नहीं था. बल्कि वो तो मेरा सहायक कैमरामैन था.” जगन बताता है. (आप ’वीडियोकारन’ में आज भी उसका नाम ’सिनैमेटोग्राफी’ के क्रेडिट्स में पढ़ सकते हैं) पिछले दो महीने में मैं अपने कम से कम दर्जन भर दोस्तों को उस विस्मयकारी सगई राज से मिलवा चुका हूँ. मैं जगन से कहता हूँ कि जो बनाने वो निकला था, वहां से खड़े होकर देखें तो उसने अपनी फ़िल्म की नरैशन स्टाइल और मैसेज से बहुत समझौता किया है, लेकिन बदले में जो चीज़ बचाई है वो कहीं ज़्यादा कीमती है. ईमानदारी.

videokaaran4small’टाटा इंस्टीट्यूट ऑफ़ सोशल सांइसेस’ की जिस छोटी सी ग्रांट के दम पर जगन्नाथन कृष्णन ने ’वीडियोकारन’ बनाई है, आमतौर पर उसे वहां शॉर्ट फ़िल्म के लिए ही उपयुक्त माना जाता है. शायद यह भी कि यह हिन्दुस्तान में अपनी पसन्द की फ़िल्में बनाने का ज़्यादा पारम्परिक तरीका है. लेकिन एक ऐसे दौर में जहां योजनाबद्ध तरीके से तमाम संस्थानों और प्रक्रियाओं का निजीकरण ’विकास’ के नाम पर किया जा रहा हो, वहां संस्थागत मदद का सही और जनतांत्रिक मूल्यों के हक में उपयोग दरअसल इस रास्ते को वापिस ज़िन्दा करने की लड़ाई में एक कदम है. संस्थागत मदद में अपनी वाजिब हिस्सेदारी मांगना उसके ’उदारीकरण’ के नाम पर कुछ हाथों में गैर-लोकतांत्रिक प्रक्रिया के तहत सीमित होने के खतरे का जवाब भी होता है. आज भी जगन्नाथन के पास इतने पैसे नहीं हैं कि वो अपनी डॉक्यूमेंट्री में आए तमाम फ़िल्मों के दृश्यों के अधिकार खरीद सके, और शायद इसी वजह से अनेक विदेशी फ़ेस्टिवल्स में वह प्रतियोगिता से बाहर हो जाती है. जगन अब ’वीडियोकारन’ से आगे बढ़ना चाहता है. उसके पास कहानी है लेकिन उसे बनाने के लिए पैसा नहीं. फिर एक बार फ़िल्म बनाने का संघर्ष उसे बनाने का सही आर्थिक मॉडल तलाश करने में छिपा है. लेकिन इस बार जगन को यह मालूम है कि वो अपनी दूसरी फ़िल्म बनाएगा. जल्द ही बनाएगा.

INDIANOCEAN POSTER FINALकुछ लड़ाइयां जैसे अब अनवरत हैं. पिछले दिनों जयदीप वर्मा दिल्ली में थे. राष्ट्रपति से अपनी फ़िल्म ’लीविंग होम’ के लिए राष्ट्रीय फ़िल्म पुरस्कार लेने. कुछ महीने पहले इसी कॉलम में हमने ’लीविंग होम’ की बात की थी. उनसे मुलाकात में फिर वो सारी कहानियां याद हो आईं जिनसे होकर यह दुर्लभ फ़िल्म यहां तक पहुँची है. वैसे एक नज़रिया यह भी हो सकता है कि ’लीविंग होम’ को हम हिन्दुस्तान में स्वतंत्र सिनेमा की सफलता की कहानी के तौर पर पढ़ें. तमाम संघर्षों के साथ बनकर तैयार हुई यह संगीतमय डॉक्यूमेंट्री न सिर्फ़ सिनेमाघरों में प्रदर्शित हुई बल्कि साढ़े पांच घंटे के अनकट वर्ज़न के साथ अपने चाहनेवालों के घरों में, दिलों में पहुँची. राष्ट्रीय पुरस्कार इसकी कहानी को एक ’हैप्पी एंडिंग’ भी देता है. लेकिन इस नज़रिए में वो बहुत सारी पीड़ाएं कहीं छिप जाती हैं जिन्हें अब हमने एक स्वतंत्र फ़िल्मकार का भाग्य मान लिया है. उस दिन से जोड़कर जब अखबारवालों ने उनसे उनकी फ़िल्म के प्रदर्शन वाले हफ़्ते में उसकी अपने अखबार में लिस्टिंग भर के पैसे मांगे थे, उन पुरस्कारों तक जहां वाजिब हकदारों के सही नाम पुकारने में गलतियां हुईं, यह लिस्ट बहुत लम्बी है. यहां एक फ़िल्मकार है जिसे अपने काम में गुणवत्ता से ज़रा सा भी समझौता मंज़ूर नहीं, जिसकी रचनाशीलता सदा कुछ नया गढ़ती रहती है. लेकिन जिसे अपने हिस्से का पूरा मान, पूरी इज़्ज़त चाहिए. सवाल हमसे है कि क्या हम इन जैसे स्वतंत्र फ़िल्मकारों के लिए एक ऐसा सिस्टम खड़ा कर सकते हैं जिसमें इन्हें अपना काम ईमानदारी और गुणवता के साथ पूरा करने का मौका मिले?

लेकिन हिन्दी सिनेमा में स्वतंत्र प्रयास अब एकाकी नहीं रहे. मैं कहानियों की तलाश में हूँ. आधी रात हेमंत गाबा को फोन करता हूँ. हेमंत की कहानी कुछ-कुछ ’द अनटाइटल्ड कार्तिक कृष्णन प्रोजेक्ट’ के नायक से मिलती है. विदेश में बैठे सॉफ़्टवेयर कोड लिखते-लिखते एक दिन अचानक यह लड़का तय करता है कि इसे फ़िल्म बनानी है. बाकायदा एक फ़ीचर फ़िल्म. सच में यह दुस्साहसियों का ज़माना है. लौटकर हिन्दुस्तान आता है और मानिए या न मानिए, कैसे न कैसे कर अपनी फ़िल्म बना डालता है. इधर हेमंत अपनी कहानी सुना रहा है, वही फ़िल्म के प्रदर्शन से जुड़े ’डिस्ट्रीब्यूटर-पब्लिसिटी’ के गोरखधंधे, और मुझे उसकी बातें सुनते हुए एक पुरानी कहानी, एक पुराना दोस्त याद आता है. अचानक मैं जयदीप वर्मा की ’लीविंग होम’ का नाम लेता हूँ और हेमंत मुझे बताता है कि उसने ’लीविंग होम’ ख़ास कनॉट प्लेस के सिनेमाहॉल में इसीलिए देखी थी क्योंकि ऐसा हर स्वतंत्र प्रयास उसकी लड़ाई का हिस्सा है. अलग-अलग भाषा और परिवेश से आए यह सभी स्वतंत्र फ़िल्मकार अब साथ खड़े होने का महत्व और ज़रूरत समझ रहे हैं.

SB_Poster 2हेमंत बताता है कि उसकी फ़िल्म बनकर तैयार है लेकिन किसी भी किस्म का वितरक उसके प्रदर्शन के लिए तैयार नहीं. उन्हें पैसा चाहिए. उसे ’आपकी पैंतीस लाख की फ़िल्म में हम अपना सत्तर लाख क्यों डालें’ जैसे जवाब इस संघर्ष की बहुत शुरुआत में ही मिल चुके हैं. वो उस दिन को याद करता है जब एक बड़ी फ़िल्म प्रोसेसिंग लैब ने उसकी बरसों की मेहनत को लगभग नष्ट करने के बाद उससे पहला सवाल यही पूछा था कि कहीं आप किसी फ़िल्मी खानदान से तो नहीं? इन्हीं सारे वितरण से जुड़े झमेलों को याद कर वो लिखता है,

“अब तो यह जाना-पहचाना तथ्य है कि आज फ़िल्म बनाने से कहीं ज़्यादा मुश्किल उसका वितरण है. मुझे यह फ़िल्म ’शटलकॉक ब्वॉयज़’ पूरा करने में दो साल से ज़्यादा लगे हैं और अब भी मुझे यह नहीं पता कि आखिर कब यह फ़िल्म इसके असल दर्शकों तक पहुँचेगी. वितरकों से तो मिलना ही मुश्किल है, शायद इसलिए कि मैं इस इंडस्ट्री के लिए एक बाहरी व्यक्ति हूँ और मेरे पीछे कोई फ़िल्मी बैकग्राउंड नहीं. लगातार प्रयास के बाद जिन कुछ मीडिया कॉर्पोरेट्स से मैं मिल पाया, उन्होंने भी बड़ी विनम्रता से मेरी कोशिश को यह कहकर किनारे कर दिया कि न तो इसमें कोई स्टार है और न ही सिर्फ़ पैंतीस लाख में बनी फ़िल्म के वितरण में पैसा डालना कोई समझदारी है. स्वतंत्र वितरक भी चाहते हैं कि प्रिंट और पब्लिसिटी का पैसा मैं खुद करूं, जो इन हालातों में मेरे लिए संभव नहीं. तो हाल-फ़िलहाल फ़िल्म को एक सीमित स्तर पर भी प्रदर्शित कर पाने की लड़ाई जारी है.” हेमंत अपनी अमरीका की नौकरी से जो कुछ बचाकर लाया था वो तो इस फ़िल्म में लगा दिया. दोस्तो, घरवालों का भी मन और धन यहां अटका है. लेकिन वो कोई धन कुबेर नहीं. उसका अगली फ़िल्म बनाने का सपना पूरी तरह इस फ़िल्म के प्रदर्शन पर टिका है.

ऐसे में देश भर में होने वाले तमाम छोटे-बड़े फ़िल्म महोत्सव हेमंत के लिए उम्मीद की किरण हैं. और ऐसे फ़िल्मोत्सवों की संख्या हिन्दी की लघु पत्रिकाओं की तरह लगातार बढ़ रही है. यहां उसकी फ़िल्म को अपने दर्शक मिल सकते हैं. बेशक यहां पैसा नहीं है लेकिन यहां दर्शक फ़िल्म देखेगा और पसन्द करेगा तो उससे फ़िल्म का नाम और आगे जाएगा. रास्ते ऐसे ही निकलते हैं. फिर हमें समझ आता है कि फ़िल्म दिखाने का कोई ठीक-ठाक मॉडल खड़ा कर पाना हिन्दुस्तान में स्वतंत्र सिनेमा के भविष्य की राह में सबसे महत्वपूर्ण तथ्य है. वो हिमाचल का ज़िक्र करता है, यमुनानगर में फ़िल्म फ़ेस्टिवल की बात बता आश्चर्य मिश्रित खुशी ज़ाहिर करता है. मैं उसे गोरखपुर का पता बताता हूँ. दोस्तियां कुछ और गाढ़ी होती हैं. कुछ हंसी-ठठ्ठों भर में हम फ़िल्म को उसके दर्शक तक पहुँचाने के इस अनवरत चलते संघर्ष को साझा लड़ाई में बदल देते हैं.

Delhi film archiveडॉक्यूमेंट्री वाले इसका रास्ता अब वितरण भी अपने हाथ में लेकर निकाल रहे हैं. ’डेल्ही फ़िल्म आर्काइव’ जैसा प्रयास दिल्ली के वृत्तचित्र निर्देशकों का एक ऐसा ही सम्मिलित प्रयास है जो सिनेमा की शहर में उपलब्धता सुनिश्चित करने का माध्यम है. ’मैजिक लैंटर्न फ़ाउंडेशन’ भी ’अंडर कंस्ट्रक्शन’ के बैनर तले सिनेमा के वितरण का काम शुरु कर चुकी है. खुद गोरखपुर फ़िल्म फ़ेस्टिवल की टीम के पास अब पचास से ज़्यादा फ़िल्मों के वितरण अधिकार हैं. अब तो फ़िल्मस डिविजन भी अपने अधिकार की फ़िल्मों का वितरण करने लगा है. कई दुर्लभ फ़िल्में फिर सामने आई हैं. मान्य धारणा है कि हिन्दुस्तान में डॉक्यूमेंट्री में जो पैसा है वो बनाने के पहले है, बनाने के बाद उसे दिखाकर कोई पैसा नहीं कमाया जा सकता. शायद इस कारण भी यहां नए वितरण तंत्र को खड़ा करना मुश्किल तो है लेकिन जटिल नहीं. यह नए प्रयास अब इस प्रचलित धारणा को कुछ अंशों में बदल भी रहे हैं. लेकिन फ़ीचर फ़िल्म का सिनेमाघरों में प्रदर्शन आज भी टेढ़ी खीर है. वहां खेल बड़े पैसे और पहचान का है. और इसके बिना कोई सेटेलाइट राइट्स भी खरीदने को तैयार नहीं. कई अच्छी फ़िल्में जैसे ’खरगोश’, ’कबूतर’ सिनेमाघरों का कभी मुंह नहीं देख पाईं. और ’दाएं या बाएं’, ’हल्ला’ जैसी फ़िल्में सही प्रचार और शो टाइमिंग न मिलने के अभाव में किस अकाल मृत्यु को प्राप्त हुईं ये हम सब जानते हैं.

यह अनेक संभावनाओं वाला समय है. बहुवचन समय. यहां नकारात्मक बंजर ज़मीनों पर ज़िन्दगी और सिनेमा को चाहनेवाले उम्मीदों के पौधे लगा रहे हैं. उन्हें बढ़ने के लिए खाद-पानी की ज़रूरत है. और उस पानी का सोता हम दर्शकों से होकर गुज़रता है. तो आएं, अपने-अपने डीएसएलआर कैमरे निकालें और शाश्वत नियमों को झुठलाएं और इस कलकल पानी को उम्मीदों की क्यारियों में कैद करना शुरु करें.

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साहित्यिक पत्रिका ’कथादेश’ के अक्टूबर अंक में प्रकाशित. इस आलेख की पहली किश्त आप यहाँ पढ़ सकते हैं. फ़िल्मकार हेमंत गाबा से मोहल्ला लाइव के लिए की गई मेरी विस्तृत बातचीत आप यहाँ पढ़ सकते हैं.

अराजकता में जनतन्त्र

“वे उन दिनों को याद करते हैं जब उनके पास एक जोड़ा जींस खरीदने के पैसे भी नहीं होते थे और मज़ाक में वे घर आए मेहमानों से घर में घुसने का दाम लिया करते थे. रिज़वी बताती हैं कि दरअसल वो इस फ़िल्म के द्वारा कहीं पहुँचना नहीं चाहते थे, ये कोई ’कैरियर चॉइस’ नहीं थी – ये बस एक फ़िल्म थी जिसे हम बनाना चाहते थे. औए कुछ न होता तो हमने इसे वीडियो पर बनाया होता.” – अनुषा रिज़वी और महमूद फ़ारुक़ी. 24 जुलाई 2010 के ’तहलका’ में.

“अब मुझे एक कहानी की जरूरत थी, जिस पर मैं काम कर सकूं और जिसे शूट करने के लिए शायद कुछ पैसा जुटा सकूं. मैंने अपनी स्क्रिप्टों पर नजर दौड़ाने का काम शुरू किया. इनमें से ‘से चीज’ मुझे सबसे ठीक लगी. यह उस खांचे में फिट बैठती थी, जो मैंने सोचा था. यानी एक कैरेक्टर बेस्ड फिल्म, जिसका दायरा इतना हो कि उसे किसी की मदद के बगैर भी बनाया जा सके.“ – अक्षत वर्मा. 30 जुलाई 2011 के ’तहलका’ में.

लेकिन इन्हें आमिर ख़ान मिले. ’पीपली लाइव’ और ’डेल्ही बेली’ दोनों ही फ़िल्में एक-दूसरे से विषय और स्वभाव में नितांत भिन्न होते हुए भी इस मायने में समान हैं कि अपनी-अपनी तरह से यह हिन्दी सिनेमा के प्रचलित व्याकरण में कुछ नया जोड़ती हैं. संयोग से दोनों ही फ़िल्मों को आमिर ख़ान का साथ मिला और बहुत का मानना है कि इसी वजह से यह फ़िल्में लोकप्रियता के ऊँचे मुकाम तक पहुँच पाई हैं. बात में सच्चाई भी है. वैसे पिछले साल तक़रीबन इसी वक़्त हमने महमूद और अनुषा को ’पीपली लाइव’ बनाने के दौरान हुए अनुभवों को बांटते जनतंत्र / मोहल्ला की सेमीनार में सुना था और इस साल के उन्हीं दिनों अक्षत को ’डेल्ही बेली’ लिखने से लेकर बनाने तक के किस्से सुनाते मोहल्ला द्वारा आयोजित परिचर्चा में सुना. संयोग से मैं दोनों ही कार्यक्रमों का संचालक था और जिस दौरान हम ’इन्हें तो आमिर मिले’ कह-कहकर उनकी किस्मतों पर रश्क़ कर रहे थे, मैंने उन्हें यह कहते सुना कि अगर आमिर न मिले होते तो भी हम अपनी फ़िल्म बनाकर रहते.

बात मज़ेदार है. हम इसे बड़बोलापन कहकर टाल सकते हैं क्योंकि एक बार जब आपने आमिर के सहारे अपनी मर्ज़ी की फ़िल्म बना ली, फिर इस तरह के बयान देना आसान हो जाता है. लेकिन फिर, ऊपर लिखी बातों की सच्चाई मुझे कचोटती है. वो क्या बात है जिसने इन फ़िल्मकारों को यह विश्वास दिया है कि वे कह पाएं,  “अगर आमिर न मिले होते तो भी हम अपनी फ़िल्म बना लेते.”? यहीं से मेरा सोचने का रुख़ पलटता है और मैं हिन्दी सिनेमा की उस अराजक लेकिन रोमांचकारी दुनिया में प्रवेश करता हूँ जहाँ आपकी फ़िल्म के पीछे पैसा लगाने को और खड़े होने को आमिर खान भले न हों, फिर भी कैसे न कैसे आप अपने हिस्से की फ़िल्म बना लेते हैं.

The_Untitled_Kartik_Krishnan_Projectस्वागत है नई तकनीक के साथ बदलते नए सिनेमा की दुनिया में. मुख्यधारा सिनेमा की बड़बोली दुनिया से अलग, यह दुनिया अराजक ज़रूर दिखती है, थोड़ी मुश्किल भी. लेकिन अपना रास्ता तलाशकर फ़िल्में बनाना अब यहाँ लोग सीखने लगे हैं. श्रीनिवास सुंदरराजन की फ़िल्म ’दि अनटाइटल्ड कार्तिक कृष्णन प्रोजेक्ट’ (जिस पर हम पहले दिसंबर 2010 वाले आलेख में बात कर चुके हैं) को ही लें. मैं कार्तिक कृष्णन से दिल्ली में हुई एक मुलाकात में उन्हें किसी नए दोस्त को अपनी फ़िल्म के बारे में बताते हुए सुनता हूँ, “हमारी फ़िल्म, जिसे हमने कुल-जमा चालीस हज़ार रुपए में बनाया है.” कुछ यह हुआ है फ़िल्म बनाने की तकनीक में समय के साथ आए बदलाव से और कुछ इसका श्रेय हिन्दी सिनेमा में आई नई पीढ़ी को जाता है जिसे ज़्यादा इंतज़ार करना शायद पसंद नहीं. श्रीनिवास बताते हैं कि वे तो दरअसल ’ज़ीरो बजट’ फ़िल्म बनाना चाहते थे लेकिन ना ना करते भी चालीस हज़ार रुपए लग ही गए! हाँ, फ़िल्म बनाने के दौरान खाने के नाम पर पूरे दस्ते ने वड़ा पाव और कटिंग चाय पर गुज़ारा किया. फ़िल्म के तमाम कलाकार नौकरीपेशा थे इसलिए शूटिंग सिर्फ़ सप्ताहांत में ही हो पाती थी. कई बार पैसा खत्म हो जाने के कारण भी काम रोकना पड़ता था. इसीलिए जब श्रीनिवास से पूछा गया कि फ़िल्म की शूटिंग कितने दिनों में पूरी हुई तो उन्होंने बताया – सत्ताईस. लेकिन फिर साथ में जोड़ा कि शूटिंग के ये सत्ताईस दिन एक साल से ज़्यादा की लम्बी अवधि में फ़ैले हुए हैं.

बेशक तकनीक में आए बदलाव में इसकी चाबी छिपी है. हिन्दुस्तान में वृत्तचित्र निर्माण में बीते सालों में आया जन उभार इस बदलती तकनीक के समांतर चलता है. गोरखपुर से फ़िल्मोत्सवों की एक श्रंखला शुरु करने वाले हमारे दोस्त संजय जोशी जो खुद एक वृत्तचित्र फ़िल्मकार हैं, अपने एक लेख में इस तकनीकी परिवर्तन को समझाते हुए उससे बदलते वृत्तचित्र संसार का खाका खींचते हैं, “वीडियो तकनीक के आने से पहले फ़िल्म निर्माण का सारा काम सेल्यूलाइड पर होता था. सेल्यूलाइड यानि सिल्वर ब्रोमाइड की परत वाली प्लास्टिक की पट्टी को रोशनी से एक्सपोज़ करवाने पर छवि का अंकन नेगेटिव पर होता. फिर यह फ़िल्म लैब में धुलने (रासायनिक प्रक्रिया) के लिए जाती. यह समय लेने वाली और तमाम झंझटों से गुज़रने वाली प्रक्रिया थी. आज से पन्द्रह साल पहले तक 11 मिनट की शूटिंग के लिए फ़िल्म रोल और धुलाई का खर्चा ही आठ से दस हज़ार रुपए था. अब इसमें किराया भाड़ा भी शामिल करें तो खर्चा और बढ़ जाएगा. गौरतलब है कि यह अनुमान 16 मिलिमीटर के फ़ॉरमैट के लिए लगाया जा रहा है. सेल्यूलाइड के प्रचलित फ़ॉरमैट 35 मिमी में यह खर्चा दुगुने से थोड़ा ज़्यादा होगा. फिर शूटिंग यूनिट में कैमरापर्सन, कम से कम दो सहायक और साउंड रिकार्डिस्ट की ज़रूरत पड़ती और सारे सामान के लिए एक मंझोली गाड़ी और ड्राइवर.

GFF4इसके उलट वीडियो में आज की तारीख में आप 100 रु. में 40 मिनट की रिकार्डिंग कर सकते हैं. दोनों माध्यमों में एक बड़ा फ़र्क यह भी है कि जहाँ सेल्यूलाइड में आप सिर्फ़ एक बार छवियों को अंकित कर सकते हैं वहीं वीडियो के मैग्नेटिक टेप में आप अंकित हुई छवि को मिटाकर कई बार नई छवि अंकित कर सकते हैं. वीडियो की यूनिट सिर्फ़ एक व्यक्ति भी संचालित कर सकता है. 1990 के दशक के मध्य तक न सिर्फ़ वीडियो कैमरे सस्ते हुए, बल्कि कम्प्यूटर पर एडिटिंग करना भी आसान और सस्ता हो गया. वीडियो तकनीक ने बोलती छवियों की विकासयात्रा में एक क्रांतिकारी योगदान, प्रदर्शन के लिए सुविधाजनक और किफ़ायती प्रोजेक्टर को सुलभ करवाकर किया. संभवत: इन्हीं सारे तकनीकी बदलावों के कारण 1990 के बाद भारतीय डॉक्यूमेंट्री फ़िल्म जगत में लम्बी छलांग दिखाई देती है.”

संजय जोशी का यह उद्धरण यहाँ इसलिए भी समीचीन है क्योंकि इस बदलती तकनीक के सहारे ही उन्होंने उत्तर भारत के आधा दर्जन से ज़्यादा शहरों में ’प्रतिरोध का सिनेमा’ शीर्षक से होने वाले सालाना फ़िल्म समारोहों की एक श्रृंखला खड़ी कर दी है. 2006 मार्च में गोरखपुर से शुरु हुआ यह सफ़र अब लखनऊ, पटना, बलिया, नैनीताल, भिलाई जैसे विभिन्न शहरों में अपने पैर जमा चुका है. इसने अपने विकास के साथ विश्व सिनेमा और बेहतर डॉक्यूमेंट्री सिनेमा देखने की जो समझदारी अपने दर्शक वर्ग के बीच विकसित की है वह अद्वितीय है. तकनीक ने फ़िल्म निर्माण के साथ-साथ फ़िल्म को देखा जाना-दिखाया जाना भी सुलभ बनाया है. यह मुख्यधारा के उस एकछत्र एकाधिकार से बिल्कुल अलग है जहाँ तकनीक का इस्तेमाल सिनेमा के और ज़्यादा केन्द्रीकरण के लिए हो रहा है.

bhobhar1एक और उदाहरण देखें हमारे जयपुर के मित्रों का. गजेन्द्र शोत्रिय और रामकुमार सिंह ने अपने साथियों के साथ मिलकर एक राजस्थानी फ़िल्म बनाई है ’भोभर’. उनके लिए फ़िल्म बनाना खुद एक ऐसा अभ्यास था जिसकी कहानी फ़िल्म से कम मज़ेदार नहीं. खुद रामकुमार के गांव में फ़िल्म की शूटिंग हुई और मुम्बई फ़िल्म उद्योग से बिना कोई सीधी मदद के (फ़िल्म के कलाकार और तकनीशियन भी ज़्यादातर स्थानीय ही थे) उन्होंने सफ़लतापूर्वक फ़िल्म का निर्माण पूरा किया. उनके आलेख के इस हिस्से को देखकर समझें कि फ़िल्म बनाने का अनुभव आपकी सोच से कितना अलग हो सकता है, “फिल्म का सैट गांव में मेरा अपना घर था. उससे लगा खेत था. मम्मी-पापा को इतने मेहमानों की आवभगत को मौका मिला था लिहाजा चूल्हा कभी ठंडा नहीं रहा. रातभर चाय उबलती और दिन में गांव से मटके भरकर छाछ आ जाती. पूरी टीम ने मां से सीधा रिश्ता बनाया और जिसको जिस चीज की जरूरत होती किचन में घुसा पाया जाता. घर में हमारे परिवार के बाकी सब लोग भी टीम की जरूरतों को खास ध्यान रखने लगे और जब देखा कि चौबीसों घंटे सब लोग काम में जुटे हैं, तो गांव वालों ने भी आखिर मान ही लिया कि फिल्म बनाना आसान काम नहीं है.”

फ़िल्म बनाने के इस मॉडल की सफ़लता इस तथ्य में छिपी है कि गजेन्द्र और रामकुमार जल्दी ही अपनी अगली फ़िल्म पर काम शुरु करने जा रहे हैं. आज फ़िल्म बनाने की कोशिश अपने आप में उसे बनाने का सही रास्ता ढूंढने में छिपी है. तकनीकी क्रांति ने इसे थोड़ा सरल बनाया है तो उसे दिखाए जाने के गोरखधंधे को थोड़ा उलझाया भी है. लेकिन इस बियाबान में अब भी ऐसे अनेक उदाहरण हैं जिन्हें इस स्वतंत्र हिन्दुस्तानी सिनेमा के क्षेत्र में एक मॉडल की तरह गिना जा सकता है. अगली बार मेरा ऐसे कुछ और उदाहरणों पर बात करने का इरादा है. संयोग की बात है कि जिस ’वीडियोकारन’ फ़िल्म की चर्चा हमने दो महीना पहले की थी, उसके निर्देशक से जल्द ही मेरी मुलाकात होने वाली है. उनकी कहानी भी सुनेंगे. क्योंकि मुझे यकीन है कि जितनी दिलचस्प उनकी फ़िल्म है, उतनी ही दिलचस्प उसके बनने की कहानी होगी.

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साहित्यिक पत्रिका ’कथादेश’ के सितम्बर अंक में प्रकाशित

वीडियोवाला

“हमारी फ़िल्में यहाँ आएंगी. जब भी हम अच्छी फ़िल्में बनायेंगे, वो आएंगी. ऐसा नहीं है कि हमारे मुल्क में अच्छे फ़िल्मकार नहीं हैं. असली वजह है निर्माताओं का न होना. मान लीजिए मैं कोई फ़िल्म बनाना चाहता हूँ. लेकिन योजना बनते ही बहुत सारी चिंताएं उसके साथ पीछे-पीछे चली आती हैं. कैसे बनेगी, पैसा कहां से आएगा, पैसा वापस आएगा कि नहीं. यही सब लोगों के कदम पीछे ले जाता है. सच्चे अर्थों में जिसे स्वतंत्र सिनेमा कहा जा सके, ऐसा सिनेमा तो हमारे देश में बस अभी बनना शुरु ही हुआ है. ऐसी फ़िल्में जिन्हें बहुत ही कम निर्माण लागत पर बनाया जा रहा है. लेकिन अभी तो यह फ़िल्में भी निर्माताओं और वितरकों तक नहीं पहुँच पा रही हैं. एक डॉक्यूमेंट्री ’वीडियोकारन’, जो आजकल हिन्दुस्तान में इंटरनेट पर चर्चा का विषय बनी हुई है, सिर्फ़ इसलिए प्रदर्शित नहीं हो पा रही क्योंकि उसके निर्देशक के पास उसमें दिखाई गई दूसरी फ़िल्मों के कुछ अंशों के अधिकार खरीदने के पैसे नहीं हैं. वो डॉक्यूमेंट्री हिन्दी सिनेमा के बारे में कहीं बेहतर बयान है और अगर आप सच में ’बॉलीवुड’ के बारे में बात करना चाहते हैं तो वही फ़िल्म है जिसे इस फ़ेस्टिवल (कांस) में दिखाया जाना चाहिए.”

— भूमध्यसागर के किनारे अनुपमा चोपड़ा के साथ बातचीत के दौरान अनुराग कश्यप.

“बीते सालों में हिन्दी सिनेमा में आया सबसे बड़ा बदलाव क्या है?”

अलग-अलग मंचों पर मुझसे यह सवाल कई बार पूछा गया है. लेकिन इसका कोई तैयार जवाब मेरे पास कभी नहीं रहा. ऐसा भी हुआ कि कई बार मैं तलाश में भटकता रहा. मंज़िल के पास से निकल गया और जिसकी चाहत थी उसकी परछाई भर दिखाई दी. क्या इसका कोई ’एक’ जवाब संभव है या फिर यह भी उन्हीं ’बहुवचन’ वाले जवाबों की फ़ेरहिस्त में आता है?

फिर एक दिन मैंने ’वीडियोकारन’ देखी. हिन्दी अनुवाद करूँ तो “वीडियोवाला”. जी हाँ, यही नाम है जगन्नाथन कृष्णन की बनाई डॉक्युमेंट्री फ़िल्म का. जैसा नाम से कुछ अंदाजा होता है, पहली नज़र में यह फ़िल्म एक रेखाचित्र खींचती है किरदार सेगई राज का. सेगई राज याने हमारा नायक, हमारा ’वीडियोवाला’.  लेकिन सिर्फ़ इतना कहने से बस फ़िल्म का एक सिरा भर पकड़ में आता है. असल में सेगई राज की कहानी हमारे हिन्दुस्तानी सिनेमा को समझने के लिए एक ’माइक्रोकॉस्म’ का काम करती है. एक ऐसा प्रिज़्म जिसके सहारे हमारे सतरंगी मुख्यधारा सिनेमा के सातों रंग अलग चमकते देखे जा सकते हैं. धूसर भी, चमकीले भी. लेकिन साथ ही यह फ़िल्म उस आधारभूत परिवर्तन के ऊपर भी हाथ रखती है जिससे हिन्दी सिनेमा मेरे जीवनकाल में गुज़रा है. ऐसा परिवर्तन जिसके दुष्प्रभाव किसी गहरी खरोंच की तरह हिन्दी सिनेमा के चेहरे पर नज़र आ रहे हैं.

सेगई की कहानी अस्सी के दशक में हिन्दुस्तान के शहरों से लेकर धुर देहातों तक आई वीडियो क्रांति के बीच जन्म लेती है. ऐसा समाज जहाँ सिनेमा रोज़मर्रा की ज़िन्दगी का हिस्सा है. सेगई बड़ा होकर खुद अपना वीडियो पार्लर खोलता है. जनता की मर्जी की फ़िल्में चलाता है, उन्हें पब्लिक की डिमांड के अनुसार बदलता है और ज़रूरत पड़ने पर उन्हें मनमाफ़िक एडिट भी करता है. और फिर इसी दुनिया में उस वीडियो पार्लर को बुलडोज़र से टूटते भी देखता है. और यह सब कहानियाँ हम खुद सेगई के मुँह से ही सुन रहे हैं. सेगई बात करता जाता है और हम जानते हैं कि सेगई ने अपनी ज़िन्दगी के कुछ सबसे ज़रूरी पाठ उस सिनेमा से सीखे हैं जिसे हम समझदार दर्शक ’नकली, अयथार्थवादी, महा’ कहकर खारिज कर देते हैं. यह शहर के हाशिए पर आबाद एक ऐसी दुनिया की कहानियाँ हैं जहाँ मौत और ज़िन्दगी के बीच फ़ासला बहुत थोड़ा है.

videokaaran4मेरे पसंदीदा निबंधकार अमिताव कुमार अपने नए निबंध में लिखते हैं कि असल में वे खुद एक ऐसे गणतंत्र के नागरिक हैं जिसे हिन्दी के मुख्यधारा सिनेमा ने रचा है. मेरी नज़र में यह एक ऐसी आँखों से ओझल सच्चाई है जिसे हमारे मुल्क के सिनेमा समाज की सबसे आधारभूत विशेषता माना जाना चाहिए. एतिहासिक रूप से हमारा सिनेमा उसे देखने वाले एक बड़े वर्ग के लिए सिर्फ़ सिनेमा भर नहीं. यह उनकी ज़िन्दगी की मुख्य संरचना है, बहुत बार जिसके आगे असलियत धुंधली पड़ जाती है. सेगई राज इसी दुनिया का प्रतिनिधि चरित्र है. बातूनी, आत्मविश्वास से भरा और खुशमिजाज़. अद्भुत तर्क श्रंखला से बनते उसके जवाब सिनेमा की नई व्याख्याएं हमारे सामने खोलते हैं. फ़िल्म के एक शुरुआती प्रसंग में अमिताभ और रजनीकांत के दो प्रशंसकों के आपसी तर्क-वितर्क हमें हिन्दी सिनेमा और तमिल सिनेमा में पाए जाने वाले नायकत्व के उन भेदों से परिचित कराते हैं जिसे साबित करने के लिए कई मोटे अकादमिक अध्ययन नाकाफ़ी साबित हों. रेल की पटरियों के सहारे चलती इन हाशिए की ज़िन्दगियों में सिनेमा उस ’लार्जर-दैन-लाइफ़’ इमेज को घोलता है जिसे आप और मैं फ़र्जी कहते हैं, खारिज करते हैं.

सेगई सिर्फ़ दसवीं तक पढ़ा है. उसके दोस्तों में सबसे ज़्यादा. लेकिन वो आपको बता सकता है कि किसी नई रजनीकांत फ़िल्म के सिनेमाहाल में लगने पर पहले दिन के पहले, दूसरे, तीसरे शो की अलग-अलग ब्लैक टिकट रेट क्या होगी. या फिर यह कि थाईलैंड का कौनसा हीरो चेंबूर के इलाके में ’छोटा ब्रूस ली’ के नाम से जाना जाता है. या फिर यह कि तमिल सिनेमा में हीरो जब भी नाचता है तो उसके पीछे हमेशा पचास-साठ आदमियों की फ़ौज क्यों होती है. और यह भी कि पुलिस जब रिमांड पर लेकर ’थर्ड डिग्री’ का इस्तेमाल करे तो उससे बचने के लिए कौनसा तरीका सबसे कारगर है. सारे जवाब तार्किक (बेशक तर्क प्रणाली उसकी अपनी है) हैं और सबसे मज़ेदार बात यह है कि सारे जवाब उसने सिनेमा देखकर कमाए हैं. समझने की बात यह है कि हमारे लिए सिनेमा सिर्फ़ मनोरंजन का माध्यम हो सकता है लेकिन जिस समाज ने अपने जीने के तरीके इसी सिनेमा से कमाए हों, उसके लिए यह सिनेमा कहीं ज़्यादा बड़ी चीज़ है. और ऐसा इसलिए क्योंकि हमने समाज के इस बहुमत को वैधानिक तरीकों से ज़िन्दगी जीने का हक कभी दिया ही नहीं. पानी, बिजली, घर, नौकरी सभी कुछ तो हमारा रहा. जो और जितना कभी उनके हाथ आया भी, उसे हम संस्थागत तरीके से छीनते गए.

और अब हम बड़े ही संस्थागत तरीके से उनका मनोरंजन छीन रहे हैं. यह वीडियोक्रांति अब पुराने ज़माने की बात है. सेगई का वीडियो पार्लर भी बड़े ही संस्थागत तरीके से बुलडोज़र के नीचे कुचला गया और अब सेगई अपना फ़ोटो स्टूडियो चलाता है. अब भी याद करता है उन दिनों को जब वीडियो पार्लर था, दोस्तों का साथ था, रजनीकांत की फ़िल्में थीं.

videokaaran2मेरे सवाल का जवाब यहीं है. बीते सालों में हिन्दी सिनेमा में आया सबसे बड़ा बदलाव उसकी बदलती दर्शक दीर्घा में छिपा है. यह अपने आप में एक अद्भुत उदाहरण होगा जिसमें जनता की पसंद पर निर्भर एक उद्योग खुद अपना नाता जनता के बहुमत से काट लेना चाहता है. हिन्दी सिनेमा एक निरंतर चलते सचेत प्रयास के तहत अपने सबसे बड़े दर्शक वर्ग को अपने से बेदखल करने पर तुला हुआ है. हर दूसरे शहर में सिंगल स्क्रीन सिनेमाहाल बंद हो रहे हैं. पिछले महीने मेरे बड़े भाई ने फ़ेसबुक पर खबर दी कि उदयपुर का सबसे मशहूर ’चेटक’ सिनेमाहाल बंद हो गया. मैं आज जो कुछ सिनेमा पर लिखता-पढ़ता हूँ उसकी प्राथमिक कक्षा यही ’चेटक’ सिनेमाहाल था जिसके रात के नौ से बारह वाले शो में हमने मार तमाम फ़िल्में देखीं. आज यहाँ जयपुर में देखा कि मालिक लोग ’मोतीमहल’ को शादी-पार्टी के लिए किराए पर चलाने लगे हैं. बचपन में इस सिनेमाहाल के आगे निकली कांच की दीवार मुझे अंदर चलती फ़िल्म से भी ज़्यादा आकर्षित करती थी. आज उसमें दूर से ही सुराख़ नज़र आ रहे थे. इधर मल्टीप्लेक्स में फ़िल्म के टिकटों की बढ़ती कीमतें हमें किसी दूसरी पीढ़ी की ’रियलिटी बेस्ड साइंस फ़िक्शन’ फ़िल्म में होने का अहसास करवाती हैं. मेरे शहर का एक मल्टीप्लैक्स आजकल फ़िल्म दिखाने के 950 रुपए लेता है. मुझे शक है कि कहीं उस मल्टीप्लैक्स में फ़िल्म का अंत दर्शक की मर्ज़ी पूछकर तो नहीं किया जाता? “आज हीरोइन को चाहने वाले बहुत हैं, उसका मरना कैंसल. उसके बजाए क्लाईमैक्स में माँ को मार दो.” टाइप कुछ?

अरे, आप हँस रहे हैं? सच मानिए, आज ज़्यादा बड़ा डर यह है कि जिस मज़ाक पर आज हम हँस रहे हैं कल कहीं वो सच्चाई न बन जाए. यह मानना कि सिनेमा का दर्शक वर्ग बदलना उसके कथ्य पर कोई असर नहीं डालेगा, अंधेरे में जीना है. हिन्दी सिनेमा की लोकप्रियता उसे ज़्यादा जनतांत्रिक बनाती है, आम आदमी के ज़्यादा नज़दीक लेकर आती है. और यह नया बदलाव उस विशेषता को ही छीन रहा है. मल्टीप्लैक्स में ज़्यादा से ज़्यादा पैसा कमाकर हमारा सिनेमा धनवान तो हो सकता है, समृद्ध नहीं.

यही कोई तकरीबन छ महीने पहले ’रवीश की रिपोर्ट’ वाले हमारे रवीश ने अपने ब्लॉग ’कस्बा’ पर एक दिलचस्प पोस्ट लगाई थी. शीर्षक था, “दस रुपए का चार सिनेमा”. दिल्ली की किसी पुनर्वास कॉलोनी में चलते एक वीडियो पार्लर पर. जगह का नाम उन्होंने नहीं बताया था नहीं तो अगले दिन पुलिस का छापा इस ’जनतांत्रिक जुगाड़’ को भी बंद करवा देता. सिर्फ़ एक सिफ़ारिश की थी, “आम आदमी को बाज़ार से निकाल कर बाज़ार बनाने वालों को समझ आनी चाहिए कि उनका सिनेमा मल्टीप्लेक्स से बेआबरू होकर उतरता है तो इन्हीं गलियों में मेहनत की कड़ी कमाई के दम पर सराहा जाता है. सरकार को कम लागत वाले ऐसे सिनेमा घरों को पुनर्वास कालोनियों में नियमित कर देना चाहिए. टैक्स फ्री.”

Ravish-ki-Reportयहीं दो बातें उस ’रवीश की रिपोर्ट’ पर भी जिसे चैनल ने एक प्रशासनिक फ़ैसले के तहत बंद कर दिया है. ’रवीश की रिपोर्ट’ को हमारे टेलीविज़न न्यूज़ के निर्धारित मानकों पर परखना मुश्किल है. ऐसी रिपोर्ट जिसमें पत्रकार खुद अपनी समूची पहचान के साथ खबर में शामिल हो जाए, बहुत को अखर सकती है. इसीलिए मेरा हमेशा से मानना रहा है कि ’रवीश की रिपोर्ट’ को डॉक्युमेंट्री सिनेमा के मानदंडों पर परखा जाना चाहिए. हर आधे घंटे के एपीसोड में बाकायदा कथाधारा रचने वाले रवीश किसी वृत्तचित्र निर्देशक की तरह हैं. और उनके कथासूत्र भी शहर के उसी हाशिए से आते हैं जिन्हें हम उसके असली रूप में पहचानते तक नहीं. जिस दिल्ली शहर में रहते, पढ़ते मुझे छ साल हुए, रवीश उसी शहर से मेरा परिचय करवाते हैं, जैसे पहली बार. मेरे घर के आगे छोले-कुलचे बेचने वाला, मेरी फ़ैकल्टी के किनारे चाय का खोमचा लगाने वाला, वो कुम्हार जिससे मैं गर्मियों की शुरुआत में छोटी सुराही खरीद लाया हूँ. क्या मैं इन्हें पहचानता हूँ. नहीं. सच यह है कि मैं इनके केवल उसी रूप को पहचानता हूँ जिसे धरकर ये मेरे सामने उपस्थित होते हैं. शहर की किस खोह से निकलकर यह मेरे सामने आते हैं और शाम ढलते ही किस खोह में वापस समा जाते हैं, यह मैं कभी न जान पाता अगर ’रवीश की रिपोर्ट’ उस अंधेरी खोह में प्रवेश न करती. मायापुरी, लोनी बॉर्डर, कापसहेड़ा, नई सीमापुरी, गांव खोड़ा, नाम अनगिनत हैं.

रवीश हमारे ही शहर में मौजूद लेकिन अपरिचित होती गई इन दुनियाओं के हर पहलू को खोलते हैं. इसमें मनोरंजन से बेदखल किए जाते रेहड़ी-खोमचे वालों की वो दुनिया है जिसके बारे में हमने कभी सोचा ही नहीं. मुख्यधारा सिनेमा से बेदखल किए जाने पर यह जनता का बहुमत तो अपने लिए कोई नया रास्ता खोज लेगा, लेकिन इस बहुमत के बिना हमारा सिनेमा क्या अपना मूल चरित्र बचा पाएगा. सेगई की दुनिया में और रास्ते हैं, अगर न भी हुए तो वो नए रास्ते बनाएगा. सवाल अब हमारे सामने है और उसका कोई माकूल जवाब अब हमें खोजना है.

सेगई कभी मिलेगा तो बताऊँगा उसे. उस लड़कपन में उलझे शाहरुख के बाद ऐसा भावप्रवण और पारदर्शी चेहरा उसका ही देखा है मैंने. सेगई, मेरा हीरो तो अब तू ही है रे.

*****

’वीडियोकारन’ से हमारा परिचय करवाने का श्रेय मेरी ज़िन्दगी के ’रतन बाबू’ वरुण ग्रोवर को जाता है. वही थे जो किसी रैंडम फ़ेसबुक मैसेज पर इस फ़िल्म का प्रोमो देख इसकी पब्लिक स्क्रीनिंग में पहुँचे थे और हमें यह खज़ाना मिला. वरुण की लिखी फ़िल्म से जुड़ी आधारभूत पोस्ट  आप यहाँ पढ़ सकते हैं. तमाम जानकारियाँ भी यहाँ उपलब्ध हैं. वे और उनके साथी मिलकर इस फ़िल्म को और आगे पहुँचाने की कोशिशों में लगे हैं. कोशिश यह भी है कि इसे इंटरनेट पर उपलब्ध करवाया जा सके. जैसे ही कोई इंतज़ाम हो पाएगा, हम अपने ब्लॉग पर इस बाबत सूचना देंगे. और तब तक चाहनेवाले इस बाबत मुझे परेशान कर सकते हैं.

(साहित्यिक पत्रिका ’कथादेश’ के जुलाई अंक में प्रकाशित)

डेल्ही बेली

जिस तुलना से मैं अपनी बात शुरु करने जा रहा हूँ, इसके बाद कुछ दोस्त मुझे सूली पर चढ़ाने की भी तमन्ना रखें तो मुझे आश्चर्य नहीं होगा. फिर भी, पहले भी ऐसा करता रहा हूँ. फिर सही एक बार…

Delhi-Belly-Posterसत्यजित राय की ’चारुलता’ के उस प्रसंग को हिन्दुस्तानी सिनेमा के इतिहास में क्रांतिकारी कहा जाता है जहाँ नायिका चारुलता झूले पर बैठे स्वयं गुरुदेव का लिखा गीत गुनगुना रही हैं और उनकी नज़र लगातार नायक अमल पर बनी हुई है. सदा से व्यवस्था का पैरोकार रहा हिन्दुस्तानी सिनेमा भूमिकाओं का निर्धारण करने में हमेशा बड़ा सतर्क रहा है. ऐसे में यह ’भूमिकाओं का बदलाव’ उसके लिए बड़ी बात थी. ’चारुलता’ को आज भी भारत में बनी सर्वश्रेष्ठ फ़िल्मों में शुमार किया जाता है.

यह तब भी बड़ी बात थी, यह आज भी बड़ी बात है. अध्ययन तो इस बात के भी हुए हैं कि लता मंगेशकर की आवाज़ को सबसे महान स्त्री स्वर मान लिए जाने के पीछे कहीं उनकी आवाज़ का मान्य ’स्त्रियोचित खांचे’ में अच्छे से फ़िट होना भी एक कारण है. जहाँ ऊँचे कद की नायिकाओं के सामने नाचते बौने कद के नायकों को ट्रिक फ़ोटोग्राफ़ी से बराबर कद पर लाया जाता हो, वहाँ सुष्मिता सेन का पीछे से आकर सलमान ख़ान को बांहों में भरना ही अपने आप में क्रांति है. बेशक ’देव डी’ के होते हम मुख्यधारा हिन्दी सिनेमा में पहली बार देखे गए इस ’भूमिकाओं में बदलाव’ का श्रेय ’डेल्ही बेली’ को नहीं दे सकते, लेकिन यौन-आनंद से जुड़े एक प्रसंग में स्त्री का ’भोक्ता’ की भूमिका में देखा जाना हिन्दी सिनेमा के लिए आज भी किसी क्रांति से कम नहीं.

  • ’देव डी’ में जब पहली बार हम सिनेमा के पर्दे पर इस ’भूमिकाओं के बदलाव’ को देखते हैं तो यह अपने आप में वक्तव्य है. ’डेल्ही बेली’ को इसके लिए ’देव डी’ का शुक्रिया अदा करना चाहिए कि वो उसके लिए रास्ता बनाती है. उसी के कांधे पर चढ़कर ’डेल्ही बेली’ इस प्रसंग को इतने कैज़ुअल तरीके से कह पाई है. हमारा सिनेमा आगे बढ़ रहा है और अब यह अपने आप में स्टेटमेंट भर नहीं रह गया, बल्कि अब कहानी इस दृश्य के माध्यम से दोनों किरदारों के बारे में, उनके आपसी रिश्ते के बारे में कुछ बातें कहने की कोशिश कर सकती है.

  • ठीक यही बात गालियों के बारे में है. यहाँ गालियाँ किसी स्टेटमेंट की तरह नहीं आई हैं. यही शब्द जिसे देकर ’डी के बोस’ इतना विवादों में है, जब गुलाल में आता है तो वो अपने आप में एक स्टेटमेंट है. लेकिन ’डेल्ही बेली’ में किरदार सामान्य रूप से गालियाँ देते हैं. लेकिन वहीं देते हैं जहाँ समझ में आती हैं. जैसे दो दोस्त आपस की बातचीत में गालियाँ देते हैं, लेकिन अपने माता-पिता के सामने बैठे नहीं. अब गालियाँ फ़िल्म में ’चमत्कार’ पैदा नहीं करतीं. और अगर करती भी हैं तो ज़रूरत उस दिशा में बढ़ने की है जहाँ उनका सारा ’चमत्कार’ खत्म हो जाए. विनीत ने कल फेसबुक पर बड़ी मार्के की बात लिखी थी, “मैं सिनेमा, गानों या किसी भी दूसरे माध्यमों में गालियों का समर्थन इसलिए करता हूं कि वो लगातार प्रयोग से अपने भीतर की छिपी अश्लीलता को खो दे, उसका कोई असर ही न रह जाए. ऐसा होना जरुरी है क्योंकि मैं नहीं चाहता कि महज एक गाली के दम पर कोई गाना या फिल्म करोड़ों की बिजनेस डील करे और पीआर, मीडिया एजेंसी इसके लिए लॉबिंग करे. ऐसी गालियां इतनी बेअसर हो जाए कि कल को कोई इसके दम पर बाजार खड़ी न कर सके.” ’डेल्ही बेली’ में गालियाँ ऐसे ही हैं जैसे कॉस्ट्यूम्स हैं, लोकेशन हैं. अपने परिवेश के अनुसार चुने हुए. असलियत के करीब. नाकाबिलेगौर हद तक सामान्य.

  • तमाम अन्य हिन्दी फ़िल्मों की तरह इसमें समलैंगिक लोगों का मज़ाक नहीं उड़ाया गया है, बल्कि उन लोगों का मज़ाक उड़ाया गया है जो किसी के समलैंगिक होने को असामान्य चीज़ की तरह देखते हैं, उसे गॉसिप की चीज़ मानते हैं.

  • सच कहा, हम यह फ़िल्म अपने माता-पिता के साथ बैठकर नहीं देख सकते हैं. लेकिन क्या यह सच नहीं कि नए बनते विश्व सिनेमा का सत्तर से अस्सी प्रतिशत हिस्सा हम अपने माता-पिता के साथ बैठकर नहीं देख सकते हैं. न टेरेन्टीनो, न वॉन ट्रायर, न कितानो. अगर हिन्दी सिनेमा भी विश्व सिनेमा के उस वृहत दायरे का हिस्सा है जिसे हम सराहते हैं तो उसे भी वो आज़ादी दीजिए जो आज़ादी विश्व के अन्य देशों का सिनेमा देखते हुए उन्हें दी जाती है. माता-पिता नहीं, लेकिन ’डेल्ही बेली’ को अपनी महिला मित्र के साथ बैठकर बड़े आराम से देखा जा सकता है. क्योंकि यह फ़िल्म और कुछ भी हो, अधिकांश मुख्यधारा हिन्दी फ़िल्मों की तरह ’एंटी-वुमन’ नहीं है. इस फ़िल्म में आई स्त्रियाँ जानती हैं कि उन्हें क्या चाहिए. वे उसे हासिल करने को लेकर कभी किसी तरह की शर्मिंदगी या हिचक महसूस नहीं करतीं और सबसे महत्वपूर्ण यह कि वे फ़िल्म की किसी ढलती सांझ में अपने पिछले किए पर पश्चाताप नहीं करतीं.

  • मुझे अजीब यह सुनकर लगा जब बहुत से दोस्तों की नैतिकता के धरातल पर यह फ़िल्म खरी नहीं उतरी. कई बार सिनेमा में गालियों के विरोधियों के साथ एक दिक्कत यह हो जाती है कि वे चाहकर भी गालियों से आगे नहीं देख पाते. अगर आप सिनेमा में ’नैतिकता’ की स्थापना को अच्छे सिनेमा का गुण मानते हैं (मैं नहीं मानता) तो फिर तो यह फ़िल्म आपके लिए ही बनी है. आप उसे पहचान क्यों नहीं पाए. गौर से देखिए, प्रेमचंद की किसी शुरुआती ’हृदय परिवर्तन’ वाली कहानी की तरह यहाँ भी कहानी का एक उप-प्रसंग एकदम वही नहीं है?

एक किरायदार किराया देने से बचने के लिए अपने मकान-मालिक को ब्लैकमेल करने का प्लान बनाता है. उसकी कुछ अनचाही तस्वीरें खींचता है और अनाम बनकर उससे पैसा मांगता है. तभी अचानक किसी अनहोनी के तहत खुद उसकी जान पर बन आती है. ऐसे में उसका वही मकान-मालिक आता है और उसकी जान बचाता है. ग्लानि से भरा किराएदार बार-बार शुक्रिया कहे जा रहा है और ऐसे में उसका मकान-मालिक जो उसके किए से अभी तक अनजान है उससे एक ही बात कहता है, “मेरी जगह तुम होते तो तुम भी यही नहीं करते?” किरायदार का हृदय परिवर्तन होता है और वो ब्लैकमेल करने वाला सारा कच्चा माल एक ’सॉरी नोट’ के साथ मकान-मालिक के लैटर-बॉक्स में डाल आता है.

  • लड़का इतने उच्च आदर्शों वाला है कि उनके लिए एक मॉडल का फ़ोटोशूट वाहियात है लेकिन किसी मृत व्यक्ति की लाश उन्हें शहर के किसी भी हिस्से में खींच ले जाती है. यह भी कि जब सवाल नायिका को बचाने का आता है तो यह बिल्कुल स्पष्ट है कि बचाना है, पैसा रख लेना कहीं ऑप्शन ही नहीं है इन लड़कों के लिए. और यह तब जब उन्होंने अभी-अभी जाना है कि वही नायिका इस सारी मुसीबत की जड़ है. पूरी फ़िल्म में सिर्फ़ दो जगह ऐसी है जहाँ फ़िल्म मुझे खटकती है. जहाँ उसका सौंदर्यबोध फ़िल्म के विचार का साथ छोड़ देता है. लेकिन सैकड़ों दृश्यों से मिलकर बनती फ़िल्म में सिर्फ़ दो ऐसे दृश्यों का होना मेरे ख्याल से मुख्यधारा हिन्दी सिनेमा के पुराने रिकॉर्ड को देखते हुए अच्छा ही कहा जाएगा.

  • फिर, नायक ऐसे उच्च आदर्शों वाला है कि एक लड़की के साथ होते दूसरी लड़की से चुम्बन खुद उसके लिए नैतिक रूप से गलत है. एक क्षण उसके चेहरे पर ’मैंने दोनों के साथ बेईमानी की’ वाला गिल्ट भी दिखता है और दूसरे क्षण वो किसी प्राश्च्यित के तहत दोनों के सामने ’सच का सामना’ करता है, यह जानते हुए भी कि इसका तुरंत प्रभाव दोनों को ही खो देने में छिपा है.

  • मैं एक ऐसे परिवार से आता हूँ जहाँ घर के बड़े सुबह नाश्ते की टेबल पर पहला सवाल यही पूछते हैं, “ठीक से निर्मल हुए कि नहीं?” कमल हासन की ’पुष्पक’ आज भी मेरे लिए हिन्दुस्तान में बनी सर्वश्रेष्ठ हास्य फ़िल्मों मे से एक है. क्यों न हम इसे उस अधूरी छूटी परंपरा में ही देखें.

Delhi Belly Stills

  • गालियों से आगे निकलकर देखें कि कि कैसे सिर्फ़ एक दृश्य वर्तमान शहरी लैंडस्केप में तेज़ी से मृत्यु की ओर धकेली जा रही कला का माकूल प्रतीक बन जाता है. घर की चटकती छत में धंसा वो नृतकी का घुंघरू बंधा पैर सब कुछ कहता है. कला की मृत्यु, संवेदना की मृत्यु, तहज़ीब की राजधानी रहे शहर में एक समूचे सांस्कृतिक युग की मृत्यु. कथक की ताल पर थिरकते उन पैरों की थाप अब कोई नई प्रेम कहानी नहीं पैदा करती, अब वह अनचाहा शोर है. अब तो इससे भी कोई फ़र्क नहीं पड़ता कि वो कथक है या फिर भरतनाट्यम. सितार को गिटार की तरह बजाया जाता है और उसमें से चिंगारियाँ निकलती हैं.

  • शुभ्रा गुप्ता ने बहुत सही कहा, ’डेल्ही बेली’ की भाषा ’हिंग्लिश’ नहीं है. ’हिंग्लिश’ अब एक पारिभाषिक शब्द है. ऐसी भाषा जिसमें एक ही वाक्य में हिन्दी और अंग्रेजी भाषा का घालमेल मिलता है. वरुण ने इसका बड़ा अच्छा उदाहरण दिया था कुछ दिन पहले, “बॉय और गर्ल घर से भागे. पेरेंट्स परेशान”. ’यूथ ओरिएंटेड’ कहलाए जाने वाले अखबारों जैसे नवभारत टाइम्स और आई नेक्स्ट के फ़ीचर पृष्ठों पर आप इस तरह की भाषा आसानी से पढ़ सकते हैं. इसके उलट ’डेल्ही बेली’ में भाषा को लेकर वह समझदारी है जिसकी बात हम पिछले कुछ समय से कर रहे हैं. यहाँ किरदार अपने परिवेश के अनुसार हिन्दी या अंग्रेज़ी भाषा का इस्तेमाल कर रहे हैं. जैसे नायक आपस में अंग्रेज़ी में बात कर रहे हैं लेकिन उन्हें मारने आए गुंडो से हिन्दी में. जैसे नायिका अपने सहकर्मी से अंग्रेज़ी में बात कर रही है लेकिन पुरानी दिल्ली के जौहरी से हिन्दी में. उच्च-मध्यम वर्ग से आए पढ़े लिखे नायकों की गालियाँ आंग्ल भाषा में हैं लेकिन विजय राज की गालियाँ उसके किरदार के अनुसार शुद्ध देसी.

कहानी का अंत उस प्रसंग से करना चाहूँगा जिसने मेरे मन में भी कई सवाल खड़े किए हैं. फ़िल्म की रिलीज़ के अगले ही दिन जब मेरे घरशहरी दोस्त रामकुमार ने अपनी फेसबुक वाल पर लिखा कि ’क्यों न हम खुलकर यह कहें कि ’डेल्ही बेली’ एक ’एंटी-वुमन’ फ़िल्म है’ तो मुझे यह बात खटकी. मैंने अपनी असहमति दर्ज करवाई. फिर मेरा ध्यान गया, वहीं नीचे उन्होंने वह संवाद उद्धृत किया था जिसके आधार पर वे इस नतीजे तक पहुँचे थे. मेरी याद्दाश्त के हिसाब से संवाद अधूरा उद्धृत किया गया था और अगर उसे पूरा उतारा जाता तो यह भ्रम न होता. मैंने यही बात नीचे टिप्पणी में लिख दी.

अगले ही पल रामकुमार का फ़ोन आया. पहला सवाल उन्होंने पूछा, “मिहिर भाई, आपने फ़िल्म इंग्लिश में देखी या हिंदी में?” बेशक दिल्ली में होने के नाते मैंने फ़िल्म इंग्लिश में ही देखी थी. पेंच अब खुला था. हम दोनों अपनी जगह सही थे. जो संवाद मूल अंग्रेज़ी में बड़ा जनतांत्रिक था उसकी प्रकृति हिन्दी अनुवाद में बिल्कुल बदल गई थी और वो एक खांटी ’एंटी-वुमन’ संवाद लग रहा था.

चेतावनी – आप चाहें तो आगे की कुछ पंक्तियाँ छोड़ कर आगे बढ़ सकते हैं. मैं बात समझाने के लिए आगे दोनों संवादों को उद्धृत कर रहा हूँ.

(Ye shadi nahi ho sakti. because this girl given me a BJ and being a 21st century man I also given her oral pleasure.)

(ये शादी नहीं हो सकती. क्योंकि इस लड़की ने मेरा चूसा है और बदले में मैंने भी इसकी ली है.)

इसी ज़मीन से उपजे कुछ मूल सवाल हैं जिनके जवाब मैं खुले छोड़ता हूँ आगे आपकी तलाश के लिए…

  • क्या ऐसा इसलिए होता है कि सिनेमा बनाने वाले तमाम लोग अब अंग्रेज़ी में सोचते हैं और अंग्रेजी में लिखे गए संवादों को ’आम जनता’ के उपयुक्त बनाने का काम कुछ अगंभीर और भाषा का रत्ती भर भी ज्ञान न रखने वाले सहायकों पर छोड़ दिया जाता है? क्या हमें सच में ऐसे असंवेदनशील अनुवादों की आवश्यकता है?
  • या यह एक सोची समझी चाल है. हिन्दी पट्टी के दर्शकों को लेकर सिनेमा ने एक ख़ास सोच बना ली है और ठीक वैसे जैसे ’इंडिया टुडे’ एक ही कवर स्टोरी का सुरुचिपूर्ण मुख्य पृष्ठ हिन्दी के पाठकों की ’सौंदर्याभिरुचि’ को देखते हुए बदल देती है, यह भी जान-समझ कर की गई गड़बड़ी है? यह मानकर कि हिन्दी का दर्शक बाहर चाहे कितनी गाली दे, भीतर ऐसे संवाद को इस बदले अंदाज़ में ही पसन्द करेगा? यह दृष्टि फ़िल्म के उन प्रोमो से भी सिद्ध होती है जहाँ इस संवाद को हमेशा आधा ही उद्धृत किया गया है.
  • क्या हमारी वर्तमान हिन्दी भाषा में वो अभिव्यक्ति ही नहीं है जिसके द्वारा हम ऊपर उद्धृत वाक्य के दूसरे हिस्से का ठीक हिन्दी अनुवाद कर पाएं?

भाषा का विद्यार्थी होने के नाते मेरे लिए आखिरी सवाल सबसे डरावना है. मैं चाहता हूँ कि कहीं से कोई आचार्य ह़ज़ारीप्रसाद द्विवेदी का शिष्य फिर निकलकर सामने आए और मुझे झूठा साबित कर दे. फिर कोई सुचरिता बाणभट्ट को याद दिलाए, “मानव देह केवल दंड भोगने के लिए नहीं बनी है, आर्य! यह विधाता की सर्वोत्तम सृष्टि है. यह नारायण का पवित्र मंदिर है. पहले इस बात को समझ गई होती, तो इतना परिताप नहीं भोगना पड़ता. गुरु ने मुझे अब यह रहस्य समझा दिया है. मैं जिसे अपने जीवन का सबसे बड़ा कलुष समझती थी, वही मेरा सबसे बड़ा सत्य है. क्यों नहीं मनुष्य अपने सत्य को देवता समझ लेता आर्य?”

सिकंदर का मुकद्दर

दृश्य एक :-

फ़िल्म – धोबी घाट (2011)

निर्देशक – किरण राव

हरे रंग की टीशर्ट पहने अकेला खड़ा मुन्ना शाय की उस लम्बी सी गाड़ी को अपने से दूर जाते देख रहा है. असमंजस में है शायद. ’क्लास’ की दूरियाँ इतनी ज़्यादा हैं मुन्ना की नज़र में कि वह कभी वो कह नहीं पाया जो कहना चाहता था. और अचानक वो भागना शुरु करता है. मुम्बई की भीड़ भरी सड़क पर दुपहिया – चौपहिया सवारियों की तेज़ रफ़्तार अराजकता के बीच अंधाधुंध भागना. बड़ी गाड़ियाँ उसका रास्ता रोक रही हैं बार-बार. आखिर वो पहुँचता है शाय तक. शीशे पर दस्तक देता है.

यही निर्णायक क्षण है.

वह अपनी डायरी में से फाड़कर एक पन्ना उसकी ओर बढ़ा देता है. कागज़ में अरुण का नया पता है. निश्चिंतता आ जाती है चेहरे पर. अब असमंजस और तनाव शाय के हिस्से हैं. भागती हुई फ़िल्म अचानक रुक जाती है. मुम्बई की अराजक गति में अचानक ठहराव आ गया है. शहर ख़रामा- ख़रामा साँसे ले रहा है.

*****

Shor-In-The-City-Movie-Wallpaperदृश्य दो :-

फ़िल्म – शोर इन द सिटी (2011)

निर्देशक द्वय – राज निदिमोरू एवं कृष्णा डी के

लुटेरों की गोली खाकर घायल पड़ा साठ साला बैंक का वॉचमैन हमारे नायक सावन द्वारा पूछे जाने पर कि “हॉस्पिटल फ़ोन करूँ?”, डूबती हुई आवाज़ में जवाब देता है, “पहले ये पैसे वापस वॉल्ट में रख दो”. यह वही वॉचमैन है जिसके बारे में पहले बताया गया है कि बैंक की ड्यूटी शुरू होने के बाद वो पास की ज्यूलरी शॉप का ताला खोलने जाता है. इस दिहाड़ी मजदूरी की सी नौकरी में कुछ और पैसा कमाने की कोशिश. दिमाग़ में बरबस ’हल्ला’ के बूढ़े चौकीदार मैथ्यू की छवि घूम जाती है जिसकी जवान बेटियाँ शादी के लायक हो गई थीं और जिसके सहारे फ़िल्म ने हमें एक ध्वस्त कर देने वाला अन्त दिया था. लेकिन यहाँ सावन के पास मौका है कि वह सारे पैसे लेकर भाग जाए. उसे भी पैसों की सख़्त ज़रूरत है. रणजी टीम का चयनकर्ता एकादश में चयन के लिए बड़ी रिश्वत मांग रहा है.

यही निर्णायक क्षण है.

ऐसे में वो एक ’बीच का रास्ता’ निकालता है. वो अपनी ज़रूरत के पैसे निकालकर बाक़ी पैसे वॉचमैन के कहे अनुसार फिर से बैंक के वॉल्ट में रख आता है. और आगे जो होना है वो यह कि जो पैसे उसने निकाले हैं उन्हें भी वो अपने काम में इस्तेमाल नहीं करेगा.

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दृश्य तीन :–

फ़िल्म – ओये लक्की! लक्की ओये! (2008)

निर्देशक – दिबाकर बनर्जी

लक्की अपनी ’थ्री एपीसोडिक’ कहानी के अंतिम हिस्से में है. डॉ. हांडा के साथ मिलकर खोला गया रेस्टोरेंट शुरु हो चुका है. फिर एक बार लक्की को समझ आया है कि डॉ. हांडा भी पिछली दोनों कहानियों का ही पुनर्पाठ हैं. बाहर उसके ही रेस्टोरेंट की ’ओपनिंग पार्टी’ चल रही है और कांच की दीवार के भीतर उसे बेइज़्ज़त किया जा रहा है. इसी गुस्सैल क्षण जैसे लक्की के भीतर का वही पुराना उदंड लड़का जागता है. वो कसकर एक मुक्का डॉ. हांडा के मुँह पर तानता है. बस एक क्षण और डॉ. हांडा की सारी अकड़ उसके हाथ में होगी.

यही निर्णायक क्षण है.

लेकिन नहीं, लक्की मुक्का नहीं मारता. उनका कॉलर झाड़ पीछे हट जाता है. निकल पड़ता है फिर अपनी ज़िन्दगी की अगली कहानी जीने. उन्हीं अनजान रास्तों पर. उन्हीं जाने-पहचाने ’अपनों’ से धोखा खाने.

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यह तीनों अपनी अपनी कहानियों के निर्णायक क्षण हैं. हमारे दौर की तीन सबसे बेहतरीन फ़िल्मों के तीन निर्णायक क्षण. वो क्या है जो अपनी जड़ों में गहरे पैठी इन कहानियों के तीन निर्णायक क्षणों को साथ खड़ा करता है? इनमें से हर कहानी हमारे महानगरीय जीवनानुभव के विविध-वर्गीय चारित्रिक स्वरूप और उन वर्गों के रोज़मर्रा के आपसी भौतिक और गैर-भौतिक लेन-देन में होती उठापटक को अपना विषय बनाती है. लेकिन सिर्फ़ यही मिलाप इन निर्णायक क्षणों के बीच का सूत्र नहीं. इनमें से हर फ़िल्म अपनी विषयवस्तु में कहीं न कहीं वर्गों के बीच खिंची इन सरहदी रेखाओं के धुंधला होने की ओर संकेत करती है. जैसे ’शोर इन द सिटी’ का नायक तिलक अपनी पत्नी को दुपहिया पर घुमाते हुए अगले साल एक बड़ी गाड़ी – नैनो – खरीदने का सपना दिखाता है. या याद कीजिए तस्वीरें लेती हुई शाय और कैमरे के सामने पोज़ देता मुन्ना. या फिर उस एक पर्फ़ेक्ट ’फ़ैमिली फ़ोटो’ की चाह में सोनल के साथ पहाड़ों की बर्फ़ पर घूमता लक्की.

लेकिन फिर आते हैं यह निर्णायक क्षण. और हर बार हमारा सिनेमा वर्गों के बीच खिंची इन गैर-भौतिक विभाजक रेखाओं को शहरी जीवन में पाई जाने वाली किसी भी भौतिक रेखा से ज़्यादा पक्का और अपरिवर्तनशील साबित करता है. हर मौके पर वर्ग की यह तयशुदा दीवारें पहले से ज़्यादा मज़बूत होकर उभरती हैं. मुन्ना, सावन और लक्की तीनों अपने समाज के सबसे महत्वाकांक्षी लड़के हैं. अपने पूर्व निर्धारित वर्ग की चौहद्दियाँ तोड़ कर ऊपर की ओर जाती सीढ़ियाँ चढ़ने के लिए सबसे आदर्श किरदार. यहाँ मज़ेदार यह देखना भी है कि इन्होंने अपने इस ऊर्ध्वागमन के लिए कौनसे रास्ते चुने हैं? क्रमश: बॉलीवुड, क्रिकेट और व्यापार का चयन यह दिखाता है कि हमारी लोकप्रिय संस्कृति इन दिनों ’जादुई सफ़लता’ के कौनसे किस्से सबसे सफ़लतापूर्वक गढ़ रही है. लेकिन ’आदर्श चयन’ होने के बावजूद तीनों उस अंतिम निर्णायक क्षण पीछे हट जाते हैं और वर्ग की पूर्व-निर्धारित दीवारें यथावत बनी रहती हैं. हाँ, अंत में सावन का चयन रणजी टीम में होता है लेकिन वह अंत पूरी फ़िल्म की खुरदुरी असलियत पर एक बेहुदा मखमल के पैबन्द सा नज़र आता है.

यह हिन्दी सिनेमा का नया यथार्थवाद है.

Shor-in-the-City’शोर इन द सिटी’ और भी कई मज़ेदार तरीकों से इन अदृश्य वर्गीय दीवारों को खोलती चलती है. इसमें दो समांतर चलती कहानियों का आगे बढ़ता ग्राफ़ असलियत को बहुत रोमांचक तरीके से हमारे सामने खोलता है. कहानी के केन्द्र में मौजूद तिलक और अभय के चरित्र कहानी आगे बढ़ने के साथ विपरीत ग्राफ़ रचते हैं. एक ओर तिलक का चरित्र है जिसका शुरुआती प्रस्थान बिन्दु एक अपहरण अंजाम देना है, लेकिन उसकी पढ़ने की चाह (जिसमें गहरे कहीं अपने ’स्टेटस’ को ऊपर उठाने की चाह छिपी है) उसे वाया पाउलो कोएलो के ’एलकेमिस्ट’ से होते एक सभ्य नागर समाज की सदस्यता की ओर ले जा रही है. दूसरी ओर विदेश से आया उसी नागर समाज का सम्मानित सदस्य अभय है जिसे कहानी का ग्राफ़ गैरकानूनी गतिविधियों की ओर ले जा रहा है.

कहानी के किसी मध्यवर्ती मोड़ पर आते लगता है कि इनकी समांतर चलती कहानियों के ग्राफ़ एक दूसरे को काटकर विपरीत दिशाओं में आगे बढ़ जायेंगे. अर्थात तिलक अपनी नई मिली दार्शनिक समझदारी के चलते समाज में एक सम्मानित स्थान की ओर अग्रसर होगा और अभय हिंसा भरे जिस मायाजाल में उलझ गया है उसे भेद पाने में असफ़ल रहेगा. लेकिन ऐसा होता नहीं. तिलक का अंत एक बैंक में गोली खाकर घायल पड़े ही होना है और अभय को हत्या जैसा जघन्य अपराध करने के बाद भी साफ़ बचकर निकल जाना है. यही इनकी वर्गीय हक़ीकत है जिसे इन फ़िल्मों का कोई किरदार झुठला नहीं पाता. यही वो रेखा है जिसे भेदकर निकल जाने की कोशिश ने इन कहानियों को बनाया है, लेकिन यह हमेशा ही एक असफ़ल होने को अभिशप्त कोशिश है.

‘धोबी घाट’ के किरदारों के वर्गीय चरित्र किस बारीकी से आपके सामने आते हैं इसे बरदवाज रंगन ने अपनी समीक्षा में एक मज़ेदार उदाहरण द्वारा बड़ी खूबसूरती से दिखलाया है. यहाँ एक किरदार है ’राकेश’ का. राकेश वो प्रॉपर्टी डीलर है जिसने अरुण को उसका नया घर दिलवाया है. फ़िल्म में कुछ सेकंड भर को नज़र आने वाला यह किरदार उस बातचीत में अचानक एक व्यक्तित्व पा लेता है जहाँ हम उसकी आवाज़ तक नहीं सुन रहे हैं. घर की बंद अलमारी में कुछ पुराना सामान मिलने पर अरुण जब राकेश को फ़ोन करता है तो हम सिर्फ़ वही सुन पाते हैं जो इस तरफ़ खड़ा अरुण बोल रहा है. संवाद कुछ यूँ हैं,

“हाँ राकेश, पहले जो लोग यहाँ रहते थे ना, उनका कुछ सामान रह गया है.”
“कुछ टेप हैं. एक अंगूठी और…”
“नहीं… चांदी की है.”
“क्यों? मकान मालिक को दे दो ना.”
“कोई पूछेगा तो?”
“ठीक है फैंक देता हूँ यार. लेकिन फिर बाद में मांगना मत.”

आप ख़ाली स्थानों को भरते हैं और समझ पाते हैं कि राकेश यहाँ भी किसी संभावित आर्थिक फ़ायदे की सोच रहा है. सोने की या हीरे की अंगूठी हो तो उसकी कीमत अपने आप में बहुत है. इस एकतरफ़ा वार्तालाप में वह प्रॉपटी डीलर अपना व्यक्तित्व, अपना वर्गीय चरित्र पा लेता है.

dhobi ghatऔर यहाँ बहुल वर्गों के आपसी रिश्ते अपनी तमाम जटिलताओं के साथ जगह पाते हैं. निम्नवर्ग से आने वाली शाय की आया उसे मुन्ना से दूर रहने की सलाह देती है. मुन्ना जो खुद उसी निम्नवर्ग से आया चरित्र है. रंगन यहाँ सहज ही अमेरिकन क्लासिक ’गेस हूस कमिंग टू डिनर’ की आया माटिल्दा को याद करते हैं जिसे एक काले अंग्रेज़ का का अपनी गोरी मालकिन की बिटिया से रिश्ता फूटी आँख नहीं सुहाता. यह बावजूद इसके कि वह खुद एक ब्लैक है. कई बार आपकी वर्गीय पहचान आपकी प्रतिक्रिया को सहज ही तयशुदा धारा से विपरीत दिशा में मोड़ देती है.

इस शहर में प्यार करने को भी जगह कम पड़ती है. ’शोर इन द सिटी’ के एक बहुत ही खूबसूरत दृश्य में समन्दर किनारे आधे चांद की परिधि सी बिछी उस मरीन ड्राइव पर प्यार के चंद लम्हें साथ बांटते सावन और सेजल शादी की बात पर आपस में झगड़ पड़ते हैं. कैमरे का ध्यान टूटता है और दिखाई देते हैं छ:- छ: फ़ुट की दूरी पर क्रम से बैठे ऐसे ही अनगिनत जोड़े. सब अपनी ज़िन्दगी के सबसे कीमती चंद निजी क्षण यूँ जीते हुए मानो उन्हें इस शहर से बांटने आए हों. यह शहर भी तो माशूका है. एक दूसरे लेकिन इतने ही खूबसूरत और बारीकियत वाले दृश्य में तिलक दुपहिया पर अपनी नई-नवेली पत्नी को घुमाते हुए शहर की ख़ास जगहें दिखाता चलता है. इनमें मुम्बई का वो ट्रैफ़िक सिग्नल भी शामिल है जिसके आगे ’गरीबों की गाड़ी’ ऑटो नहीं जा सकता, सिर्फ़ ’अमीरों की गाड़ी’ कार या टैक्सी का जाना ’अलाउड’ है. यह नमूना भर है कि कैसे शहर में वर्गों के आभासी दायरे हमारी सीधी नज़रों में आए बिना ठोस ज़मीनी हक़ीकत पा लेते हैं. उधर ’धोबी घाट’ में हमेशा अपने बदलते घरों में कैद रहने वाला अरुण अब यास्मिन की नज़रों से शहर को देख रहा है. जैसे ज़िन्दगी जीने के कुछ नए हुनर सिखा रही हैं ये चिठ्ठियाँ उसे.

Oye_lucky_lucky_oye’शोर इन द सिटी’ में तिलक का किरदार मुझे ख़ासकर बहुत दूर तक आकर्षित करता रहा. अगर ’प्रॉड्यूसर का भाई’ वहाँ न होता अपनी एक्टिंग से सब गुड़गोबर करने को, तो वह बीते कुछ समय में हिन्दी सिनेमा में देखा गया सबसे रोचक किरदार होना था. समाज के निचले तबके से आया तिलक वह किरदार है जिसे एक बेस्टसेलर किताब की बिकाऊ सूक्तियों में अचानक अपने रूखे यथार्थ से निकलने का रास्ता दिखाई देने लगता है. उसकी भी महत्वाकांक्षायें हैं लेकिन अब वो उसके दो दोस्तों रमेश और मंडूक की महत्वाकांक्षाओं से अलग राह ले चुकी हैं. यहाँ तिलक अपनी वर्गीय पहचान बदलने की चाह रखने वाले निम्नवर्गीय हिन्दुस्तानी का सच्चा प्रतिनिधि बन जाता है. अब उसे सिर्फ़ पैसा नहीं चाहिए. उसे समाज में इज़्ज़त चाहिए, मान चाहिए. और ठीक दिबाकर के ’लक्की सिंह’ की तरह वो समझ चुका है कि वर्तमान समाज की गैर-बराबरियों में यह दोनों चीज़ें एक-दूसरे की पर्यायवाची नहीं हैं.

दिबाकर बनर्जी की आधुनिक क्लासिक ’ओये लक्की! लक्की ओये!’ का ’लक्की सिंह’ शहर में अकेला समय के साथ चौड़े होते गए इन्हीं आभासी वर्गीय दायरों को भेदने के लिए प्रयासरत था. हमेशा असफ़ल होने को अभिशप्त एक प्रयास. और हर मायने में दिबाकर की फ़िल्में इन नव प्रयासों की पूर्ववर्ती हैं. नब्बे के मुख्यधारा सिनेमा पर यह बड़ा आरोप है कि उसने अपनी वर्गीय समझदारियाँ बड़ी तेज़ी से खोई हैं. औए मल्टीप्लेक्स के आने के साथ अपने समाज को लेकर इस नासमझी में और इज़ाफ़ा ही हुआ है. ऐसे में यह नया सिनेमा हमारे महानगर में दिखाई देती विभिन्न वर्गीय पहचानों और उनकी नियतियों को लेकर अपनी समझदारी से आश्वस्त करता है. भले ही इसका टोन आक्रोश का न होकर व्यंग्य का है, लेकिन यही सिनेमा सत्तर और अस्सी के दशक के ’समांतर सिनेमा आन्दोलन’ का सच्चा उत्तराधिकारी है. क्योंकि इसके पास झूठे सपनों पर जीते किरदार तो बहुत हैं, लेकिन यह हमें झूठे सपने नहीं दिखाता.

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हिन्दी साहित्यिक पत्रिका ’कथादेश’ के जून अंक में प्रकाशित.

बड़े नसीबों का शहर है ये, जो इसकी किस्मतों में हम हैं लिखे

“यह शहर सिर्फ़ एक बहाना भर है आपके अच्छे या बुरे होने का. ज़्यादातर मामलों में बुरे होने का.”

Shor-In-The-City-Movie-Wallpaperलुटेरों की गोली खाकर घायल पड़ा साठ साला बैंक का वॉचमैन हमारे नायक सावन द्वारा पूछे जाने पर कि “हॉस्पिटल फ़ोन करूँ?”, डूबती हुई आवाज़ में जवाब देता है, “पहले ये पैसे वापस वॉल्ट में रख दो”. यह वही वॉचमैन है जिसके बारे में पहले बताया गया है कि बैंक की ड्यूटी शुरू होने के बाद वो पास की ज्यूलरी शॉप का ताला खोलने जाता है. इस दिहाड़ी मजदूरी की सी नौकरी में कुछ और पैसा कमाने की कोशिश. दिमाग़ में बरबस ’हल्ला’ के बूढ़े चौकीदार मैथ्यू की छवि घूम जाती है जिसकी जवान बेटियाँ शादी के लायक हो गई थीं और जिसके सहारे फ़िल्म ने हमें एक ध्वस्त कर देने वाला अन्त दिया था. राज और कृष्णा की क्रम से तीसरी फ़िल्म ’शोर इन द सिटी’ जयदीप की फ़िल्म की तरह उतनी गहराई में नहीं जाती, लेकिन इसकी सबसे बड़ी ख़ासियत यह है कि और फ़िल्मों की तरह यह शहर को कभी खलनायक नहीं बनने देती. अपनी पिछली फ़िल्म ’99’ की तरह यहाँ भी राज और कृष्णा बम-बंदूकों, धोखेबाज़ गुंडों, क्रिकेट और बेइमानी और अराजकता से भरे शहर की कहानी किसी प्रेम कथा की तरह प्यार से सुनाते हैं.

किसी अचर्चित सच्चाई की तरह समझ आता है कि हमारे शहरों पर ’एक ध्येय, एक मुस्कान, एक कहानी’ वाली फ़िल्में बनाना कैसे असंभव हुआ जाता है. अब तो यह भी ज़रूरी नहीं लगता कि इन समानांतर बहती नदियों के रास्ते में कोई ’इलाहाबाद’ आना ही चाहिए. ’शोर इन द सिटी’ की ये कहानियाँ तीनों कहानियों को जोड़ते उस घरेलू डॉन (और निर्देशक द्वय के प्यारे) अमित मिस्त्री की मोहताज नहीं हैं. बल्कि जब तक ये साथ नहीं आतीं, इनका आकर्षण कहीं ज़्यादा है. यह एक सद्चरित्र फ़िल्म है. बंदूकों के साए में आगे बढ़ती ’शोर इन द सिटी’ कभी आपको बंदूक के सामने खड़ा नहीं करती, हाँ कभी ऐन मौका आने पर उसे चलाना ज़रूर सिखाती है. शहर को लेकर इसका नज़रिया आश्चर्यजनक रूप से सकारात्मक है, जैसे अपने मुख्य शीर्षक को इसने अब अनिवार्य हक़ीक़त मानकर अपना लिया है. जिस ’गणेश विसर्जन’ को मुम्बई शहर की आधुनिक कल्ट क्लासिक ’सत्या’ में आतंक के पर्याय के तौर पर चित्रित किया है, वह यहाँ विरेचन का पर्याय है. बाक़ी फ़िल्म से अलग विसर्जन के दृश्य किसी हैंडीकैम पर फ़िल्माए लगते हैं. शायद यह उसकी ’असलियत’ बढ़ाने का एक और उपाए हो. जैसे आधुनिक शहर के इस निहायत ही गैर-बराबर समाज में अतार्किक बराबरियाँ लाने के रास्ते इन्हीं सार्वजनिकताओं में खोज लिए गए हैं.

पैसा उगाहने वाले गुंडों के किरदार में ज़ाकिर हुसैन और सुरेश दुबे उतना ही सही चयन है जितना विदेश से भारत आए हिन्दुतानी मूल ’अभय’ के किरदार में सेंदिल रामामूर्ति. साथ ही ’शोर इन द सिटी’ के पास ट्रैफ़िक सिग्नल पर बिकने वाली पाइरेटेड बेस्टसेलर्स छापने वाले और घर में उन्हीं किताबों को डिक्शनरी की सहायता से पढ़ने की असफ़ल कोशिश करने वाले ’तिलक’ जैसे बहु स्तरीय और एक AK56 बंदूक को अपना दिल दे बैठे ’मंडूक’ जैसे औचक-रोचक किरदार हैं. एक का तो निर्माता के भाई ने गुड़-गोबर कर दिया है. दूसरे किरदार में पित्तोबाश त्रिपाठी उस दुर्लभ स्वाभाविकता को जीवित करते हैं जिसने इरफ़ान ख़ान से लेकर विजय राज तक को हमारा चहेता बनाया है. पित्तोबाश, याद रखना. ’कॉमेडी बिकती है’ वाली भेड़चाल में यह मायानगरी तुम्हें अगला ’राजपाल यादव’ बनाने की कोशिश करेगी. तुम इनकी माया से बचना. क्योंकि तुम्हारी अदाकारी की ऊँचाई तुम्हें उन तमाम छ: फ़ुटे नायकों से ऊपर खड़ा करती है.

राज और कृष्णा की ’99’ में दिल्ली को लेकर कुछ दुर्लभ प्रतिक्रियाएं थीं. ऐसी जिन्हें मुम्बईवाले दोस्तों से मैंने कई बार सुना है, लेकिन हिन्दी सिनेमा शहरों को लेकर ऐसी बारीकियाँ दिखाने के लिए नहीं जाना जाता. लेकिन ’शोर इन द सिटी’ ने भी इस मामले में अपनी पूर्ववर्ती जैसा स्वभाव पाया है. यहाँ भी आप मुम्बई के उस ’रेड सिग्नल’ से परिचित होते हैं जिससे आगे गरीब की सवारी ’ऑटो’ नहीं, अमीर की सवारी ’टैक्सी’ ही चलती है. यह पूरी की पूरी पाइरेटेड दुनिया है जहाँ न सिर्फ़ किताबें और उनके प्रकाशक फ़र्जी हैं बल्कि बम-बंदूकें और उनसे निकली गोलियाँ भी. जब अच्छाई का कोई भरोसा नहीं रहा तो बुरी चीज़ों का भी भरोसा कब तक बना रहना था. यह कुछ-कुछ उस चुटकुले की याद दिलाता है जहाँ ज़िन्दगी की लड़ाई में हार आत्महत्या करने के लिए आदमी ज़हर की पूरी बोतल गटक जाए लेकिन मरे नहीं. एक और हार, कमबख़्त बोतल का नकली ज़हर भी उसका मुंह चिढ़ाता है. अब यह शहर निर्दयी नहीं, बेशर्म है. इस पाइरेटेड शहर की हर करुणा में चालाकियाँ छिपी हैं और ’भाई’ अकेला ऐसा है जिसे अब भी देश की चिंता है. यह ओसामा और ओबामा के बीच का फ़र्क मिट जाने का समय है. यह नकल के असल हो जाने का समय है.

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*शीर्षक निर्देशक द्वय की पिछली फ़िल्म ’99′ में इस्तेमाल हुए एक गीत से लिया गया है.

अभिनेता के अवसान का साल

पिछला साल खत्म हुआ था ’थ्री ईडियट्स’ के साथ, जिसे इस साल भी लगातार हिन्दी सिनेमा की सबसे ’कमाऊ पूत’ के रूप में याद किया जाता रहा. इस साल आई ’दबंग’ से लेकर ’राजनीति’ तक हर बड़ी हिट की तुलना ’थ्री ईडियट्स’ के कमाई के आंकड़ों से की जाती रही. मेरे लिए साल 2010 के सिनेमा पर बात करते हुए इनमें से कोई फ़िल्म संदर्भ बिंदु नहीं है. होनी भी नहीं चाहिए. आमिर ख़ान के ज़िक्र से शुरुआत इसलिए क्योंकि इन्हीं आमिर ख़ान ने साल 2010 में ’पीपली लाइव’ जैसी फ़िल्म का होना संभव बनाया. इसलिए भी कि इस फ़िल्म के प्रमोशन से जुड़ा एक किस्सा ही हमारी इस चर्चा का शुरुआती संदर्भ बिंदु है. सिनेमाघरों और टीवी पर आए ’पीपली लाइव’ के एक शुरुआती प्रोमो में एक टीवी पत्रकार कुमार दीपक को गांव पीपली से लाइव रिपोर्ट करते दिखाया गया है. दिखाया गया है कि आमिर के असर से अब गांव पीपली में उसके ही नाम के चिप्स और बिस्किट बिक रहे हैं. मज़ेदार बात तब होती है जब ’कट’ होने के बाद भी कैमरा चालू रहता है और हम पत्रकार कुमार दीपक को कहते हुए सुनते हैं कि आमिर ख़ान पगला गया है और पागलपन में कुछ भी बना रहा है. कुमार दीपक का कहना है कि ’लगान’ जैसी फ़िल्में बार-बार नहीं बनतीं और आमिर ख़ान ’पीपली लाइव’ बनाने के चक्कर में मुँह के बल गिरेगा.

चाहे यह आमिर का उसके पिछले प्रयोगों के प्रति कुछ कठोर रहे मुख्यधारा मीडिया पर पलटवार हो, इसमें अनजाने ही हिन्दी सिनेमा की मान्य संरचना दरकती दिखाई देती है. फ़िल्म का एक किरदार अपनी ही फ़िल्म के निर्माता के असल फ़िल्मी जीवन पर कमेंट पास करता है. जैसे कथा कहने की पारंपरिक संरचना में छेद करता है. जैसे किरदार के लिए निर्धारित दायरे को तोड़ता है. न जाने तारीफ़ में कहते थे कि उसके काम की खोट दिखाने के लिए, लेकिन हमारे दौर के महानायक शाहरुख़ के लिए उसके सुनहरे वर्षों में बार-बार यह दोहराया जाता रहा कि वह भूमिका चाहे होई भी निभाएं, लगते हर भूमिका में ’शाहरुख़ ख़ान’ ही हैं. चोपड़ाओं और उन जैसे कई और सिनेमाई घरानों की मार्फ़त बरसों से हम सुनते आए हैं कि हिन्दुस्तानी सिनेमा दर्शक के लिए उसके सपनों का संसार रचता है और इसी तर्क की आड़ लेकर बहुत बार उस सिनेमा का रिश्ता दर्शक की असल ज़िन्दगी से बिलकुल काट दिया जाता है. हिन्दी सिनेमा हमेशा ’साधारणीकरण’ सिद्धांत का कायल रहा है और ब्रेख़्त उसे मौके-बमौके बड़ी मुश्किल से याद आते हैं. उसे यह बिलकुल पसंद नहीं कि फ़िक्शन और नॉन-फ़िक्शन के तय दायरे टूटें और परदे पर चलती कथा में दर्शक की अपनी सच्चाई का ज़रा भी घालमेल हो.

लेकिन यह होता है. बीते साल में विभिन्न स्तर पर इनमें से कई प्रवृत्तियां बदलती दिखाई देती हैं, पलटती दिखाई देती हैं. हमारे शहराती जीवनानुभव की कलई खोलती दिबाकर बनर्जी की क्रम से तीसरी फ़ीचर फ़िल्म ’लव, सेक्स और धोखा’ फ़िक्शन सिनेमा में वृत्तचित्र का सा असर पैदा करती है. सबसे पहले ’डार्लिंग-ऑफ़-दि-क्राउड’ ’खोसला का घोंसला’, फिर विलक्षण ’ओए लक्की, लक्की ओए’ और अब आईने में दिखती कुरूप हक़ीक़त सी ’लव, सेक्स और धोखा’. दोस्तों का कहना है कि विरले बल्लेबाज़ मोहम्मद अज़रुद्दीन की तरह दिबाकर के नाम भी अब पहले तीन मौकों पर तीन शतकों सा विरला कीर्तिमान है. फ़िल्म से पहले आई अपनी एक ब्लॉग पोस्ट में दिबाकर उस दिन का किस्सा सुनाते हैं जब फ़िल्म की निर्माता एकता कपूर फ़िल्म का रफ़ कट पहली बार देख रही थीं. ज्ञात हो कि ये वही एकता कपूर हैं जिनके नाम अपने अतिनाटकीय ’के’ धारावाहिकों की बदौलत हिन्दुस्तानी टेलीविज़न की मलिका होने का ख़िताब दर्ज है. एकता के लिए फ़िल्म की प्रामाणिकता इस हद तक कटु हो जाती है कि नाकाबिलेबर्दाश्त है. एकता चलती फ़िल्म के बीच से उठ जाती हैं, दिबाकर अपने प्रयोग में कामयाब हुए हैं.

udaanइन्हीं एकता कपूर द्वारा निर्मित अतिनाटकीय ’के’ धारावाहिकों से निकले दो कलाकारों को मुख्य भूमिकाओं में लेकर विक्रमादित्य मोटवाने ’उड़ान’ बनाते हैं. साल की एक और महत्वपूर्ण फ़िल्म और मज़ेदार बात है कि इसे लेकर भी कई ’पारिवारिक स्रोतों’ से वैसी ही विपरीत प्रतिक्रियाएं आईं जैसी कुछ महीने पहले ’लव, सेक्स और धोखा’ को लेकर मिली थीं. ’उड़ान’ भी हिन्दुस्तानी समाज के लिए बड़ा असहज करने वाला अनुभव था, क्योंकि वह हमारे समाज की सबसे महत्वपूर्ण ’पवित्र गाय’ में से एक मानी गई संस्था – ’परिवार’, के ध्वंसावशेष अपने भीतर समेटे थी. यह लोकप्रिय हिन्दी सिनेमा के सबसे प्रचलित मॉडल जैसी नहीं थी, याने यह एक ’पारिवारिक फ़िल्म’ नहीं थी. उन दो छोटे परदे के अदाकारों के अलावा ’उड़ान’ की मुख्य भूमिकाओं में दो बिलकुल नए चेहरे थे. लेकिन ’उड़ान’ की प्रामाणिकता सिर्फ़ उसकी कास्टिंग में ही नहीं थी. इस कहानी की स्वाभाविकता उसकी जान थी. बार-बार आती कविताओं से रची-बसी यह फ़िल्म दिल और ज़बान पर कड़वाहट भर देने की हद तक सच्ची थी. इतनी सच्ची की उसकी असलियत पर ही शक होने लगे. ’ऐसा ज़ालिम पिता भला कहीं होता है’, अभी-अभी उड़ान देखकर निकले किसी परिवार के मुखिया के मुँह से यह सुनना बड़ा आसान रहा होगा. लेकिन यह कड़वाहट से भरा अस्वीकार इस बात का सबूत है कि ’भैरव सिंह’ ऐसा आईना है जिसे हमारा हिन्दुस्तानी मर्द आज भी आसानी से देखने को तैयार नहीं.

’लव, सेक्स और धोखा’ को सार्वजनिक पटल पर सिर्फ़ अतिवादी प्रतिक्रियाएं ही मिलीं. आलोचकों और दर्शकवर्ग के एक हिस्से के लिए यह साल की सबसे बेहतरीन फ़िल्म थी तो एक बड़ा दर्शकवर्ग इसे सिरे से खारिज कर देना चाहता था. बहुत से दर्शकों की परिभाषा में यह ’फ़िल्म’ होने के आधारभूत नियम ही पूरे नहीं करती. हमारे दर्शकवर्ग का एक बड़ा हिस्सा आज भी सिनेमा की तय परंपरा में बंधा है और वह सिनेमा को बदलता तो देखना चाहता है लेकिन मौजूदा सिनेमाई चारदीवारी के भीतर ही. और ऐसे में ’लव, सेक्स और धोखा’ की पहली कहानी ’मोहब्बत बॉलीवुड श्टाइल’ आपके सामने है. फ़िल्म का नायक सिनेमा में और उसकी सच्चाई में दिलो-जान से यकीन करता है लेकिन कम्बख़्त सिनेमा के भीतर होते हुए भी उसकी नियति हमारे सिनेमा जैसी नहीं होती. जैसे ब्रेख़्तियन थियेटर में चलते नाटक के बीच अचानक दर्शकों में से उठकर कोई आदमी नाटक के मुख्य नायक को गोली मार देता है, ठीक वैसा ही ’अ-फ़िल्मी’ अंत राहुल और श्रुति की प्रेम-कहानी का होता है.

dibakarदिबाकर के यहाँ प्रामाणिकता और समाज की ’मिरर इमेज’ दिखाने की यह ज़िद ही अभिनेता के अवसान का कारण बनती है. इसका अर्थ यह न समझा जाए कि ’लव, सेक्स और धोखा’ में काम कर रहे कलाकार अभिनेता नहीं हैं. बेशक वे अभिनेता हैं और उनमें से कुछ तो क्या कमाल के अभिनेता हैं. हिन्दी सिनेमा में इनके काम की धमक मैं आनेवाले सालों में बारम्बार सुनने की तमन्ना रखता हूँ. इसे इस अर्थ में समझा जाए कि यहाँ अभिनेता फ़िल्म की कथा को सही और सच्चे अर्थों में आप तक पहुँचाने का माध्यम भर हैं. और शायद सच्चे सिनेमा में एक अभिनेता की सबसे महत्वपूर्ण भूमिका यही हो सकती है. यहाँ अभिनेता पटकथा के आगे, उस विचार के आगे, जिसे वो अपने कांधे पर रख आगे बढ़ा रहा है, गौण हो जाता है. ’लव, सेक्स और धोखा’ ऐसा अनुभव है जिसे देख लगता है कि जैसे इन कलाकारों ने इस फ़िल्म में काम करना नहीं चुना, इस फ़िल्म की तीनों कहानियों ने मोहल्ले में निकल अपने नायक-नायिका खुद चुन लिए हैं. बरसों से ’स्टार सिस्टम’ की गुलामी करते आए हिन्दी सिनेमा के लिए यह मौका देखना बड़ा विलक्षण अनुभव है. यह फ़िल्म के मूल विचार – उसकी कहानी, के माध्यम – अभिनेता पर जीत का क्षण है. एक ऐसी कहानी, ऐसा विचार जिसके आगे अभिनेता गौण हो जाता है.

बेला नेगी की फ़िल्म ’दायें या बायें’ भी इसी श्रंखला में आती है जहाँ कथा की प्रामाणिकता न सिर्फ़ असल पहाड़ी कलाकार बढ़ाते हैं बल्कि वही असल उत्तराखंडी परिवेश फ़िल्म की कथा संरचना को पूरा करता चलता है. यह अभिनेता के ह्वास का एक और आयाम है जहाँ अभिनेताओं के साथ जैसे मुख्य कथा का भी ह्वास हो जाता है. बार-बार वह उन हाशिए की कहानियों को सुनाने लगती है जिन्हें हम मुख्य कथा के साथ बंधे-बंधे भूले ही जा रहे थे. फ़िल्म वहाँ से शुरु नहीं होती जहाँ से हम चाहते थे कि वो हो और ठीक वैसे ही फ़िल्म वहाँ ख़त्म नहीं होती जहाँ हमने सोचा था कि वो होगी. समस्या कहाँ है? हम चाहते हैं कि हमारी थाली में मुख्य कथा को कढ़ाई में छौंककर, सजा-धजा कर, मेवा-इलायची डालकर बाकायदा परोसा जाए जबकि फ़िल्म हमें अपनी पसंद का फूल चुनने बगीचे में खुला छोड़ देती है. हम सिनेमा में इस मनमानी के आदी नहीं और चिड़ियाघर के जानवर की तरह तुरन्त अपने पिंजरे में वापस घुस जाना चाहते हैं. अपनी हर भूमिका में ’शाहरुख़ ख़ान’ दिखते महानायक को धता बताते हुए हमारे दौर के सबसे प्रामाणिक अभिनेता दीपक डोबरियाल ’रमेश मजीला’ को साक्षात हमारे सामने जीवित कर देते हैं. एक अभिनेता कहानी की तरफ़ से खड़ा होकर लड़ता है और उसका साथ पाकर फ़िल्म की कथा ’नायकत्व’ के विचार को क्या ख़ूब पटखनी देती है.

और ऐसा ही कुछ ओंकारदास माणिकपुरी और रघुबीर यादव नया थियेटर से आए दर्जन भर दुर्लभ अभिनेताओं के साथ जुगलबंदी कर ’पीपली लाइव’ में कर दिखाते हैं. यहाँ फ़िल्म की निर्देशक अनुषा रिज़वी के साथ आमिर का भी शुक्रिया. शुक्रिया इसलिए कि उन्होंने अनुषा और महमूद को उनके मनमाफ़िक सिनेमा रचने के लिए पूरा स्पेस दिया. शुक्रिया इसलिए कि उन्होंने खुद ’नत्था’ की भूमिका निभाने का लालच नहीं किया. जी हाँ, यह होना संभव था. हिन्दी सिनेमा में ऐसा बिना किसी रोक-टोक होता आया है. अगर आमिर बेखटके ’लगान’ के ’भुवन’ हो सकते हैं और चालीस पार की उमर में एक कॉलेज जाते लड़के की भूमिका निभा सकते हैं तो क्या वे ’पीपली लाइव’ के ’नत्था’ नहीं हो सकते थे? लेकिन हमारी खुशकिस्मती कि ऐसा कुछ नहीं हुआ और नतीजा यह कि उनकी फ़िल्म साल 2010 में आई ’कथ्य की जीत’ वाली फ़िल्मों की श्रंखला में एक दमकती कड़ी साबित हुई. अद्वितीय रचनात्मकता के धनी ’इंडियन ओशियन’ ने इस फ़िल्म के लिए विलक्षण संगीत रचा और रघुबीर यादव का गाया छत्तीसगढ़ी जनगीत ’महंगाई डायन’ हर नई व्याख्या के साथ फ़िल्म के दायरे से बाहर निकलता गया. हर नई व्याख्या के साथ यह वर्तमान समाज और राजनीतिक व्यवस्था पर मारक टिप्पणी करता प्रतीत हुआ.

indian oceanऔर इन्हीं ’इंडियन ओशियन’ के ज़िक्र के साथ इस बात का रुख़ ’लीविंग होम’ की तरफ़ मुड़ता है. यह ऐसी संगीतमय डॉक्यूमेंट्री थी जिसने साल 2010 में सिनेमा के कई पूर्वलिखित नियमों को बदला. न केवल यह बाकायदा देशभर के सिनेमाघरों में रिलीज़ हुई बल्कि हाल ही में संपन्न हुए भारत के इकतालीसवें अंतरराष्ट्रीय फ़िल्म समारोह (गोआ) में इसे हिन्दुस्तानी पैनोरमा की उद्घाटन फ़िल्म होने का सम्मान भी दिया गया. जैसे साल भर कथा फ़िल्में प्रामाणिकता की तलाश में नित नए प्रयोग करती रहीं वैसे ही इस वृत्तचित्र के निर्देशक ने कथातत्व की तलाश में अपनी फ़िल्म से स्वयं को सदा अनुपस्थित रखा. निर्देशक जयदीप वर्मा इस प्रयोग को लेकर इतना सचेत थे कि फ़िल्म के चार किरदारों से चलती किसी आपसी बातचीत में आप कहीं उनका सवाली स्वर तक नहीं पकड़ पाते. इसके चलते यह वृत्तचित्र चार मुख्य किरदारों की ऐसी कथा-यात्रा बन जाता है जो अपने समकालीन किसी और फ़िक्शन से ज़्यादा रोचक और उतसुक्ता से भरा है. चार मुख्य किरदार जो यूँ अकेले खड़े हों तो बस इस महादेश की भीड़ का हिस्सा भर हैं, लेकिन जब मिल जाएं तो इस महादेश का सबसे सच्चा और प्रतिनिधि संगीत रचते हैं. नायकों की तलाश में निरंतर भटकते समाज को जयदीप कुछ सच्चे नायक देते हैं, और वो भी उस साल में जिसे हम सिनेमाई महानायक के अवसान का एक और अध्याय गिन रहे हैं.

एक और ख़ासियत है जो इन तमाम फ़िल्मों को एक सूत्र में बांधती है. न केवल यह फ़िल्में कहानी को अभिनेता से ऊपर रखती हैं, बल्कि इनके लिए परिवेश की प्रामाणिकता भी व्यावसायिक लाभ से कहीं आगे की चीज़ है. पिछले दो-ढाई दशक से, ठीक-ठीक जब से यह ’स्विट्ज़रलैंड’ नाम की बीमारी चोपड़ा साहब हिन्दी सिनेमा में लाए हैं, लगता है जैसे हिन्दी सिनेमा ’विदेशी लोकेशनों’ का गुलाम हो गया है. हमारे फ़िल्मकार बिना संदर्भ विदेश भागते दिखते हैं.

Udaan1फिर ऐसे ही दौर में ये फ़िल्में आती हैं. ’उड़ान’ का जमशेदपुर और शिमला किसी मज़बूत किरदार सरीख़ा है. ’पीपली लाइव’ का ’पीपली’ प्रियदर्शन की फ़िल्मों के गांवों की तरह वर्तमान संदर्भों से कटा गांव नहीं है. उसमें ’लालबहाद्दुर’ टाइप मृगतृष्णा सरकारी परियोजनाएं हैं तो ’सोंमेंटो’ टाइप विदेशी बीज बेचकर हिन्दुस्तानी किसान को आत्महत्या के लिए मज़बूर करती बहुराष्ट्रीय कम्पनियों के संदर्भ भी. ’दायें या बायें’ में आया प्रामाणिक बागेश्वर का पहाड़ी इलाका है जो शहर में रहते हर पहाड़ी को उसके ’रटी हुई सीढ़ियों में बंटे’ गांव की याद दिला जाता है. दिल्ली शहर में रहता मैं रोज़ सुबह अखबार खोलता हूँ और रोज़ अपने शहर को और ज़्यादा ’लव, सेक्स और धोखा’ में मौजूद शहर में बदलता पाता हूँ.

इन फ़िल्मों में आई परिवेश की प्रामाणिकता मुख्यधारा सिनेमा के लिए भी चुनौती है. तभी तो ’दबंग’ जैसी साल की सबसे बड़ी व्यावसायिक सफ़ल फ़िल्म भी कोशिश करती दिखती है कि इस प्रामाणिकता को किसी हद तक तो बचाया जाए. करण जौहर महानायक को लेकर ’माई नेम इज़ ख़ान’ बनाते हैं जो हैं तो अब भी विदेश में लेकिन फ़िल्म में कम से कम उनके इस ’होने’ के उचित संदर्भ मिलते हैं. एक हबीब फ़ैज़ल आते हैं जो पहले तो अद्भुत प्रामाणिकता से भरी ’दो दुनी चार’ बनाते हैं और फिर अपने ’खांटी दिल्लीवाला’ संवादों से यशराज की ’बैंड, बाजा, बारात’ में असलियत के रंग भरते हैं. बेशक यशराज अब भी वही पंजाबी शादी देख, दिखा रहा है. लेकिन सिनेमा में ये हाशिए की आवाज़ें अब उनका भी जीना मुहाल करने लगी हैं. इन फ़िल्मों की नज़र से देखें तो दिखता है, हमारा सिनेमा अपनी ’सिनेमाई’ छोड़ रहा है, असलियत की संगत पाने के लिए.

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‘कथादेश’ के जनवरी अंक में प्रकाशित

2010 : पांच किरदार

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  • विद्या बालन – इश्किया

जवान होती शीलाओं और बदनाम होती मुन्नियों के समय में हो सकता है कि आप विद्या बालन की ठीक-ठीक जगह न पहचान पाएं. लेकिन बीस-तीस साल बाद जब इतिहास के पन्नों में यह धुंध छंट चुकी होगी, उनका नाम उसी क्रम में होगा जहाँ ऊपर मधुबाला, वहीदा रहमान और नूतन का नाम लिखा है. हिन्दी सिनेमा की वर्तमान नायिका के लिए यह एक असल ’गैर-परंपरागत’ रोल था. और जैसा काम उन्होंने कर दिखाया है, सुंदरता/ मादकता/ यौवन/ आकर्षण के तमाम मापदंड उलट-पलट जाते हैं. इश्किया की ‘कृष्णा’ इंसान के भीतर बसे भगवान और शैतान दोनों को एक साथ जगा देती है.

  • रोनित रॉय – उड़ान

यह आकाशवाणी जयपुर है. अब आप सुनेंगे प्रायोजित कार्यक्रम ’युववाणी’. तक़रीबन पन्द्रह साल हुए उस बात को जब ’जान तेरे नाम’ का वो गाना दादा ने मेरी विशेष फ़रमाइश पर रेडियो पर सुनवाया था. और इसीलिए आज यहाँ ‘भैरव सिंह’ का नाम लिखते हुए मुझे बखूबी मालूम है कि रोनित रॉय के लिए यह कितना लम्बा फ़ासला है. हम जैसे नास्तिकों के लिए शायद यही ’पुनर्जन्म’ है. यह साल का सबसे उल्लेखनीय पुरुष किरदार है, और सबसे ज़्यादा कोसा गया भी.

  • रघुबीर यादव – पीपली लाइव

वजह वही जो दिबाकर की “ओये लक्की लक्की ओये” में ‘लक्की सिंह’ से ज़्यादा ‘बंगाली’ की तरफ़दारी करने की है. आपके पास कोई तय दिशा-निर्देश नहीं होता ऐसा किरदार निभाते वक़्त. यह करतब/कलाबाज़ी है. धार पर चलने बराबर. न आप उतने भोले हैं कि दुनिया के झमेले न समझें, न आप उतने चालाक/ताक़तवर हैं कि उन्हें धता बताते हुए बचकर निकल जाएं. आप ऐसे शिकार हैं जो अपने शिकारी की सूरत तो पहचानता है, लेकिन उससे बचने का कोई रास्ता उसके पास नहीं. और ‘बुधिया’ के किरदार में रघुबीर इस मुश्किल को ऐसे निकाल ले जाते हैं जैसे इसमें और बीड़ी सुलगाने में कोई अंतर ही न हो.

  • daayen-ya-baayenAदीपक डोबरियाल – दायें या बाएं

मक़बूल, ओमकारा, 1971, शौर्य, दिल्ली6, 13B, गुलाल.. दीपक डोबरियाल हमारे दौर के सबसे प्रामाणिक अभिनेता हैं. और ’रमेश मजीला’ की भूमिका निभाते हुए उनकी उलझनों में गज़ब की सच्चाई है. ’नायक’ होने की तमाम मान्य परिभाषाओं को झुठलाते दीपक इस छोटी मगर खूबसूरत फ़िल्म के सबसे बड़े सितारे हैं. सहेजने के किए झोली भर के चमत्कारी क्षण दे जाते हैं.

  • राजकुमार यादव – लव, सेक्स और धोखा

इनमें से चुनाव कठिन है. लेकिन श्रुति, राहुल या रश्मि होने के मुकाबले ’आदर्श’ होना मुझे ज़्यादा मुश्किल लगता है. इस किरदार के लिए रचा गया घटनाचक्र पूरी तरह नकारात्मक था. लेकिन इसे ’नकारात्मक’ नहीं होना था. इस किरदार को निभाना इसलिए मुश्किल था क्योंकि इसे व्यवस्था का ’शिकार’ दिखाना सबसे मुश्किल था. ज़रा सी चूक और ’आदर्श’ हिन्दी सिनेमा का आदर्श विलेन होता और हमारी नज़रों के सामने से वो आईना ओझल हो जाता जो उस किरदार ने हमें दिखाया. राज कुमार यादव साल के इस सबसे मुश्किल इम्तिहान में पूरे खरे उतरते हैं.