“वे उन दिनों को याद करते हैं जब उनके पास एक जोड़ा जींस खरीदने के पैसे भी नहीं होते थे और मज़ाक में वे घर आए मेहमानों से घर में घुसने का दाम लिया करते थे. रिज़वी बताती हैं कि दरअसल वो इस फ़िल्म के द्वारा कहीं पहुँचना नहीं चाहते थे, ये कोई ’कैरियर चॉइस’ नहीं थी – ये बस एक फ़िल्म थी जिसे हम बनाना चाहते थे. औए कुछ न होता तो हमने इसे वीडियो पर बनाया होता.” – अनुषा रिज़वी और महमूद फ़ारुक़ी. 24 जुलाई 2010 के ’तहलका’ में.
“अब मुझे एक कहानी की जरूरत थी, जिस पर मैं काम कर सकूं और जिसे शूट करने के लिए शायद कुछ पैसा जुटा सकूं. मैंने अपनी स्क्रिप्टों पर नजर दौड़ाने का काम शुरू किया. इनमें से ‘से चीज’ मुझे सबसे ठीक लगी. यह उस खांचे में फिट बैठती थी, जो मैंने सोचा था. यानी एक कैरेक्टर बेस्ड फिल्म, जिसका दायरा इतना हो कि उसे किसी की मदद के बगैर भी बनाया जा सके.“ – अक्षत वर्मा. 30 जुलाई 2011 के ’तहलका’ में.
लेकिन इन्हें आमिर ख़ान मिले. ’पीपली लाइव’ और ’डेल्ही बेली’ दोनों ही फ़िल्में एक-दूसरे से विषय और स्वभाव में नितांत भिन्न होते हुए भी इस मायने में समान हैं कि अपनी-अपनी तरह से यह हिन्दी सिनेमा के प्रचलित व्याकरण में कुछ नया जोड़ती हैं. संयोग से दोनों ही फ़िल्मों को आमिर ख़ान का साथ मिला और बहुत का मानना है कि इसी वजह से यह फ़िल्में लोकप्रियता के ऊँचे मुकाम तक पहुँच पाई हैं. बात में सच्चाई भी है. वैसे पिछले साल तक़रीबन इसी वक़्त हमने महमूद और अनुषा को ’पीपली लाइव’ बनाने के दौरान हुए अनुभवों को बांटते जनतंत्र / मोहल्ला की सेमीनार में सुना था और इस साल के उन्हीं दिनों अक्षत को ’डेल्ही बेली’ लिखने से लेकर बनाने तक के किस्से सुनाते मोहल्ला द्वारा आयोजित परिचर्चा में सुना. संयोग से मैं दोनों ही कार्यक्रमों का संचालक था और जिस दौरान हम ’इन्हें तो आमिर मिले’ कह-कहकर उनकी किस्मतों पर रश्क़ कर रहे थे, मैंने उन्हें यह कहते सुना कि अगर आमिर न मिले होते तो भी हम अपनी फ़िल्म बनाकर रहते.
बात मज़ेदार है. हम इसे बड़बोलापन कहकर टाल सकते हैं क्योंकि एक बार जब आपने आमिर के सहारे अपनी मर्ज़ी की फ़िल्म बना ली, फिर इस तरह के बयान देना आसान हो जाता है. लेकिन फिर, ऊपर लिखी बातों की सच्चाई मुझे कचोटती है. वो क्या बात है जिसने इन फ़िल्मकारों को यह विश्वास दिया है कि वे कह पाएं, “अगर आमिर न मिले होते तो भी हम अपनी फ़िल्म बना लेते.”? यहीं से मेरा सोचने का रुख़ पलटता है और मैं हिन्दी सिनेमा की उस अराजक लेकिन रोमांचकारी दुनिया में प्रवेश करता हूँ जहाँ आपकी फ़िल्म के पीछे पैसा लगाने को और खड़े होने को आमिर खान भले न हों, फिर भी कैसे न कैसे आप अपने हिस्से की फ़िल्म बना लेते हैं.
स्वागत है नई तकनीक के साथ बदलते नए सिनेमा की दुनिया में. मुख्यधारा सिनेमा की बड़बोली दुनिया से अलग, यह दुनिया अराजक ज़रूर दिखती है, थोड़ी मुश्किल भी. लेकिन अपना रास्ता तलाशकर फ़िल्में बनाना अब यहाँ लोग सीखने लगे हैं. श्रीनिवास सुंदरराजन की फ़िल्म ’दि अनटाइटल्ड कार्तिक कृष्णन प्रोजेक्ट’ (जिस पर हम पहले दिसंबर 2010 वाले आलेख में बात कर चुके हैं) को ही लें. मैं कार्तिक कृष्णन से दिल्ली में हुई एक मुलाकात में उन्हें किसी नए दोस्त को अपनी फ़िल्म के बारे में बताते हुए सुनता हूँ, “हमारी फ़िल्म, जिसे हमने कुल-जमा चालीस हज़ार रुपए में बनाया है.” कुछ यह हुआ है फ़िल्म बनाने की तकनीक में समय के साथ आए बदलाव से और कुछ इसका श्रेय हिन्दी सिनेमा में आई नई पीढ़ी को जाता है जिसे ज़्यादा इंतज़ार करना शायद पसंद नहीं. श्रीनिवास बताते हैं कि वे तो दरअसल ’ज़ीरो बजट’ फ़िल्म बनाना चाहते थे लेकिन ना ना करते भी चालीस हज़ार रुपए लग ही गए! हाँ, फ़िल्म बनाने के दौरान खाने के नाम पर पूरे दस्ते ने वड़ा पाव और कटिंग चाय पर गुज़ारा किया. फ़िल्म के तमाम कलाकार नौकरीपेशा थे इसलिए शूटिंग सिर्फ़ सप्ताहांत में ही हो पाती थी. कई बार पैसा खत्म हो जाने के कारण भी काम रोकना पड़ता था. इसीलिए जब श्रीनिवास से पूछा गया कि फ़िल्म की शूटिंग कितने दिनों में पूरी हुई तो उन्होंने बताया – सत्ताईस. लेकिन फिर साथ में जोड़ा कि शूटिंग के ये सत्ताईस दिन एक साल से ज़्यादा की लम्बी अवधि में फ़ैले हुए हैं.
बेशक तकनीक में आए बदलाव में इसकी चाबी छिपी है. हिन्दुस्तान में वृत्तचित्र निर्माण में बीते सालों में आया जन उभार इस बदलती तकनीक के समांतर चलता है. गोरखपुर से फ़िल्मोत्सवों की एक श्रंखला शुरु करने वाले हमारे दोस्त संजय जोशी जो खुद एक वृत्तचित्र फ़िल्मकार हैं, अपने एक लेख में इस तकनीकी परिवर्तन को समझाते हुए उससे बदलते वृत्तचित्र संसार का खाका खींचते हैं, “वीडियो तकनीक के आने से पहले फ़िल्म निर्माण का सारा काम सेल्यूलाइड पर होता था. सेल्यूलाइड यानि सिल्वर ब्रोमाइड की परत वाली प्लास्टिक की पट्टी को रोशनी से एक्सपोज़ करवाने पर छवि का अंकन नेगेटिव पर होता. फिर यह फ़िल्म लैब में धुलने (रासायनिक प्रक्रिया) के लिए जाती. यह समय लेने वाली और तमाम झंझटों से गुज़रने वाली प्रक्रिया थी. आज से पन्द्रह साल पहले तक 11 मिनट की शूटिंग के लिए फ़िल्म रोल और धुलाई का खर्चा ही आठ से दस हज़ार रुपए था. अब इसमें किराया भाड़ा भी शामिल करें तो खर्चा और बढ़ जाएगा. गौरतलब है कि यह अनुमान 16 मिलिमीटर के फ़ॉरमैट के लिए लगाया जा रहा है. सेल्यूलाइड के प्रचलित फ़ॉरमैट 35 मिमी में यह खर्चा दुगुने से थोड़ा ज़्यादा होगा. फिर शूटिंग यूनिट में कैमरापर्सन, कम से कम दो सहायक और साउंड रिकार्डिस्ट की ज़रूरत पड़ती और सारे सामान के लिए एक मंझोली गाड़ी और ड्राइवर.
इसके उलट वीडियो में आज की तारीख में आप 100 रु. में 40 मिनट की रिकार्डिंग कर सकते हैं. दोनों माध्यमों में एक बड़ा फ़र्क यह भी है कि जहाँ सेल्यूलाइड में आप सिर्फ़ एक बार छवियों को अंकित कर सकते हैं वहीं वीडियो के मैग्नेटिक टेप में आप अंकित हुई छवि को मिटाकर कई बार नई छवि अंकित कर सकते हैं. वीडियो की यूनिट सिर्फ़ एक व्यक्ति भी संचालित कर सकता है. 1990 के दशक के मध्य तक न सिर्फ़ वीडियो कैमरे सस्ते हुए, बल्कि कम्प्यूटर पर एडिटिंग करना भी आसान और सस्ता हो गया. वीडियो तकनीक ने बोलती छवियों की विकासयात्रा में एक क्रांतिकारी योगदान, प्रदर्शन के लिए सुविधाजनक और किफ़ायती प्रोजेक्टर को सुलभ करवाकर किया. संभवत: इन्हीं सारे तकनीकी बदलावों के कारण 1990 के बाद भारतीय डॉक्यूमेंट्री फ़िल्म जगत में लम्बी छलांग दिखाई देती है.”
संजय जोशी का यह उद्धरण यहाँ इसलिए भी समीचीन है क्योंकि इस बदलती तकनीक के सहारे ही उन्होंने उत्तर भारत के आधा दर्जन से ज़्यादा शहरों में ’प्रतिरोध का सिनेमा’ शीर्षक से होने वाले सालाना फ़िल्म समारोहों की एक श्रृंखला खड़ी कर दी है. 2006 मार्च में गोरखपुर से शुरु हुआ यह सफ़र अब लखनऊ, पटना, बलिया, नैनीताल, भिलाई जैसे विभिन्न शहरों में अपने पैर जमा चुका है. इसने अपने विकास के साथ विश्व सिनेमा और बेहतर डॉक्यूमेंट्री सिनेमा देखने की जो समझदारी अपने दर्शक वर्ग के बीच विकसित की है वह अद्वितीय है. तकनीक ने फ़िल्म निर्माण के साथ-साथ फ़िल्म को देखा जाना-दिखाया जाना भी सुलभ बनाया है. यह मुख्यधारा के उस एकछत्र एकाधिकार से बिल्कुल अलग है जहाँ तकनीक का इस्तेमाल सिनेमा के और ज़्यादा केन्द्रीकरण के लिए हो रहा है.
एक और उदाहरण देखें हमारे जयपुर के मित्रों का. गजेन्द्र शोत्रिय और रामकुमार सिंह ने अपने साथियों के साथ मिलकर एक राजस्थानी फ़िल्म बनाई है ’भोभर’. उनके लिए फ़िल्म बनाना खुद एक ऐसा अभ्यास था जिसकी कहानी फ़िल्म से कम मज़ेदार नहीं. खुद रामकुमार के गांव में फ़िल्म की शूटिंग हुई और मुम्बई फ़िल्म उद्योग से बिना कोई सीधी मदद के (फ़िल्म के कलाकार और तकनीशियन भी ज़्यादातर स्थानीय ही थे) उन्होंने सफ़लतापूर्वक फ़िल्म का निर्माण पूरा किया. उनके आलेख के इस हिस्से को देखकर समझें कि फ़िल्म बनाने का अनुभव आपकी सोच से कितना अलग हो सकता है, “फिल्म का सैट गांव में मेरा अपना घर था. उससे लगा खेत था. मम्मी-पापा को इतने मेहमानों की आवभगत को मौका मिला था लिहाजा चूल्हा कभी ठंडा नहीं रहा. रातभर चाय उबलती और दिन में गांव से मटके भरकर छाछ आ जाती. पूरी टीम ने मां से सीधा रिश्ता बनाया और जिसको जिस चीज की जरूरत होती किचन में घुसा पाया जाता. घर में हमारे परिवार के बाकी सब लोग भी टीम की जरूरतों को खास ध्यान रखने लगे और जब देखा कि चौबीसों घंटे सब लोग काम में जुटे हैं, तो गांव वालों ने भी आखिर मान ही लिया कि फिल्म बनाना आसान काम नहीं है.”
फ़िल्म बनाने के इस मॉडल की सफ़लता इस तथ्य में छिपी है कि गजेन्द्र और रामकुमार जल्दी ही अपनी अगली फ़िल्म पर काम शुरु करने जा रहे हैं. आज फ़िल्म बनाने की कोशिश अपने आप में उसे बनाने का सही रास्ता ढूंढने में छिपी है. तकनीकी क्रांति ने इसे थोड़ा सरल बनाया है तो उसे दिखाए जाने के गोरखधंधे को थोड़ा उलझाया भी है. लेकिन इस बियाबान में अब भी ऐसे अनेक उदाहरण हैं जिन्हें इस स्वतंत्र हिन्दुस्तानी सिनेमा के क्षेत्र में एक मॉडल की तरह गिना जा सकता है. अगली बार मेरा ऐसे कुछ और उदाहरणों पर बात करने का इरादा है. संयोग की बात है कि जिस ’वीडियोकारन’ फ़िल्म की चर्चा हमने दो महीना पहले की थी, उसके निर्देशक से जल्द ही मेरी मुलाकात होने वाली है. उनकी कहानी भी सुनेंगे. क्योंकि मुझे यकीन है कि जितनी दिलचस्प उनकी फ़िल्म है, उतनी ही दिलचस्प उसके बनने की कहानी होगी.
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साहित्यिक पत्रिका ’कथादेश’ के सितम्बर अंक में प्रकाशित