न्याय के बिना कोई बराबरी संभव नहीं है : अलीगढ़

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निर्देशक ‘हंसल मेहता’ की ‘अलीगढ़’ इस साल का सबसे गहरे पानी में डूबा मोती है. उनींदे से उत्तर भारतीय शहर के हृदय में बसे प्रतिष्ठित विश्वविद्यालय में मराठी पढ़ाने वाले विदुर प्रोफेसर के घर देर रात सनसनीखेज़ स्टिंग होता है. विश्वविद्यालय फौरन क़दम उठाता है. लेकिन स्टिंग करनेवालों की धरपकड़ के बजाए वो खुद प्रोफेसर को बरख़ास्त कर देता है. कारण, प्रोफेसर की समलैंगिक पहचान का उजागर होना.

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‘अलीगढ़’ हमें लड़ाई को अनिच्छुक, लेकिन अद्भुत जीवट वाले इस प्रोफेसर श्रीनिवासन रामचंद्र सिरस की अकेली लेकिन निहायत ही कोमल दुनिया के भीतर लेकर जाती है. साथ ही उस ‘सभ्य समाज’ का असल चेहरा भी हमारे सामने उजागर करती है, जिसे अपने से भिन्न कोई असहज करती पहचान बर्दाश्त तक नहीं. यह बहुमत नहीं, भीड़ है. आतताती भीड़. हत्यारी भीड़. कमाल की संवेदनशीलता के साथ बनाई गई ’अलीगढ़’ की चिंताअों का दायरा बड़ा है. यह फिल्म दरअसल हर उस अल्पसंख्यक पहचान के बारे में है, जिसकी रक्षा के वादे पर ही हमारा संविधान, हमारा लोकतंत्र आैर हमारा देश टिका है.

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मामी – एक

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कल शहर में कदम रखते ही पहले अॉटोवाले ने मीटर से चलने से इनकार किया. अौर अाज सुबह फिर टैक्सी वाले ने चलने से ही इनकार कर दिया. राखी-वरुण का कहना है कि हम दिल्लीवाले अपने साथ दिल्ली के अॉटो-टैक्सीवालों को भी उनके भले शहर में ले अाये हैं. इस बीच मैं मुम्बई में ‘अॉथेंटिक’ वड़ा पाव की तलाश में दो अौर तरह के पाव (दाबेली पाव, मंचूरियन पाव) खा चुका हूँ अौर तयशुदा रूप से अभी दो-तीन तरह के अौर खाने वाला हूँ.

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नर्तकियाँ और पृथ्वियाँ

और फिर हमने ’पीना’ देखी. जैसे उमंग को टखनों के बल उचककर छू दिया हो. धरती का सीना फाड़कर बाहर निकलने की बीजरूपी अकुलाहट. ज़िन्दगी की आतुरता. जैसे किसी ने सतरंगी नृत्यधनुष हमारी चकराई आँखों के सामने बिखेर दिया हो. उसी रात मैंने जागी आँखों से तकते यह लिखा,

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Wim Wenders, Germany, 2011.

pina image“रस भी अर्थ है, भाव भी अर्थ है, परन्तु ताण्डव ऐसा नाच है जिसमें रस भी नहीं, भाव भी नहीं. नाचनेवाले का कोई उद्देश्य नहीं, मतलब नहीं, ’अर्थ’ नहीं. केवल जड़ता के दुर्वार आकर्षण को छिन्न करके एकमात्र चैतन्य की अनुभूति का उल्लास!” – ’देवदारु’ से.

जब Pina Bausch के नर्तकों की टोली रंगमंच की तय चौहद्दी से बाहर निकल शीशे की बनी ख़ाली इमारतों, फुटपाथों, सार्वजनिक परिवहन, कॉफ़ी हाउस और औद्योगिक इकाइयों को अपनी काया के छंद की गिरफ़्त में ले लेती है, मुझे आचार्य हज़ारीप्रसाद द्विवेदी का निबंध ’देवदारु’ याद आता है. यह जीवन रस का नृत्य रूप है. आचार्य द्विवेदी के शब्दों में, यह नृत्य ’जड़ता के दुर्वार आकर्षण को छिन्न’ करता है. निरंतर एक मशीनी लय से बंधे इस समय में किताबों की याद, कविताओं की बात, कला का आग्रह.

कॉफ़ी हाउस की अनगिनत कुर्सियों के बीच अकेले खड़े दो प्रेमी एक-दूसरे को बांहों में भर लेते हैं. लेकिन व्यवस्था का आग्रह है कि उनका मिलन तय सांचों में हो. उनके प्रतिकार में छंद है, ताल है, लय है. यहाँ नृत्य जन्म लेता है. पीना बाउश के रचे नृत्यों में विचारों का विहंगम कोलाहल है. उनके रचना संसार में मनुष्य प्रकृति का विस्तार है. इसलिए उनके नृत्यों में यह दर्ज़ कर पाना बहुत मुश्किल है कि कहाँ स्त्री की सीमा ख़त्म होती है और कहाँ प्रकृति का असीमित वितान शुरु होता है.

वे नाचते हैं. नदियों में, पर्बतों पर, झरनों के साथ. वे नाचते हैं. शहर के बीचोंबीच. जैसे शहर के कोलाहल में राग तलाशते हैं. यह रंगमंच की चौहद्दी से बाहर निकल शहर के बीचोंबीच कला का आग्रह आज के इस एकायामी बाज़ार में खड़े होकर विचारों के बहुवचन की मांग है. विम वेंडर्स का वृत्तचित्र ’पीना’ सिनेमाई कविता है. किसी तरुण मन स्त्री की कविता. उग्र, उद्दाम, उमंगों से भरी.”

’पीना’ पहली बार हमें थ्री-डी में छिपी असल संभावनाओं और उसके सही रचनात्मक इस्तेमाल का रास्ता भी दिखाती है. बे-सिर-पैर की फ़िल्मों पर अंधाधुंध हो रहे इसके इस्तेमाल ने बीते दिनों में मुख्यधारा सिनेमा का वही हाल किया है जो आई.पी.एल. नामक असाध्य रोग ने मेरे प्रिय खेल क्रिकेट का किया. इसके उलट ’पीना’ ने थ्री-डी तकनीक के माध्यम से रंगमंच द्वारा सिनेमा की ओर सदा उठाए जाते उस आदिम सवाल का मुकम्मल जवाब दिया है. रंगमंच वाले सदा कहते आए कि हमारे पास तीसरा आयाम है, गहराई है, depth of field. जबकि सिनेमा का परदा सपाट है और चाहकर भी वो गहराई पाना उसके लिए संभव नहीं. यहीं सिनेमा पिछड़ जाता था. लेकिन अब विम वेंडर्स ने ’पीना’ में थ्री-डी तकनीक के माध्यम से वही रंगमंच की गहराई को सिनेमा के परदे पर जीवित कर दिया है. यह थ्री-डी के माध्यम से पैदा किया गया कोई ’गिमिक’ नहीं, बल्कि सिनेमा से छूटे हुए जीवन यथार्थ को फिर से पाने सरीखा है. यही थ्री-डी तकनीक के लिए भविष्य की राह भी है, अगर हमारी मुख्यधारा समझना चाहे.

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इस बीच एक मज़ेदार घटना हुई. पता हो कि अब कोरियन थ्रिलर में कल्ट का दर्जा पा चुकी 2008 की फ़िल्म ’द चेज़र’ के निर्देशक Hong-Jin-Na इस साल फ़ेस्टिवल जूरी में थे और उनके प्रेमी हमारे कई दोस्त उद्घाटन वाले दिन ही उनसे बात-मुलाकात कर चुके थे. इस बीच इस तथ्य को जानकर सबमें कोफ़्त का भाव भी था कि उनकी क्लासिक फ़िल्म की एक घटिया नकल ’मर्डर 2’ नाम से बनाने वाले हमारे मुकेश भट्ट साहब भी समारोह की एक समांतर जूरी में मौजूद थे.

उनकी नई फ़िल्म ’द येलो सी’ की स्क्रीनिंग वाले दिन उन्हें सीढ़ियों से उतरता देख हमारे दो मित्रों सुधीश कामत और मेरे ’नेमसेक’ मिहिर फड़नवीस ने एक पुण्य कार्य करने का मन बनाया. उन्होंने बड़ी इज़्ज़त से जाकर Hong-Jin-Na साहब से पहले पूछा कि क्या उन्हें अपनी फ़िल्म की हिन्दुस्तान में बनी भौंडी नकल ’मर्डर 2’ के बारे में खबर है. जैसी उम्मीद थी, निर्देशक साहब ने अनभिज्ञता जताई. जानकर सुधीश और मिहिर ने तुरंत यह महती कार्य किया कि सामने वाली डीवीडी शॉप से ’मर्डर 2’ की नई डीवीडी खरीदकर लाए और उसे निर्देशक साहब को गिफ़्ट कर दिया. आखिर हमारे ’बॉलीवुड’ के यह अजब कारनामे दुनिया भी तो जाने. इस पुण्य कार्य के बाद मुख्यधारा फॉर्म्यूला हिन्दी सिनेमा की ख्याति सात समन्दर पार फ़ैलाने में उनका योगदान सुनहरे अक्षरों में दर्ज किया जाएगा!

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Another Earth
Mike Cahill, USA, 2011.

another earthअमेरिका से आई स्वतंत्र फ़िल्मों की परम्परा में एक और नया नाम ’अनॉदर अर्थ’ बीते सालों में आई ’प्राइमर’, ’मून’, ’द डार्क नाइट’ और मेरी पसन्दीदा ’डिस्ट्रिक्ट नाइन’ जैसी फ़िल्मों की परम्परा को आगे बढ़ाती फ़िल्म है. दूसरी पीढ़ी की ये साइंस फ़िक्शन फ़िल्में अन्य मुख्यधारा sci-fi फ़िल्मों की तरह तकनीकी चमत्कार पर कम, दार्शनिकता की ओर जाते अनन्तिम सवालों की खोज पर ज़्यादा केन्द्रित होती हैं. कहने को साइंस फ़िक्शन, लेकिन किसी हार्डकोर ड्रामा की तरह कहानी कहना. ठीक इसी वक़्त दूसरी स्क्रीन पर लार्स वॉन ट्रायर की ’मैलेंकॉलिया’ दिखाई जा रही थी जो इसी परम्परा की एक ज़्यादा जटिल और थोड़ी ज़्यादा दार्शनिक फ़िल्म है.  कहना न होगा कि यह मेरा लगातार आती इन फ़िल्मों के साथ पसन्दीदा जॉनर बनता जा रहा है. ’अनॉदर अर्थ’ में भी स्पेशल इफ़ेक्ट के नाम पर बस आकाश में सदा टंगी दिखाई देती एक और हूबहू पृथ्वी है, अनॉदर अर्थ.

एक और खूबसूरत कथा आधारित साइंस फ़िक्शन फ़िल्म ’द मैन फ्रॉम अर्थ’ की तरह ’अनॉदर अर्थ’ भी अनेक विस्मयकारी किस्से अपने भीतर समेटे है और वही किस्से इस फ़िल्म के सबसे खूबसूरत हिस्से हैं. जैसे उस पहले रूसी अंतरिक्षयात्री का किस्सा कौन भूल सकता है जिसे व्योम में निरंतर होती ’ठक-ठक’ ने पागल कर दिया था. अपनी ही तरह की अन्य फ़िल्मों की तरह ’अनॉदर अर्थ’ भी उसी पल बड़ी फ़िल्म बनती है जहाँ इसकी फंतासी यथार्थ के लिए रचे गए एक प्रतीक में बदल जाती है. एक झटके में अचानक समझ आता है कि कोई दूसरी हूबहू पृथ्वी नहीं, यह अपना ही अक्स है जिसे पहचानना लगातार असंभव हुआ जाता है.

“इस बात की कल्पना करना भी मुश्किल है कि ’मैं वहाँ हूँ’. क्या मैं वहाँ जाकर उस ’मैं’ से मिल सकता हूँ. और क्या वो ’मैं’, इस मैं से बेहतर होगा. क्या मैं उस दूसरे ’मैं’ से सीख सकता हूँ. क्या उस दूसरे ’मैं’ ने भी वही गलतियाँ की होंगी जो मैंने की हैं. क्या मैं उस दूसरे ’मैं’ के साथ बैठकर तसल्ली से बातें कर सकता हूँ? क्या यह मज़ेदार होगा? वैसे एक और सच्चाई यह है कि हम यह रोज़ करते हैं. लोग बस इसे समझते नहीं या स्वीकार नहीं करना चाहते. सच यह है कि लोग रोज़-ब-रोज़ खुद से बातें करते हैं. “देखो वो क्या कर रहा है”, “उसने ऐसा क्यों किया”, “वो मेरे बारे में क्या सोचती है”, “क्या मैंने सही कहा” जैसे सवाल. इस मामले में बस एक और ’मैं’ आपके पीछे है.”

और किसी भी अच्छी विज्ञान फंतासी की तरह यह फ़िल्म भी अपने अंत को सकारात्मक और नकारात्मक दोनों तरह की व्याख्याओं के लिए खुला छोड़ती है.

समारोह अपने अंत की ओर बढ़ रहा था और हमने तमाम विदेशी फ़िल्मों की छटाओं के बीच बुद्धवार दो पुरानी हिन्दुस्तानी फ़िल्मों को देना तय किया. सुधीर मिश्रा की पहली फ़िल्म ’ये वो मंज़िल तो नहीं’ और शाजी करुण की ’पिरावी’ दो ऐसी कलाकृतियाँ हैं जिनको असली 35mm प्रिंट पर सिनेमा हाल के अंधेरे में देख पाना दुर्लभ ही कहा जाएगा. अनुराग कश्यप ने अगले ही दिन रात के खाने पर बताया था कि उनके मुताबिक ’ये वो मंज़िल तो नहीं’ आज भी सुधीर मिश्रा की सबसे ईमानदार फ़िल्म है. कथा संरचना के स्तर पर यही वो फ़िल्म है जिससे आगे चलकर ’रंग दे बसन्ती’ और ’लव आजकल’ जैसी फ़िल्मों ने प्रेरणा पाई. अस्सी के दशक का मोहभंग जिसे हम ’जाने भी दो यारों’ से लेकर ’न्यू डेल्ही टाइम्स’ तक उस दौर की तमाम फ़िल्मों में देखते हैं, वही सुधीर की इस पदार्पण फ़िल्म का मूल स्वर है. दिल किसी दिन इस फ़िल्म और साथ उस पूरे दौर पर लम्बी चर्चा करने का होता है, करूँगा किसी अगले अंक में. हाँ, ’पिरावी’ देखते हुए रह रहकर गोविन्द निहलाणी की महाश्वेता देवी के उपन्यास पर बनी फ़िल्म ’हज़ार चौरासी की माँ’ याद आती रही. वहाँ माँ थीं, यहाँ पिता हैं. एक जवान पीढ़ी है जिसका अस्तित्व सत्ता मिटा देती है और रह जाती है कुछ बूढ़ी आँखें, इंतज़ार करती हुईं.

Once Upon a Time In Antolia
Nuri Bilge Ceylan, Turkey, 2011.

समारोह समाप्ति पर था और हम फिर एक लम्बी लाइन में थे. यह लाइन थी ’थ्री मंकीज़’ के निर्देशक की नई फ़िल्म देखने के लिए जिसने इस साल कान फ़िल्म समारोह का प्रतिष्ठित ’ग्रैंड-प्रिक्स’ सम्मान हासिल किया है. और अगर आपको केयलान का सिनेमा पसन्द है तो फिर यह फ़िल्म आपके ही लिए है. लम्बे पसरे बियाबान में एक अपराधी जोड़े को लेकर घूमती पुलिस और सरकारी अधिकारियों की एक टोली के साथ जैसे आप भी सशरीर एंटोलिया पहुँचा दिए जाते हैं. केयलान की फ़िल्मों का सबसे बड़ा कारक है उनका माहौल. यह माहौल की सही स्थापना और फिर उनमें कुछ चुने हुए किरदारों के साथ कुछ दुर्लभ से दिखते क्षणों की पहचान के सहारे ही अपनी कथा कहती हैं. किरदारों की कथाएं आपस में टकराती हैं. आत्म-स्वीकार हैं और आत्म साक्षात्कार भी हैं. जैसा हमारे दोस्त और केयलान की फ़िल्मों के अनन्य प्रशंसक नीरज घायवन ने कहा, ’वन्स अपॉन ए टाइम इन एंटोलिया’ सिनेमाई संचरण है. एक ऐसा अनुभव जिसे बोलकर नहीं बताया जा सकता, सिर्फ़ स्वयं अनुभव किया जा सकता है. या जैसा मेरे पिता मुहावरे में कहते हैं, “आप मरे से ही स्वर्ग दीखता है.”

वैसे क्या यह किसी भी अच्छे सिनेमा की पहली पहचान नहीं कि उसे पूर्णत: पाने के लिए खुद ही ’मरना’ पड़ता है!

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साहित्यिक पत्रिका ’कथादेश’ के जनवरी अंक में प्रकाशित

एक बुढ़ाता सेल्समैन और हक़ मांगती सत्रह लड़कियाँ

फ़िल्म महोत्सवों में सदा विचारणीय आदिम प्रश्न यह है कि आखिर पांच समांतर परदों पर रोज़ दिन में पांच की रफ़्तार से चलती दो सौ से ज़्यादा फ़िल्मों में ’कौनसी फ़िल्म देखनी है’ यह तय करने का फ़ॉर्म्यूला आख़िर क्या हो? अनदेखी फ़िल्मों के बारे में देखने और चुनाव करने से पहले अधिक जानकारी जुटाना एक समझदारी भरा उपाय लगता है लेकिन व्यावहारिकता में देखो तो इसमें काफ़ी पेंच हैं. जैसे आमतौर पर अमेरिकी और यूरोपीय मुख्यधारा से इतर सिनेमा के बारे में जानकारियाँ हम तक पहली दुनिया के चश्मे से छनकर आती हैं. इन जानकारियों पर अति-निर्भरता नज़रिया सीमित कर सकती है. फ़ेस्टिवल कैटेलॉग पर भी ज़्यादा भरोसा नहीं किया जा सकता, कई बार तो यही दस्तावेज़ सबसे भ्रामक साबित होता है. इन्हें तैयार करने वाले बहुधा ऐसे प्रशिक्षु सिनेमा विद्यार्थी होते हैं जिन्होंने खुद भी इनमें से कम ही फ़िल्में देखी हैं.

बड़े नामों या निर्देशकों के पीछे अपना पैसा लगाने वाले हमेशा उस खूबसूरत सिनेमा अनुभव को खो बैठते हैं जिसकी सुंदरता अभी वृहत्तर सिने-समाज द्वारा रेखांकित की जानी बाक़ी है. और फिर प्रतिष्ठित सिनेमा महोत्सव में, जहाँ सिनेमा का स्तर इस क़दर ऊँचा हो कि हर देखी फ़िल्म के साथ समांतर चलती और हाथ से छूटने वाली फ़िल्मों के लिए अफ़सोस गहराता ही चला जाए, किसी फ़िल्म का ’प्लॉट’ भर जान लेना आख़िर कहाँ पहुँचाएगा?

सबसे ऊपर और सबसे महत्वपूर्ण यह कि एक अनजाने से देश से आई किसी नई फ़िल्म को देखने से जुड़ा वो अनछुआ अहसास इन तमाम जानकारियों की भीड़ में कुचल जाता है. हमारे नज़रिए का कोरापन पहले ही नष्ट हो चुका होता है और सिनेमा अपना इत्र खो देता है. सूचना विस्फोट के इस अराजक समय में बिना किसी पूर्व निर्मित कठोर छवि के एक नई, कोरी फ़िल्म को देखने का विकल्प तो जैसे हमसे छीन ही लिया गया है.

हमारे दोस्त वरुण ग्रोवर इस मान्य विचार को चुनौती देने का प्रण करते हैं. वो अपनी बनते किसी फ़िल्म के बारे में कोई पूर्व जानकारी हासिल नहीं करते और उनके synopsis तो भूलकर भी नहीं पढ़ते. कुछ भरोसेमंद दोस्तों की सलाह पर हम किसी अनदेखी फ़िल्म के लिए थिएटर में घुस जाते हैं. और तभी हाल में अंधेरा होने से ठीक पहले परदे के सामने एक कमउमर लड़का आता है और पहले अपने सिनेमा अध्ययन करवाने वाले संस्थान का नाम ऊंचे स्वर में बताकर बतौर परिचय फ़िल्म की कहानी सुनाने लगता है. मैं वरुण की ओर देखता हूँ. वरुण अपने कानों में उंगलियाँ दिए बैठे हैं और माइक पर आती उसकी बुलन्द आवाज़ को अनसुना करने की भरसक, लेकिन असफ़ल कोशिश कर रहे हैं. मेरे सामने फिर एक बार यह साबित होता है कि इस सूचना विस्फोट के युग में जहाँ अनचाही सूचना का अथाह समन्दर सामने हिलोरें मारता है, हमारे भविष्यों में सिर्फ़ डूबना ही बदा है.

The_Turin_HorseThe Turin Horse
Bela Tarr, Hungary, 2011.

भागते हुए सिनेमा हाल के गलियारों में पहुँचे और हम सीधे धकेल दिए जाते हैं बेला टार के विज़ुअल मास्टरपीस ’द तुरिन हॉर्स’ के सामने. सिर्फ़ विज़ुअल, क्योंकि परदे पर आवाज़ तो है लेकिन सबटाइटल्स गायब हैं. लेकिन बिना शब्दों का ठीक-ठीक अर्थ जाने भी यह अनुभव विस्मयकारी है. एक तक़रीबन घटना विरल कथा में परदा श्वेत-श्याम दृश्य गढ़ रहा है. मैं देखने लगता हूँ. अन्दर तक भर जाता हूँ, साँस फूलने लगती है, लेकिन दृश्य में ’कट’ नहीं होता. धीरे-धीरे इन फ्रेम दर फ्रेम चलते अनन्त के साधक, सघन दृश्यों के ज़रिए वह सारा वातावरण और उसकी सारी ऊब, थकान मेरे भीतर भरती जाती है. मैंने अपने सम्पूर्ण जीवन में सिनेमा के उस विशाल परदे पर ऐसा विस्मयकारी कुछ होता कम ही देखा है.

लेकिन ठीक वहीं, हमें अभिभूत अवस्था में छोड़ फ़िल्म दोबारा न शुरु होने के लिए रोक दी जाती है. वादा किया जाता है रात का, लेकिन रात आती है उसी फ़िल्म के किसी घटिया डीवीडी प्रिंट के साथ. मैं पहले पन्द्रह मिनट की फ़िल्म देखकर उठ जाता हूँ. वह सुबह का उजला अनुभव अब भी मेरे पास है, मैं उसे यूं मैला नहीं होने दे सकता.

The Salesman
Sebastien Pilote, Canada, 2011.

यह हमारे वक़्तों का सिनेमा है. एक कस्बा है और उसके केन्द्र में उसकी तमाम अर्थव्यवस्था का सूत्र संचालक एक संयंत्र है. एक संयंत्र जो मंदी की ताज़ा मार में घायल है और अपनी अंतिम सांसे गिन रहा है. यह उस संयंत्र की तालेबन्दी के बाद के कुछ निरुद्देश्य असंगत दिनों की कथा है. लेकिन यहाँ एक पेंच है. यहाँ कथा जिस व्यक्ति के द्वारा कही जाती है वह एक बुढ़ाता कार सेल्समैन है जिन्हें बीते खुशहाल सालों में अपने काम में सर्वश्रेष्ठ होने के कई तमगे मिले हैं. लेकिन आज कस्बे में मरघट सा सन्नाटा है और संयंत्र बंद होने के बाद अब उससे जुड़ी तमाम उम्मीदें भी धीरे-धीरे कर दम तोड़ रही हैं. संकट यह है कि सेल्समैन को आज भी अपना काम करना है. सच-झूठ कैसे भी हो, उस शोरूम में खड़ी नई-नवेली कार का सौदा पटाना है.

मुझे सीन पेन की क्लासिक फ़िल्म ’दि असैसिनेशन ऑफ़ रिचर्ड निक्सन’ याद आती है. यह एक ऐसी पूंजीवादी व्यवस्था के बारे में बयान है जिसमें इंसान का दोगलापन उसका तमगा और उसकी ईमानदारी उसके करियर के लिए बाधा समान है. यहाँ इंसान को आगे बढ़ने के लिए पहले अपने भीतर की इंसानियत को मारना पड़ता है. व्यवस्था बदली नहीं है, बस हुआ यह है कि इस वैश्विक महामंदी ने इस व्यवस्था के दोगले मुखौटे को उतार दिया है. अगर आप सुनने की चाहत रखते हों तो इस फ़िल्म के मंदीमय बर्फ़ीले सन्नाटे में भविष्य में होनेवाले ’ऑक्यूपाई वॉल स्ट्रीट’ की आहटें सुन सकते हैं.

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Markus Schleinzer, Austria, 2011.

पहले ही बता दिया गया था कि यह फ़िल्म इस समारोह की बहुप्रतिक्षित ’डार्क हॉर्स’ है. निर्देशक मार्कस तोप जर्मन निर्देशक माइकल हेनेके के लम्बे समय तक कास्टिंग डाइरेक्टर रहे हैं और ’दि व्हाइट रिबन’ के लिए तमाम बच्चों की चमत्कारिक लगती कास्टिंग उन्हीं का करिश्मा थी. ’माइकल’ का प्लॉट विध्वंसक है. यह फ़िल्म घर के तहखाने में कैद किए एक बच्चे और उसके यौन शोषक नियंता की दैनंदिन जीवनी को किसी रिसर्च जर्नल की तरह निरपेक्ष भाव से दर्ज करती अंत तक चली जाती है.

’माइकल’ का चमत्कार उसकी निर्लिप्त भाव कहन में है. फ़िल्म कहीं भी निर्णय नहीं देती. कहीं भी फ़ैसला सुनाने की मुद्रा में नहीं आती और यथार्थ को इस हद तक निचोड़ देती है कि परिस्थिति का ठंडापन भीतर भर जाता है. असहज करती है, लेकिन किसी ग्राफ़िकल दृश्य से नहीं, बल्कि अपने कथानक के ठंडेपन से. घुटन महसूस करता हूँ, मेरा अचानक बीच में खड़े होकर चिल्लाने का मन करता है. कहीं यह हेनेके की शैली का ही विस्तार है. ’माइकल’ एक सामान्य आदमी है. नौकरीपेशा, छुट्टियों में दोस्तों के साथ हिल-स्टेशन घूमने का शौकीन, त्योंहार मनाने वाला. दरअसल उसका ’सामान्य’ होना ही सबसे बड़ा झटका है, क्योंकि हम ऐसे अपराधियों की कल्पना किसी विक्षिप्त मनुष्य के रूप में करने के आदी हो गए हैं. निर्देशक मार्कस उसे यह सामान्य चेहरा देकर जैसे हमारे बीच खड़ा कर देते हैं. सच है, यह यथार्थ है. और यह भयभीत करता है.

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J S Clarkson, UK, 2011.

ब्रिटिश फ़िल्म ’टोस्ट’ की शुरुआत मुझे रादुँगा प्रकाशन, मास्को से आई हमारे घर के बच्चों की खानदानी किताब ’पापा जब बच्चे थे’ की किसी कहानी की याद दिलाती है. लेकिन अंत में नीति कथा बन जाती उन स्वभाव से उद्दंड रूसी बाल-कथाओं से उलट ’टोस्ट’ सदा उस बच्चे के नज़रिए से कही गई कथा ही बनी रहती है. इसे देखते हुए लगातार विक्रमादित्य मोटवाने की ’उड़ान’ याद आती है और मैंने इसे कुछ सोचकर ’फ़ीलगुड’ उड़ान का नाम दिया. कहानी में कायदा सिखाने वाले, बाहर से सख़्त, भीतर से नर्म पिता हैं. ममता की प्रतिमूर्ति साए सी माँ हैं, और हमारा कथानायक आठ-दस साल का नाइज़ेल है. और सबसे महत्वपूर्ण यह कि रोज़ नाइज़ेल के सामने घर का डब्बाबंद खाना है जिसे अधूरा छोड़ वह असली, लजीज़ पकवानों के ख्वाब देखा करता है.

आगे कहानी में माँ की मौत से लेकर सौतेली माँ तक के तमाम ट्विस्ट हैं. स्त्रियों का वही परम्परा से चला आया स्टीरियोटाइप चित्रण है जो खड़ूस सौतेली माँ की भूमिका में हेलेना कार्टर की अद्भुत अदाकारी की वजह से और उभरकर सामने आता है. ’टोस्ट’ कथा धारा के परम्परागत ढांचे को तोड़ती नहीं है. लेकिन उसे एक मुकम्मल कथा की तरह ज़रूर कहती है. हाँ, बचपन में नाइज़ेल के उस दोस्त का किरदार कमाल का है जो उसे हमेशा ज्ञान देता रहता है. सच कहूँ, यह भी एक स्टीरियोटाइप ही है लेकिन ऐसा जिसका सच्चाई से सीधा वास्ता है. मुझे अपने बचपन का साथी दीपू याद आता है जो मुझसे एक साल सीनियर हुआ करता था और मुझे हर आनेवाली क्लास के साथ अगली क्लास की अभेद्य चुनौतियों के बारे में बताया करता था. यहाँ भी उसका दोस्त वक़्त-बेवक़्त ’नॉर्मल फ़ैमिलीज़ आर टोटली ओवररेटेड’ जैसे वेद-वाक्य सुनाता चलता है. कथा का अंत फिर इसे ’उड़ान’ से कहीं गहरे जोड़ता जाता है.

ides-of-march-movieThe Ides of March
George Clooney, USA, 2011.

यह वो महत्वाकांक्षी हॉलीवुड थ्रिलर है जिसके लिए स्क्रीन के बाहर लम्बी लाइनें लगीं और संभवत: जिस फ़िल्म की गूंज आप आनेवाले ऑस्कर पुरस्कारों में सुनेंगे. सत्ता है, हत्या है, महत्वाकांक्षाएं हैं, फ़रेब है, ऊपर दिखती खूबसूरती है, बदनुमा अतीत है. लेकिन जॉर्ज क्लूनी निर्देशित ’द आइड्स ऑफ़ मार्च’ की जान फ़िल्म के नायक रेयान गॉसलिंग हैं. पता हो, यह लड़का पिछले साल ’ब्लू वेलेंटाइन’ जैसी घातक रूप से अच्छी फ़िल्म दे चुका है. जॉर्ज क्लूनी और मेरे पसन्दीदा फ़िलिप सिमोर हॉफ़मैन जैसे खेले-खाए अदाकारों के सामने इस तीस साल के लड़के की धमक सुनने लायक है. अमेरिकी राष्ट्रपति चुनावों से ठीक पहले डेमोक्रेटिक उम्मीदवार के चुनाव के लिए मतदान के दौरान की इस कथा में हमारे समय के हालिया वर्तमान से निकले अनेक स्वर सुनाई देते हैं. किसी पर्फ़ेक्ट राजनैतिक थ्रिलर की तरह कथा आपको बांधे रखती है और जहाँ होना चाहिए वहाँ मोहभंग भी होता है, लेकिन परेशानी यही है कि फ़िल्म जहाँ बनती है ठीक वहीं ख़त्म हो जाती है.

इस बीच दोस्तों की चर्चाओं में लौट-लौटकर ’माइकल’ आती रही. एक दोस्त ने कहा कि वह अपराधी का मानवीकरण है. मुझे याद आया कि ’सत्या’ के बाद उसे भी स्थापित करते हुए आलोचकों ने यही कहा था कि यहाँ पहली बार एक ’डॉन’ का मानवीकरण होता है, उसके भी बीवी-बच्चे हैं. वो दोस्त की शादी की बरात में नाचता है. वो भी चाहता है कि उसकी बच्ची स्कूल में अंग्रेज़ी पोएम सीखे. तो क्या ’माइकल’ भी ’सत्या’ की तरह अपराधी का मानवीकरण करती है? यह भी एक नज़रिया है जिससे मैं असहमत हूँ. उसकी निर्पेक्षता मेरे भीतर और ज़्यादा सिहरन भर देती है. यह अहसास कि एक भयानक अपराधी भी कितने ही मामलों में ठीक हमारे जैसा है, उसके और हमारे बीच की दूरी एकदम कम कर देता है. और सच्चाई यह है कि इस दूरी के मिटने से ज़्यादा डरावना किसी भी ’सभ्य समाज’ के नागरिक के लिए कुछ और नहीं हो सकता.

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Errol Morris, USA, 2010.

यह संयोग ही था कि हम एरॉल मोरिस की डॉक्यूमेंट्री फ़िल्म ’टैबलॉयड’ देखने घुसे. और यह फ़िल्म तुरंत इस साल देखे गए कुछ दुर्लभ वृत्तचित्रों की लम्बी होती लिस्ट में शामिल हो गई. बहुत की रोचक अंदाज़ और आर्ट डिज़ाइन के साथ बनाई गई इस फ़िल्म की असल तारीफ़ इस बात में छिपी है कि निर्देशक ने कैसे मामूली से दिखते एक ’अखबारी कांड’ में इस गैर-मामूली फ़िल्म को देखा और बनाया. कैसे किसी की व्यक्तिगत ज़िन्दगी को मौका आने पर पीत-पत्रकारिता सरेराह उछालती है और खुद ही न्यायाधीश बन फ़ैसले करती है. और ब्रिटेन के टैबलॉयड जर्नलिज़्म को समझने के लिए यह फ़िल्म दस्तावेज़ सरीख़ी है. इसके तीस साल पुराने घटनाचक्र में आप आज बन्द हुए ’न्यूज़ ऑफ़ द वर्ल्ड’ की तमाम कारिस्तानियाँ सुन सकते हैं.

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Muriel Coulin and Delphine Coulin, France, 2011.

ये कुछ ऐसा था जैसे सत्रह लड़कियाँ आकर हमारे समाज से अपना शरीर, उस पर उनका अपना हक़ हमसे वापस मांगे. दोनों निर्देशक बहनों ने फ़िल्म से पहले आकर बताया था कि यह घटना भले ही कहीं और घटी और उन्होंने इसका ज़िक्र उड़ता हुआ अखबार के किसी पिछले पन्ने पर पढ़ा था, लेकिन कहानियाँ वे अपने घर, अपने कस्बे की ही सुनाती हैं. कैसे खुद उनके लड़कपन उन सीखों से भरे हुए थे जो लड़कियों को हमारे इन ’सभ्य’ समाजों में विरासत में मिलती हैं और कैसे वे नया जानने की, कुछ कर गुज़रने की बेचैनी से भरी थीं.

17_fillesAमेरी राय में ’17 गर्ल्स’ के कथाकेन्द्र में मौजूद ’गर्भधारण’ सिर्फ़ एक कथायुक्ति भर है. इसकी जगह कोई और युक्ति भी होती, अगर इतनी ही कारगर तो भी यह कथा संभव थी. क्योंकि यह मातृत्व के बारे में नहीं है. न ही यह सेक्स लिबरेशन जैसे किसी विचार के बारे में है. दरअसल यह कथा सामूहिकता के बारे में है. उस युवता के बारे में है जो जब साथ होती है तो दुनिया बदलने की बातों वाले किस्से अच्छे लगते हैं, सच्चे लगते हैं. आकाश के सितारे कुछ और पास लगते हैं. हमउमर साथ खड़े होते हैं, बाहें फ़ैलाते हैं और एक दूसरे को अपनी बाहों में समेट लेते हैं. बस, फिर किसी और पीढ़ी की, उनकी सीखों की, उनकी समझदारियों की ज़रूरत नहीं रहती. अजीब लगेगा, लेकिन इस फ़िल्म को देखते हुए मुझे भगतसिंह और उनके साथी याद आते हैं. उनकी तरुणाई और उनके अदम्य स्वप्न याद आते हैं. आज यह ’व्यक्तिगत ही राजनैतिक’ है वाला ज़माना है और इन लड़कियों की आँखों में भी मुझे वही सुनहले सपने दिखाई देते हैं.

दर्जन से ज़्यादा किशोरवय लड़कियों का सामुहिक गर्भधारण का यह फ़ैसला उनके घरवालों को, स्कूल को हिला देता है. उनके लिए इसे समझ पाना मुश्किल है. वाजिब है, उन्हें ’नैतिकता’ खतरे में दिखाई देती है. लेकिन उन लड़कियों के लिए यह मृत्यु ज्यों शान्ति से भरे उस कस्बे के ठंडे पानी में एक पत्थर मारने सरीख़ा है. यह उन तमाम परम्पराओं का अस्वीकार है जिन्हें हमारे स्कूलों में बड़े होते नागरिकों पर एक अलिखित ’नैतिक शिक्षा’ के नाम पर थोपा जाता है. एक पिता के झिड़ककर कहने पर कि “तुम्हें क्या लगता है तुम दुनिया बदल सकती हो?” उसकी बेटी जवाब में कहती है, “कम से कम हम कोशिश तो कर ही सकती हैं.”

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साहित्यिक पत्रिका ’कथादेश’ के दिसम्बर अंक में प्रकाशित

द आर्टिस्ट : ज़िन्दगी का गीत

The Artist movie posterकई दफ़े फ़िल्म के सिर्फ़ किसी एक दृश्य में इतना चमत्कार भरा होता है कि वो सम्पूर्ण फ़िल्म से बड़ा हो जाए. तक़रीबन दो घंटे लम्बी निर्देशक Michel Hazanavicius की फ्रांसीसी फ़िल्म ’द आर्टिस्ट’ जिसकी कहानी सन 1927 से शुरु होती है, में ध्वनियां और संवाद नहीं हैं ठीक उन्नीस सौ बीस के दशक की किसी फ़िल्म की तरह. प्रामाणिकता का आग्रह ऐसा कि फ़िल्म उन्हीं संवादपट्टों द्वारा बात करती है जिन्हें आप चार्ली चैप्लिन की फ़िल्मों में देखते थे. वो सिर्फ़ एक वाकया है जहां फ़िल्म में ध्वनि आपको सुनाई देती है, और मैं वादा करता हूँ कि वो क्षण आपको सालों याद रहने वाला है. किसी कविता की हद को छूता यह प्रसंग एक ख़त्म होते हुए दौर को आपके नंगा कर रख देता है और अचानक यह समझ आता है कि उस बीते कल की तमाम खूबियां, खूबसूरती और मासूमियत उस दौर के साथ ही चली गई हैं और अब कभी वापिस नहीं आयेंगी.

’द आर्टिस्ट’ का चमत्कार शायद उसकी कहानी में नहीं. यह मूक फ़िल्मों के दौर के एक ऐसे महानायक की कहानी है जिसे सवाक फ़िल्मों का नया दौर अचानक अप्रासंगिक बना देता है. साथ ही यह एक ऐसी प्रेम कहानी भी है जिसे सिनेमा में कई बार दोहराया गया है. लेकिन ’द आर्टिस्ट’ दरअसल हमें उस मासूमियत की याद दिलाती है जिसे हम मूक फ़िल्मों की तरह अपने विगत में कहीं भूल आए हैं. यह सिनेमा से प्रेम की कहानी है. ’सनसेट बुलिवार्ड’ का फ़ीलगुड वर्ज़न जिसे देखकर आपका मन चार्ली चैप्लिन की वो तमाम फ़िल्में फिर से देखने का करता है जिन्हें आपने ख़रीदने के बाद अपनी दराज़ के किसी निचले ख़ाने में धीरे से सरका दिया था.

और यह संयोग नहीं है कि ’द आर्टिस्ट’ देखते हुए चार्ली याद आते हैं. याद कीजिए उनकी आत्मकथा में आया ’सिटी लाइट्स’ वाला प्रसंग,

“किसी भी अच्छी मूक फ़िल्म में विश्वव्यापी अपील होती थी जो बुद्धिजीवी वर्ग और आम जनता को एक जैसे पसन्द आती थीं. अब ये सब खो जाने वाला था. लेकिन मैं इस बात पर अड़ा हुआ था कि मैं मूक फ़िल्में ही बनाता रहूंगा क्योंकि मेरा ये मानना था कि सभी तरह के मनोरंजन के लिए हमेशा गुंजाइश रहती है. इसके अलावा, मैं मूक अभिनेता, पेंटोमाइमिस्ट था और उस माध्यम में मैं विरल था और अगर इसे मेरी खुद की तारीफ़ न माना जाये तो मैं इस कला में सर्वश्रेष्ठ था. इसलिए मैंने एक और मूक फ़िल्म द सिटी लाइट्स के लिए काम करना शुरु कर दिया.”

लेकिन चार्ली चैप्लिन को ’सिटी लाइट्स’ बनाने के दौरान सवाक फ़िल्मों की कठिन चुनौती का सामना करना पड़ा. उनकी आत्मकथा में उस दौरान हुए कई मज़ेदार अनुभवों की चर्चा है. सवाक फ़िल्में उस दौर का चढ़ता हुआ सूरज थीं और चार्ली धारा के विपरीत तैरने की कोशिश कर रहे थे. फ़िल्म के पहले प्रिव्यू शो को याद करते हुए चार्ली उसके लिए ’भयानक’ जैसा शब्द काम में लेते हैं. वे लिखते भी हैं कि वजह फ़िल्म खराब होना नहीं बल्कि देखनेवालों का ओरियंटेशन बदल जाना है. अब वे सिनेमा के परदे पर ड्रामा देखने आते हैं और मूक कॉमेडी उन्हें असहज कर देती है.


’द आर्टिस्ट’ में ऐसी तमाम रेखाएं हैं जो लौटकर आती हैं और अपना घेरा पूरा करती हैं. फ़िल्म के बीच में कहीं अचानक आपको उसका पहला दृश्य याद आता है और आप उसमें छिपे उस अद्भुत प्रतीक को समझ मन ही मन खिलखिलाते हैं. मूक फ़िल्मों का नायक हमेशा सीढ़ियां उतरता हुआ दिखाई देता है और सवाक फ़िल्मों की सितारा नायिका हमेशा सीढ़ियां चढ़ती हुई. और साथ में मौजूद कुत्ता अपनी सिर्फ़ एक अदा से आपको सितारों के अभिनय की तमाम ऊँचाइयाँ भुला देता है. ’द आर्टिस्ट’ ज़िन्दगी से प्यार की कहानी है और यहां आकर सिनेमा और ज़िन्दगी में फर्क बहुत कम रह जाता है.

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साहित्यिक पत्रिका ‘कथादेश‘ के नवम्बर अंक में आया.

सभ्यता का मर्दवादी किला

she_monkeysशी मंकीज़

लीज़ा अस्चान, स्वीडन, 2011.

दो घुड़सवार लड़कियों की आपसी प्रतिद्वंद्विता और आकर्षण के इर्द-गिर्द घूमती इस स्वीडिश फ़िल्म की असल जान इसके द्वितीयक कथा सूत्र में छिपी है. सारा, जिसकी उमर अभी मुश्किल से सात या आठ होगी, यह फ़िल्म उस बच्ची की कुछ नितांत व्यक्तिगत और उतनी ही दुर्लभ दुश्चिंताओं को अपने भीतर समेटे है. छोटी सी बच्ची जिसे स्विमिंग पूल पर यह समझाया जा रहा है कि उसे अब पूरे कपड़े पहन पूल में उतरना चाहिए. गौर से देखिए, यही वो क्षण है जहां एक बच्ची को उसके स्त्री होने और उससे जुड़े ’कर्तव्यों’ का पहला पाठ पढ़ाया जा रहा है.

सबक बहुतेरे हैं. उसे मज़बूत होना है, दुनिया का सामना करना है. ठीक उस क्षण जब वह चीते से दिखने वाले अंत:वस्त्रों का जोड़ा पसन्द करती है और साथ में अपने चेहरे पर किसी चीते सी धारियां बना लेती है, ठीक उस क्षण हमारी सभ्यता का मर्दवादी किला भरभराकर ढह जाता है.

साहित्यिक पत्रिका ’कथादेश’ के नवम्बर अंक में प्रकाशित.

उमेश विनायक कुलकर्णी की ’देऊल’

deoolउमेश विनायक कुलकर्णी हमारे दौर के सबसे उम्मीदों से भरे निर्देशक का नाम है. मेरे लिए वह गिरीश कासरवल्ली की परम्परा में आते हैं जिन्होंने व्यंग्य को ठोस मूल्यों की धरती पर खड़े होकर परखा है और इस मायने में वे हमारे पारम्परिक रूप से बनने वाले क्षेत्रीय सिनेमा में हमेशा कुछ नया जोड़ते हैं. ख़ास बात है कि उनके रचे गांव हमारी हिन्दुस्तानी गांवो के बारे में बनी ’कृषि दर्शन’ और ’चौपाल’ वाली दूरदर्शन छाप इकहरी पहचान को तोड़ते हैं. नई बाज़ार आधारित संस्कृति का अगला ठिकाना अब हिन्दुस्तान के गांव और कस्बे हैं और इसी की कहानी है उमेश की नई फ़िल्म ’देऊल’.

’देऊल’ में वर्तमान विकास की अवधारणा पर बहस बार-बार लौटकर आती है और गांव – शहर विभेद के विभिन्न आयाम भी सामने खुलते चलते हैं. फ़िल्म के एक प्रसंग में एक किरदार भाऊ दूसरे किरदार कुलकर्णी अन्ना को कहता है कि शहर तो बदल गए, गांव ही क्यों वैसे रहें जैसे वो पहले थे. भाव कुछ ऐसा है कि हम भी ’बिगड़ना’ चाहते हैं और हमें यह हक़ है. आखिर किन्हीं और लोगों की उम्मीदों पर खरे उतरने के लिए अपनी पूरी ज़िन्दगी कष्ट में कोई नहीं बिताना चाहता. यह एक बड़ा सच है जिसे उमेश की फ़िल्म बड़ी लापरवाही से कहकर निकल जाती है. बेशक फ़िल्म विकास की वैकल्पिक अवधारणा के साथ खड़ी है जिसमें इंसान का लालच केन्द्र में न होकर प्रकृति केन्द्र में हो. लेकिन उमेश की ख़ासियत यही है कि वह स्याह सफ़ेद में बंटी कहानियां रचते हुए भी स्याह को अपनी बात कहने का पूरा मौका देते हैं.

’देऊल’ उनकी पहली फ़िल्म ’वेलू’ की तरह व्यंग्य को अपना आधार बनाती है. लेकिन यह ’विहिर’ की तरह भी है और इसने अनन्तिम सवालों की खोज करना छोड़ा नहीं है. फ़िल्म के टाइटल क्रेडिट्स जिस तरह की रचनात्मक शुरुआत फ़िल्म को देते हैं, हालिया सिनेमा में दुर्लभ है. ’विहिर’ के चाहनेवालों के लिए यह फ़िल्म कुछ ज़्यादा वाचाल है. लेकिन क्या करें कि स्वयं यथार्थ का चेहरा इतना ही बेहुदा हुआ जाता है. गांव में बनने वाले एक मंदिर के चारों ओर घूमती इसकी कहानी हमारे गांवों में घुस आते उस बाज़ार की कहानी है जिसकी सबसे सुलभ साझीदार धर्म की पताका है. यह उदारीकरण के दूसरे चरण में प्रवेश कर गए हिन्दुस्तान की कथा है, एकदम ख़ालिस.

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इसका संशोधित संस्करण साहित्यिक पत्रिका ’कथादेश’ के नवम्बर अंक में प्रकाशित.

Pina

“रस भी अर्थ है, भाव भी अर्थ है, परन्तु ताण्डव ऐसा नाच है जिसमें रस भी नहीं, भाव भी नहीं. नाचनेवाले का कोई उद्देश्य नहीं, मतलब नहीं, ’अर्थ’ नहीं. केवल जड़ता के दुर्वार आकर्षण को छिन्न करके एकमात्र चैतन्य की अनुभूति का उल्लास!” – ’देवदारु’ से.

pina imageजब Pina Bausch के नर्तकों की टोली रंगमंच की तय चौहद्दी से बाहर निकल शीशे की बनी ख़ाली इमारतों, फुटपाथों, सार्वजनिक परिवहन, कॉफ़ी हाउस और औद्योगिक इकाइयों को अपनी काया के छंद की गिरफ़्त में ले लेती है, मुझे आचार्य द्विवेदी याद का निबंध ’देवदारु’ याद आता है. यह जीवन रस का नृत्य रूप है. आचार्य द्विवेदी के शब्दों में, यह नृत्य ’जड़ता के दुर्वार आकर्षण को छिन्न’ करता है. निरंतर एक मशीनी लय से बंधे इस समय में किताबों की याद, कविताओं की बात, कला का आग्रह.

कॉफ़ी हाउस की अनगिनत कुर्सियों के बीच अकेले खड़े दो प्रेमी एक-दूसरे को बांहों में भर लेते हैं. लेकिन व्यवस्था का आग्रह है कि उनका मिलन तय सांचों में हो. उनके प्रतिकार में छंद है, ताल है, लय है. यहाँ नृत्य जन्म लेता है. पीना बाउश के रचे नृत्यों में विचारों का विहंगम कोलाहल है. उनके रचना संसार में मनुष्य प्रकृति का विस्तार है. इसलिए उनके नृत्यों में यह दर्ज कर पाना बहुत मुश्किल है कि कहाँ स्त्री की सीमा ख़त्म होती है और कहाँ प्रकृति का असीमित वितान शुरु होता है.

वे नाचते हैं. नदियों में, पर्बतों पर, झरनों के साथ. वे नाचते हैं. शहर के बीचोंबीच. जैसे शहर के कोलाहल में राग तलाशते हैं. यह रंगमंच की चौहद्दी से बाहर निकल शहर के बीचोंबीच कला का आग्रह आज के इस एकायामी बाज़ार में खड़े होकर विचारों के बहुवचन की मांग है.

Wim Wenders का वृत्तचित्र ’पीना’ सिनेमाई कविता है. किसी तरुण मन स्त्री की कविता. उग्र, उद्दाम, उमंगों से भरी.