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फ़िराक के शहर में सिनेमा का मेला : गोरखपुर फ़िल्म उत्सव

“हो जिन्हें शक, वो करें और खुदाओं की तलाश,
हम तो इंसान को दुनिया का खुदा कहते हैं.” –फ़िराक़ गोरखपुरी.

गोरखपुर फ़िल्म महोत्सव इस बरस अपने चौथे साल में प्रवेश कर रहा था. ’प्रतिरोध का सिनेमा’ की थीम लेकर शुरु हुआ यह सिनेमा का मेला अब सिर्फ़ सार्थक सिनेमा के प्रदर्शन तक ही सीमित नहीं रह गया है बल्कि प्रकाशन से लेकर फ़िल्मों के वितरण तक इसके दायरे तेज़ी से फ़ैल रहे हैं. गोरखपुर फ़िल्म सोसायटी द्वारा पहले प्रकाशन के रूप में विश्व सिनेमा के दस महानतम फ़िल्मकारों पर केन्द्रित ’पहली किताब’ का प्रकाशन इस उत्सव की उल्लेखनीय घटना थी. इस किताब में अब्बास किआरुस्तमी, अकीरा कुरोसावा, इल्माज़ गुने, इंगमार बर्गमैन, बिमल राय, चार्ली चैप्लिन और दि सिका जैसे फ़िल्मकारों पर महत्वपूर्ण लेख संकलित हैं.

गोरखपुर फ़िल्म सोसायटी अब वृत्तचित्रों के वितरण का काम भी कर रही है और स्मारिका के अनुसार पन्द्रह से ज़्यादा फ़िल्मों के वितरण के अधिकार अब इसके पास हैं. इनमें संजय काक की ’जश्न-ए-आज़ादी’ और ’पानी पे लिखा’, यूसुफ़ सईद कीख्याल दर्पण’, मेघनाथ और बीजू टोप्पो की ’लोहा गरम है’ जैसी फ़िल्में शामिल हैं. लेकिन मेरे लिए इस पहली गोरखपुर यात्रा में सबसे महत्वपूर्ण यह देखना था कि गोरखपुर जैसे राजनैतिक रूप से ’हायपरएक्टिव’ और उग्र हिन्दुत्ववादी राजनीति के गढ़ बनते जा रहे शहर में यह प्रतिरोध के सिनेमा का मेला शहर के सार्वजनिक जीवन में किस तरह का बदलाव ला रहा है. बेशक अब यह पूरे पूर्वांचल में अपनी तरह का अकेला फ़िल्म समारोह बनकर उभरा है लेकिन क्या यह इलाके के सांस्कृतिक पटल पर किसी प्रकार का हस्तक्षेप कर पाया है?

इस बार उत्सव में मुख्य वक्तव्य अरुंधति राय का था. समारोह की थीम ’अमेरिकी साम्राज्यवाद से मुक्ति के नाम’ थी और दुनिया-भर से तमाम जनसंघर्षों से जुड़ी फ़िल्में समारोह में दिखाई जानी थीं. अरुंधति अपने वक्तव्य को लेकर कुछ दुविधा में थीं. वे चाहती थीं कि उनका वक्तव्य एकतरफ़ा संवाद न होकर दुतरफ़ा हो और यह चर्चा बातचीत की शक्ल में आगे बढ़े. उनकी इच्छा अपनी बताने से ज़्यादा लोगों के मन की बात जानने में थी. शायद वे समझना चाहती थीं कि लोगों के मन में क्या चल रहा है. वैसे शहर में आते ही स्थानीय मीडिया ने उन्हें घेरने की कोशिश शुरु कर दी थी और उन्हें लेकर मीडिया का यह पागलपन पूरे उद्घाटन सत्र में जारी रहा. मैंने उनसे पूछा कि क्या वे इस ’सेलिब्रिटी’ के पीछे पागल मीडिया और लोगों के बीच अपने असल पाठक को पहचान पाती हैं? और उन्होंने विश्वास के साथ कहा : हाँ.

बी.बी.सी. से आये मिर्ज़ा बेग ऐसे ही असल पाठक थे जिनसे अरुंधति काफ़ी देर तक बात करती रहीं. अरुंधति ने मगहर के रास्ते में आपसी बातचीत के दौरान कहा था, “इन पुरस्कारों से मिली प्रसिद्धि की चकाचौंध को मैंने नहीं चुना था लेकिन अपनी जिन्दगी के लिये मैंने जिन चीजों को चुना है उन्हें मैं इस प्रसिद्धि की वजह से खोने से इनकार करती हूँ.” अगले दिन हिन्दुस्तान दैनिक में छपे उनके साक्षात्कार का शीर्षक था, “मैं सच नहीं लिखूँगी तो मर जाऊँगी.” इस तमाम चकाचौंध के बावजूद अरुंधति ने अपनी बात कही और लोगों के सवालों से ये साफ़ था कि बात उन तक पहुँची है. अरुंधति ने कहा कि आज साम्राज्यवाद का अमेरिकी मॉडल हार रहा है. ओबामा जैसे उनके लिए आपातकालीन स्थिति के पायलट बनकर आये हैं. लेकिन यह लड़ाई का अंत नहीं है. इशारा था उन नए रूपों की ओर जिनका भेस धरकर साम्राज्यवाद वापस आयेगा, शायद हमारे ही भीतर से. हमें उन रूपों की पहचान करनी होगी. शायद यह लड़ाई का अगला चरण है जो ज़्यादा जटिल है. वे हमारे प्रतिरोध के मंच भी हड़प लेना चाहते हैं. ऐसे में प्रतिरोध का हर छोटा रूप बहुत महत्वपूर्ण हो जाता है. गोरखपुर का यह फ़िल्म उत्सव ऐसा ही मंच है और इसलिये एक महत्वपूर्ण कोशिश है.

उत्सव स्थल इसबार विश्वविद्यालय के प्रांगण से निकलकर शहर के बीचों-बीच आ गया था. पूरा शहर जहाँ भाजपा की आगामी 15 फ़रवरी को होनेवाली ’राष्ट्र रक्षा रैली’ के पोस्टरों और बैनरों से अटा पड़ा था वहीं इस सबके बीच शहर के मुख्य चौराहे पर समारोह स्थल पर लगा फ़ेस्टिवल का विशाल बैनर आते-जाते लोगों मे अजब उत्सुक़्ता जगा रहा था. मैंने कई लोगों को रुक-रुक कर उत्सव परिसर में घूमते और किताबें, फ़िल्में, कविता पोस्टर पढ़ते देखा. हमारी दोस्त भाषा एक सुबह उठकर अखबार की तलाश में कुछ दूर निकलीं तो उन्होंने अखबार की दुकान पर सुबह के जमावड़े में भी समारोह की चर्चा होते सुनी. शहर उत्सुक़्ता से देख रहा है, धीरे-धीरे शहर उत्सव से जुड़ रहा है. यह बात समारोह के आयोजक संजय जोशी और मनोज सिंह के लिए सबसे खास है.

मनोज कहते हैं, “2006 में समारोह की शुरुआत का विचार इस इलाके के ठहरे हुए सांस्कृतिक परिदृश्य में पत्थर मारने सरीख़ा था. लेकिन हमारा उद्देश्य सिर्फ़ यही नहीं. हम चाहते हैं कि संवाद का माहौल बने. फ़िल्म समारोह के ज़रिए हम ऐसा प्रगतिशील आन्दोलन खड़ा करना चाहते हैं जो इस प्रदेश के राजनैतिक परिदृश्य में भी अपनी दखल बनाये.” शायद अभी उसमें वक़्त है लेकिन उत्सव से जुड़े लोग इस बात को लेकर निश्चिंत हो सकते हैं कि वे सही दिशा में आगे बढ़ रहे हैं.

बीजू टोप्पो जो अपनी फ़िल्म ’लोहा गरम है’ के साथ समारोह में मौजूद थे, का कहना था, “मेरे लिए यह समारोह सिर्फ़ अपनी फ़िल्म एक बड़े समूह को दिखाने का माध्यम भर नहीं. मैं खुद यहाँ दुनिया भर के जन आन्दोलनों से जुड़ी फ़िल्में देख पाता हूँ और उनसे अपनी लड़ाई को जोड़कर देख पाता हूँ जो और कहीं संभव नहीं. इस बार भी ब्रिटिश निर्देशक गिब्बी जोबेल की ब्राज़ील के भूमि-सुधार आन्दोलन पर बनी फ़िल्म ’एम.एस.टी.’ समारोह का मुख्य आकर्षण थी और मैंने, बीजू ने और हम जैसे बहुत से दर्शकों ने इस फ़िल्म के माध्यम से ब्राज़ील में राष्ट्रपति लूला के शासनकाल के बारे में बहुत सी नई जानकारियाँ पाईं. गिब्बी खुद समारोह में मौजूद थे और पूरे समारोह में उनकी आम लोगों से जुड़ने की कोशिश, हिन्दी सीखने की कोशिश के हम सब गवाह बने! फिर समारोह में ’वर्किंग मैन्स डैथ’ जैसी हार्ड हिटिंग फ़िल्म भी थी जिसे मैं इस समारोह की सबसे बेहतरीन फ़िल्मों में शुमार करता हूँ. इसबार समारोह इल्माज़ गुने की फ़िल्मों का रेट्रोस्पेक्टिव लेकर आया था और अपने ही देश में प्रतिबंधित इस मार्मिक फ़िल्मकार की ’योल’ और ’उमत’ जैसी फ़िल्में यहाँ दिखाई गईं और पसंद की गईं.

प्रतिरोध कितना रचनात्मक हो सकता है इसका सबसे बेहतर उदाहरण था ’जूता तो खाना ही था’ शीर्षक आधारित कविता प्रदर्शनी. इराक में पत्रकार मुंतज़र अलजैदी की बुश को जूता मारने की बहादुराना कार्यवाही पर देश भर से साथियों ने कवितायें लिखकर भेजीं थीं जिन्हें समारोह के मौके पर एक प्रदर्शनी के तौर पर सजाया गया था. यहाँ मैं मृत्युंजय की कविता का एक अंश आपके सामने पेश कर रहा हूँ,

“यह जूता है प्रजातंत्र का, नया नवेला चमड़ा,
ठाने बैठा अमरीका से नव प्रतिरोधी रगड़ा.
तेल-लुटइया, जंग-करइया, अब तो नाथ-नथाना ही था,
व्हाइट हाउस के गब्बर-गोरे जूता तो खाना ही था!.”

तो यह उत्सव सिर्फ़ सिनेमा तक सीमित नहीं. अमेरिका के साम्राज्यवाद से दुनिया भर में ज़ारी लड़ाई और उड़ीसा के गाँव-देहातों मे चल रहे जनसंघर्ष यहाँ आकर एक पहचान पाते हैं. मुझे अफ़सोस रहा कि आखिरी दिन मैं अपनी ट्रेन का वक़्त हो जाने की वजह से अशोक भौमिक द्वारा युद्ध विरोधी चित्रकला पर व्याख्यान नहीं सुन पाया. लेकिन अब मुझे पता है कि जिनके लिये वो व्याख्यान था वे लोग धीरे-धीरे आ रहे हैं, सुन रहे हैं, सोच रहे हैं. गोरखपुर धीरे-धीरे ही सही लेकिन यहाँ से निकली आवाज़ें सुन रहा है. उग्र धार्मिक पहचान वाला यह शहर अब अपने शायर फ़िराक की तरह इंसानों में खुदा देखने लगा है.

मूलत: ’द पब्लिक एजेंडा’ के 18 मार्च 2009 अंक में प्रकाशित रपट.

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वास्‍तव में यह अच्‍छी शुरुआत है। कमर्शियल सिनेमा के अलावा अच्‍छे सिनेमा को भी बहुत लोग देखना चाहते हैं। बल्कि ऐसे आयोजन तो हर शहर में होने चाहिए। मेरे कुछ दोस्‍त भी दिल्‍ली में छोटे स्‍तर से ऐसी शुरुआत की कोशिश कर रहे हैं। बाकी आपकी लाइव कवरेज ने फेस्टिवल की खुशबू हम तक भी पहुंचा दी। इसके लिए शुक्रिया।