तात्कालिक आग्रह पर लिखा गया समसामयिक चर्चा से रचा आलेख. अप्रकाशित रह जाने की वजह से अपने चिट्ठे पर लगा रहा हूँ. महिला दिवस पर कहीं गहरे बनस्थली को याद करते हुए जहाँ आज भी मुझे मेरा पीछे छूटा हुआ माइक्रोकॉस्म दीखता है.
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“मैं दरवाज़ा थी,
मुझे जितना पीटा गया,
मैं उतना ही खुलती गई.” -अनामिका.
मरजेन सतरापी की ’परसेपोलीस’ देखते हुए मुझे कहीं गहरे ये अहसास हुआ था, ईरान की स्त्री के लिए शायद वो सिनेमा था. चारों तरफ़ से बंद दरवाज़ों वाले समाज की स्त्रियाँ इन चौहद्दियों से बाहर निकलने के लिए हमेशा नए-नए और रचनात्मक माध्यमों की तलाश करती रही हैं. हिन्दुस्तान की स्त्री जो संसद के गलियारों से सिनेमा परदे तक अभी भी हाशिए पर ही खड़ी है उसके लिए वो कौनसे रास्ते हैं जिनपर चलकर वो अपनी बात कह सकती है? गौर से देखने पर पता चलता है कि पिछले कुछ सालों में अंतर्जाल की आभासी दुनिया एक ऐसा ही माध्यम बनकर उभरी है. और इसीलिए यह आश्चर्य नहीं था जब मंगलोर में ’संस्कृति के रक्षकों’ द्वारा लड़कियों पर अमानवीय कृत्य किये गये तो उनके खिलाफ़ सबसे मुखर आवाज़ इसी अंतर्जाल की आभासी दुनिया से उठाई गई. तहलका की पत्रकार निशा सुसेन और उनकी कुछ बहादुर साथियों द्वारा शुरु किया गया ’पिंक चड्डी कैम्पैन’ हो सकता है आपमें से बहुत को विरोध का अश्लील तरीका लगे लेकिन एक ऐसे समाज में जहाँ स्त्री का अपने शरीर पर हक़ जताना भी ’संस्कृति का अपमान’ मान लिया जाता हो, विरोध के तरीकों की बात करना क्या बेमानी नहीं.
हिंदी का ब्लॉगिंग जगत भी इस ’पिंक चड्डी कैम्पेन’ की बयार से अछूता नहीं रहा है. इस अभियान में हिंदी ब्लॉगिंग जगत की महिलाओं का हस्तक्षेप क्या और कितना है यह देखना हमें ब्लॉगिंग की इस अराजक लेकिन मारक तीखी दुनिया में प्रवेश का रास्ता भी देता है और आगे बढ़ने की दिशा भी. हिंदी जगत की जानी-मानी ब्लॉगर घुघुतीबसूती इस प्रसंग पर अपनी धारधार लेकिन संतुलित टिप्पणी में लिखती हैं,
“चलिए हम पिंक चड्ढी वालों के विरोध के तरीके का विरोध करें। क्योंकि उनका तरीका संस्कृति के रक्षकों से अधिक खतरनाक है। हम यह ना देखें कि वे अपने वस्त्र उतारकर देने को नहीं कह रहीं, बाजार से नई या फिर अपनी अलमारी से पुरानी भेजने को कह रही हैं।(अब यदि उस ही ब्लॉग में कोई कुछ अधिक कह रहा है तो क्या किया जा सकता है? यदि वे ऐसी टिप्पणियों को नहीं छापती तो कहा जाएगा कि विरोध के स्वर वे सह नहीं सकतीं।) हमें बाध्य भी नहीं कर रहीं ऐसा करने को। वे जो कर रही हैं उसका अर्थ हम नहीं समझेंगे। वे इसे क्यों कर रही हैं यह समझने में सोचना पड़ता है, उन्हें समझना पड़ता है, उनके स्थान पर स्वयं को रखकर देखना पड़ता है। यह सोचना पड़ता है कि यदि मैं युवा होती, स्त्री होती तो ये सब परिस्थितियाँ मुझे कैसी लगतीं। वे केवल और केवल एक काम कर रही हैं, इस हास्यास्पद तरीके से कट्टरपंथियों को हास्यास्पद बना रही हैं। हाँ, शायद उन्होंने जानबूझकर इसे ऐसा बनाया ताकि लोगों का ध्यान आकर्शित कर सकें। (बहुत से लोगों ने कट्टरता के विरोध में लिखा, शायद शालीनता से ही लिखा था, मैंने भी लिखा था, परन्तु उसका कितना प्रभाव पड़ा। यह तरीका जैसा भी था ना हिंसक था ना जबर्दस्ती थी। हमें सही लगे तो ठीक न लगे तो ठीक। ) परन्तु नहीं, वे अधिक खतरनाक हैं।
आओ, अपनी बेटियों की उनसे रक्षा करें, न कि उनसे जो उन्हें किसी भी क्षण पकड़कर पीट सकते हैं, चोटी से पकड़कर घुमा सकते हैं। वह तो एक बहुत ही मामूली सा अपराध होगा। पब में जाना आवश्यक तो नहीं है, किसी विशेषकर अन्य जाति धर्म के पुरुष से प्रेम करना आवश्यक तो नहीं है, किसी सहपाठी से पुस्तक लेने (या हो सकता है कि वह बतियाने गई हो या प्रेम की पींग चढ़ाने)आवश्यक तो नहीं है। शराब पीने को कोई भी बहुत अच्छा तो नहीं कहेगा, बहुत सी अन्य वस्तुएँ, काम, व्यवहार, यहाँ तक कि परम्पराएँ भी गलत होती हैं। हमें ना भी लगें तो किसी अन्य को लग सकती हैं। हमें जो गलत लगता है वह अपने बच्चों को बाल्यावस्था में ठीक से समझा सकते हैं। अपने मूल्य उन्हें सिखा सकते हैं। जब वे वयस्क हो जाएँगे तो वे इतने समझदार हो चुके होंगे कि अपने निर्णय स्वयं ले सकेंगे। या हम यह मानकर चल रहे हैं कि भारतीय युवा कभी वयस्क माने जाने लायक बुद्धि विकसित नहीं कर पाते? देखते जाइए कल कोई बहुत से अन्य कामों को गलत करार कर देगा। किसी को लड़कियों का लड़कों के साथ चाय पीना भी गलत लग सकता है किसी को लड़कियों का लड़कियों के साथ या अकेले भी चाय पीना गलत लग सकता है। शायद बोतल बंद पानी पीना गलत लग सकता है। शायद उनका पैदा होना ही गलत लग सकता है। हम कहाँ सीमा रेखा खींचेंगे और हम होते कौन हैं किसी का जीवन नियन्त्रित करने वाले? देखते जाइए कल आपको अपने टखने भी दिखाने होंगे जबर्दस्ती दिखाने होंगे।” –घुघुतीबासुती के ब्लॉग से.
घुघुतीबासूती के शब्दों में एक करारा व्यंग्य है. शायद यह बहस मंगलोर में हुई एक घटना से शुरु हुई है लेकिन हिंदी की ’चोखेरबालियाँ’ इसमें मौजूद सदियों की बेड़ियों की जकड़न महसूस कर पाती हैं. यही चर्चा सुजाता अपने ब्लॉग नोटपैड में इन शब्दों के साथ आगे बढ़ाती हैं,
“जो समाज जितना बन्द होगा और जिस समाज मे जितनी ज़्यादा विसंगतियाँ पाई जाएंगी वहाँ विरोध के तरीके और रूप भी उतने ही अतिवादी रूप मे सामने आएंगे।सूसन के यहाँ अश्लील कुछ नही, लेकिन टिप्पणियों मे जो भद्र जन सूसन पर व्यक्तिगत आक्षेप कर रहे हैं वे निश्चित ही अश्लील हैं।मुझे लगता है यह तय कर लेना चाहिये कि इस बहस का फोकस क्या है , सूसन या रामसेना या पिंक चड्डी या स्त्री के विरुद्ध बढती हुई पुलिसिंग और हिंसा।” –सुजाता के ब्लॉग ’नोटपैड’ से.
ऊपर उद्धृत अंश में सुजाता ने निशा सुसन की बनाई फ़ेसबुक कम्यूनिटी पर आ रही अश्लील टिप्पणियों का ज़िक्र किया. जिस तरह कुछ ही दिनों में चालीस हज़ार से ऊपर पहुँची सदस्य संख्या इस अभियान का एक चेहरा है उसी तरह ’भद्र पुरुषों’ द्वारा लगातार की गईं अभद्र टिप्प्णियाँ भी इसका एक विकृत लेकिन उतना ही महत्वपूर्ण दूसरा चेहरा हैं. स्त्रियों का आभासी अंतर्जाल में कोई भी अभियान या गतिविधि इसी तरह कुछ ’भद्र पुरुषों’ की अभद्र प्रतिक्रियाओं का शिकार बनती रही है और इससे निरंतर संघर्ष और विरोध से ही हिंदी ब्लॉगिंग में महिलाओं के लेखन ने अपना अपना स्वरूप ग्रहण किया है. क्योंकि ब्लॉगिंग में हिंसा भी भाषा का चोला ओढ़कर ही आती है इसलिए भाषा, उससे जुड़ी संवेदनशीलता और उससे संबंधित तमाम बहसें महिलाओं के ब्लॉग्स पर हमेशा से एक प्रमुख चर्चा का मुद्दा रही हैं. हिंदी जगत के जाने-माने ब्लॉगर रवीश कुमार जब अपने ब्लॉग ’कस्बा’ में मीडिया में प्रयोग में आती भाषा में बढ़ती हिंसक शैली का रिश्ता स्त्री के निर्णय लेने वाली भूमिकाओं में न होने से जोड़ते हैं तो यह तुरंत ही ’चोखेर बाली’ जैसे महिलाओं के सामुदायिक ब्लॉग में चर्चा का मुख्य मुद्दा बन जाता है. महिला ब्लॉगर इसपर सीधी प्रतिक्रिया देती हैं. और हमेशा की तरह इन ब्लॉगरों की टिप्पणियों में व्यक्तिगत अनुभव मिले हुए हैं. दिप्ति टिप्प्णी करती हैं,
“ये तो नहीं कहा जा सकता है कि महिलाओं की लेखनी उग्र नहीं होती है या नहीं हो सकती है। लेकिन, ये सच है कि महिलाओं को लिखने लायक बहुत कम लोग मानते हैं। मेरी पहली नौकरी में ही मुझे इस बात का सामना करना पड़ था। मुझे न तो राजनीति की ख़बर लिखने दी जाता थी और न ही क्राइम की। हां कही कोई भजन कीर्तन हुआ तो वो मेरी झोली में ज़रूर गिर जाता था।”
और नीलिमा सुखेजा अरोड़ा का कहना है,
“एंकर तो आपको बड़ी संख्या में महिलाएं या लड़कियां मिल जाएंगी लेकिन जब बात कापी लिखने की आती है या रिपोर्टिंग की आती है तब लड़कियां कहां खो जाती हैं।
बात बहुत सही भी है, ज्यादातर एंकर लड़कियां होंगी, इस बात पर हम सब का बस चलता भी तो कितना है, यह तो मालिक या मैनेजमेंट तय कर देता है कि एंकरों में कितनी स्त्रियां रहेंगी और कितने पुरुष।
रही कापी लिखने की बात,शायद लड़कियां कापी लिखतीं तो वो अलग ही तरह की होती। मेरा ख्याल है कि यह भाषा किसी सभ्य आदमी की हो ही नहीं सकती है कि घर में घुसकर मारो पाकिस्तान को। जब कोई सभ्य लड़का ही ऐसा भाषा को प्रयोग नहीं करता है तो लड़कियां से ऐसी आशा करना ही बेमानी है।
मैं भी प्रिंटर डेस्क पर ही काम करती हूं, वो भी अखबार में । जहां मैं लगभग हर रोज पाकिस्तान, अफगानिस्तान, तालिबान, ओसामा बिन लादेन और अमेरिका पर स्टोरीज लिखती या रीराइट करती हूं। पर मुझे याद नहीं आता कि मैंने या मेरे साथियों ने कभी भी इतनी ओछी भाषा का प्रयोग किया हो। मेरा मानना है टीवी में भी यदि ज्यादातर लड़कियां स्क्रिप्ट्स लिखने लगें तो इतनी हल्की भाषा का प्रयोग तो नहीं ही होगा।”
इस भाषाई हिंसा के अनेक रूप हैं. भाषा की इस बहस को चोखेरबाली की पहली वर्षगाँठ पर आयोजित परिचर्चा में हिंदी की कवि अनामिका इस विश्लेषण द्वारा आगे बढ़ाती हैं.
“अभिव्यक्ति के गर्भ में ही व्यक्ति है। जहां अभिव्यक्ति नहीं है, वहां व्यक्ति औऱ व्यक्तित्व का होना संभव नहीं है। पुरुष ने वो भाषा ही नहीं सीखी कि किसी के कंधे पर हाथ रखकर बात कर सके। उसकी भाषा मुच्छड़ भाषा है, किसी मैजेस्ट्रेट की तरह की रैबदार। जबकि स्त्रियों की भाषा बतरस में प्राण पाती है। आप बसों में जाइए- देखिए कि एक स्त्री की आंख से अभी पहली ही बूंद टपकी है कि दूसरी स्त्री उसके कंधे पर हाथ रखकर कारण जानने के लिए बेचैन हो उठती है। इस बात से कोई फर्क नहीं पड़ता कि वो मजदूरिन है और पूछनेवाली टीचर या और कुछ। बिना किसी कॉन्टक्सटुलाइजेशन के बात शुरु हो जाती है। ब्यूटी पार्लर औऱ दुनिया भर के इसी तरह के जो नए स्पेस बन रहे हैं, वहां ये सवाल नहीं किए जाते कि तुम्हारी पीठ पर ये नीले निशान क्यों है, उसे बर्फ से सेंक भर देते हैं। लेकिन भाषा एक उष्मा देती है, जीने का एक नया अर्थ देती है।” –अनामिका ’चोखेरबाली’ पर.
यूँ भी ब्लॉग जगत का लेखन हमेशा से ही बहुत व्यक्तिगत संदर्भों से युक्त रहा है. और स्त्रियों के ब्लॉग भी इस ख़ासियत से भरे हुए हैं. स्त्री के लिए समाज बदलने की लड़ाई दरअसल स्वयं के हक़ के लिए लड़ाई से शुरु होती है. उनका व्यक्तिगत लेखन कहीं न कहीं उस वृहत्तर समाज में अपनी उपस्थिति के लिए जगह बनाने की लड़ाई है जो उनकी आवाज़ को हर गैर-आभासी मंच पर कुचलता रहा है. आबादी के हर दबाए गए हिस्से की पहली अभिव्यक्ति आपबीती ही होती है. मराठी और हिंदी में दलित आत्मकथाओं की बड़ी गिनती इसका सबसे हालिया उदाहरण है. ये आत्मकथाएँ कोई व्यक्तिगत कहानियाँ नहीं, सदियों से होते अत्याचार के दस्तावेज हैं. ठीक इसी तरह स्त्रियों के ब्लॉग्स पर मिलती व्यक्तिगत कहानियों के अर्थ भी सिर्फ़ व्यक्तिगत संदर्भों तक सीमित नहीं. चोखेरबाली जैसे ब्लॉग पर सपना चमड़िया की लिखी ’सपना की डायरी’ सिर्फ़ एक महिला की डायरी भर नहीं, पूरी ’आधी दुनिया’ की आपबीती का बयान हैं.