वो मेरी जवानी का पहला प्रेम था. मैं उसे आज भी मेरी ज़िन्दगी की ’हेट्टी केली’ [1] कहकर याद करता हूँ. उस रोज़ उसका जन्मदिन था. मैं उसे कुछ ख़ास देना चाहता था. लेकिन अभी कहानी अपनी शुरुआती अवस्था में थी और मेरे भीतर भी ’पहली बार’ वाली हिचक थी इसलिए कुछ समझ न आता था. आख़िर कई दिनों की गहरी उधेड़बुन के बाद मैं तोहफ़ा ख़रीद पाया. लेकिन अब एक और बड़ा सवाल सामने था. तोहफ़ा तो मेरे मन की बात कहेगा नहीं, तो उसके लिए कोई अलग जुगत भिड़ानी होगी.
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सिनेमाई संगीत में प्रामाणिकता की तलाश
“हिन्दी सिनेमा के संगीत से मेलोडी चली गई. आजकल की फ़िल्मों के गीत वाहियात होते जा रहे हैं. पहले के गीतों की तरह फ़िल्म से अलग वे याद भी नहीं रहते. जैसे उनका जीवन फ़िल्म के भीतर ही रह गया है, बाहर नहीं.”
पिछले दिनों सिनेमाई संगीत से जुड़ी कुछ चर्चाओं में हिस्सेदारी करते हुए यह मैंने आम सुना. इसे आलोचना की तरह से सुनाया जाता था और इस आलोचना के समर्थन में सर हिलाने वाले दोस्त भी बहुत थे.
हिन्दी सिनेमा और सिनेमाई संगीत के बारे में दो भिन्न तरह की बातें पिछले दिनों मैंने अलग-अलग मंचों से कही जाती सुनीं, जिनका यूं तो आपस में सीधा कोई लेना-देना नहीं दिखता लेकिन दोनों को साथ रखकर पढ़ने से उनके गहरे निहितार्थ खुलते हैं. पहली बात को हमने ऊपर उद्धृत किया. लेकिन इससे बिल्कुल इतर दूसरी बात समकालीन सिनेमा और नए निर्देशकों के बारे में है जिनके सिनेमा बारे में आम समझ यह बन रही है कि यह अपने परिवेश की प्रामाणिकता पर गुरुतर ध्यान देता है और इसे फ़िल्म की मूल कथा के संप्रेषण के मुख्य साधन के बतौर चिह्नित करता है. दिबाकर बनर्जी, अनुराग कश्यप, चंदन अरोड़ा और कुछ हद तक इम्तियाज़ अली जैसे निर्देशक अपने सिनेमा में इस ओर विशेष ध्यान देते पाए गए हैं.
अगर मैं कहूँ कि इस आलेख के सबसे पहले जो कथन मैंने उद्धृत किया, खुद मैं भी उससे काफ़ी हद तक सहमत हूँ, तो? लेकिन साथ ही यह भी कि मैं उसे आलोचना नहीं मानता. हम दरअसल इन दो भिन्न लगती बातों को साथ रखकर नहीं देख पा रहे हैं. देखें तो समझ आएगा कि पहली बात के सूत्र दूसरे सकारात्मक बदलाव में छिपे हैं.
इसे कुछ बड़े परिप्रेक्ष्य में समझें. माना जाता है कि उदारीकरण के बाद हिन्दुस्तान के बाज़ार खुलने की प्रक्रिया में हिन्दी सिनेमा के लिए ’हॉलीवुड’ की चुनौती दिन दूनी रात चौगुनी बड़ी होती गई है. बात सही भी है. लेकिन मेरा मानना है कि ’हॉलीवुड’ की चुनौती जितनी बड़ी समूचे हिन्दी सिनेमा के लिए है, उससे कहीं ज़्यादा हिन्दी सिनेमा में सदा से एक अभिन्न अंग के रूप में मौजूद रहे गीतों के लिए हैं. जिस तरह समाज पर मुख्यधारा ’हॉलीवुड’ सिनेमा का प्रभाव बढ़ रहा है, हिन्दी सिनेमा में उससे मुकाबला करने की, उसे पछाड़ने की जुगत बढ़ती जा रही है. और ऐसे में सबसे बड़ा संकट, शायद अस्तित्व का संकट सिनेमा के गीत-संगीत के लिए उत्पन्न होता है.
हिन्दी सिनेमा में नब्बे के दशक में सबसे बड़ा बदलाव लेकर आने वाले व्यक्ति का नाम है रामगोपाल वर्मा. आज सिनेमा में देखी जा रही तकनीक समर्थित नवयथार्थवादी धारा को स्थापित करने का श्रेय उन्हें ही जाता है. और आपको याद होगा कि उन्होंने एक समय संगीत को अपने सिनेमा से एक गैर-ज़रूरी अवयव की तरह से निकाल बाहर किया था. यह संक्रमण काल था और इस दौर में हिन्दी सिनेमा का संगीत अपनी अस्तित्व की लड़ाई लड़ रहा था. यहाँ दो रास्ते थे उसके सामने, एक – अपनी पुरानी प्रतिष्ठा का इस्तेमाल करते हुए वैसा ही बने रहना, लेकिन बदलते सिनेमा के रंग में लगातार अप्रासंगिक होते चले जाना. और दूसरा – स्वयं का पुन: अविष्कार करने की कोशिश, याने सिनेमा की बदलती भाषा के अनुसार बदलना और सबसे ऊपर फ़िल्म के भीतर अपनी प्रासंगिकता स्थापित करना.
मुझे खुशी है कि कुछ निर्देशकों ने बाज़ार की परवाह न करते हुए दूसरा रास्ता चुना. और यहाँ बाज़ार की परवाह न करने जैसे वाक्य का मैं जान-बूझकर प्रयोग कर रहा हूँ. क्योंकि फ़िल्म संगीत आज अपने आप में एक वृहत उद्योग है और ऐसे में अपनी फ़िल्म में ’फ़िल्म से बाहर’ पहचाने जाने वाले गीतों का न होना एक बड़ा दुर्गुण है. ऐसे में निर्देशकों ने अपने सिनेमा में संगीत को एक किरदार के बतौर पेश किया और उससे वह काम लेने लगे जिन्हें अभिव्यक्ति के सीमित साधनों के चलते या परिस्थिति के चलते फ़िल्म में मौजूद किरदार अभिव्यक्त नहीं कर पा रहे थे. अनुराग कश्यप की ’देव डी’ का ही उदाहरण लें. किरदारों की व्यक्तिगत अभिव्यक्तियाँ जहाँ अपनी सीमाएं तलाशने लगती हैं, फ़िल्म में संगीत आता है और संभावनाओं के असंख्य आकाश सामने उपस्थित कर देता है.
अनुराग द्वारा निर्मित और राजकुमार गुप्ता द्वारा निर्देशित ’आमिर’ का ही उदाहरण लें. फ़िल्म जो कथा कहती है वह अत्यन्त भावुक हो सकती थी, लेकिन यहीं अमित त्रिवेदी का संगीत उसे एक नितान्त ही भिन्न आयाम पर ले जाता है. उनके संगीत में एक फक्कड़पना है जिसके चलने ’आमिर’ का स्वाद अपनी पूर्ववर्ती मैलोड्रैमेटिक फ़िल्मों से बिल्कुल बदल जाता है. अमिताभ भट्टाचार्या द्वारा लिखा गीत ’चक्कर घूम्यो’ को शायद आप फ़िल्म से बाहर याद न करें, लेकिन याद करें कि फ़िल्म में एक घोर तनावपूर्ण स्थिति में आकर वही गीत कैसे आपको सोच का एक नया नज़रिया देता है. घटना को देखने का एक नया दृष्टिकोण जिसके चलने ’आमिर’ अन्य थ्रिलर फ़िल्मों से भिन्न और एक अद्वितीय स्वाद पाती है.
राजकुमार गुप्ता की ही अगली फ़िल्म ’नो वन किल्ड जेसिका’ के गीतों को देखें. क्या आपने हिन्दी सिनेमाई संगीत की कोमलकान्त पदावली में ऐसे खुरदुरे शब्द पहले सुने हैं,
“डर का शिकार हुआ ऐतबार
दिल में दरार हुआ ऐतबार
करे चीत्कार बाहें पसारकर के
नश्तर की धार हुआ ऐतबार
पसली के पार हुआ ऐतबार
चूसे है खून बड़ा खूँखार बनके
झुलसी हुई इस रूह के चिथड़े पड़े बिखरे हुए
उधड़ी हुई उम्मीद है
रौंदे जिन्हें कदमों तले बड़ी बेशरम रफ़्तार ये
जल भुन के राख हुआ ऐतबार
गन्दा मज़ाक हुआ ऐतबार
चिढ़ता है, कुढ़ता है, सड़ता है रातों में”
गीत की यह उदंडता अभिव्यक्त करती है उस बेबसी को जिसे फ़िल्म अभिव्यक्त करना चाहती है. ठीक वैसे ही जैसे ’उड़ान’ के कोमल बोल उन्हें अभिव्यक्त करनेवाले सोलह साल के तरुण कवि की कल्पना से जन्म लेते हैं, ’नो वन किल्ड जेसिका’ के ’ऐतबार’ और ’काट कलेजा दिल्ली’ जैसे गीत अपने भीतर वह पूरा सभ्यता विमर्श समेट लाते हैं जिन्हें फ़िल्म अपना मूल विचार बनाती है.
मुझे याद आता है जो गुलज़ार कहते हैं, कि मेरे गीत मेरी भाषा नहीं, मेरे किरदारों की भाषा बोलते हैं. और वह मेरी अभिव्यक्तियाँ नहीं है, उन फ़िल्मी परिस्थितियों की अभिव्यक्तियाँ हैं जिनके लिए उन्हें लिखा जा रहा है. ऐसे में समझना यह होगा कि अगर सिनेमाई गीतों में अराजकता बढ़ रही है तो यह हमारे सिनेमा में पाए जाने वाले किरदारों और परिवेश के विविधरंगी होने का संकेत है और इसका स्वागत किया जाना चाहिए.
’पीपली लाइव’ का संगीत इसलिए ख़ास है क्योंकि इंडियन ओशन, भदवई गांव की गीत मंडली, राम संपत, रघुवीर यादव, नगीन तनवीर और नूर मीम राशिद जैसे नामों से मिलकर बनता उनका सांगितिक संसार इस समाज की इंद्रधनुषी तस्वीर अपने भीतर समेटे है. सच है कि उस संगीत में अराजकता है और सम्पूर्ण ’एलबम’ मिलकर कोई एक ठोस स्वाद नहीं बनाता. शायद इसीलिए ’पीपली लाइव’ संगीत के बड़े पुरस्कार नहीं जीतती. लेकिन इकसार की चाह क्या ऐसी चाह है जिसके पीछे अराजकता का यह इंद्रधनुषी संसार खो दिया जाए.
दिबाकर की फ़िल्मों का संगीत कभी खबर नहीं बनता. न कभी साल के अन्त में बननेवाली ’सर्वश्रेष्ठ’ की सूचियों में ही आ पाता है. वे हमेशा कुछ अनदेखे, अनसुने नामों को अपनी फ़िल्म के संगीत का ज़िम्मा सौंपते हैं और कई बार फ़िल्म के गीत खुद ही लिख लेते हैं. शायद यह बात – ’फ़िल्म का संगीत फ़िल्म के बाहर नहीं’ उनकी फ़िल्मों के संगीत पर सटीक बैठती है.
फिर भी मैं दिबाकर की फ़िल्मों के संगीत को हिन्दी सिनेमा में बीते सालों में हुआ सबसे सनसनीखेज़ काम मानता हूँ. क्योंकि उनकी फ़िल्मों का संगीत उनकी फ़िल्मों का सबसे महत्वपूर्ण किरदार होने से भी आगे कहीं चला जाता है. ’ओये लक्की लक्की ओये’ में स्नेहा खानवलकर और दिबाकर शुरुआत में ही ’तू राजा की राजदुलारी’ लेकर आते हैं. हरियाणवी रागिनी जिसका कथातत्व भगवान शिव और पार्वती के आपसी संवाद से निर्मित होता है. देखिए कि किस तरह तरुण गायक राजबीर द्वारा गाया गया यह गीत एक पौराणिक कथाबिम्ब के माध्यम से समकालीन शहरी समाज में मौजूद class के नफ़ासत भरे भेद को उजागर कर देता है. मुझे फिर याद आते हैं आचार्य हज़ारीप्रसाद द्विवेदी के निबंध जिनमें वह तमाम ’सूटेड-बूटेड’ आर्य देवताओं के मध्य अकेले लेकिन दृढ़ता से खड़े दिखते फ़क्कड़, भभूतधारी और मस्तमौला अनार्य देवता शिव की भिन्नता को स्पष्ट करते हैं.
इसी क्रम में फ़िल्म के दूसरे गीत की यह शुरुआती पंक्तियाँ देखें,
“जुगणी चढदी एसी कार
जुगणी रहंदी शीशे पार
जुगणी मनमोहनी नार
ओहदी कोठी सेक्टर चार”
यह जिस ‘शीशे पार’ का उल्लेख फ़िल्म का यह गीत करता है, यही वो सीमा है जिसे पार कर जाने की जुगत ‘लक्की’ पूरी फ़िल्म में भिड़ाता रहता है. यह class का ऐसा भेद है जिसे सिर्फ़ पैसे के बल पर नहीं पाटा जा सकता. यहाँ फ़िल्म में संगीत किरदार भर नहीं, वो उस फ़िल्म के मूल विचार की अभिव्यक्ति का सबसे प्राथमिक स्रोत बनकर उभरता है. दिबाकर की ही अगली फ़िल्म ‘लव, सेक्स और धोखा’ का घोर दर्जे की हद तक उपेक्षित किया गया संगीत भी इसी संदर्भ में पुन: पढ़ा जाना चाहिए.
पिछले साल आई फ़िल्म ‘डेल्ही बेली’ में एक गीत था ‘स्वीट्टी स्वीट्टी स्वीट्टी तेरा प्यार चाईंदा’. जब मैंने दोस्तों को बोला कि यह मेरी लिस्ट में पिछले साल के सबसे शानदार गीतों में से एक है, तो मुझे जवाबी आश्चर्य का सामना करना पड़ा. मेरी इस राय की वजह क्या है? वजह है इस गीत की फ़िल्म के भीतर भूमिका. फ़िल्म इस गीत के साथ हमारा परिचय दिल्ली के उस उजड्ड से करवाती है जिसकी सबसे बड़ी अभिव्यक्ति उसके हाथ में मौजूद उसकी पिस्तौल है. इस अभिव्यक्ति के लिहाज से गीत मुकम्मल है और इसीलिए महत्वपूर्ण है. यहाँ फ़िल्म का दूसरा गीत ‘बेदर्दी राजा’ भी देखें जो उस लंपट किरदार से आपका परिचय करवाता है जिसकी लंपटता फ़िल्म के कथासूत्र में आगे जाकर महत्वपूर्ण भूमिका अदा करती है.
बेशक हिन्दी सिनेमा का संगीत बदला है. लेकिन समय सिर्फ़ उसकी आलोचना का नहीं, ज़रूरत उसमें निहित सकारात्मक बदलाव देखे जाने की भी है. हम लोकप्रिय लेकिन अपनी फ़िल्म से ही पूरी तरह अप्रासंगिक हो जाने वाले इकसार संगीत के मुकाबले ऐसा, कुछ नया अविष्कार करने की ज़ुर्रत करने वाला संगीत हमेशा ज़्यादा सराहेंगे.
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साहित्यिक पत्रिका ‘कथादेश’ के मार्च अंक में प्रकाशित
अच्छे संगीत और उसके कद्रदान के बीच अब कोई नहीं
इंडियन ओशियन हिन्दुस्तान का नामी-गिरामी म्यूजिक बैंड है. न सिर्फ़ नामी-गिरामी, इसके संगीत की विविधता इसे हिन्दुस्तान जैसे महादेश का प्रतिनिधि चरित्र भी बनाती है. इनके संगीत में ठेठ राजस्थानी लोकसंगीत की खनक है तो कश्मीर की ज़मीन से आए बोलों की गमक भी. इनके गीतों में कबीर की उलटबांसियाँ भी हैं और नर्मदा के जनांदोलन की अनुगूँज भी. पिछले दिनों जब आप-हम इनके गीत ’देस मेरा रंगरेज़ ये बाबू’ की धुन में खोये हुए थे, इसी इंडियन ओशियन ने एक अनूठा और मज़ेदार प्रयोग किया. इन्होंने अपने नए म्यूज़िक एलबम ’16/330, खजूर रोड’ को रिलीज़ करने और बाज़ार में बेचने के बजाए इसके गीतों को मुफ़्त जारी करने की घोषणा की.
इसके तमाम अर्थ समझने से पहले देखें कि यह होगा कैसे? इंडियन ओशियन हर महीने अपने एलबम का एक नया गाना mp3 फॉरमैट में अपनी वेबसाइट www.indianoceanmusic.com पर अपलोड करेगा. आप वहाँ बताई गई जगह पर क्लिक करें और अपना नाम, ई-मेल भरें. फिर आपको एक लिंक मेल किया जाएगा जिस पर क्लिक कर आप अपना गीत डाउनलोड कर पायेंगे. सारा कुछ बिलकुल मुफ़्त. यह सिलसिला पिछली 25 जुलाई से शुरु हुआ है और अब तक नए एलबम के दो गाने ’चांद’ और ’शून्य’ सुननेवालों तक सीधे पहुँच चुके हैं. हर महीने की पच्चीस तारीख़ को एक नए गाने के साथ यह सिलसिला आगे बढ़ता रहेगा और इस तरह कुछ महीनों के भीतर ही पूरा एलबम हमारे सामने होगा.
लेकिन ’कि पैसा बोलता है’ कहे जाने वाले इस दौर में मुफ़्त क्यों? दरअसल इंडियन ओशियन की यह कोशिश बाज़ार के मकड़जाल से निकलने का एक रास्ता है. ऐसा मकड़जाल जिसमें संगीत रचता है कोई और उस पर मुनाफ़ा कमाता है कोई और. बैंड अपनी वेबसाइट पर लिखता है, “बहुत से लोग यह जानने को उत्सुक हैं कि हम अपना संगीत मुफ़्त क्यों बाँट रहे हैं? इसकी पहली वजह तो ये कि इससे संगीत के रचयिता बैंड और उसे सुननेवाले के बीच की दूरी बहुत कम हो जाती है. आजकल ज़्यादातर नई उमर के लोग संगीत खरीदकर नहीं सुनते, बल्कि उसे इंटरनेट से मुफ़्त डाउनलोड ही करते हैं. तो ऐसे में हम उनका अपराधबोध कुछ कम ही कर रहे हैं. इसके साथ ही संगीत कम्पनियों से सौदेबाज़ी और कॉपीराइट के झंझट ख़त्म हो जाते हैं. इस बात की चिंता नहीं रहती कि हमारा संगीत सभी जगह तक पहुँच रहा है कि नहीं. और सच कहें, कोई हिन्दुस्तानी कलाकार रॉयल्टी के पैसे पर नहीं जीता. हमारी तक़रीबन सारी कमाई तो लाइव शो और फ़िल्मों के लिए म्यूज़िक बनाकर होती है. हमें उम्मीद है कि यह प्रयोग और हिन्दुस्तानी कलाकारों के लिए भी एक ज़रिया बनेगा उन्हें सुननेवाली जनता तक पहुँचने का.”
सच बात यही है कि हमारे देश में फ़िल्मी संगीत की आदमकद उपस्थिति के सामने गैर-फ़िल्मी संगीत हमेशा आर्थिक चुनौतियों से लड़ता रहा है. पहले भी बड़ी-बड़ी संगीत कम्पनियाँ मुनाफ़ा कमाती रहीं और कलाकार ख़ाली जेब घूमता रहा. अगर आपके पास बिक्री के सही रिकॉर्ड ही न हों तो आप कैसे मुनाफ़े में हिस्सा माँगेगे? और फिर डिस्ट्रीब्यूशन का सही चैनल इन्हीं कम्पनियों के पास रहा जिसके बगैर कलाकार लाचार था. इस दशक में इंटरनेट के साथ ’पब्लिक शेयरिंग’ और ’फ्री डाउनलोड’ कल्चर आने के साथ संगीत उद्योग का संकट और बढ़ गया है. इसका असर नज़र आता है. युवाओं में सबसे लोकप्रिय म्यूज़िक बैंड ’यूफ़ोरिया’ का सालों से कोई नया एलबम नहीं आया है. दलेर मेंहदी से लेकर अलीशा चिनॉय तक प्राइवेट एलबम्स की दुनिया के बड़े सितारे या तो हाशिए पर हैं या फ़िल्म संगीत की शरण में.
लेकिन इंडियन ओशियन ने संकट की वजह बनी इसी ’फ्री डाउनलोड’ की कल्चर को अपना हथियार बना लिया है अपने श्रोता तक सीधे पहुँचने का. बैंड का यह तरीका गैर-फ़िल्मी संगीत के लिए आगे बढ़ने का एक नया रास्ता हो सकता है. आज अगर श्रोता गाना पसंद करेगा तो कल पैसा भी देगा. शायद यहीं से कोई नई पगडंडी निकले मंज़िल की ओर.
मूलत: नवभारत टाइम्स के कॉलम ’रोशनदान’ में पाँच सितंबर को प्रकाशित.
राँझा राँझा
प्रायद्वीपीय भारत को पछाड़ती, दक्षिण से उत्तर की ओर भागती एक रेलगाड़ी में गुलज़ार द्वारा फ़िल्म ’रावण’ के लिए लिखा गीत ’राँझा राँझा’ सुनते हुए…
शुरुआती आलाप में कहीं गहरे महिला स्वर की गूँज है. और बहती हवाओं की सनसनाहट भी जैसे स्त्री रूपा है. रेखा अपनी आवाज़ को बह जाने देती हैं. बियाबान में भटकने देती हैं. उसे अब फ़िकर नहीं ज़माने की, परवाह नहीं रुसवाइयों की. कहना है हीर का कि उस राँझा का नाम लेते-लेते अब मैं खुद राँझा हो गई हूँ. अरे ओ ज़माने, अब मुझे हीर नहीं, राँझा कहकर ही बुलाया कर…
राँझा राँझा करदी वे मैं…
जावेद अली की आवाज़ साफ़ है, खड़ी एकदम. जैसे उसे ज़माने की परवाह हो, किसी की नज़रों में आने से दिल धड़कता हो. पुरुष स्वर थोड़ी ज़्यादा व्यावहारिकता समझता है. ’दिल अगर आ भी गया, वो तेरा शहर नहीं’. नदी होना बस स्त्री के ही हिस्से है. वे दूसरी तरफ़ इसके सिरे को सम्भाले रखते हैं. रोक लो इस उफनते समन्दर को नहीं तो ये अपने साथ हम दोनों को भी बहा ले जायेगा..
राँझा राँझा ना कर हीरे जग बदनामी होए,
पत्ती पत्ती झर जावे पर खुशबू चुप न होए.
गुलज़ार की दुनिया में खुशबू ’कम न होने’ की बजाय ’चुप नहीं होती’ है. बड़ा मज़ेदार है ये देखना कि कैसे आवाज़ की ये खूबियाँ बोल के भावों से मिल जाती हैं और अद्भुत तालमेल पैदा करती हैं. स्त्री स्वर उसकी चोरी पकड़ लेता है, “देखना पकड़ा गया, इश्क़ में जकड़ा गया” और पुरुष स्वर अपनी प्यारी सी बेचारगी कुछ यूँ बताता है, “आँख से हटती नहीं, अरे हटती नहीं, अरे हटती नहीं…”
शुरुआत में पुरुष बोल सीख वाले, देख, संभल कर चल, वाले हैं. और जहाँ पुरुष स्वर के बोलों के भाव भटकने लगते हैं, ठीक वहीं पुरुष स्वर धीरे-धीरे ये ओढ़ी हुई गम्भीरता छोड़ता है.
बिना तेरे रातें, अरे रातें, क्यों लम्बी लगती हैं,
कभी तेरा गुस्सा, तेरी बातें, क्यों अच्छी लगती हैं.
“ये ढलते कोयले, अरे कोयले, अब रखना मुश्किल है…” और अंत में इन बोलों के साथ वो भी उसी नदी की धारा में बह जाता है जिसे स्त्री रूपा हवाओं की सनसनाहट, अनुराधा का रगड़ खाता हुआ आलाप और रेखा का स्त्री स्वर इस गीत के शुरु में अपने साथ लेकर आए थे.
बुला रहा है कोई मुझको, लुभा रहा है कोई.
बात पुरानी है, नब्बे का दशक अपने मुहाने पर था. अपने स्कूल के आख़िरी सालों में पढ़ने वाला एक लड़का राजस्थान के एक छोटे से कस्बे में कैसेट रिकार्ड करने की दुकान खोलकर बैठे दुकानदार से कुछ अजीब अजीब से नामों वाले गाने माँगा करता. जो उम्मीद के मुताबिक उसे कभी नहीं मिला करते. दुकानदार उसे गुस्सैल नज़रों से घूरता. इंडियन ओशियन और यूफ़ोरिया को मैं तब से जानता हूँ. उसे जयपुर शहर में (जहाँ वो अपनी छुट्टियों में जाया करता) अजमेरी गेट के पास वाली एक छोटी सी गली बहुत पसन्द थी. इसलिए क्योंकि ट्रैफ़िक कंट्रोल रूम ’यादगार’ से घुसकर टोंक रोड को नेहरू बाज़ार से जोड़ने वाली यह गली उसे उसकी पसन्दीदा तीन चीज़ें देती थी. एक – क्रिकेट सम्राट, दो – इंडियन ओशियन और यूफ़ोरिया की ऑडियो कैसेट्स और तीसरी गुड्डू की मशीन वाली सॉफ़्टी. और अगर कभी वो जयपुर न जा पाता तो वो अपनी माँ के जयपुर से लौटकर आने का इंतज़ार करता. और उसकी माँ उसे कभी निराश नहीं करतीं.
कितने दूर निकल आए हैं हम अपने-अपने घरों से. कल ओडियन, बिग सिनेमास में जयदीप वर्मा की बनाई ’लीविंग होम – लाइफ़ एंड म्यूज़िक ऑफ़ इंडियन ओशियन’ देखने हुए मुझे यह अहसास हुआ. ’लीविंग होम’ देखते हुए मैंने यह लम्बा सफ़र एक बार फिर से जिया. (और फ़िल्म के इंटरवल में आए ’वीको टरमरिक’ के विज्ञापन तो इसमें असरदार भूमिका निभा ही रहे थे!) और सच मानिए, मैं उल्लासित था. पहली बार अपने बीते कल को याद कर नॉस्टैल्जिक होते हुए भी मैं उदास बिलकुल नहीं था, प्रफ़ुल्लित हो रहा था. और यह असर था उस संगीत का जिसे सुनकर आप भर उदासी में भी फिर से जीना सीख सकते हैं. सीख सकते हैं छोड़ना, आगे बढ़ जाना. सीख सकते हैं भूलना, माफ़ करना. सीख सकते हैं खड़े रहना, आख़िर तक साथ निभाना.
’लीविंग होम’ किरदारों की कहानी नहीं है. यह उन किरदारों द्वारा रचे संगीत की कहानी है. इंडियन ओशियन के द्वारा रचित हर गीत का अपना व्यक्तित्व है, अपना स्वतंत्र अस्तित्व है. इसीलिए फ़िल्म के लिए नए लेकिन बिलकुल माफ़िक कथा संरचना प्रयोग में निर्देशक जयदीप वर्मा इसे इंडियन ओशियन की कहानी द्वारा नहीं, उनके द्वारा रचे गीतों की कहानी से आगे बढ़ाते हैं. तो यहाँ जब ’माँ रेवा’ की कहानी आती है तो हम उस गीत के साथ नर्मदा घाटी के कछारों पर पहुँच जाते हैं और उस लड़के की शुरुआती कहानी से परिचित होते हैं जिसे आज पूरी दुनिया राहुल राम के नाम से जानती है. ’डेज़र्ट रेन’ की कहानी के साथ सुश्मित की कहानी खुलती है जो हमेशा से इंडियन ओशियन का आधार स्तंभ रहा है. ’कौन’ की कहानी एक नौजवान कश्मीरी लड़के की कहानी है. एक पिता हमें बात बताते हैं उन दिनों की जब एक पूरी कौम को उनके घर से बेदखल कर दिया गया था. और इसीलिए जब अमित किलाम कहते हैं कि मैं इसीलिए शुक्रगुज़ार हूँ भगवान का कि इतना सब होते हुए भी मेरे भीतर कभी वो साम्प्रदायिक विद्वेष नहीं आया, हमें भविष्य थोड़ा ज़्यादा उजला दिखता है. आगे जाकर ’झीनी’ की कथा है और अशीम अपने बचपन के दिनों के अकेलेपन को याद करते धूप के चश्मे के पीछे से अपनी नम आँखें छुपाते हैं. सुधीर मिश्रा कहते हैं कि अशीम को सुनते हुए मुझे कुमार गंधर्व की याद आती है. संयोग नहीं है कि इन दोनों ही गायकों ने कबीर की कविता को ऐसे अकल्पनीय क्षेत्रों में स्थापित किया जहाँ उनकी स्वीकार्यता संदिग्ध थी. निर्गुण काव्य की ही तरह, इंडियन ओशियन भी एक खुला मंच है संगीत का. जहाँ विश्व के किसी भी हिस्से के संगीत की आमद का स्वागत होता है.
यह फ़िल्म डॉक्यूमेंट्री के क्षेत्र में भी एक महत्वपूर्ण एंगल के साथ आई है. आमतौर पर डॉक्यूमेंट्री फ़िल्में मूलत: अपने निर्देशक के दिमाग में आए एक अदद ख़पती विचार की उपज होती हैं. और ऐसे में निर्देशक ही कहानी को विभिन्न तरीकों से आगे बढ़ाते हैं. लेकिन ’लीविंग होम’ की ख़ास बात है कि निर्देशक यहाँ सायास लिए गए फ़ैसले के तहत खुद पीछे हट जाता है और अपनी कहानी को बोलने देता है. न ख़ुद बीच में कूदकर कथा सूत्र को आगे बढ़ाने की कोई कोशिश है और न ही कोई वॉइस-ओवर. यहाँ तक की व्यक्तिगत बातचीत भी इस तरह एडिट की गई है कि सवाल पूछने वाला कभी नज़र नहीं आता. बेशक यह सायास है. जैसा दिबाकर बनर्जी की हालिया फ़िल्म में एक किरदार का संवाद है, “डाइरेक्टर को कभी नहीं दिखना चाहिए, डाइरेक्टर का काम दिखना चाहिए.” जयदीप वर्मा का काम बोलता है.
हाँ, एक छोटी सी नाराज़गी भी है मेरी. जिस तरह शुरुआत में फ़िल्म दिल्ली की सड़कों पर आम आदमी की तरह घूमती, उसकी नज़र से शहर को देखती करोलबाग की ओर बढ़ती है, वह मुझे बाँध लेता है. इंडियन ओशियन से हमारी पहली मुलाकात होती है. लेकिन फिर फ़िल्म के शुरुआती हिस्से में ही हम दिल्ली के कई नामी चेहरों को इंडियन ओशियन की तारीफ़ करते (जैसे उन्हें सर्टिफ़िकेट देते) देखते हैं. उनमें से कई बाद में फ़िल्म में लौटकर आते हैं, कई नहीं. यह शुरुआती मिलना-मिलाना मुझे अखरा. हम इंडियन ओशियन को सीधे जानना ज़्यादा पसन्द करेंगे (या कहें जानते हैं) या फिर उनके संगीत के माध्यम से, जो आगे फ़िल्म करती है. न कि किसी और ’सेलिब्रिटी’ के माध्यम से. इंडियन ओशियन को अपने चाहने वालों के बीच (जो इस फ़िल्म के संभावित दर्शक होने हैं) आने के लिए मीडिया या सिनेमा के सहारे की कोई ज़रूरत नहीं है. हो सकता है शायद यह उन लोगों को फ़िल्म से जोड़ने का एक प्रयास हो जो सीधे इंडियन ओशियन के संगीत से नहीं बँधे हैं. अगर ऐसा है तो मैं भी इस प्रयोग के सफल होने की पूरी अभिलाषा रखता हूँ. लेकिन एक पुराना इंडियन ओशियन फ़ैन होने के नाते फ़िल्म की ठीक शुरुआत में हुए इस ’सेलिब्रिटी समागम’ पर मैं अपनी छोटी सी नाराज़गी यहाँ दर्ज कराता हूँ.
फ़िल्म की जान हैं वो लाइव रिकॉर्डिंग्स जिन्हें यह फ़िल्म अपने मूल कथा तत्व की तरह बीच-बीच में पिरोए हुए है. सिनेमा हाल में इस संगीत के मेले का आनंद उठाने के बाद इन्हीं रिकॉर्डिंग्स की वजह से अब मैं इस फ़िल्म की अनकट डीवीडी के इंतज़ार में हूँ. सच है कि इंडियन ओशियन का संगीत ऐसे ही अच्छा लगता है. अपने मूल रूम में, बिना किसी मिलावट, एकदम रॉ. मैं वापस आकर अपनी अलमारी में से उनकी दो पुरानी ऑडियो कैसेट्स निकालता हूँ, धूल पौंछकर उनमें से एक को अपने कैसेट प्लेयर में डालता हूँ. अब कमरे में ’डेज़र्ट रेन’ का संगीत गूँज रहा है. मैं बत्ती बुझा देता हूँ. कुछ देर से बाहर मौसम ने अपना रुख़ पलट लिया है. मैं खिड़की पूरी खोल देता हूँ. बारिश…
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जयदीप सिर्फ़ कमाल की फ़िल्में ही नहीं बनाते हैं, वे लिखते भी कमाल का हैं. इस फ़िल्म की सम्पूर्ण कथानुमा यात्रा आप तीन पोस्टों में – पहली यहाँ, दूसरी यहाँ और तीसरी यहाँ पढ़ सकते हैं. मेरी पोस्ट की तरह यह भी फ़िल्म देखने के बाद पढ़ेंगे तो और मज़ा आएगा. फ़िल्म कनॉट प्लेस के ओडियन में चल रही है और ऐसे ही शायद पांच-छ शहरों के कुछ चुनिंदा सिनेमाघरों में. और कम से कम इस हफ़्ते तो है ही.
ओशियंस में गुलज़ार और विशाल की जुगलबन्दी
ओशियंस में गुलज़ार और विशाल भारद्वाज साथ थे. बात तो ’कमीने’ पर होनी थी लेकिन शुरुआत में कुछ बातें संगीत को लेकर भी हुईं. बातों से सब समझ आता है इसलिए हर बात के साथ उसे कहने वाले का नाम जोड़ना ज़रूरी नहीं लगता. सम्बोधन से ही सब साफ़ हो जाता है. वहीं गुलज़ार ने यह भी बताया कि अब पंचम के बाद उनके साथ सबसे ज़्यादा गीत बनाने वाले विशाल ही हैं. इन गीतों में ’छोड़ आये हम वो गलियाँ’ का नॉस्टेल्जिया भी शामिल है और ’जंगल जंगल बात चली है’ का बचपना भी. “धम धम धड़म धड़ैया रे” की गगन गुंजाती ललकार भी और ’एश्ट्रे’ की नश्वरता और मृत्युबोध भी. ’रात के ढाई बजे’ की उत्सवप्रिय निडरता से ’कश लगा’ की ’घर फूँक, तमाशा देख’ प्रवृत्ति भी. यह जोड़ी मिलकर मेरी नज़र में पिछले दशक के कुछ सबसे यादगार गीतों के लिए ज़िम्मेदार है. कुछ झलकियाँ पेश हैं.
- गुलज़ार साहब की एक किताब है “कुछ और नज़्में”. एक दौर था जब मुझे इस किताब की सारी नज़्में ज़बानी याद हुआ करती थीं और आप बीच में कहीं से भी कोई लाइन बोल दें और मैं आगे की पूरी नज़्म सुना दिया करता था. मेरे पिता बार-बार मेरे सामने गुलज़ार साहब की आलोचना करते थे. बाद में मुझे समझ आया कि इस तरह वो मुझे छेड़ा करते थे. मैं मुम्बई आया ही यह सोचकर था कि बस गुलज़ार साहब के साथ एक बार काम कर पाऊँ और मेरा करियर पूरा हो जाएगा.
- विशाल के साथ मेरे शुरुआती काम “चड्डी पहन के फूल खिला है” की बहुत तारीफ़ हुई है. उसके लिए भी मुझे तब बहुत-कुछ सुनना पड़ा था. कहा गया कि गाने में ये ’चड्डी’ शब्द का इस्तेमाल कुछ ठीक नहीं. यहाँ तक सलाह दी गई कि इस चड्डी को बदल कर ’लुंगी’ कर लीजिए! मैंने वो करने से इनकार कर दिया. अरे भई मोगली की एक इमेज है और उसके हिसाब से ही गाना लिखा गया है. उस वक़्त जया जी चिल्ड्रंस फ़िल्म सोसायटी की अध्यक्ष हुआ करती थीं. आखिर उनके अस्तक्षेप से वो गाना आगे बढ़ा.
- उस दौर में ही हमने साथ एक एनीमेशन “टॉम एंड जैरी” के लिये भी गाने किए थे. उसका एक गाना बहुत ख़ास है. हमारे यहाँ माँ के लिए तो बहुत गाने लिखे गए लेकिन पापा के लिए गाने ढूँढे से भी नहीं मिलते. गुलज़ार साहब के लिखे उस गाने के बोल शायद कुछ यूँ थे, “पापा आओ मैं तुम्हारे पास हूँ, पापा आओ मैं बहुत उदास हूँ. लाल कॉपी में तुम्हारी हिदायतें, नीली कॉपी में मेरी शिकायतें. पापा आओ और हिसाब दो.”
- विशाल मेरे गाने ख़ारिज भी कर देते हैं. कुछ जम नहीं रहा, कुछ और, कुछ और कह कहकर. और ये अपने गाने भी ख़ारिज करते रहते हैं. बोरी भर नहीं तो कम से कम तकिया भर गाने तो मेरे इनके यहाँ पड़े मिल ही जायेंगे!
- मुझे सेलेब्रेशन के गाने बनाने में बहुत दिक्कत होती है. उस वक़्त भी हुई थी और आज भी होती है. शायद मेरी तबियत ही उदास है तो उदास गाने ही बनते हैं! (चप्पा चप्पा का संदर्भ आने पर विशाल ने कहा)
- अभी तीन-चार दिन से ’इश्किया’ के लिए एक ऐसे ही मूड का गाना बनाने की कोशिश में लगा था लेकिन कुछ बनता ही नहीं था. फिर गुलज़ार साहब ने कहा, “तुम हिट गाना बनाने की कोशिश करोगे तो नहीं बनेगा. लेकिन तुम गाना बनाने की कोशिश करोगे तो बन जाएगा.”
- चप्पा चप्पा के दौरान तो यह बार-बार हुआ कि मैं डमी लिरिक्स देता था और विशाल उन्हें ही लिरिक्स में बदल देता था. ’चप्पा चप्पा’ गीत में ऐसे ही आया. मैंने कहा कि गाने की शुरुआत तो कुछ ऐसी होनी चाहिए जैसे ’चप्पा चप्पा चरखा चले’ और विशाल ने कहा कि बस आप तो यही दे दीजिए. यूँ ही मेरा कहा “गोरी, चटख़ोरी जो कटोरी से खिलाती थी” इसने गीत के बोल में बदल दिया.
“शंकर शैलेन्द्र को हिन्दी सिनेमा का सबसे बड़ा गीतकार कहा जा सकता है.” -गुलज़ार.
इस बार के ओशियंस में प्रस्तुत गुलज़ार साहब का पर्चा “हिन्दी सिनेमा में गीत लेखन (1930-1960)” बहुत ही डीटेल्ड था और उसमें तीस और चालीस के दशक में सिनेमा के गीतों से जुड़े एक-एक व्यक्ति का उल्लेख था. वे बार-बार गीतों की पंक्तियाँ उदाहरण के रूप में पेश करते थे और जैसे उस दौर का चमत्कार फिर से जीवित कर देते थे. पेश हैं गुलज़ार साहब के व्यख्यान की कुछ झलकियाँ :-
- एक पुराना किस्सा है. एक बार ओम शिवपुरी साहब ने अपने साहबज़ादे को एक चपत रसीद कर दी. अब कर दी तो कर दी. साहबज़ादे ने जवाब में अपने पिता से पूछा कि क्या आपके वालिद ने भी आपको बचपन में चपत रसीद की थी? तो उन्होंने जवाब में बताया हाँ. और उनके पिता ने भी.. फिर जवाब मिला हाँ. और उनके पिता ने भी? शिवपुरी साहब ने झल्लाकर पूछा आखिर तुम जानना क्या चाहते हो? तो जवाब में उनके साहबज़ादे ने कहा, “मैं जानना चाहता हूँ कि आख़िर यह गुंडागर्दी शुरु कहाँ से हुई!” तो इसी तरह मैं भी अपनी रोज़ी-रोटी के लिए जो काम आजकल करता हूँ इसकी असल शुरुआत कहाँ से हुई इसे जानने के लिए मैं सिनेमा के सबसे शुरुआती दौर की यात्रा पर निकल पड़ा…
- आप शायद विश्वास न करें लेकिन सच यह है कि हिन्दी सिनेमा में गीतों की शुरुआत और उनका गीतों से अटूट रिश्ता बोलती फ़िल्मों के आने से बहुत पहले ही शुरु हो गया था. साइलेंट सिनेमा के ज़माने में ही सिनेमा के पर्दे के आगे एक बॉक्स में एक उस्ताद साहब अपने शागिर्दों के साथ बैठे रहते थे और पूरे सिनेमा के दौरान मूड के मुताबिक अलग-अलग धुनें और गीत-भजन बजाया-गाया करते थे. इसकी दो ख़ास वजहें भी थीं. एक तो पीछे चलते प्रोजैक्टर का शोर और दूसरा सिनेमा के आगे दर्शकों में ’पान-बीड़ी-सिगरेट’ बेचने वालों की ऊँची हाँक. लाज़मी था कि गीत-संगीत इतने ऊँचे स्वर का हो कि ये ’डिस्टरबिंग एलीमेंट’ उसके पीछे दब जाएं. इतनी सारी अलग-अलग आवाज़ें सिनेमा हाल में एक साथ, वास्तव में यह साइलेंट सिनेमा ही असल में सबसे ज़्यादा शोरोगुल वाला सिनेमा रहा है.
- इन्हीं साज़ बजाने वालों में एक हुआ करते थे मि. ए.आर. कुरैशी जिन्हें आज आप और हम उस्ताद अल्लाह रक्खा के नाम से और ज़ाकिर हुसैन के पिता की हैसियत से जानते हैं. उन्होंने मुझे कहा था कि मैंने तो कलकत्ता में सिनेमा के आगे चवन्नी में तबला बजाया है. यूँ ही जब ये सिनेमा के आगे बजने वाले गीत लोकप्रिय होने लगे तो आगे से आगे और गीतों की फरमाइश आने लगीं. सिनेमा दिखाने वालों को भी समझ आने लगा कि भई उस सिचुएशन में वहाँ पर तो ये गीत बहुत जमता है. इस तरह गीत सिचुएशन के साथ सैट होने लगे. इसी बीच किसी फरमाइश के वशीभूत मुंशी जी को किसी लोकप्रिय मुखड़े का सिचुएशन के मुताबिक आगे अंतरा लिख देने को कहा गया होगा, बस वहीं से मेरी इस रोज़ी-रोटी की शुरुआत होती है.
- साल उन्नीस सौ सैंतालीस वो सुनहरा साल था जिस साल आधा दर्जन से ज़्यादा सिनेमा के गीतकार खुद निर्देशक के रूप में सामने आए. इनमें केदार शर्मा और मि. मधोक जैसे बड़े नाम शामिल थे.
- केदार शर्मा जितने बेहतरीन निर्देशक थे उतने ही बेहतरीन शायर-गीतकार भी थे. अफ़सोस है कि उनके इस रूप की चर्चा बहुत ही कम हुई है. उनकी इन पंक्तियों, “सुन सुन नीलकमल मुसकाए, भँवरा झूठी कसमें खाए.” जैसा भाव मुझे आज तक कहीं और ढूँढने से भी नहीं मिला. उस कवि में एक तेवर था जो उनके लिखे तमाम गीतों में नज़र आता है.
- कवि प्रदीप चालीस के दशक का मील स्तंभ हैं. उनके गीतों में हमेशा नेशनलिज़्म का अंडरटोन घुला देखा जा सकता है. इसका सबसे बेहतर उदाहरण है आज़ादी से पहले आया उनका गीत “दूर हटो ए दुनियावालों हिन्दुस्तान हमारा है.” और इसके अलावा उनके लिखे गीत “ए मेरे वतन के लोगों, ज़रा आँख में भर लो पानी” से जुड़ा किस्सा तो सभी को याद ही होगा. जिस गीत को सुनकर पंडित जी की आँखों में आँसू आ गए हों उसके बारे में और क्या कहा जाये.
- ग़ालिब के कलाम का हिन्दी सिनेमा में सर्वप्रथम आगमन होता है सन 1940 में और नज़्म थी, “आह को चाहिए एक उम्र असर होने तक”. चालीस के दशक में ही हिन्दी सिनेमा फ़ैज़ की नज़्म को और टैगोर की कविता को गीत के रूप में इस्तेमाल कर चुका था.
- बिना शक शंकर शैलेन्द्र को हिन्दी सिनेमा का आज तक का सबसे बड़ा लिरिसिस्ट कहा जा सकता है. उनके गीतों को खुरच कर देखें और आपको सतह के नीचे दबे नए अर्थ प्राप्त होंगे. उनके एक ही गीत में न जाने कितने गहरे अर्थ छिपे होते थे.
- जैसे सलीम-जावेद को इस बात का श्रेय जाता है कि वो कहानी लेखक का नाम सिनेमा के मुख्य पोस्टर पर लेकर आये वैसे ही गीत लेखन के लिए यह श्रेय साहिर लुधियानवी को दिया जाएगा.
- साहिर भी अपने विचार को लेकर बड़े कमिटेड थे. वो विचार से वामपंथी थे और वो उनके गीतों में झलकता है. गुरुदत्त की “प्यासा” उनके लेखन का शिखर थी.
- एक गीत प्रदीप ने लिखा था “देख तेरे इंसान की हालत क्या हो गई भगवान” और इसके बाद इसी गाने की पैरोडी साहिर ने लिखी जो थी, “देख तेरे भगवान की हालत क्या हो गई इंसान”!
- इस पूरे दौर में राजेन्द्र कृष्ण को नज़र अंदाज़ नहीं किया जा सकता. तक़रीबन तीन दशक तक दक्षिण भारत के स्टूडियोज़ से आने वाली हर दूसरी फ़िल्म में उनके गीत होते थे. उनके गीत सीधा अर्थ देने वाले होते थे, जैसे संवादों को ही गीतों में ढाल दिया हो.
- मेरा प्रस्ताव यह है कि जहाँ हम पचास के दशक को हिन्दी सिनेमा के गीतों का सुनहरा समय मानते हैं तो वहाँ हमें इस सुनहरे दौर में तीस के दशक और चालीस के दशक को भी शामिल करना चाहिए. यही वह दौर है जब इस सुनहरे दौर की नींव रखी जा रही थी. तेज़ी से नए-नए बदलाव गीत-संगीत में हो रहे थे और तमाम नए उभरते गीतकार-संगीतकार-गायक अपने पाँव जमा रहे थे. लता आ रहीं थीं, बर्मन आ रहे थे, साहिर आ रहे थे. यह पूरा चालीस का दशक एक बहुत ही समृद्ध परम्परा है जिसे हमारे हाथ से छूटना नहीं चाहिए.
बदहवास शहर में फंसी जिन्दगियों की कहानी : कमीने
उस शाम सराय में रविकांत और मैं मुम्बई की पहचान पर ही तो भिड़े थे. ’मुम्बई की आत्मा महानगरीय है लेकिन दिल्ली की नहीं’ कहकर मैंने एक सच्चे दिल्लीवाले को उकसा दिया था शायद. ’और इसी महानगरीय आत्मा वाले शहर में शिवसेना से लेकर मनसे तक के मराठी मानुस वाले तांडव होते हैं?’ रविकांत भी सही थे अपनी जगह. मैं मुम्बई का खुलापन और आज़ादी देखता था और वो बढ़ते दक्षिणपंथी राजनीति के उभार चिह्नित कर रहे थे. हम ’मेट्रोपॉलिटन’ और ’कॉस्मोपॉलिटन’ के भेद वाली पारिभाषिक बहसों में उलझे थे. हमारे सामने एक विरोधाभासी पहचानों वाला शहर था. हम दोनों सही थे. मुम्बई के असल चेहरे में ही एक फांक है. यह शहर ऐसी बहुत सारी पहचानों से मिलकर बनता है जो अब एक-दूसरे को इसके भीतर शामिल नहीं होने देना चाहती. हाँ यह कॉस्मोपॉलिटन है. लेकिन अब कॉस्मोपॉलिटन शहर की परिभाषा बदल रही है. दुनिया के हर कॉस्मोपॉलिटन शहर में एक धारा ऐसी भी मिलती है जो उस रंग-बिरंगी कॉस्मोपॉलिटन पहचान को उलट देना चाहती है. दरअसल इस धारा से मिलकर ही शहर का ’मेल्टिंग पॉट’ पूरा होता है.
’मेल्टिंग पॉट’. विशाल भारद्वाज की ’कमीने’ ऐसे ही ’मेल्टिंग पॉट’ मुम्बई की कहानी है जहां सब गड्ड-मड्ड है. सिर्फ़ चौबीस घंटे की कहानी. यह दो भाइयों (शाहिद कपूर दोहरी भूमिका में) की कहानी है जो एक-दूसरे की शक्ल से भी नफ़रत करते हैं और इस नफ़रत की वजह उनके अतीत में दफ़्न है. चार्ली तेज़ है, उसके सपने बड़े हैं. वह रेसकोर्स का बड़ा खिलाड़ी बनना चाहता है. गुड्डू छोटी इच्छाओं वाला जीव है जिसकी ज़िन्दगी का ख़ाका पॉलीटेक्नीक में डिप्लोमा, नौकरी, तरक्की, शादी से मिलकर बनता है. लेकिन इस सबके बीच एक प्रेम कहानी है. गुड्डू की ज़िन्दगी में स्वीटी (प्रियंका चोपड़ा) है जो माँ बनने वाली है और बदकिस्मती से वो लोकल माफिया डॉन भोपे भाऊ (अमोल गुप्ते) की बहन है. पूरी फ़िल्म धोखे और फरेब से भरी है लेकिन अंत में आपको महसूस होगा कि असल में यह फ़िल्म अच्छाई के बारे में है. यह इंसान के भीतर छिपी अच्छाई की तलाश है. यह कबूतर के भीतर छिपे मोर की तलाश है. ’कमीने’ को लिकप्रिय हिन्दी सिनेमा की सर्वकालिक महानतम क्लासिक ’शोले’ का आधुनिक संस्करण कह सकते हैं. और इस आधुनिक संस्करण के मूल सूत्र ’शोले’ से ही उठाए गए हैं.
इस मुम्बई में अन्डरवर्ल्ड माफिया के तीन अलग अलग तंत्र एक साथ काम कर रहे हैं और जिस ’क़त्ल की रात’ की यह कहानी है उस रात यह तीनों माफिया तंत्र आपस में बुरी तरह उलझ गए हैं. अपने सपनों के पीछे भागता एक भाई चार्ली ज़िन्दगी में शॉर्टकट लेने के चक्कर में ऐसे चक्कर में फंसा है कि अब जान बचानी मुश्किल है और दूसरा भाई गुड्डू न चाहते हुए भी अब भोपे भाऊ के निशाने पर है. मराठी अस्मिता के नाम पर अपनी राजनीति चमकाने वाले भोपे भाऊ के लिए एक उत्तर भारतीय दामाद उनकी राजनीतिक महत्वाकाक्षाओं का अंत है. और इसी सबके बीच उस बरसाती रात उनकी ज़िन्दगियां आपस में टकरा जाती हैं. जैसे एक-दूसरे का रास्ता काट जाती हैं. तेज़ बरसात है. गुप्प अंधेरा है. एक गिटार है जिसमें दस करोड़ रु. बन्द हैं. उस गिटार के आस-पास खून है, गोलियां हैं, लालच है, विश्वासघात है, मौत है. एक तरफ शादी की शहनाई बज रही है और दूसरी तरफ अंधाधुंध गोलियों की बौछार है. इस सारे मकडजाल से भाग जाने की इच्छा लिए हुए हमारे दोनों नायक हैं और चीज़ों को और जटिल बनाने के लिए इन दोनों नायकों की शक्लें भी एक हैं. इसी सबके बीच पुलिस के भेस में माफिया के गुर्गे हैं, बाराबंकी से मुम्बई रोज़ी की तलाश में होते विस्थापन के किस्से हैं, रिज़वानुर्रहमान से तहलका तक के उल्लेख हैं और सबसे ऊपर आर.डी बर्मन के गीत हैं. ’सत्या’ के साथ हिन्दी सिनेमा ने मुम्बई अन्डरवर्ल्ड का जो यथार्थवादी स्वरूप हमारे सामने प्रस्तुत किया है उसे अनुराग कश्यप और विशाल भारद्वाज अपने सिनेमा में नए आयाम दे रहे हैं.
गुड्डू की भूमिका में शाहिद कपूर हकलाते हैं और चार्ली की भूमिका में उनका उच्चारण गलत है (मैं ’फ़’ को ’फ़’ बोलता हूँ! आपने सुना ही होगा.) लेकिन इन शारिरिक भेदों से अलग शाहिद ने अपनी अदाकारी से दो अलग व्यक्तित्वों को जीवित किया है. स्वीटी के किरदार की आक्रामकता उसे आकर्षक बनाती है और एक मराठी लड़की के किरदार में प्रियंका बेहतर लगी हैं. भाइयों की कहानियां देखने की अभ्यस्त हिन्दुस्तानी जनता को विशाल ने खूब पकड़ा है. अब तक देखे मुख्यधारा के बॉलीवुड सिनेमा से आपकी जो भी समझ बनी है उसे साथ लेकर थियेटर में जाइएगा, वो सारे फॉर्मूले आपको बहुत काम आयेंगे इस फ़िल्म का आनंद उठाने में. वही बॉलीवुडीय परंपरा कभी आपको खास सूत्र देगी फ़िल्म को समझने के और वही कई बार आपको उस क्षण तक भी पहुंचाएगी जिसके आगे आपने जो सोचा होगा वो उलट जाएगा. श्रीराम राघवन की ही तरह विशाल भारद्वाज ने भी एक थ्रिलर को अमली जामा पहनाने के लिए हमारी साझा फ़िल्मी स्मृतियों का खूब सहारा लिया है. इस फ़िल्म की बड़ी खासियत इसके सह-कलाकारों का सही चयन और अभिनय है. कमाल किया है भोपे भाऊ की भूमिका में अमोल गुप्ते ने एवं मिखाइल की भूमिका में चंदन रॉय सान्याल ने. चंदन तो इस फ़िल्म की खोज कहे जा सकते हैं. अपने किरदार में वो कुछ इस तरह प्रविष्ठ हुए हैं कि उन्हें उससे अलगाना असंभव हो गया है.
विशाल का पुराना काम देखें तो यह सवाल उठना लाज़मी है कि ’कमीने’ सबके बीच कहां ठहरती है? क्या इसे शेक्सपियर की रचनाओं के विशाल द्वारा किए तर्जुमे ’मक़बूल’ और ’ओमकारा’ के आगे की कड़ी माना जाए? बेशक ’कमीने’ विशाल की पिछली ’ओमकारा’ और ’मक़बूल’ से अलग है. इसमें शेक्सपियर की कहानियों का मृत्युबोध नहीं है, इसमें संसार की निस्सारता और नश्वरता का अलौकिक बोध नहीं है. इस मायने में यह फ़िल्म अपने अनुभव में ज़्यादा सांसारिक फ़िल्म है. ज़्यादा आमफ़हम. शायद इसमें मृत्यु भी एक आमफ़हम चीज़ बन गई है. और यहीं यह फ़िल्म क्वेन्टीन टेरेन्टीनो की फ़िल्मों के सबसे नज़दीक ठहरती है.
इस फ़िल्म की सबसे बड़ी खूबी है कि एक बेहतरीन थ्रिलर की तरह यह पूरे समय अपना तनाव बरकरार रखती है. और यह तनाव बनाने के लिए विशाल ने किसी तकनीकी सहारे का उपयोग नहीं किया है बल्कि यह तनाव किरदारों के आपसी संबंधों से निकल कर आता है. ’कमीने’ कसी पटकथा और सटीक संवादों से रची फ़िल्म है जिसमें बेवजह कुछ भी नहीं है. हाँ इस कहानी में ’मक़बूल’ जितने गहरे अर्थ नहीं मिलेंगे लेकिन ’कमीने’ एक रोचक फ़िल्म है. और यह रोचक फ़िल्म अपना आकर्षण बनाए रखने के लिए हमेशा सही रास्ता चुनती है, कोई ’फॉर्टकट’ नहीं. यही मुंबई का ‘मेल्टिंग पॉट’ है।
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जनसत्ता के लिए लिखी गई थी. पहली बार मोहल्ला लाइव पर प्रकाशित.
’तुम जो कह दो तो आज की रात चाँद डूबेगा नहीं’, कमीने संगीत समीक्षा.
मैं झमाझम बारिश से भीगती बस में था. यह शाम का वही वक़्त था जिसके लिये एक गीतों भरी प्रेम कहानी में कभी गुलज़ार ने लिखा था कि सूरज डूबते डूबते गरम कोयले की तरह डूब गया… और बुझ गया! गुड़गांव से थोड़ा पहले महिपालपुर क्रॉसिंग पर जहाँ मेट्रो की नई बनी लाइन घुमावदार उलझे फ्लाईओवरों के ऊपर से पच्चीस डिग्री के कोण पर उन्हें नीचा दिखाती हुई सीधा चाँद की ओर निकल जाती है वहीं, बस वहीं. दूर बादलों के बीच से निकलता एक हवाईजहाज़ था जिसकी बत्ती किसी डूबते सितारे की तरह दूर जाती लग रही थी. खिड़की के शीशे पर अटकी बारिश की बूंदें थीं जिन्हें सामने से आती ट्रक की हेडलाइट रह-रहकर सुनहरे मोती में बदल देती थी. रह-रहकर पानी, रह-रहकर मोती. चमकता सा पानी, बहते से मोती. खिड़की से दीखते सामने टंगे चाँद को देखकर ये ख्याल आया था कि क्या हमारी तरह चांद भी बारिश में भीग जाता होगा? क्या घुटने जोड़कर, दोनों हाथों के बीच सर छिपाकर वो भी इस ठिठुरन भरे मौसम में अपनी जान बचाता होगा? मैंने खिड़की से ऐसा ही एक भीगा हुआ चाँद देखा. तेज़ बौछार में उसके कपड़े जब टपकते होंगे तो क्या वो उन्हें सुखाने के लिए दो उजले तारों के बीच फैलाकर लटका देता होगा? वहीं, बस वहीं मुझे अधूरेपन का अहसास हुआ. वहीं, बस वहीं मैंने एक कहानी लिखने का फ़ैसला किया. वहीं, बस वहीं मैंने भाग जाने की सोची. वहीं, बस वहीं मैंने ’कमीने’ के गीत सुने. जैसे पहली बार सुने, जैसे आखिरी बार सुने.
“ढैन टे णे टेणे नेणे” 4:45 (सुखविंदर सिंह, विशाल डडलानी, रॉबर्ट बॉब)
“आजा आजा दिल निचोड़े,
रात की मटकी तोड़े.
कोई गुडलक निकालें,
आज गुल्लक तो फोड़े.”
विशाल को शायद शेक्सपियर के साथ लम्बी संगत का यह गुण मिला है कि वे आदिम मनोभावों को सबसे बेहतर पहचानने लगे हैं. इसी संगत का असर है कि विशाल मुम्बइया सिनेमा की सबसे आदिम धुन खोज लाए हैं. ढैन टै णे टेणे टेणे ….. हमेशा से मौजूद हमारे बॉलीवुडीय मसाला सिनेमाई मनोभावों को अभिव्यक्त करने वाली सबसे आदिम धुन. इस धुन का बॉलीवुड के लिए वही महत्व है जो हॉलीवुड के लिए ’द गुड, द बैड एंड द अगली’ की शीर्षक धुन का था. मुझे लगता है मैं इस धुन को सालों से जानता हूँ. इस धुन के साथ सत्तर के दशक के अमिताभीय सिनेमा से अस्सी के दशक के मिथुन चक्रवर्तीय सिनेमा तक सिनेमा की एक पूरी किस्म अपने सारे फॉर्मूलों के साथ जी उठती है. यह महा (खल) नायक के दौर से आई आदिम धुन है. मारक असर वाली. सुखविंदर की हमलावर आवाज़ के साथ. हमेशा की तरह गुलज़ार बेहतर प्रयोग करते हैं. हालांकि इस गीत में कोई चमत्कारिक प्रयोग नहीं है लेकिन संगीत की बुलन्दी उसे ढक लेती है.
कहते हैं मुम्बई शहर कभी सोता नहीं. कहते हैं मुम्बई शहर रात का शहर है. यह गीत मुम्बई में ही होना था. यह सड़क का गाना है. रात में जागती सड़क का गाना. इसमें बहुत साल पहले जावेद अख़्तर के लिखे ’सो गया ये जहाँ’ का आवारापन घुला है. विनोद कुमार शुक्ल ने ’नौकर की कमीज़’ में लिखा था, “घर बाहर जाने के लिए उतना नहीं होता जितना लौटने के लिए होता है. लौटने के लिए खुद का घर ज़रूरी होता है.” ओये लक्की लक्की ओये से कमीने तक, क्या हम नष्ट/छूटे घर की तलाश में अनवरत भटकते नायकों की कथायें रच रहे हैं.
“रात आई तो वो जिनके घर थे
वो घर को गए सो गए
रात आई तो हम जैसे आवारा
फिर निकले राहों में और खो गए
इस गली, उस गली
इस नगर उस नगर
जाएँ भी तो कहाँ
जाना चाहें अगर
सो गई हैं सारी मंज़िलें
सो गया है रस्ता”
“पहली बार मोहब्बत” 5:24 (मोहित चौहान)
“याद है पीपल के जिसके घने साये थे,
हमने गिलहरी के झूठे मटर खाये थे.
ये बरक़त उन हज़रत की है,
पहली बार मोहब्बत की है.
आखिरी बार मोहब्बत की है.”
यह दूर पहाड़ों का गीत है. यह गाना पानी वाला गाना है. ठंडे पानी वाला गाना. रसोई के पीछे अलावघर से बुलाती उसकी आवाज़. बर्फीले पानी वाला गाना. कुड़कुड़ी वाले सर्द मौसम के बीच मिट्टी के कुल्हड़ में गरमागरम धुआँ उड़ाती चाय. कुछ है जो बहता हुआ है. नम. जैसे सुनो और भीग जाओ. देवदार. इस गाने की फ़ितरत में ठिठुरन है. कोयले की सिगड़ी जिसमें फूँक मारते ही कोयले का रँग स्याह से बदल कर सुनहरा हो जाता है. ऊना, चोप्ता, लद्दाख, दार्जिलिंग. कहते हैं कि अगर दार्जिलिंग में एड़ी के बल उचककर ऊपर को देखो तो दूर कंचनजघा दीख पड़ता है. मैं बस इस गाने को सुनने के लिये पहली बार पहाड़ों पर जाऊँ, आखिरी बार पहाड़ों पर जाऊँ.
मोहित चौहान को मैंने ’गुँचा कोई मेरे नाम कर दिया’ के साथ खोजा था, दुनिया ने ’तुमसे ही दिन होता है’ के साथ पाया. अब उन्हीं के लिये गीत रचे जा रहे हैं. सुनियेगा, जब ’पहली बार… मोहब्बत की है’ के साथ गीत ऊपर जाता है तो किसी चीड़ या देवदार की सी ऊँचाई का अहसास होता है. गुलज़ार फिर एकबार ’सोये वोये भी तो कम हैं’ जैसे प्रयोगों से साथ दिल जीत लेते हैं. एक सच्चे प्रेम-गीत की तरह यह भी ढेर सारी पुरानी यादों से गुँथा हुआ गीत है. घने साये वाले पीपल के नीचे खाये गिलहरी के झूठे मटर वाला किस्सा इस गीत की जान है. इस गीत का नशा धीरे धीरे चढ़ता है. ’रात के ढाई बजे’ से उलट यह गीत पहली नज़र का प्यार नहीं, साहचर्य का प्रेम है. आप पर आता ही जाता है, आता ही जाता है, आता ही जाता है.
“रात के ढाई बजे” 4:31 (सुरेश वाडकर, रेखा भारद्वाज, सुनिधि चौहान, कुणाल गाँजावाला, अर्ल इ.डी.)
“एक ही लट सुलझाने में
सारी रात गुज़ारी है
चाँद की गठरी सर पे ले ली
आपने कैसी ज़हमत की है”
यह पहली नज़र का प्यार है.
शुरु में ही शहनाई की बदमाश आवाज़ नोटिस करें. रैप का प्रयोग इतना उम्दा है कि हम यह भूल ही जाते हैं कि विशाल के लिये यह बिलकुल नया प्रयोग है. हमारे समय के कुछ सबसे बेहतरीन गायकों की गायकी के बीच रैप कुछ इस तरह पिरोया गया है कि अटखेली को एक और रूप तो मिलता है लेकिन गीत की तन्मयता टूटने नहीं पाती है. यह विशाल की वैरायटी है ’सपने में मिलती है’ की मासूम बदमाशी से ’कल्लू मामा’ के उज्जड्पन तक और ’छोड़ आए हम वो गलियाँ’ के नॉस्टेल्जिया से ’तुम गए सब गया’ के मृत्युबोध तक.
इस गीत की गायकी के बारे में कुछ बात विस्तार से. रेखा भारद्वाज और सुनिधि चैहान इस वक़्त हमारी सबसे वर्सटाइल गायिकाओं में से हैं. दोनों की आवाज़ की बदमाशी अब तो जगज़ाहिर है. अगर आप आवाज़ों की मूल प्रकृति पहचानते हैं तो जान जायेंगे कि इस गीत में सुरेश वाडकर की आवाज़ का क्या महत्व है. इस सांसारिक मोह माया में फंसे साधारण इच्छाओं के गीत को सुरेश वाडकर की आवाज़ अचानक एक ’पवित्रताबोध’ देती है, जैसे उसे कुछ ऊँचा उठा देती है. गौर करें कैसे कुणाल गाँजावाला अपनी चार लाइनों में कुछ अटखेलियाँ करते हैं और आखिर में टाऊ णाऊ भी लेकिन उन्हीं पंक्तियों को गाते हुए सुरेश वाडकर कितने सटीक हैं. सुरेश की आवाज़ चीनी घुली आवाज़ों के बीच गुड़ की मिठास है. और विशाल इसे बखूबी पहचानते हैं. तभी तो दूसरे अंतरे में पहली तीन लाइनें तो कुणाल की आवाज़ में हैं लेकिन ’भोले भाले बन्दे’ में अचानक सुरेश वाडकर की आवाज़ आती हैं और उसे कितना, कितना विश्वसनीय बनाती है. मैं कुणाल और सुनिधि का भी बड़ा पंखा हूँ लेकिन मुझे कहीं गहरे यह लगता है कि इस गीत पर पूरा हक रेखा भारद्वाज और सुरेश वाडकर का ही होना था. मैं पूरे गीत में उनकी आवाज़ का इंतज़ार करता हूँ. शायद उनके हिस्से का असल गीत अभी बाकी है. विशाल सुन रहे हैं न?
“फटक” 5:03 (सुखविंदर सिंह, कैलाश खेर)
“ये इश्क नहीं आसाँ,
अजी एड्स का खतरा है.
पतवार पहन जाना,
ये आग का दरिया है.”
आक्रामक गाना है. हमला करता हुआ. वैसे भी सुखविंदर और कैलाश हमारी सबसे बुलन्द आवाज़ें हैं. थीम बैकग्राउंड बीट है ’फटाक’, किसी वाद्ययंत्र से नहीं कोरस आवाज़ में. टिपिकल विशाल का अंदाज़. सत्या के ’कल्लू मामा’ में भी ’ढिशक्याऊँ’ की धुन इसी अन्दाज़ में आती थी. यह यथार्थवाद का विशाल का अपना तर्जुमा है. बीच में ढोल का प्रयोग एम एम करीम से रहमान तक बहुत से और लोगों के काम की याद दिला जाता है. बहुत ही लिरिकल है, सीधे ज़बान और दिमाग़ पर चढ़ने वाला. इंस्टैंट असर के लिए. गुलज़ार के प्रयोग भी अपनी पूरी बुलन्दी पर हैं. इस बार तो सामाजिक संदेश भी साथ है. ’रात का जाया रे’ जैसे प्रयोग फिर गीत को सतह से थोड़ा गहरे ले जाते हैं.
“कमीने” 5:57 (विशाल भारद्वाज)
“जिसका भी चेहरा छीला, अन्दर से और निकला.
मासूम सा कबूतर, नाचा तो मोर निकला.
कभी हम कमीने निकले, कभी दूसरे कमीने.”
सोल ऑफ़ द एलबम. पूरी तरह विशाल छाप गाना जिसमें इस बार आवाज़ भी खुद विशाल की है. इस गीत में कुल बीस बार कमीने शब्द आता है फिर भी मैं कहना चाहूँगा कि यह इस दशक का सबसे मासूम गीत है. सबसे ईमानदार गीत. ऐसी ईमानदारी जो शायद आपके भीतर की उस सच्चाई को जगा दे जिसका सामना करने से आप खुद भी डरते हैं. इस गीत की प्रकृति कुछ-कुछ ’सच का सामना’ की कुर्सी पर बैठने जैसी है. यह गीत डायरी लिखने जैसा ईमानदार काम है. यह अपने ही भीतर के स्याह हिस्से की उजली तलाश है. यह गीत न्यू वेव हिन्दी सिनेमा का थीम साँग हो सकता है. यह वो सारे भाव अपने भीतर समेटे है जिसकी तलाश दिबाकर बनर्जी से अनुराग कश्यप तक अपने सिनेमा में करते रहे हैं. यह सही समय है कि एक ’पल्प फिक्शन’ हमारे यहाँ भी आए, कोई टैरेन्टीनो हमारे यहाँ भी जिन्दगी के उन स्याह हिस्सों की तलाश में निकले जिन्हें शेक्सपियर के ओथेलो से ओमकारा तक और मैकबैथ से मक़बूल तक खोजा ही जाता रहा है. विशाल, अब हम आपके इंतज़ार में है.
“मैं खामोशी की मौत नहीं मरना चाहता!” ~पीयूष मिश्रा.
पीयूष मिश्रा से मेरी मुलाकात भी अनुराग कश्यप की वजह से हुई. पृथ्वी थियेटर पर अनुराग निर्मित पहला नाटक ‘स्केलेटन वुमन’ था और पीयूष वहीं बाहर दिख गए. मैंने थोड़ा जोश में आकर पूछ लिया कि आपका इंटरव्यू कर सकता हूँ एक हिंदी ब्लॉग के लिए – साहित्य, राजनीति और संगीत पर बातें होंगी. उन्होंने ज़्यादा सोचे बिना कहा – परसों आ जाओ, यहीं, मानव (कौल) का प्ले है, उससे पहले मिल लो. बातचीत बहुत लंबी नहीं हुई पर पीयूष जितना तेज़ बोलते हैं, उस हिसाब से बहुत छोटी भी नहीं रही. उनके गीतों का रेस्टलेसनेस उनके लहज़े में भी दिखा और उनके लफ्ज़ों में भी. ये तो नहीं कहा जा सकता कि वो पूरे इंटरव्यू में ‘पॉलिटिकली करेक्ट’ रहे पर कुछ जगहों पर कोशिश ज़रूर नज़र आई. पर बातचीत का अंतिम चरण आते आते उन्होंने खुद को बह जाने दिया और थियेटर-वाले पाले से भी बात की, जबकि बाकी के ज़्यादातर सवालों में वो यही यकीन दिलाते दिखे कि अब पाला बदल चुका है.
लिखित इंटरव्यू में वीडियो रिकार्डेड बातचीत के ज़रूरी सवालों का जोड़ है, पर पूरा सुनना हो तो वीडियो ही देखें. पृथ्वी थियेटर की बाकी टेबलों पर चल रही बहस और बगल में पाव-भाजी बनाते भाई साब की बदौलत कुछ जगहों पर आवाज़ साफ नहीं है. ऐसे ‘गुम’ हो गए शब्दों का अंदाज़न एवज दे दिया है, या खाली डॉट्स लगा दिए हैं. मैं थोड़ा नरवस था, और कुछ जगहों पर शायद सवालों को सही माप में पूछ भी नहीं पाया, पर शुक्रिया पीयूष भाई का कि उन्होंने भाव भी समझा और विस्तार में जवाब भी दिया.
समाँ बहुत बाँध लिया, अब लीजिए इंटरव्यू:- ~वरुण ग्रोवर
वरुण~ आपका अब भी लेफ्ट विचारधारा से जुड़ाव है?
पीयूष~ (लेफ्टिस्ट होने का मतलब ये नहीं कि) परिवार के लिए कम्प्लीटली गैर-ज़िम्मेदार हो जाओ.
लेफ्ट बहुत अच्छा है एक उमर तक… उसके बाद में लेफ्ट आपको… या तो आप लेफ्टिस्ट हो जाओ… लेफ्टिस्ट वाली पार्टी में मिल जाओ… तब आप बहुत सुखी… (तब) लेफ्ट आपके जीवन का ज़रिया बन सकता है.
और अगर आप लेफ्ट आइडियॉलजी के मारे हो… तो प्रॉब्लम यह है कि आप देखिए कि आप किसका भला कर रहे हो? सोसाइटी का भला नहीं कर सकते, एक हद से आगे. सोसाइटी को हमारी ज़रूरत नहीं है. कभी भी नहीं थी. आज मैं पीछे मुड़ के देखता हूँ तो लगता है कि (लेफ्ट के शुरुआती दिनों में भी) ज़िंदा रहने के लिए, फ्रेश बने रहने के लिए, एक्टिव रहने के लिए (ही) किया था तब… बोलते तब भी थे की ज़माने के लिए सोसाइटी के लिए किया है.
वरुण~ तो अब पॉलिटिक्स से आपका उतना लेना देना नहीं है?
पीयूष~ पॉलिटिक्स से लेना देना मेरा… तब भी अंडरस्टैंडिंग इतनी ही थी. मैं एक आम आदमी हूँ, एक पॉलिटिकल कॉमेंटेटर नहीं हूँ कि आज (…..) आई विल बी ए फूल टू से दैट आई नो सम थिंग! पहले भी यही था… हाँ लेकिन यह था कि जागरूक थे. एज़ पीयूष मिश्रा, एज़ अन आर्टिस्ट उतना ही कल था जितना कि आज हूँ. (अचानक से जोड़ते हैं) पॉलिटिक्स है तो गुलाल में!
वरुण~ हाँ लेकिन जो लोग ‘एक्ट वन’ को जानते हैं, उनका भी यह कहना है कि ‘एक्ट वन’ में जितना उग्र-वामपंथ निकल के सामने आता था, ‘एक्ट वन’ की एक फिलॉसफी रहती थी कि थियेटर और पॉलिटिक्स अलग नहीं हैं, दोनों एक ही चीज़ का ज़रिया हैं.
पीयूष~ ठीक है, वो ‘एक्ट वन’ हो गया. ‘एक्ट वन’ ने बहुत कुछ सिखाया. ‘एक्ट वन’ (की) ‘सो कॉल्ड’ उग्र-वामपंथी पॉलिसी ने बहुत कुछ दिया है मुझको. (लेकिन) उससे मन का चैन चला गया. ‘एक्ट वन’ ने (जीना) सिखाया… ‘एक्ट वन’ की जो ‘सो-कॉल्ड’ उग्र-वामपंथी पॉलिटिक्स है, यह, मेरा ऐसा मानना है की इनमें से अधिकतर लोग जो हैं तले के नीचे मखमल के गद्दे लगाकर पैदा होते हैं. वही लोग जो हैं वामपंथ में बहुत आगे बढ़ते हैं. अदरवाइज़ कोई, कभी कभार, कुछ नशे के दौर में आ गया. (कोई) मारा गया सिवान में! अब सिवान कहाँ पर है, लोगों से पूछ रहे हैं…सफ़दर हाशमी मारा जाता है, तहलका मच जाता है, ट्रस्ट बन जाते हैं, ना मालूम कौन कौन, (जो) जानता नहीं है सफ़दर को, वो जुड़ जाता है और वहाँ पर मंडी हाउस में… फोटो छप रहे हैं, यह है, वो है… सहमत! चंद्रशेखर को याद करने के लिए पहले तो नक़्शे में सिवान को देखना पड़ेगा, है कहाँ सिवान? कौन सा सिवान? कैसा सिवान? कौन सा चंद्रशेखर? सफ़दर के नाम से जुड़ने के लिए ऐसे लोग आ जाते हैं जो जानते नहीं थे सफ़दर को… सफ़दर का काम, सफ़दर का काम… क्या है सफदर का काम? मैं उनकी (सफ़दर की) इन्सल्ट नहीं कर रहा… ऐसे ऐसे काम कर के गए हैं की कुछ कहने की… खामोशी की मौत मरे हैं. मैं खामोशी की मौत नहीं मरना चाहता! थियेटर वाले की जवानी बहुत खूबसूरत हो सकती है, थियेटर वाले का बुढ़ापा, हिन्दुस्तान में कम से कम, मैं नहीं समझता कि कोई अच्छी संभावना है.
अधिकतर लोग सीनाइल (सठिया) हो जाते हैं. अचीवमेंट के तौर पर क्या? कुछ तारीखें, कुछ बहुत बढ़िया इश्यूस भी आ गये… कर तो लिया यार… अब कब तक जाओगे चाटोगे उसको? चार साल पहले जब मैं दिल्ली जाया करता था तो मेरा मोह छूटता नहीं था, मैं जाया करता था वहाँ पर जहाँ मैं रिहर्सल करता था… शक्ति स्कूल या विवेकानंद. ज़िंदगी बदल गई यार, दैट टाइम इज़ गॉन! अच्छा टाइम था, बहुत कुछ सिखाया है, बहुत कुछ दिया है, इस तरह मोह नहीं पालना चाहिए.
वरुण~ एन. के. शर्मा जी अभी भी वहीं हैं, उनके साथ के लोग एक-एक कर के यहाँ आते रहे, मनोज बाजपाई, दीपक डोबरियाल… उनका क्या व्यू है, थियेटर से निकलकर आप लोग सिनिमा में आ रहे हैं?
पीयूष~ एन. के. शर्मा जी का व्यू अब आप एन. के. शर्मा से ही पूछो. उनका ना तो मैं स्पोक्स मैन हूँ… उनसे ही पूछो!
वरुण~ बॉम्बे में एक ऑरा है उनको लेकर… वो लोगों (एक्टर्स) को बनाते हैं.
पीयूष~ टॉक टू हिम… टॉक टू हिम!
वरुण~ आप खुद को पहले कवि मानते हैं या एक्टर?
पीयूष~ ऐसा कुछ नहीं है.
वरुण~ बॉम्बे में आप खुद को आउट-साइडर मानते हैं?
पीयूष~ कैसे मानूँगा? मेरी जगह है यह. मेरा बच्चा यहाँ पैदा हुआ है. कैसे मानूँगा मैं? (इसके अलावा भी काफी कुछ कहा था इस बारे में, वीडियो में सुन सकते हैं.)
वरुण~ लेकिन आउटसाइडर इन द सेन्स, मैं प्रोफेशनली आउटसाइडर की बात कर रहा हूँ. जिसमें थियेटर वालों को हमेशा थोड़ा सा सौतेला व्यवहार दिया जाता है यहाँ पर.
पीयूष~ नहीं नहीं. उल्टा है भाई! थियेटर वालों को बल्कि…
वरुण~ स्टार सिस्टम ने कभी थियेटर वालों को वो इज़्ज़त नहीं दी…
पीयूष~ हाँ… स्टार सिस्टम अलग बात है. स्टार सिस्टम की जो ज़रूरत है वो… थियेटर वालों को मालूम ही नहीं कि बुनियादी ढाँचा कैसे होता है. मैं तो बड़ा सोचता था कि खूबसूरत बंदे थियेटर पैदा क्यूँ नहीं कर पाया. मैं समझ ही नहीं पाया आज तक! थियेटर वाले होते हैं, मेरे जैसी शकल सूरत होती है उनकी टेढ़ी-मेढ़ी सी.
लेकिन ऐसा कुछ नहीं है… आज… नसीर हैं, ओम पुरी हैं… पंकज कपूर… दे आर रेकग्नाइज़्ड, अनुपम खेर हैं…
वरुण~ नहीं वह बात है कि उनको इज़्ज़त ज़रूर मिलती है लेकिन उनको इज़्ज़त दे कर पेडेस्टल पे रख दिया जाता है लेकिन उससे आगे बढ़ने की कभी भी शायद…
पीयूष~ आगे बढ़ने की सबकी अपनी अपनी क़ाबिलियत है. और जितना आगे बढ़ना था, जितना सोच के नहीं आए थे उससे आगे बढ़े ये लोग. पैसे से लेकर नाम तक. इससे बेहतर क्या लोगे आप.
वरुण~ पुराने दिनों के बारे में, ख़ास कर के ‘एन ईवनिंग विद पीयूष मिश्रा’ होता था…
पीयूष~ तीन प्लेज़ थे एक-एक घंटे के. पहला ’दूसरी दुनिया’ था निर्मल वर्मा साब का, दूसरा ’वॉटेवर हैपंड टू बेट्टी लेमन’ (अरनॉल्ड वास्कर का), तीसरा विजयदान देथा का ‘दुविधा’. तब पैसे नहीं थे, प्लेटफॉर्म था नहीं… आउट ऑफ रेस्टलेसनेस किया था. वह फॉर्म बन गया भई की नया फॉर्म बनाया है. फॉर्म-वार्म कुछ नहीं था. ‘एक्ट वन’ मैंने जब छोड़ा था ’95 में, ऑलमोस्ट मुझे लगा था की मैं ख़तम हो गया. ‘एक्ट वन’ वाज़ मोर लाइक ए फैमिली. और वहाँ से निकलने के बाद यह नई चीज़ आई.
वरुण~ (असली सवाल पर आते हुए) मेरे लिए ज़्यादा फैसिनेटिंग यह था कि उसकी ब्रान्डिंग, सेलिंग पॉइंट था आपका नाम. 1996 में दिल्ली में आपके नाम से प्ले चल रहा था, कहानियों के नाम से या लेखक के नाम से या नाटक के नाम से नहीं, आपके नाम से परफॉर्मेन्स हो रही थी. बॉम्बे ने अब जा कर रेकग्नाइज़ किया है…
पीयूष~ ‘झूम बराबर झूम’ में काम किया, वो चल नहीं पाई. ‘मक़बूल’ में काम किया, उसका ज़्यादा श्रेय पंकज कपूर और इरफ़ान को मिला… वो भी अच्छे एक्टर हैं… पर पता नहीं कुछ कारणों से, ‘मक़बूल’ में बहुत तारीफ़ के बावजूद रेकग्निशन नहीं मिला. ‘आजा नच ले’ में काम किया, उसका लास्ट का ओपेरा लिखा… ऐसा हुआ कि बस यह फिल्म (गुलाल) बड़ी ब्लेसिंग बन कर आई मुझ पर. जितना काम था, सब एक साथ निकालो. लोग रेस्पेक्ट करते थे… जानते थे भाई यह हैं पीयूष मिश्रा. लेकिन ऐसा कुछ हो जाएगा, यह नहीं सोचा था.
वरुण~ गुलाल की बात करें तो… उसमें यह दुनिया अगर मिल भी जाए है, बिस्मिल की नज़्म है, कुछ पुराने गानों में भी री-इंटरप्रेटेशन किया है. इस सब के बीच आप मौलिकता किसे मानते हैं?
पीयूष~ एक लाइन ली है… एक लाइन के बाद तो हमने सारा का सारा री-क्रियेट किया है. जितनी यह बातें हैं… वो आज की जेनरेशन की ज़ुबान बदल चुकी है. और आप उन्हें दोष भी नहीं दे सकते. अब नहीं है तो नहीं है, क्या करें. लेकिन उसी का सब-टेक्स्ट आज की जेनरेशन को आप कम्यूनिकेट करना चाहें, कि कहा बिस्मिल ने था… ऐसा कुछ कहा था – कम्यूनिकेशन के लिए फिर प्यूरिस्ट होने की ज़रूरत नहीं है आपको कि बहुत ऐसी बात करें कि नहीं यार जैसा लिखा गया है वैसा. और ऐसा नहीं है की उनको मीनिंग दिया गया है. नहीं – यह नई ही पोयट्री है.
वरुण~ फिर भी, मौलिकता का जो सवाल है, फिल्म इंडस्ट्री में बार बार उठता है. संगीत को लेकर, कहानियों को लेकर, उसपर आपका क्या टेक है?
पीयूष~ मालूम नहीं… इंस्पिरेशन के नाम पर यहाँ पूरा टीप देते हैं. सारा का सारा, पूरा मार लेते हैं.
वरुण~ आपके ही नाटक ‘गगन दमामा बाज्यो’ को ‘लेजेंड ऑफ भगत सिंह’ बनाया गया. वहाँ मौलिकता को लेकर दूसरी तरह का डिबेट था.
पीयूष~ वहाँ पर जो है की फिर यू हैव टू बी रियल प्रोफेशनल. बॉम्बे का प्रोफेशनल! कैसे एग्रीमेंट होता है… मुझे उस वक़्त कुछ नहीं मालूम था. उस वक़्त मैं कर लिया करता था. हाँ भाई, चलो, आपके लिए कर रहे हैं मतलब आपके लिए कर रहे हैं. वहाँ फिर धंधे का सवाल है.
वरुण~ ‘ब्लैक फ्राइडे’ के गाने भी आपके ही थे. उनको उतना रेकग्निशन नहीं मिला जितना गुलाल को मिला.
पीयूष~ हूँ… हूँ… नहीं इंडियन ओशियन का वह गाना तो बहुत हिट है. उनका करियर बेस्ट है अभी तक का गाना. (‘अरे रुक जा रे बँदे’)… लाइव कॉन्सर्ट करते हैं… उन्हीं के हिसाब से, दैट्स देयर ग्रेटेस्ट हिट! लेकिन अगर ‘ब्लैक फ्राइडे’ सुपरहिट हो जाती, मालूम पड़ता पीयूष मिश्रा ने लिखा है गाना तो… सिनेमा के चलने से बहुत बहुत फ़र्क पड़ता है. हम थियेटर वालों को थोड़ी हार मान लेनी चाहिए की सिनेमा का मुक़ाबला नहीं कर सकते. वो तब तक नहीं होगा जब तक कि यहाँ (थियेटर की) इंडस्ट्री नहीं होगी. और इंडस्ट्री यहाँ पर होने का बहुत… यह देश इतना ज़्यादा हिन्दीवादी है ना… गतिशील ही नहीं है. यहाँ पर ट्रेडीशन ने सारी गति को रोक कर रख दिया है. हिन्दी-प्रयोग! पता नहीं क्या होता है हिन्दी प्रयोग? जो पसंद आ रहा है वो करो ना. हिन्दी नाटक… भाष्य हिन्दी का होना चाहिए, अरे हिन्दी भाष्य में कोई नहीं लिख रहा है नाटक यार. कोई ले दे के एक हिन्दी का नाटक आ जाता है तो लोग-बाग पागल हो जाता है की हिन्दी का नाटक आ गया! अब उन्हें नाटक से अधिक हिन्दी का नाटक चाहिए. लैंग्वेज के प्रति इतने ज़्यादा मुग्ध हैं… मैने जितने प्लेज़ लिखे उनमें से एक हिन्दी का नहीं था, सब हिन्दुस्तानी प्लेज़ थे.
एकेडमीशियन और थियेटर करने वालों में कोई फ़र्क नहीं (रह गया) है. जितने बड़े बड़े थियेटर के नाम हैं, सब एकेडमीशियन हैं. करने वाले बंदे ही अलग हैं. करने वाले बंदों को बहुत ही हेय दृष्टि से देखा जाता है. “यह नाटक कर रहा है… लेकिन वी नो ऑल अबाउट नाट्य-शास्त्र!” अरे जाओ, पढ़ाओ बच्चों को…
वरुण~ लेकिन आपका मानना है कि बॉम्बे में थियेटर चल रहा है… दिल्ली के मुक़ाबले.
पीयूष~ दिल्ली में लुप्त हो गया है. दिल्ली में बाबू-शाही की क्रांति के तहत आया था थियेटर. (नकल उतारते हुए) “नाटक में क्या होना चाहिए – जज़्बा होना चाहिए! जज़्बा कैसा? लेफ्ट का होना चाहिए.” एक्सपेरिमेंटेशन भी पता नहीं कैसा! यहाँ पर देखो, यह अभी भी चल रहा है – मानव (कौल) ने लिखा है यह प्ले (पार्क)… प्लेराइटिंग कर रहे हैं हिन्दी में और अच्छी-खासी हिन्दी है. कितना सारा नया काम हो रहा है यहाँ पर. और कमर्शियल थियेटर क्या है? ये कमर्शियल थियेटर नहीं है क्या… डेढ़ सौ रु. का टिकट ख़रीद रहा हूँ मैं यहाँ पर, कल मेरी बीवी देख रही है दो सौ रु. के टिकट में… दो सौ में तो मैं मल्टीप्लैक्स में नहीं देखूँ… सौ से आगे की वहाँ टिकट होती है तो मैं हार मान लेता हूँ कि नहीं जाऊँगा मैं लेकिन मैं देख रहा हूँ यहाँ. और इट्स ए वंडरफुल प्ले. हिन्दी का प्ले हैं, हिन्दी भाष्य का प्ले है, और क्या चाहिये आपको?
वहाँ पर होते (दिल्ली में) तो वो हिन्दी नाट्य.. हिन्दी नाट्य… क्या होता है ये हिन्दी नाट्य? भगवान जाने… ये बुढ़ापा चरमरा गया हिन्दुस्तान का… गाली देने की इच्छा होती है.
वरुण~ फिर क्या इसमें एन.एस.डी. का दोष है?
पीयूष~ एन.एस.डी. का दोष (क्यों?)… एन.एन.डी. में तो अधिकतर बाहर के प्ले होते हैं.
वरुण~ लेकिन भारत में ऐसे दो-तीन ही तो इंस्टीट्यूट हैं जहाँ थियेटर पढ़ाया जाता है, सिखाया जाता है.
पीयूष~ वो एक अलग से लॉबी है जिनको लगता है कि हिन्दी प्लेज़ होने चाहिए. हिन्दी प्लेज़ से रेवोल्यूशन आयेगा. ये एक बहुत बड़ी एंटी-अलकाजी लॉबी है.. अलकाजी अगर नहीं होते और इसके बजाय कोई हिन्दी वाला होता वहाँ पर तो बात कुछ और ही होती (कहने वाले). उस बन्दे ने सम्भाला इतने दिनों तक, उस बन्दे ने हिन्दुस्तान के थियेटर को दिशा दी. अगर वो नहीं होता तो शांति से बैठकर प्ले कैसे लिखते हैं हमें नहीं मालूम पड़ता. हम तो चटाइयों वाले बन्दे थे. हमारी औकात वही थी और हम वही रहते… उस बन्दे ने हमें सिखाया कि खांसी आ जाए तो एक्सक्यूज़ मी कह देना चाहिये, माफ़ कीजियेगा, या बाहर चले जाओ. इतने बेवकूफ़ हैं हिन्दी भाषी और विशेषकर जो हमसे ऊपरवाली जनरेशन के हैं वो सिफ़र हैं यहाँ से (दिमाग़ की ओर इशारा). ख़ाली व्यंग्य करना आता है, टीका-टिप्पणी करना आता है… अगर ऐसा होता तो ऐसे हो जाता… ऐसा होता तो ऐसे हो जाता… जो हुआ है उस व्यक्ति को उसका श्रेय नहीं दे रहे हैं. अलकाजी साहब अगर नहीं होते तो नुकसान में थियेटर ही होता. अभी तक पारसी थियेटर ही होता रहता. सूखे-बासे नाटक होते रहते. वो नाटक के नाम पे हमको करना पड़ता. ही वाज़ दि पर्सन हू इंट्रोड्यूस्ड थियेटर इन इंडिया.
वरुण~ आजकल मीडिया की जो भाषा है, न्यूज़ में भी हिन्दी और इंग्लिश मिक्स होता है.
पीयूष~ कहाँ तक बचाओगे यार? शास्त्रीय संगीत बचा क्या आज की तारीख़ में? कहाँ तक बचाओगे आप? कब तक? शुभा मुदगल को इल्ज़ाम दे दिया कि आप कुमार गंधर्व से पढ़ी और उसके बाद आप दूसरा किस्म का म्यूज़िक… कहाँ तक बचाओगे आप? ज़माना बदल रहा है, बदलेगा. ये परिवर्तन सब बहुत ही ज़रूरी अंग हैं दुनिया का. इसको बदलने दो. ज़्यादा गाँठ बाँधकर बैठोगे तो फिर वही गाँव के गाँव-देहात में बँधकर बैठना पड़ेगा कि चौपाल के आस-पास आपके किस्से सुनते रहेंगे लोग-बाग. उसके आगे कोई आपकी बात नहीं सुनेगा.
आज का संप्रेषण अलग है, आज की भाषा अलग है. बॉम्बे को देखकर लगता है कि भाषा… बॉम्बे के, साउथ बॉम्बे के किसी लौंडे से अब आप अपेक्षा करें कि वो उर्दू समझता हो या हिन्दी समझता हो… ’यो’ वाला लौंडा है वो, ऐसे ही बड़ा हुआ है तो आप उसको इल्ज़ाम क्यों देते हैं? आप सम्भाल कर रखिये. यहाँ पर बहुत सारे लोग हैं जिन्होंने अपनी भाषा सम्भालकर रखी है… मानव कौल अभी तक हिन्दी में लिख रहा है और क्या हिन्दी है उसकी… कोई टूटी-फूटी हिन्दी नहीं है. तो किसने कहा. आप बिगड़ने देना चाहते हैं तो आपकी भाषा बिगड़ जाएगी, जिस चीज़ से आपको मोह है उसे आप सम्भालकर रखेंगे. लेकिन उसमें झंडा उठाने की ज़रूरत नहीं है कि मैं वो हूँ… कि सबको ये करना चाहिए. जिसकी जो मर्ज़ी है वो करने दो ना यार. क्यों डेविड धवन को कोसो कि आप ऐसी फ़िल्म क्यों बनाते हैं, क्यों अनुराग को… अनुराग कश्यप की पिक्चरें भी लोगों को अच्छी नहीं लगतीं. ऐसा नहीं है कि हर बन्दा ऐसी पिक्चर को पसन्द ही करेगा. लेकिन ठीक है, हर बन्दे को अपनी-अपनी गलतियों के हिसाब से जीने का हक़ है.