“हिन्दी सिनेमा के संगीत से मेलोडी चली गई. आजकल की फ़िल्मों के गीत वाहियात होते जा रहे हैं. पहले के गीतों की तरह फ़िल्म से अलग वे याद भी नहीं रहते. जैसे उनका जीवन फ़िल्म के भीतर ही रह गया है, बाहर नहीं.”
पिछले दिनों सिनेमाई संगीत से जुड़ी कुछ चर्चाओं में हिस्सेदारी करते हुए यह मैंने आम सुना. इसे आलोचना की तरह से सुनाया जाता था और इस आलोचना के समर्थन में सर हिलाने वाले दोस्त भी बहुत थे.
हिन्दी सिनेमा और सिनेमाई संगीत के बारे में दो भिन्न तरह की बातें पिछले दिनों मैंने अलग-अलग मंचों से कही जाती सुनीं, जिनका यूं तो आपस में सीधा कोई लेना-देना नहीं दिखता लेकिन दोनों को साथ रखकर पढ़ने से उनके गहरे निहितार्थ खुलते हैं. पहली बात को हमने ऊपर उद्धृत किया. लेकिन इससे बिल्कुल इतर दूसरी बात समकालीन सिनेमा और नए निर्देशकों के बारे में है जिनके सिनेमा बारे में आम समझ यह बन रही है कि यह अपने परिवेश की प्रामाणिकता पर गुरुतर ध्यान देता है और इसे फ़िल्म की मूल कथा के संप्रेषण के मुख्य साधन के बतौर चिह्नित करता है. दिबाकर बनर्जी, अनुराग कश्यप, चंदन अरोड़ा और कुछ हद तक इम्तियाज़ अली जैसे निर्देशक अपने सिनेमा में इस ओर विशेष ध्यान देते पाए गए हैं.
अगर मैं कहूँ कि इस आलेख के सबसे पहले जो कथन मैंने उद्धृत किया, खुद मैं भी उससे काफ़ी हद तक सहमत हूँ, तो? लेकिन साथ ही यह भी कि मैं उसे आलोचना नहीं मानता. हम दरअसल इन दो भिन्न लगती बातों को साथ रखकर नहीं देख पा रहे हैं. देखें तो समझ आएगा कि पहली बात के सूत्र दूसरे सकारात्मक बदलाव में छिपे हैं.
इसे कुछ बड़े परिप्रेक्ष्य में समझें. माना जाता है कि उदारीकरण के बाद हिन्दुस्तान के बाज़ार खुलने की प्रक्रिया में हिन्दी सिनेमा के लिए ’हॉलीवुड’ की चुनौती दिन दूनी रात चौगुनी बड़ी होती गई है. बात सही भी है. लेकिन मेरा मानना है कि ’हॉलीवुड’ की चुनौती जितनी बड़ी समूचे हिन्दी सिनेमा के लिए है, उससे कहीं ज़्यादा हिन्दी सिनेमा में सदा से एक अभिन्न अंग के रूप में मौजूद रहे गीतों के लिए हैं. जिस तरह समाज पर मुख्यधारा ’हॉलीवुड’ सिनेमा का प्रभाव बढ़ रहा है, हिन्दी सिनेमा में उससे मुकाबला करने की, उसे पछाड़ने की जुगत बढ़ती जा रही है. और ऐसे में सबसे बड़ा संकट, शायद अस्तित्व का संकट सिनेमा के गीत-संगीत के लिए उत्पन्न होता है.
हिन्दी सिनेमा में नब्बे के दशक में सबसे बड़ा बदलाव लेकर आने वाले व्यक्ति का नाम है रामगोपाल वर्मा. आज सिनेमा में देखी जा रही तकनीक समर्थित नवयथार्थवादी धारा को स्थापित करने का श्रेय उन्हें ही जाता है. और आपको याद होगा कि उन्होंने एक समय संगीत को अपने सिनेमा से एक गैर-ज़रूरी अवयव की तरह से निकाल बाहर किया था. यह संक्रमण काल था और इस दौर में हिन्दी सिनेमा का संगीत अपनी अस्तित्व की लड़ाई लड़ रहा था. यहाँ दो रास्ते थे उसके सामने, एक – अपनी पुरानी प्रतिष्ठा का इस्तेमाल करते हुए वैसा ही बने रहना, लेकिन बदलते सिनेमा के रंग में लगातार अप्रासंगिक होते चले जाना. और दूसरा – स्वयं का पुन: अविष्कार करने की कोशिश, याने सिनेमा की बदलती भाषा के अनुसार बदलना और सबसे ऊपर फ़िल्म के भीतर अपनी प्रासंगिकता स्थापित करना.
मुझे खुशी है कि कुछ निर्देशकों ने बाज़ार की परवाह न करते हुए दूसरा रास्ता चुना. और यहाँ बाज़ार की परवाह न करने जैसे वाक्य का मैं जान-बूझकर प्रयोग कर रहा हूँ. क्योंकि फ़िल्म संगीत आज अपने आप में एक वृहत उद्योग है और ऐसे में अपनी फ़िल्म में ’फ़िल्म से बाहर’ पहचाने जाने वाले गीतों का न होना एक बड़ा दुर्गुण है. ऐसे में निर्देशकों ने अपने सिनेमा में संगीत को एक किरदार के बतौर पेश किया और उससे वह काम लेने लगे जिन्हें अभिव्यक्ति के सीमित साधनों के चलते या परिस्थिति के चलते फ़िल्म में मौजूद किरदार अभिव्यक्त नहीं कर पा रहे थे. अनुराग कश्यप की ’देव डी’ का ही उदाहरण लें. किरदारों की व्यक्तिगत अभिव्यक्तियाँ जहाँ अपनी सीमाएं तलाशने लगती हैं, फ़िल्म में संगीत आता है और संभावनाओं के असंख्य आकाश सामने उपस्थित कर देता है.
अनुराग द्वारा निर्मित और राजकुमार गुप्ता द्वारा निर्देशित ’आमिर’ का ही उदाहरण लें. फ़िल्म जो कथा कहती है वह अत्यन्त भावुक हो सकती थी, लेकिन यहीं अमित त्रिवेदी का संगीत उसे एक नितान्त ही भिन्न आयाम पर ले जाता है. उनके संगीत में एक फक्कड़पना है जिसके चलने ’आमिर’ का स्वाद अपनी पूर्ववर्ती मैलोड्रैमेटिक फ़िल्मों से बिल्कुल बदल जाता है. अमिताभ भट्टाचार्या द्वारा लिखा गीत ’चक्कर घूम्यो’ को शायद आप फ़िल्म से बाहर याद न करें, लेकिन याद करें कि फ़िल्म में एक घोर तनावपूर्ण स्थिति में आकर वही गीत कैसे आपको सोच का एक नया नज़रिया देता है. घटना को देखने का एक नया दृष्टिकोण जिसके चलने ’आमिर’ अन्य थ्रिलर फ़िल्मों से भिन्न और एक अद्वितीय स्वाद पाती है.
राजकुमार गुप्ता की ही अगली फ़िल्म ’नो वन किल्ड जेसिका’ के गीतों को देखें. क्या आपने हिन्दी सिनेमाई संगीत की कोमलकान्त पदावली में ऐसे खुरदुरे शब्द पहले सुने हैं,
“डर का शिकार हुआ ऐतबार
दिल में दरार हुआ ऐतबार
करे चीत्कार बाहें पसारकर के
नश्तर की धार हुआ ऐतबार
पसली के पार हुआ ऐतबार
चूसे है खून बड़ा खूँखार बनके
झुलसी हुई इस रूह के चिथड़े पड़े बिखरे हुए
उधड़ी हुई उम्मीद है
रौंदे जिन्हें कदमों तले बड़ी बेशरम रफ़्तार ये
जल भुन के राख हुआ ऐतबार
गन्दा मज़ाक हुआ ऐतबार
चिढ़ता है, कुढ़ता है, सड़ता है रातों में”
गीत की यह उदंडता अभिव्यक्त करती है उस बेबसी को जिसे फ़िल्म अभिव्यक्त करना चाहती है. ठीक वैसे ही जैसे ’उड़ान’ के कोमल बोल उन्हें अभिव्यक्त करनेवाले सोलह साल के तरुण कवि की कल्पना से जन्म लेते हैं, ’नो वन किल्ड जेसिका’ के ’ऐतबार’ और ’काट कलेजा दिल्ली’ जैसे गीत अपने भीतर वह पूरा सभ्यता विमर्श समेट लाते हैं जिन्हें फ़िल्म अपना मूल विचार बनाती है.
मुझे याद आता है जो गुलज़ार कहते हैं, कि मेरे गीत मेरी भाषा नहीं, मेरे किरदारों की भाषा बोलते हैं. और वह मेरी अभिव्यक्तियाँ नहीं है, उन फ़िल्मी परिस्थितियों की अभिव्यक्तियाँ हैं जिनके लिए उन्हें लिखा जा रहा है. ऐसे में समझना यह होगा कि अगर सिनेमाई गीतों में अराजकता बढ़ रही है तो यह हमारे सिनेमा में पाए जाने वाले किरदारों और परिवेश के विविधरंगी होने का संकेत है और इसका स्वागत किया जाना चाहिए.
’पीपली लाइव’ का संगीत इसलिए ख़ास है क्योंकि इंडियन ओशन, भदवई गांव की गीत मंडली, राम संपत, रघुवीर यादव, नगीन तनवीर और नूर मीम राशिद जैसे नामों से मिलकर बनता उनका सांगितिक संसार इस समाज की इंद्रधनुषी तस्वीर अपने भीतर समेटे है. सच है कि उस संगीत में अराजकता है और सम्पूर्ण ’एलबम’ मिलकर कोई एक ठोस स्वाद नहीं बनाता. शायद इसीलिए ’पीपली लाइव’ संगीत के बड़े पुरस्कार नहीं जीतती. लेकिन इकसार की चाह क्या ऐसी चाह है जिसके पीछे अराजकता का यह इंद्रधनुषी संसार खो दिया जाए.
दिबाकर की फ़िल्मों का संगीत कभी खबर नहीं बनता. न कभी साल के अन्त में बननेवाली ’सर्वश्रेष्ठ’ की सूचियों में ही आ पाता है. वे हमेशा कुछ अनदेखे, अनसुने नामों को अपनी फ़िल्म के संगीत का ज़िम्मा सौंपते हैं और कई बार फ़िल्म के गीत खुद ही लिख लेते हैं. शायद यह बात – ’फ़िल्म का संगीत फ़िल्म के बाहर नहीं’ उनकी फ़िल्मों के संगीत पर सटीक बैठती है.
फिर भी मैं दिबाकर की फ़िल्मों के संगीत को हिन्दी सिनेमा में बीते सालों में हुआ सबसे सनसनीखेज़ काम मानता हूँ. क्योंकि उनकी फ़िल्मों का संगीत उनकी फ़िल्मों का सबसे महत्वपूर्ण किरदार होने से भी आगे कहीं चला जाता है. ’ओये लक्की लक्की ओये’ में स्नेहा खानवलकर और दिबाकर शुरुआत में ही ’तू राजा की राजदुलारी’ लेकर आते हैं. हरियाणवी रागिनी जिसका कथातत्व भगवान शिव और पार्वती के आपसी संवाद से निर्मित होता है. देखिए कि किस तरह तरुण गायक राजबीर द्वारा गाया गया यह गीत एक पौराणिक कथाबिम्ब के माध्यम से समकालीन शहरी समाज में मौजूद class के नफ़ासत भरे भेद को उजागर कर देता है. मुझे फिर याद आते हैं आचार्य हज़ारीप्रसाद द्विवेदी के निबंध जिनमें वह तमाम ’सूटेड-बूटेड’ आर्य देवताओं के मध्य अकेले लेकिन दृढ़ता से खड़े दिखते फ़क्कड़, भभूतधारी और मस्तमौला अनार्य देवता शिव की भिन्नता को स्पष्ट करते हैं.
इसी क्रम में फ़िल्म के दूसरे गीत की यह शुरुआती पंक्तियाँ देखें,
“जुगणी चढदी एसी कार
जुगणी रहंदी शीशे पार
जुगणी मनमोहनी नार
ओहदी कोठी सेक्टर चार”
यह जिस ‘शीशे पार’ का उल्लेख फ़िल्म का यह गीत करता है, यही वो सीमा है जिसे पार कर जाने की जुगत ‘लक्की’ पूरी फ़िल्म में भिड़ाता रहता है. यह class का ऐसा भेद है जिसे सिर्फ़ पैसे के बल पर नहीं पाटा जा सकता. यहाँ फ़िल्म में संगीत किरदार भर नहीं, वो उस फ़िल्म के मूल विचार की अभिव्यक्ति का सबसे प्राथमिक स्रोत बनकर उभरता है. दिबाकर की ही अगली फ़िल्म ‘लव, सेक्स और धोखा’ का घोर दर्जे की हद तक उपेक्षित किया गया संगीत भी इसी संदर्भ में पुन: पढ़ा जाना चाहिए.
पिछले साल आई फ़िल्म ‘डेल्ही बेली’ में एक गीत था ‘स्वीट्टी स्वीट्टी स्वीट्टी तेरा प्यार चाईंदा’. जब मैंने दोस्तों को बोला कि यह मेरी लिस्ट में पिछले साल के सबसे शानदार गीतों में से एक है, तो मुझे जवाबी आश्चर्य का सामना करना पड़ा. मेरी इस राय की वजह क्या है? वजह है इस गीत की फ़िल्म के भीतर भूमिका. फ़िल्म इस गीत के साथ हमारा परिचय दिल्ली के उस उजड्ड से करवाती है जिसकी सबसे बड़ी अभिव्यक्ति उसके हाथ में मौजूद उसकी पिस्तौल है. इस अभिव्यक्ति के लिहाज से गीत मुकम्मल है और इसीलिए महत्वपूर्ण है. यहाँ फ़िल्म का दूसरा गीत ‘बेदर्दी राजा’ भी देखें जो उस लंपट किरदार से आपका परिचय करवाता है जिसकी लंपटता फ़िल्म के कथासूत्र में आगे जाकर महत्वपूर्ण भूमिका अदा करती है.
बेशक हिन्दी सिनेमा का संगीत बदला है. लेकिन समय सिर्फ़ उसकी आलोचना का नहीं, ज़रूरत उसमें निहित सकारात्मक बदलाव देखे जाने की भी है. हम लोकप्रिय लेकिन अपनी फ़िल्म से ही पूरी तरह अप्रासंगिक हो जाने वाले इकसार संगीत के मुकाबले ऐसा, कुछ नया अविष्कार करने की ज़ुर्रत करने वाला संगीत हमेशा ज़्यादा सराहेंगे.
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साहित्यिक पत्रिका ‘कथादेश’ के मार्च अंक में प्रकाशित
मनीष जी, आपके चयन और गीतों के लिए प्रेम को देखकर दिल खुश हो गया. ’आमिर’ जैसी फ़िल्म को साल का सर्वश्रेष्ठ संगीत चुना जाना साहसिक फ़ैसला था और मैं इससे पूरी तरह सहमत हूँ. यही नयापन सम्भाला जाना चाहिए. अंतिम बात जो आपने कही, मैं सिर्फ़ यही कहूँगा कि हम सारी उम्मीदें सिनेमाई संगीत से ही क्यों लगा लेते हैं? हमारे देश में सिनेमाई संगीत से बाहर संगीत की किसी मुख्यधारा के विकसित न होने के पीछे भी शायद यही वजह है.
मेरा मानना है कि सिनेमा के संगीत को सिर्फ़ एक चीज़ के प्रति ईमानदार होना चाहिए, और वो है फ़िल्म की कहानी. अन्य अपेक्षाओं के लिए सिनेमा के बाहर खुला मैदान है, हमें उसे भी मौका देना चाहिए.
प्रयोगधर्मी निर्देशकों ने ही हिन्दी सिनेमा को वांछित नयापन दिया है…
मिहिर, एक बेहद सोच प्रवण आलेख के लिए साधुवाद. आपकी ही छोड़ी हुई कड़ी को वापस पकड़ते हुए कहना चाहूँगा कि पहली श्रेणी और भारतीय संगीत प्रेमियों का सबसे बड़ा तबका, जिसे हम mass market भी कह सकते हैं, फिल्म संगीत को फिल्म से इतर भी परिपूर्ण देखना चाहता है. गीतकार के लिए यह चुनौती अनादि काल से रही है कि फिल्म के लिए उपयुक्त ऐसा गीत लिखे जो फिल्म के परे भी, अलग से अपने आप में परिपूर्ण हो. गुलज़ार साब की विनम्रता से धोखा मत खाइए, उनके सबसे मार्मिक और कुछ हद तक मिसाल बन चुके गीत वो हैं जिन्होंने फिल्म की भाषा में एक जन जीवन का या फलसफाना मुकाम बना लिया है. ये वो गीत हैं (“ऐ ज़िन्दगी गले लगा ले”, “तुझसे नाराज़ नहीं ज़िन्दगी”) जो फिल्म के अन्दर, फिल्म के साथ भी उतना ही असर करते हैं जितना कि फिल्म के बगैर. आज के बेहतरीन निर्देशक भी वह नटों वाला संतुलन नहीं बना पा रहे – सच कहूं तो अमिताभ भट्टाचार्य और जयदीप सहनी…कभी कभी रोष उत्पन्न होता है इन सब के लिए – एक तरफ तो फिल्मों को समीचीन और उत्तर-आधुनिक बना रहे हैं, गीतों के साथ इतना transactional व्यवहार क्यों? और यह शिकायत संगीत से ज्यादा गीतों के बोल, lyrics को लेकर है.
रही बात किरदारों से जुड़े गीत लिखने की तो फिल्म देखते समय तो आप निश्चय ही उस सोच पर अपनी दाद देना चाहेंगे। पर मिहिर आपकों उन श्रोताओं का पक्ष भी समझना होगा जो फिल्म देखने से ज्यादा संगीत सुनने में रुचि रखते हैं। ऐसे लोग गीत को तभी लंबे अर्से तक याद कर सकेंगे जब वो गीत अपने गायन, बोलों और संगीत से लोगों के दिलो दिमाग पर अपनी जगह बना सके।
मिहिर, इस विषय पर आपकी विचारधारा से पूर्णतः सहमत हूँ। अपनी वार्षिक संगीतमालाओं में अक्सर आज के इस दौर में हो रहे बेहतरीन प्रयोगों से रूबरू भी कराता रहा हूँ। जो लोग आज के संगीत को एक सिरे से ख़ारिज करते हैं उन्हें ये भी देखना होगा कि जो लोग इस दौर में भी कुछ अलग, कुछ अच्छा करने की कोशिश कर रहे हैं उन्हें हम कितना प्रोत्साहित कर पा रहे हैं?
इसी साल के फिल्मफेयर एवार्ड देखिए छम्मक छल्लो जैस डांस नंबर बेहतरीन बोलों के लिए नामित हो जाते हैं पर तनु वेड्स मनु के होनहार गीतकार का जिक्र भी नहीं आता।
आपने जिन नए निर्देशकों की बात की है उनसे मुझे भी बड़ी आशा है। आपने आमिर का ज़िक्र किया जिसका संगीत मुझे उस साल का सर्वश्रेष्ठ संगीत लगा था। इसी तरह अनुराग कश्यप की गुलाल में पीयूष मिश्रा के प्रयोगों को भुलाया नहीं जा सकता। दरअसल गीत संगीत में जिस विविधता की आशा आम संगीतप्रेमी लगाए बैठे हैं वो तभी आएगी जब नए नए विषयों पर ईमानदार फिल्में बने। कहानी छिछली हो तो गीतों में गहराई भला कैसे आएगी ?
गुलज़ार साहब तो इस काम में वाकई शुरू से ही उस्ताद रहे हैं….मौजूदा पीढ़ी के गीतकारों में भी ऐसे नाम तेजी से उभर रहे हैं…जो फिल्म की कहानी और किरदार से ताल्लुक रखते हुए कलम चलाने का हुनर रखते हैं. रॉकस्टार इसका ताज़ा उदाहरण है…बाकि कि जिन फिल्मों का आपने उल्लेख किया है…उसके गीत-संगीत पक्ष की लेकर मेरी समझ को आपका लेख पढ़ने के बाद नया आयाम मिला है…धन्यवाद !