हम रीगल के बाहर खड़े थे. भीतर से ’दैट गर्ल इन येलो बूट्स’ का आदमकद पोस्टर झांक रहा था. हाँ, एक और डीएसएलआर कैमरे पर बनी फ़िल्म सिनेमाघरों में आने वाली थी. बम्बई की बरसात सुबह से इस बे-छतरी दिल्लीवाले से लुका-छिपी खेल रही थी. तय हुआ लिओपोल्ड चलेंगे. पहुंचने ही वाले थे कि ठीक लिओपोल्ड के पहले बाएं हाथ को एक रास्ता खुलता दिखा समन्दर की ओर. मैं ठहर गया. सामने गेटवे था. समन्दर देख दिल्लीवाले का मन मचल गया. मैंने रास्ता बदल लिया. स्वेतलाना और जगन्नाथन दूर खड़े मुझे घूर रहे थे. लेकिन मेरे पीछे मेरा घर था जिसकी याद हमेशा मुझे पानी की ओर धकेलती है. आसमान बरसने को था और मैं अपने डीएसएलआर को पानी से बचाता इन घनेरे बादलों को समन्दर में घुल जाने से पहले अपने कैमरे में कैद कर लेना चाहता था.
लेकिन पानी को कभी कोई बांध पाया है.
दो कॉफ़ी के प्यालों और एक बियर मग के बीच, उस दीवार के एकदम नज़दीक बैठे जहां गोलियों से बने निशानों को मेडल की तरह सजाया गया है, लियोपोल्ड की उस टेबल पर जगन्नाथन मुझे बम्बई को कुछ और पास से देखने के लिए ग्रांट रोड के सिंगल स्क्रीन थियेटर्स देखने जाने की सलाह देता है और मैं उसे अपनी टूटी-फ़ूटी याद्दाश्त से वीरेन डंगवाल की कविता ’पी टी ऊषा’ सुनाता हूँ. पिछले तीन दिन से मैं उसे हम सबकी बातें सुनते, कोरे कागज़ों पर स्कैच बनाते और अनवरत जेम्स हेडली चेज़ पढ़ते देख रहा हूँ. क्या कोई मानेगा कि मेरी और जगन्नाथन की दोस्ती के पीछे जिस लड़के का हाथ है उससे मैं आजतक नहीं मिला. “सगई राज मेरी फ़िल्म का केन्द्रीय चरित्र होगा यह पहले से तय नहीं था. बल्कि वो तो मेरा सहायक कैमरामैन था.” जगन बताता है. (आप ’वीडियोकारन’ में आज भी उसका नाम ’सिनैमेटोग्राफी’ के क्रेडिट्स में पढ़ सकते हैं) पिछले दो महीने में मैं अपने कम से कम दर्जन भर दोस्तों को उस विस्मयकारी सगई राज से मिलवा चुका हूँ. मैं जगन से कहता हूँ कि जो बनाने वो निकला था, वहां से खड़े होकर देखें तो उसने अपनी फ़िल्म की नरैशन स्टाइल और मैसेज से बहुत समझौता किया है, लेकिन बदले में जो चीज़ बचाई है वो कहीं ज़्यादा कीमती है. ईमानदारी.
’टाटा इंस्टीट्यूट ऑफ़ सोशल सांइसेस’ की जिस छोटी सी ग्रांट के दम पर जगन्नाथन कृष्णन ने ’वीडियोकारन’ बनाई है, आमतौर पर उसे वहां शॉर्ट फ़िल्म के लिए ही उपयुक्त माना जाता है. शायद यह भी कि यह हिन्दुस्तान में अपनी पसन्द की फ़िल्में बनाने का ज़्यादा पारम्परिक तरीका है. लेकिन एक ऐसे दौर में जहां योजनाबद्ध तरीके से तमाम संस्थानों और प्रक्रियाओं का निजीकरण ’विकास’ के नाम पर किया जा रहा हो, वहां संस्थागत मदद का सही और जनतांत्रिक मूल्यों के हक में उपयोग दरअसल इस रास्ते को वापिस ज़िन्दा करने की लड़ाई में एक कदम है. संस्थागत मदद में अपनी वाजिब हिस्सेदारी मांगना उसके ’उदारीकरण’ के नाम पर कुछ हाथों में गैर-लोकतांत्रिक प्रक्रिया के तहत सीमित होने के खतरे का जवाब भी होता है. आज भी जगन्नाथन के पास इतने पैसे नहीं हैं कि वो अपनी डॉक्यूमेंट्री में आए तमाम फ़िल्मों के दृश्यों के अधिकार खरीद सके, और शायद इसी वजह से अनेक विदेशी फ़ेस्टिवल्स में वह प्रतियोगिता से बाहर हो जाती है. जगन अब ’वीडियोकारन’ से आगे बढ़ना चाहता है. उसके पास कहानी है लेकिन उसे बनाने के लिए पैसा नहीं. फिर एक बार फ़िल्म बनाने का संघर्ष उसे बनाने का सही आर्थिक मॉडल तलाश करने में छिपा है. लेकिन इस बार जगन को यह मालूम है कि वो अपनी दूसरी फ़िल्म बनाएगा. जल्द ही बनाएगा.
कुछ लड़ाइयां जैसे अब अनवरत हैं. पिछले दिनों जयदीप वर्मा दिल्ली में थे. राष्ट्रपति से अपनी फ़िल्म ’लीविंग होम’ के लिए राष्ट्रीय फ़िल्म पुरस्कार लेने. कुछ महीने पहले इसी कॉलम में हमने ’लीविंग होम’ की बात की थी. उनसे मुलाकात में फिर वो सारी कहानियां याद हो आईं जिनसे होकर यह दुर्लभ फ़िल्म यहां तक पहुँची है. वैसे एक नज़रिया यह भी हो सकता है कि ’लीविंग होम’ को हम हिन्दुस्तान में स्वतंत्र सिनेमा की सफलता की कहानी के तौर पर पढ़ें. तमाम संघर्षों के साथ बनकर तैयार हुई यह संगीतमय डॉक्यूमेंट्री न सिर्फ़ सिनेमाघरों में प्रदर्शित हुई बल्कि साढ़े पांच घंटे के अनकट वर्ज़न के साथ अपने चाहनेवालों के घरों में, दिलों में पहुँची. राष्ट्रीय पुरस्कार इसकी कहानी को एक ’हैप्पी एंडिंग’ भी देता है. लेकिन इस नज़रिए में वो बहुत सारी पीड़ाएं कहीं छिप जाती हैं जिन्हें अब हमने एक स्वतंत्र फ़िल्मकार का भाग्य मान लिया है. उस दिन से जोड़कर जब अखबारवालों ने उनसे उनकी फ़िल्म के प्रदर्शन वाले हफ़्ते में उसकी अपने अखबार में लिस्टिंग भर के पैसे मांगे थे, उन पुरस्कारों तक जहां वाजिब हकदारों के सही नाम पुकारने में गलतियां हुईं, यह लिस्ट बहुत लम्बी है. यहां एक फ़िल्मकार है जिसे अपने काम में गुणवत्ता से ज़रा सा भी समझौता मंज़ूर नहीं, जिसकी रचनाशीलता सदा कुछ नया गढ़ती रहती है. लेकिन जिसे अपने हिस्से का पूरा मान, पूरी इज़्ज़त चाहिए. सवाल हमसे है कि क्या हम इन जैसे स्वतंत्र फ़िल्मकारों के लिए एक ऐसा सिस्टम खड़ा कर सकते हैं जिसमें इन्हें अपना काम ईमानदारी और गुणवता के साथ पूरा करने का मौका मिले?
लेकिन हिन्दी सिनेमा में स्वतंत्र प्रयास अब एकाकी नहीं रहे. मैं कहानियों की तलाश में हूँ. आधी रात हेमंत गाबा को फोन करता हूँ. हेमंत की कहानी कुछ-कुछ ’द अनटाइटल्ड कार्तिक कृष्णन प्रोजेक्ट’ के नायक से मिलती है. विदेश में बैठे सॉफ़्टवेयर कोड लिखते-लिखते एक दिन अचानक यह लड़का तय करता है कि इसे फ़िल्म बनानी है. बाकायदा एक फ़ीचर फ़िल्म. सच में यह दुस्साहसियों का ज़माना है. लौटकर हिन्दुस्तान आता है और मानिए या न मानिए, कैसे न कैसे कर अपनी फ़िल्म बना डालता है. इधर हेमंत अपनी कहानी सुना रहा है, वही फ़िल्म के प्रदर्शन से जुड़े ’डिस्ट्रीब्यूटर-पब्लिसिटी’ के गोरखधंधे, और मुझे उसकी बातें सुनते हुए एक पुरानी कहानी, एक पुराना दोस्त याद आता है. अचानक मैं जयदीप वर्मा की ’लीविंग होम’ का नाम लेता हूँ और हेमंत मुझे बताता है कि उसने ’लीविंग होम’ ख़ास कनॉट प्लेस के सिनेमाहॉल में इसीलिए देखी थी क्योंकि ऐसा हर स्वतंत्र प्रयास उसकी लड़ाई का हिस्सा है. अलग-अलग भाषा और परिवेश से आए यह सभी स्वतंत्र फ़िल्मकार अब साथ खड़े होने का महत्व और ज़रूरत समझ रहे हैं.
हेमंत बताता है कि उसकी फ़िल्म बनकर तैयार है लेकिन किसी भी किस्म का वितरक उसके प्रदर्शन के लिए तैयार नहीं. उन्हें पैसा चाहिए. उसे ’आपकी पैंतीस लाख की फ़िल्म में हम अपना सत्तर लाख क्यों डालें’ जैसे जवाब इस संघर्ष की बहुत शुरुआत में ही मिल चुके हैं. वो उस दिन को याद करता है जब एक बड़ी फ़िल्म प्रोसेसिंग लैब ने उसकी बरसों की मेहनत को लगभग नष्ट करने के बाद उससे पहला सवाल यही पूछा था कि कहीं आप किसी फ़िल्मी खानदान से तो नहीं? इन्हीं सारे वितरण से जुड़े झमेलों को याद कर वो लिखता है,
“अब तो यह जाना-पहचाना तथ्य है कि आज फ़िल्म बनाने से कहीं ज़्यादा मुश्किल उसका वितरण है. मुझे यह फ़िल्म ’शटलकॉक ब्वॉयज़’ पूरा करने में दो साल से ज़्यादा लगे हैं और अब भी मुझे यह नहीं पता कि आखिर कब यह फ़िल्म इसके असल दर्शकों तक पहुँचेगी. वितरकों से तो मिलना ही मुश्किल है, शायद इसलिए कि मैं इस इंडस्ट्री के लिए एक बाहरी व्यक्ति हूँ और मेरे पीछे कोई फ़िल्मी बैकग्राउंड नहीं. लगातार प्रयास के बाद जिन कुछ मीडिया कॉर्पोरेट्स से मैं मिल पाया, उन्होंने भी बड़ी विनम्रता से मेरी कोशिश को यह कहकर किनारे कर दिया कि न तो इसमें कोई स्टार है और न ही सिर्फ़ पैंतीस लाख में बनी फ़िल्म के वितरण में पैसा डालना कोई समझदारी है. स्वतंत्र वितरक भी चाहते हैं कि प्रिंट और पब्लिसिटी का पैसा मैं खुद करूं, जो इन हालातों में मेरे लिए संभव नहीं. तो हाल-फ़िलहाल फ़िल्म को एक सीमित स्तर पर भी प्रदर्शित कर पाने की लड़ाई जारी है.” हेमंत अपनी अमरीका की नौकरी से जो कुछ बचाकर लाया था वो तो इस फ़िल्म में लगा दिया. दोस्तो, घरवालों का भी मन और धन यहां अटका है. लेकिन वो कोई धन कुबेर नहीं. उसका अगली फ़िल्म बनाने का सपना पूरी तरह इस फ़िल्म के प्रदर्शन पर टिका है.
ऐसे में देश भर में होने वाले तमाम छोटे-बड़े फ़िल्म महोत्सव हेमंत के लिए उम्मीद की किरण हैं. और ऐसे फ़िल्मोत्सवों की संख्या हिन्दी की लघु पत्रिकाओं की तरह लगातार बढ़ रही है. यहां उसकी फ़िल्म को अपने दर्शक मिल सकते हैं. बेशक यहां पैसा नहीं है लेकिन यहां दर्शक फ़िल्म देखेगा और पसन्द करेगा तो उससे फ़िल्म का नाम और आगे जाएगा. रास्ते ऐसे ही निकलते हैं. फिर हमें समझ आता है कि फ़िल्म दिखाने का कोई ठीक-ठाक मॉडल खड़ा कर पाना हिन्दुस्तान में स्वतंत्र सिनेमा के भविष्य की राह में सबसे महत्वपूर्ण तथ्य है. वो हिमाचल का ज़िक्र करता है, यमुनानगर में फ़िल्म फ़ेस्टिवल की बात बता आश्चर्य मिश्रित खुशी ज़ाहिर करता है. मैं उसे गोरखपुर का पता बताता हूँ. दोस्तियां कुछ और गाढ़ी होती हैं. कुछ हंसी-ठठ्ठों भर में हम फ़िल्म को उसके दर्शक तक पहुँचाने के इस अनवरत चलते संघर्ष को साझा लड़ाई में बदल देते हैं.
डॉक्यूमेंट्री वाले इसका रास्ता अब वितरण भी अपने हाथ में लेकर निकाल रहे हैं. ’डेल्ही फ़िल्म आर्काइव’ जैसा प्रयास दिल्ली के वृत्तचित्र निर्देशकों का एक ऐसा ही सम्मिलित प्रयास है जो सिनेमा की शहर में उपलब्धता सुनिश्चित करने का माध्यम है. ’मैजिक लैंटर्न फ़ाउंडेशन’ भी ’अंडर कंस्ट्रक्शन’ के बैनर तले सिनेमा के वितरण का काम शुरु कर चुकी है. खुद गोरखपुर फ़िल्म फ़ेस्टिवल की टीम के पास अब पचास से ज़्यादा फ़िल्मों के वितरण अधिकार हैं. अब तो फ़िल्मस डिविजन भी अपने अधिकार की फ़िल्मों का वितरण करने लगा है. कई दुर्लभ फ़िल्में फिर सामने आई हैं. मान्य धारणा है कि हिन्दुस्तान में डॉक्यूमेंट्री में जो पैसा है वो बनाने के पहले है, बनाने के बाद उसे दिखाकर कोई पैसा नहीं कमाया जा सकता. शायद इस कारण भी यहां नए वितरण तंत्र को खड़ा करना मुश्किल तो है लेकिन जटिल नहीं. यह नए प्रयास अब इस प्रचलित धारणा को कुछ अंशों में बदल भी रहे हैं. लेकिन फ़ीचर फ़िल्म का सिनेमाघरों में प्रदर्शन आज भी टेढ़ी खीर है. वहां खेल बड़े पैसे और पहचान का है. और इसके बिना कोई सेटेलाइट राइट्स भी खरीदने को तैयार नहीं. कई अच्छी फ़िल्में जैसे ’खरगोश’, ’कबूतर’ सिनेमाघरों का कभी मुंह नहीं देख पाईं. और ’दाएं या बाएं’, ’हल्ला’ जैसी फ़िल्में सही प्रचार और शो टाइमिंग न मिलने के अभाव में किस अकाल मृत्यु को प्राप्त हुईं ये हम सब जानते हैं.
यह अनेक संभावनाओं वाला समय है. बहुवचन समय. यहां नकारात्मक बंजर ज़मीनों पर ज़िन्दगी और सिनेमा को चाहनेवाले उम्मीदों के पौधे लगा रहे हैं. उन्हें बढ़ने के लिए खाद-पानी की ज़रूरत है. और उस पानी का सोता हम दर्शकों से होकर गुज़रता है. तो आएं, अपने-अपने डीएसएलआर कैमरे निकालें और शाश्वत नियमों को झुठलाएं और इस कलकल पानी को उम्मीदों की क्यारियों में कैद करना शुरु करें.
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साहित्यिक पत्रिका ’कथादेश’ के अक्टूबर अंक में प्रकाशित. इस आलेख की पहली किश्त आप यहाँ पढ़ सकते हैं. फ़िल्मकार हेमंत गाबा से मोहल्ला लाइव के लिए की गई मेरी विस्तृत बातचीत आप यहाँ पढ़ सकते हैं.
This deficit balancing in income and expenes of good art is universal! (Can not resist the jargons, they are part of my being)
But I have noticed crowdsourcing and kickstarters being used in world more often. Of course, being from the finance side of the fence, i know the legal and tax difficulties it entails!
Madhuri
शुक्रिया पंकज, प्रवीण. वैसे कहानी की प्रधानता से आपका मतलब पटकथा की प्रधानता से ही है ना? क्योंकि कई बार विरल कथातत्व वाली फ़िल्मों में भी चमत्कार होता है. ’स्टेशन एजेंट’ से लेकर ’दायें या बायें’ तक इसके उदाहरण हैं.
बहुत बहुत सुंदर लिखा है मिहिर… इस अराजकता से उम्मीद बँधती है…
जब कहानी प्रधान फिल्में साधारण तकनीक से बनने लगेंगी तो जनतन्त्र आयेगा सिनेमा में।