रॉकस्टार : सिनेमा जो कोलाज हो जाना चाहता था

पहले जुम्मे की टिप्पणी है. इसलिए अपनी बनते पूरी कोशिश है कि बात इशारों में हो और spoilers  न हों. फिर भी अगर आपने फ़िल्म नहीं देखी है तो मेरी सलाह यही है कि इसे ना पढ़ें. किसी बाह्य आश्वासन की दरकार लगती है तो एक पंक्ति में बताया जा सकता है कि फ़िल्म बेशक एक बार देखे जाने लायक है, देख आएं. फिर साथ मिल चर्चा-ए-आम होगी.

*****

Rockstar2011बीस के सालों में जब अंग्रेज़ी रियासत द्वारा स्थापित ’नई दिल्ली योजना समिति’ के सदस्य जॉन निकोल्स ने पहली बार एक सर्पिलाकार कुंडली मारे बैठे शॉपिंग प्लाज़ा ’कनॉट प्लेस’ का प्रस्ताव सरकार के समक्ष रखा था, उस वक़्त वह पूरा इलाका कीकर के पेड़ों से भरा बियाबान जंगल था. ’कनॉट सर्कस’ के वास्तुकार रॉबर्ट रसैल ने इन्हीं विलायती बबूल के पेड़ों की समाधि पर अपना भड़कीला शाहकार गढ़ा.

इम्तियाज़ अली की ’रॉकस्टार’ में इसी कनॉट प्लेस के हृदयस्थल पर खड़े होकर जनार्दन जाखड़ उर्फ़ ’जॉर्डन’ जब कहता है,

“जहाँ तुम आज खड़े हो, कभी वहाँ एक जंगल था. फिर एक दिन वहाँ शहर घुस आया. सब कुछ करीने से, सलीके से. कुछ पंछी थे जो उस जंगल के उजड़ने के साथ ही उड़ गए. वो फिर कभी वापस लौटकर नहीं आए. मैं उन्हीं पंछियों को पुकारता हूँ. बोलो, तुमने देखा है उन्हें कहीं?”

तो मेरे लिए वो फ़िल्म का सबसे खूबसूरत पल है. एक संवाद जिसके सिरहाने न जाने कितनी कहानियाँ अधलेटी सी दिखाई देती हैं. तारीख़ को लेकर वो सलाहियत जिसकी जिसके बिना न कोई युद्ध पूरा हुआ है, न प्यार. लेकिन ऐसे पल फिर फ़िल्म में कम हैं. क्यों, क्योंकि फ़िल्म दिक-काल से परे जाकर कविता हो जाना चाहती है. जब आप सिनेमा में कहानी कहना छोड़कर कोलाज बनाने लगते हैं तो कई बार सिनेमा का दामन आपके हाथ से छूट जाता है. यही वो अंधेरा मोड़ है, मेरा पसन्दीदा निर्देशक शायद यहीं मात खाता है.

आगे की कथा आने से पहले ही उसके अंश दिखाई देते हैं, किरदार दिखाई देते हैं. और जहाँ से फ़िल्म शुरु होती है वापस लौटकर उस पल को समझाने की कभी कोशिश नहीं करती. रॉकस्टार में ऐसे कई घेरे हैं जो अपना वृत्त पूरा नहीं करते. मैं इन्हें संपादन की गलतियाँ नहीं मानता. ख़ासकर तब जब शम्मी कपूर जैसी हस्ती अपने किरदार के विधिवत आगमन से मीलों पहले ही एक गाने में भीड़ के साथ खड़े ऑडियो सीडी का विमोचन करती दिखाई दे, यह अनायास नहीं हो सकता. ’रॉकस्टार’ यह तय ही नहीं कर पाई है कि उसे क्या होना है. वह एक कलाकार का आत्मसाक्षात्कार है, लेकिन बाहर इतना शोर है कि आवाज़ कभी रूह तक पहुँच ही नहीं पाती. वह एक साथ एक कलाकृति और एक सफ़ल बॉलीवुड फ़िल्म होने की चाह करती है और दोनों जहाँ से जाती है.

ऐसा नहीं है कि फ़िल्म में ईमानदारी नहीं दिखाई देती. कैंटीन वाले खटाना भाई के रोल में कुमुद मिश्रा ने जैसे एक पूरे समय को जीवित कर दिया है. जब वो इंटरव्यू के लिए कैमरे के सामने खड़े होते हैं तो उस मासूमियत की याद दिलाते हैं जिसे हम अपने बीए पास के दिनों में जिया करते थे और वहीं अपने कॉलेज की कैंटीन में छोड़ आए हैं. अदिति राव हैदरी कहानी में आती हैं और ठीक वहीं लगता है कि इस बिखरी हुई, असंबद्ध कोलाजनुमा कहानी को एक सही पटरी मिल गई है. लेकिन अफ़सोस कि वो सिर्फ़ हाशिए पर खड़ी एक अदाकारा हैं, और जिसे इस कहानी की मुख्य नायिका के तौर चुना गया है उन्हें जितनी बार देखिए यह अफ़सोस बढ़ता ही जाता है.

ढाई-ढाई इंच लम्बे तीन संवादों के सहारे लव आजकल की ’हरलीन कौर’ फ़िल्म किसी तरह निकाल ले गई थीं, लेकिन फ़िल्म की मुख्य नायिका के तौर गैर हिन्दीभाषी नर्गिस फ़ाखरी का चयन ऐसा फ़ैसला है जो इम्तियाज़ पर बूमरैंग हो गया है. शायद उन्होंने अपनी खोज ’हरलीन कौर’ को मुख्य भूमिका में लेकर बनी ’आलवेज़ कभी कभी’ का हश्र नहीं देखा. फिर ऊपर से उनकी डबिंग इतनी लाउड है कि फ़िल्म जिस एकांत और शांति की तलाश में है वो उसे कभी नहीं मिल पाती. बेशक उनके मुकाबले रणबीर मीलों आगे हैं लेकिन फिर अचानक आता, अचानक जाता उनका हरियाणवी अंदाज़ खटकता है. फिर भी, ऐसे कितने ही दृश्य हैं फ़िल्म में जहाँ उनका भोलापन और ईमानदारी उनके चेहरे से छलकते हैं. ठीक उस पल जहाँ जनार्दन हीर को बताता है कि उसने कभी दारू नहीं पी और दोस्तों के सामने बस वो दिखाने के लिए अपने मुंह और कपड़ों पर लगाकर चला जाता है, ठीक वहीं रणबीर के भीतर बैठा बच्चा फ़िल्म को कुछ और ऊपर उठा देता है. ’वेक अप सिड’ और ’रॉकेट सिंह’ के बाद यह एक और मोती है जिसे समुद्र मंथन से बहुत सारे विषवमन के बीच रनबीर अपने लिए सलामत निकाल लाए हैं.

rockstar_hindi_movieफ़िल्म के कुछ सबसे खूबसूरत हिस्से इम्तियाज़ ने नहीं बल्कि ए आर रहमान, मोहित चौहान और इरशाद कामिल ने रचे हैं. तुलसी के मानस की तरह जहाँ चार चौपाइयों की आभा को समेटता पीछे-पीछे आप में सम्पूर्ण एक दोहा चला आता है, यहाँ रहमान के रूहानी संगीत में इरशाद की लिखी मानस के हंस सी चौपाइयाँ आती हैं.

’कुन फ़ाया कुन’ में…

“सजरा सवेरा मेरे तन बरसे, कजरा अँधेरा तेरी जलती लौ,
क़तरा मिला जो तेरे दर बरसे … ओ मौला.”

’नादान परिंदे’ में…
कागा रे कागा रे, मोरी इतनी अरज़ तोसे, चुन चुन खाइयो मांस,
खाइयो न तू नैना मोरे, खाइयो न तू नैना मोरे, पिया के मिलन की आस.”

यही वो क्षण हैं जहाँ रणबीर सीधे मुझसे संवाद स्थापित करते हैं, यही वो क्षण हैं जहाँ फ़िल्म जादुई होती है. लेकिन कोई फ़िल्म सिर्फ़ गानों के दम पर खड़ी नहीं रह सकती. अचानक लगता है कि मेरे पसन्दीदा निर्देशक ने अपनी सबसे बड़ी नेमत खो दी है और जैसे उनके संवादों का जावेद अख़्तरीकरण हो गया है. और इस ’प्रेम कहानी’ में से प्रेम जाने कब उड़ जाता है पता ही नहीं चलता.

सच कहूँ, इम्तियाज़ की सारी गलतियाँ माफ़ होतीं अगर वे अपने सिनेमा की सबसे बड़ी ख़ासियत को बचा पाए होते. मेरी नज़र में इम्तियाज़ की फ़िल्में उसके महिला किरदारों की वजह से बड़ी फ़िल्में बनती हैं. नायिकाएं जिनकी अपनी सोच है, अपनी मर्ज़ी और अपनी गलतियाँ. और गलतियाँ हैं तो उन पर अफ़सोस नहीं है. उन्हें लेकर ’जिन्दगी भर जलने’ वाला भाव नहीं है, और एक पल को ’जब वी मेट’ में वो दिखता भी है तो उस विचार का वाहियातपना फ़िल्म खुद बखूबी स्थापित करती है. उनकी प्रेम कहानियाँ देखकर मैं कहता था कि देखो, यह है समकालीन प्यार. जैसी लड़कियाँ मैं अपने दोस्तों में पाता हूँ. हाँ, वे दोस्त पहले हैं लड़कियाँ बाद में, और प्रेमिकाएं तो उसके भी कहीं बाद. और यही वो बिन्दु था जहाँ इम्तियाज़ अपने समकालीनों से मीलों आगे निकल जाते थे. लेकिन रॉकस्टार के पास न कोई अदिति है न मीरा. कोई ऐसी लड़की नहीं जिसके पास उसकी अपनी आवाज़ हो. अपने बोल हों. और यहाँ बात केवल तकनीकी नहीं, किरदार की है.

इम्तियाज़ की फ़िल्मों ने हमें ऐसी नायिकाएं दी हैं जो सच्चे प्रेम के लिए सिर्फ़ नायक पर निर्भर नहीं हैं. किसी भी और स्वतंत्र किरदार की तरह उनकी अपनी स्वतंत्र ज़िन्दगियाँ हैं जिन्हें नायक के न मिलने पर बरबाद नहीं हो जाना है. बेशक इन दुनियाओं में हमारे हमेशा कुछ कमअक़्ल नायक आते हैं और प्रेम कहानियाँ पूरी होती हैं, लेकिन फ़िल्म कभी दावे से यह नहीं कहती कि अगर यह नायक न आया होता तो इस नायिका की ज़िन्दगी अधूरी थी. इम्तियाज़ ने नायिकायों को सिर्फ़ नायक के लिए आलम्बन और उद्दीपन होने से बचाया और उन्हें खुद आगे बढ़कर अपनी दुनिया बनाने की, गलतियाँ करने की इजाज़त दी. इस संदर्भ को ध्यान रखते हुए ’रॉकस्टार’ में एक ऐसी नायिका को देखना जिसका जीवन सिर्फ़ हमारे नायक के इर्द गिर्द संचालित होने लगे, निराश करता है. और जैसे जैसे फ़िल्म अपने अंत की ओर बढ़ती है नायिका अपना समूचा व्यक्तित्व खोती चली जाती है, मेरी निराशा बढ़ती चली जाती है.

मैंने इम्तियाज़ की फ़िल्मों में हमेशा ऐसी लड़कियों को पाया है जिनकी ज़िन्दगी ’सच्चे प्यार’ के इंतज़ार में तमाम नहीं होती. वे सदा सक्रिय अपनी पेशेवर ज़िन्दगियाँ जीती हैं. कभी दुखी हैं, लेकिन हारी नहीं हैं और ज़्यादा महत्वपूर्ण ये कि अपनी लड़ाई फिर से लड़ने के लिए किसी नायक का इंतज़ार नहीं करतीं.

और हाँ, पहला मौका मिलते ही भाग जाती हैं.

मैं खुश होता अगर इस फ़िल्म में भी नायिका ऐसा ही करती. तब यह फ़िल्म सच्चे अर्थों में उस रास्ते जाती जिस रास्ते को इम्तियाज़ की पूर्ववर्ती फ़िल्मों ने बड़े करीने से बनाया है.

अराजकता के आकाश में उड़ता सिनेमा का जनतंत्र – 2

gatewayहम रीगल के बाहर खड़े थे. भीतर से ’दैट गर्ल इन येलो बूट्स’ का आदमकद पोस्टर झांक रहा था. हाँ, एक और डीएसएलआर कैमरे पर बनी फ़िल्म सिनेमाघरों में आने वाली थी. बम्बई की बरसात सुबह से इस बे-छतरी दिल्लीवाले से लुका-छिपी खेल रही थी. तय हुआ लिओपोल्ड चलेंगे. पहुंचने ही वाले थे कि ठीक लिओपोल्ड के पहले बाएं हाथ को एक रास्ता खुलता दिखा समन्दर की ओर. मैं ठहर गया. सामने गेटवे था. समन्दर देख दिल्लीवाले का मन मचल गया. मैंने रास्ता बदल लिया. स्वेतलाना और जगन्नाथन दूर खड़े मुझे घूर रहे थे. लेकिन मेरे पीछे मेरा घर था जिसकी याद हमेशा मुझे पानी की ओर धकेलती है. आसमान बरसने को था और मैं अपने डीएसएलआर को पानी से बचाता इन घनेरे बादलों को समन्दर में घुल जाने से पहले अपने कैमरे में कैद कर लेना चाहता था.

लेकिन पानी को कभी कोई बांध पाया है.

दो कॉफ़ी के प्यालों और एक बियर मग के बीच, उस दीवार के एकदम नज़दीक बैठे जहां गोलियों से बने निशानों को मेडल की तरह सजाया गया है, लियोपोल्ड की उस टेबल पर जगन्नाथन मुझे बम्बई को कुछ और पास से देखने के लिए ग्रांट रोड के सिंगल स्क्रीन थियेटर्स देखने जाने की सलाह देता है और मैं उसे अपनी टूटी-फ़ूटी याद्दाश्त से वीरेन डंगवाल की कविता ’पी टी ऊषा’ सुनाता हूँ. पिछले तीन दिन से मैं उसे हम सबकी बातें सुनते, कोरे कागज़ों पर स्कैच बनाते और अनवरत जेम्स हेडली चेज़ पढ़ते देख रहा हूँ. क्या कोई मानेगा कि मेरी और जगन्नाथन की दोस्ती के पीछे जिस लड़के का हाथ है उससे मैं आजतक नहीं मिला. “सगई राज मेरी फ़िल्म का केन्द्रीय चरित्र होगा यह पहले से तय नहीं था. बल्कि वो तो मेरा सहायक कैमरामैन था.” जगन बताता है. (आप ’वीडियोकारन’ में आज भी उसका नाम ’सिनैमेटोग्राफी’ के क्रेडिट्स में पढ़ सकते हैं) पिछले दो महीने में मैं अपने कम से कम दर्जन भर दोस्तों को उस विस्मयकारी सगई राज से मिलवा चुका हूँ. मैं जगन से कहता हूँ कि जो बनाने वो निकला था, वहां से खड़े होकर देखें तो उसने अपनी फ़िल्म की नरैशन स्टाइल और मैसेज से बहुत समझौता किया है, लेकिन बदले में जो चीज़ बचाई है वो कहीं ज़्यादा कीमती है. ईमानदारी.

videokaaran4small’टाटा इंस्टीट्यूट ऑफ़ सोशल सांइसेस’ की जिस छोटी सी ग्रांट के दम पर जगन्नाथन कृष्णन ने ’वीडियोकारन’ बनाई है, आमतौर पर उसे वहां शॉर्ट फ़िल्म के लिए ही उपयुक्त माना जाता है. शायद यह भी कि यह हिन्दुस्तान में अपनी पसन्द की फ़िल्में बनाने का ज़्यादा पारम्परिक तरीका है. लेकिन एक ऐसे दौर में जहां योजनाबद्ध तरीके से तमाम संस्थानों और प्रक्रियाओं का निजीकरण ’विकास’ के नाम पर किया जा रहा हो, वहां संस्थागत मदद का सही और जनतांत्रिक मूल्यों के हक में उपयोग दरअसल इस रास्ते को वापिस ज़िन्दा करने की लड़ाई में एक कदम है. संस्थागत मदद में अपनी वाजिब हिस्सेदारी मांगना उसके ’उदारीकरण’ के नाम पर कुछ हाथों में गैर-लोकतांत्रिक प्रक्रिया के तहत सीमित होने के खतरे का जवाब भी होता है. आज भी जगन्नाथन के पास इतने पैसे नहीं हैं कि वो अपनी डॉक्यूमेंट्री में आए तमाम फ़िल्मों के दृश्यों के अधिकार खरीद सके, और शायद इसी वजह से अनेक विदेशी फ़ेस्टिवल्स में वह प्रतियोगिता से बाहर हो जाती है. जगन अब ’वीडियोकारन’ से आगे बढ़ना चाहता है. उसके पास कहानी है लेकिन उसे बनाने के लिए पैसा नहीं. फिर एक बार फ़िल्म बनाने का संघर्ष उसे बनाने का सही आर्थिक मॉडल तलाश करने में छिपा है. लेकिन इस बार जगन को यह मालूम है कि वो अपनी दूसरी फ़िल्म बनाएगा. जल्द ही बनाएगा.

INDIANOCEAN POSTER FINALकुछ लड़ाइयां जैसे अब अनवरत हैं. पिछले दिनों जयदीप वर्मा दिल्ली में थे. राष्ट्रपति से अपनी फ़िल्म ’लीविंग होम’ के लिए राष्ट्रीय फ़िल्म पुरस्कार लेने. कुछ महीने पहले इसी कॉलम में हमने ’लीविंग होम’ की बात की थी. उनसे मुलाकात में फिर वो सारी कहानियां याद हो आईं जिनसे होकर यह दुर्लभ फ़िल्म यहां तक पहुँची है. वैसे एक नज़रिया यह भी हो सकता है कि ’लीविंग होम’ को हम हिन्दुस्तान में स्वतंत्र सिनेमा की सफलता की कहानी के तौर पर पढ़ें. तमाम संघर्षों के साथ बनकर तैयार हुई यह संगीतमय डॉक्यूमेंट्री न सिर्फ़ सिनेमाघरों में प्रदर्शित हुई बल्कि साढ़े पांच घंटे के अनकट वर्ज़न के साथ अपने चाहनेवालों के घरों में, दिलों में पहुँची. राष्ट्रीय पुरस्कार इसकी कहानी को एक ’हैप्पी एंडिंग’ भी देता है. लेकिन इस नज़रिए में वो बहुत सारी पीड़ाएं कहीं छिप जाती हैं जिन्हें अब हमने एक स्वतंत्र फ़िल्मकार का भाग्य मान लिया है. उस दिन से जोड़कर जब अखबारवालों ने उनसे उनकी फ़िल्म के प्रदर्शन वाले हफ़्ते में उसकी अपने अखबार में लिस्टिंग भर के पैसे मांगे थे, उन पुरस्कारों तक जहां वाजिब हकदारों के सही नाम पुकारने में गलतियां हुईं, यह लिस्ट बहुत लम्बी है. यहां एक फ़िल्मकार है जिसे अपने काम में गुणवत्ता से ज़रा सा भी समझौता मंज़ूर नहीं, जिसकी रचनाशीलता सदा कुछ नया गढ़ती रहती है. लेकिन जिसे अपने हिस्से का पूरा मान, पूरी इज़्ज़त चाहिए. सवाल हमसे है कि क्या हम इन जैसे स्वतंत्र फ़िल्मकारों के लिए एक ऐसा सिस्टम खड़ा कर सकते हैं जिसमें इन्हें अपना काम ईमानदारी और गुणवता के साथ पूरा करने का मौका मिले?

लेकिन हिन्दी सिनेमा में स्वतंत्र प्रयास अब एकाकी नहीं रहे. मैं कहानियों की तलाश में हूँ. आधी रात हेमंत गाबा को फोन करता हूँ. हेमंत की कहानी कुछ-कुछ ’द अनटाइटल्ड कार्तिक कृष्णन प्रोजेक्ट’ के नायक से मिलती है. विदेश में बैठे सॉफ़्टवेयर कोड लिखते-लिखते एक दिन अचानक यह लड़का तय करता है कि इसे फ़िल्म बनानी है. बाकायदा एक फ़ीचर फ़िल्म. सच में यह दुस्साहसियों का ज़माना है. लौटकर हिन्दुस्तान आता है और मानिए या न मानिए, कैसे न कैसे कर अपनी फ़िल्म बना डालता है. इधर हेमंत अपनी कहानी सुना रहा है, वही फ़िल्म के प्रदर्शन से जुड़े ’डिस्ट्रीब्यूटर-पब्लिसिटी’ के गोरखधंधे, और मुझे उसकी बातें सुनते हुए एक पुरानी कहानी, एक पुराना दोस्त याद आता है. अचानक मैं जयदीप वर्मा की ’लीविंग होम’ का नाम लेता हूँ और हेमंत मुझे बताता है कि उसने ’लीविंग होम’ ख़ास कनॉट प्लेस के सिनेमाहॉल में इसीलिए देखी थी क्योंकि ऐसा हर स्वतंत्र प्रयास उसकी लड़ाई का हिस्सा है. अलग-अलग भाषा और परिवेश से आए यह सभी स्वतंत्र फ़िल्मकार अब साथ खड़े होने का महत्व और ज़रूरत समझ रहे हैं.

SB_Poster 2हेमंत बताता है कि उसकी फ़िल्म बनकर तैयार है लेकिन किसी भी किस्म का वितरक उसके प्रदर्शन के लिए तैयार नहीं. उन्हें पैसा चाहिए. उसे ’आपकी पैंतीस लाख की फ़िल्म में हम अपना सत्तर लाख क्यों डालें’ जैसे जवाब इस संघर्ष की बहुत शुरुआत में ही मिल चुके हैं. वो उस दिन को याद करता है जब एक बड़ी फ़िल्म प्रोसेसिंग लैब ने उसकी बरसों की मेहनत को लगभग नष्ट करने के बाद उससे पहला सवाल यही पूछा था कि कहीं आप किसी फ़िल्मी खानदान से तो नहीं? इन्हीं सारे वितरण से जुड़े झमेलों को याद कर वो लिखता है,

“अब तो यह जाना-पहचाना तथ्य है कि आज फ़िल्म बनाने से कहीं ज़्यादा मुश्किल उसका वितरण है. मुझे यह फ़िल्म ’शटलकॉक ब्वॉयज़’ पूरा करने में दो साल से ज़्यादा लगे हैं और अब भी मुझे यह नहीं पता कि आखिर कब यह फ़िल्म इसके असल दर्शकों तक पहुँचेगी. वितरकों से तो मिलना ही मुश्किल है, शायद इसलिए कि मैं इस इंडस्ट्री के लिए एक बाहरी व्यक्ति हूँ और मेरे पीछे कोई फ़िल्मी बैकग्राउंड नहीं. लगातार प्रयास के बाद जिन कुछ मीडिया कॉर्पोरेट्स से मैं मिल पाया, उन्होंने भी बड़ी विनम्रता से मेरी कोशिश को यह कहकर किनारे कर दिया कि न तो इसमें कोई स्टार है और न ही सिर्फ़ पैंतीस लाख में बनी फ़िल्म के वितरण में पैसा डालना कोई समझदारी है. स्वतंत्र वितरक भी चाहते हैं कि प्रिंट और पब्लिसिटी का पैसा मैं खुद करूं, जो इन हालातों में मेरे लिए संभव नहीं. तो हाल-फ़िलहाल फ़िल्म को एक सीमित स्तर पर भी प्रदर्शित कर पाने की लड़ाई जारी है.” हेमंत अपनी अमरीका की नौकरी से जो कुछ बचाकर लाया था वो तो इस फ़िल्म में लगा दिया. दोस्तो, घरवालों का भी मन और धन यहां अटका है. लेकिन वो कोई धन कुबेर नहीं. उसका अगली फ़िल्म बनाने का सपना पूरी तरह इस फ़िल्म के प्रदर्शन पर टिका है.

ऐसे में देश भर में होने वाले तमाम छोटे-बड़े फ़िल्म महोत्सव हेमंत के लिए उम्मीद की किरण हैं. और ऐसे फ़िल्मोत्सवों की संख्या हिन्दी की लघु पत्रिकाओं की तरह लगातार बढ़ रही है. यहां उसकी फ़िल्म को अपने दर्शक मिल सकते हैं. बेशक यहां पैसा नहीं है लेकिन यहां दर्शक फ़िल्म देखेगा और पसन्द करेगा तो उससे फ़िल्म का नाम और आगे जाएगा. रास्ते ऐसे ही निकलते हैं. फिर हमें समझ आता है कि फ़िल्म दिखाने का कोई ठीक-ठाक मॉडल खड़ा कर पाना हिन्दुस्तान में स्वतंत्र सिनेमा के भविष्य की राह में सबसे महत्वपूर्ण तथ्य है. वो हिमाचल का ज़िक्र करता है, यमुनानगर में फ़िल्म फ़ेस्टिवल की बात बता आश्चर्य मिश्रित खुशी ज़ाहिर करता है. मैं उसे गोरखपुर का पता बताता हूँ. दोस्तियां कुछ और गाढ़ी होती हैं. कुछ हंसी-ठठ्ठों भर में हम फ़िल्म को उसके दर्शक तक पहुँचाने के इस अनवरत चलते संघर्ष को साझा लड़ाई में बदल देते हैं.

Delhi film archiveडॉक्यूमेंट्री वाले इसका रास्ता अब वितरण भी अपने हाथ में लेकर निकाल रहे हैं. ’डेल्ही फ़िल्म आर्काइव’ जैसा प्रयास दिल्ली के वृत्तचित्र निर्देशकों का एक ऐसा ही सम्मिलित प्रयास है जो सिनेमा की शहर में उपलब्धता सुनिश्चित करने का माध्यम है. ’मैजिक लैंटर्न फ़ाउंडेशन’ भी ’अंडर कंस्ट्रक्शन’ के बैनर तले सिनेमा के वितरण का काम शुरु कर चुकी है. खुद गोरखपुर फ़िल्म फ़ेस्टिवल की टीम के पास अब पचास से ज़्यादा फ़िल्मों के वितरण अधिकार हैं. अब तो फ़िल्मस डिविजन भी अपने अधिकार की फ़िल्मों का वितरण करने लगा है. कई दुर्लभ फ़िल्में फिर सामने आई हैं. मान्य धारणा है कि हिन्दुस्तान में डॉक्यूमेंट्री में जो पैसा है वो बनाने के पहले है, बनाने के बाद उसे दिखाकर कोई पैसा नहीं कमाया जा सकता. शायद इस कारण भी यहां नए वितरण तंत्र को खड़ा करना मुश्किल तो है लेकिन जटिल नहीं. यह नए प्रयास अब इस प्रचलित धारणा को कुछ अंशों में बदल भी रहे हैं. लेकिन फ़ीचर फ़िल्म का सिनेमाघरों में प्रदर्शन आज भी टेढ़ी खीर है. वहां खेल बड़े पैसे और पहचान का है. और इसके बिना कोई सेटेलाइट राइट्स भी खरीदने को तैयार नहीं. कई अच्छी फ़िल्में जैसे ’खरगोश’, ’कबूतर’ सिनेमाघरों का कभी मुंह नहीं देख पाईं. और ’दाएं या बाएं’, ’हल्ला’ जैसी फ़िल्में सही प्रचार और शो टाइमिंग न मिलने के अभाव में किस अकाल मृत्यु को प्राप्त हुईं ये हम सब जानते हैं.

यह अनेक संभावनाओं वाला समय है. बहुवचन समय. यहां नकारात्मक बंजर ज़मीनों पर ज़िन्दगी और सिनेमा को चाहनेवाले उम्मीदों के पौधे लगा रहे हैं. उन्हें बढ़ने के लिए खाद-पानी की ज़रूरत है. और उस पानी का सोता हम दर्शकों से होकर गुज़रता है. तो आएं, अपने-अपने डीएसएलआर कैमरे निकालें और शाश्वत नियमों को झुठलाएं और इस कलकल पानी को उम्मीदों की क्यारियों में कैद करना शुरु करें.

*****

साहित्यिक पत्रिका ’कथादेश’ के अक्टूबर अंक में प्रकाशित. इस आलेख की पहली किश्त आप यहाँ पढ़ सकते हैं. फ़िल्मकार हेमंत गाबा से मोहल्ला लाइव के लिए की गई मेरी विस्तृत बातचीत आप यहाँ पढ़ सकते हैं.

डेल्ही बेली

जिस तुलना से मैं अपनी बात शुरु करने जा रहा हूँ, इसके बाद कुछ दोस्त मुझे सूली पर चढ़ाने की भी तमन्ना रखें तो मुझे आश्चर्य नहीं होगा. फिर भी, पहले भी ऐसा करता रहा हूँ. फिर सही एक बार…

Delhi-Belly-Posterसत्यजित राय की ’चारुलता’ के उस प्रसंग को हिन्दुस्तानी सिनेमा के इतिहास में क्रांतिकारी कहा जाता है जहाँ नायिका चारुलता झूले पर बैठे स्वयं गुरुदेव का लिखा गीत गुनगुना रही हैं और उनकी नज़र लगातार नायक अमल पर बनी हुई है. सदा से व्यवस्था का पैरोकार रहा हिन्दुस्तानी सिनेमा भूमिकाओं का निर्धारण करने में हमेशा बड़ा सतर्क रहा है. ऐसे में यह ’भूमिकाओं का बदलाव’ उसके लिए बड़ी बात थी. ’चारुलता’ को आज भी भारत में बनी सर्वश्रेष्ठ फ़िल्मों में शुमार किया जाता है.

यह तब भी बड़ी बात थी, यह आज भी बड़ी बात है. अध्ययन तो इस बात के भी हुए हैं कि लता मंगेशकर की आवाज़ को सबसे महान स्त्री स्वर मान लिए जाने के पीछे कहीं उनकी आवाज़ का मान्य ’स्त्रियोचित खांचे’ में अच्छे से फ़िट होना भी एक कारण है. जहाँ ऊँचे कद की नायिकाओं के सामने नाचते बौने कद के नायकों को ट्रिक फ़ोटोग्राफ़ी से बराबर कद पर लाया जाता हो, वहाँ सुष्मिता सेन का पीछे से आकर सलमान ख़ान को बांहों में भरना ही अपने आप में क्रांति है. बेशक ’देव डी’ के होते हम मुख्यधारा हिन्दी सिनेमा में पहली बार देखे गए इस ’भूमिकाओं में बदलाव’ का श्रेय ’डेल्ही बेली’ को नहीं दे सकते, लेकिन यौन-आनंद से जुड़े एक प्रसंग में स्त्री का ’भोक्ता’ की भूमिका में देखा जाना हिन्दी सिनेमा के लिए आज भी किसी क्रांति से कम नहीं.

  • ’देव डी’ में जब पहली बार हम सिनेमा के पर्दे पर इस ’भूमिकाओं के बदलाव’ को देखते हैं तो यह अपने आप में वक्तव्य है. ’डेल्ही बेली’ को इसके लिए ’देव डी’ का शुक्रिया अदा करना चाहिए कि वो उसके लिए रास्ता बनाती है. उसी के कांधे पर चढ़कर ’डेल्ही बेली’ इस प्रसंग को इतने कैज़ुअल तरीके से कह पाई है. हमारा सिनेमा आगे बढ़ रहा है और अब यह अपने आप में स्टेटमेंट भर नहीं रह गया, बल्कि अब कहानी इस दृश्य के माध्यम से दोनों किरदारों के बारे में, उनके आपसी रिश्ते के बारे में कुछ बातें कहने की कोशिश कर सकती है.

  • ठीक यही बात गालियों के बारे में है. यहाँ गालियाँ किसी स्टेटमेंट की तरह नहीं आई हैं. यही शब्द जिसे देकर ’डी के बोस’ इतना विवादों में है, जब गुलाल में आता है तो वो अपने आप में एक स्टेटमेंट है. लेकिन ’डेल्ही बेली’ में किरदार सामान्य रूप से गालियाँ देते हैं. लेकिन वहीं देते हैं जहाँ समझ में आती हैं. जैसे दो दोस्त आपस की बातचीत में गालियाँ देते हैं, लेकिन अपने माता-पिता के सामने बैठे नहीं. अब गालियाँ फ़िल्म में ’चमत्कार’ पैदा नहीं करतीं. और अगर करती भी हैं तो ज़रूरत उस दिशा में बढ़ने की है जहाँ उनका सारा ’चमत्कार’ खत्म हो जाए. विनीत ने कल फेसबुक पर बड़ी मार्के की बात लिखी थी, “मैं सिनेमा, गानों या किसी भी दूसरे माध्यमों में गालियों का समर्थन इसलिए करता हूं कि वो लगातार प्रयोग से अपने भीतर की छिपी अश्लीलता को खो दे, उसका कोई असर ही न रह जाए. ऐसा होना जरुरी है क्योंकि मैं नहीं चाहता कि महज एक गाली के दम पर कोई गाना या फिल्म करोड़ों की बिजनेस डील करे और पीआर, मीडिया एजेंसी इसके लिए लॉबिंग करे. ऐसी गालियां इतनी बेअसर हो जाए कि कल को कोई इसके दम पर बाजार खड़ी न कर सके.” ’डेल्ही बेली’ में गालियाँ ऐसे ही हैं जैसे कॉस्ट्यूम्स हैं, लोकेशन हैं. अपने परिवेश के अनुसार चुने हुए. असलियत के करीब. नाकाबिलेगौर हद तक सामान्य.

  • तमाम अन्य हिन्दी फ़िल्मों की तरह इसमें समलैंगिक लोगों का मज़ाक नहीं उड़ाया गया है, बल्कि उन लोगों का मज़ाक उड़ाया गया है जो किसी के समलैंगिक होने को असामान्य चीज़ की तरह देखते हैं, उसे गॉसिप की चीज़ मानते हैं.

  • सच कहा, हम यह फ़िल्म अपने माता-पिता के साथ बैठकर नहीं देख सकते हैं. लेकिन क्या यह सच नहीं कि नए बनते विश्व सिनेमा का सत्तर से अस्सी प्रतिशत हिस्सा हम अपने माता-पिता के साथ बैठकर नहीं देख सकते हैं. न टेरेन्टीनो, न वॉन ट्रायर, न कितानो. अगर हिन्दी सिनेमा भी विश्व सिनेमा के उस वृहत दायरे का हिस्सा है जिसे हम सराहते हैं तो उसे भी वो आज़ादी दीजिए जो आज़ादी विश्व के अन्य देशों का सिनेमा देखते हुए उन्हें दी जाती है. माता-पिता नहीं, लेकिन ’डेल्ही बेली’ को अपनी महिला मित्र के साथ बैठकर बड़े आराम से देखा जा सकता है. क्योंकि यह फ़िल्म और कुछ भी हो, अधिकांश मुख्यधारा हिन्दी फ़िल्मों की तरह ’एंटी-वुमन’ नहीं है. इस फ़िल्म में आई स्त्रियाँ जानती हैं कि उन्हें क्या चाहिए. वे उसे हासिल करने को लेकर कभी किसी तरह की शर्मिंदगी या हिचक महसूस नहीं करतीं और सबसे महत्वपूर्ण यह कि वे फ़िल्म की किसी ढलती सांझ में अपने पिछले किए पर पश्चाताप नहीं करतीं.

  • मुझे अजीब यह सुनकर लगा जब बहुत से दोस्तों की नैतिकता के धरातल पर यह फ़िल्म खरी नहीं उतरी. कई बार सिनेमा में गालियों के विरोधियों के साथ एक दिक्कत यह हो जाती है कि वे चाहकर भी गालियों से आगे नहीं देख पाते. अगर आप सिनेमा में ’नैतिकता’ की स्थापना को अच्छे सिनेमा का गुण मानते हैं (मैं नहीं मानता) तो फिर तो यह फ़िल्म आपके लिए ही बनी है. आप उसे पहचान क्यों नहीं पाए. गौर से देखिए, प्रेमचंद की किसी शुरुआती ’हृदय परिवर्तन’ वाली कहानी की तरह यहाँ भी कहानी का एक उप-प्रसंग एकदम वही नहीं है?

एक किरायदार किराया देने से बचने के लिए अपने मकान-मालिक को ब्लैकमेल करने का प्लान बनाता है. उसकी कुछ अनचाही तस्वीरें खींचता है और अनाम बनकर उससे पैसा मांगता है. तभी अचानक किसी अनहोनी के तहत खुद उसकी जान पर बन आती है. ऐसे में उसका वही मकान-मालिक आता है और उसकी जान बचाता है. ग्लानि से भरा किराएदार बार-बार शुक्रिया कहे जा रहा है और ऐसे में उसका मकान-मालिक जो उसके किए से अभी तक अनजान है उससे एक ही बात कहता है, “मेरी जगह तुम होते तो तुम भी यही नहीं करते?” किरायदार का हृदय परिवर्तन होता है और वो ब्लैकमेल करने वाला सारा कच्चा माल एक ’सॉरी नोट’ के साथ मकान-मालिक के लैटर-बॉक्स में डाल आता है.

  • लड़का इतने उच्च आदर्शों वाला है कि उनके लिए एक मॉडल का फ़ोटोशूट वाहियात है लेकिन किसी मृत व्यक्ति की लाश उन्हें शहर के किसी भी हिस्से में खींच ले जाती है. यह भी कि जब सवाल नायिका को बचाने का आता है तो यह बिल्कुल स्पष्ट है कि बचाना है, पैसा रख लेना कहीं ऑप्शन ही नहीं है इन लड़कों के लिए. और यह तब जब उन्होंने अभी-अभी जाना है कि वही नायिका इस सारी मुसीबत की जड़ है. पूरी फ़िल्म में सिर्फ़ दो जगह ऐसी है जहाँ फ़िल्म मुझे खटकती है. जहाँ उसका सौंदर्यबोध फ़िल्म के विचार का साथ छोड़ देता है. लेकिन सैकड़ों दृश्यों से मिलकर बनती फ़िल्म में सिर्फ़ दो ऐसे दृश्यों का होना मेरे ख्याल से मुख्यधारा हिन्दी सिनेमा के पुराने रिकॉर्ड को देखते हुए अच्छा ही कहा जाएगा.

  • फिर, नायक ऐसे उच्च आदर्शों वाला है कि एक लड़की के साथ होते दूसरी लड़की से चुम्बन खुद उसके लिए नैतिक रूप से गलत है. एक क्षण उसके चेहरे पर ’मैंने दोनों के साथ बेईमानी की’ वाला गिल्ट भी दिखता है और दूसरे क्षण वो किसी प्राश्च्यित के तहत दोनों के सामने ’सच का सामना’ करता है, यह जानते हुए भी कि इसका तुरंत प्रभाव दोनों को ही खो देने में छिपा है.

  • मैं एक ऐसे परिवार से आता हूँ जहाँ घर के बड़े सुबह नाश्ते की टेबल पर पहला सवाल यही पूछते हैं, “ठीक से निर्मल हुए कि नहीं?” कमल हासन की ’पुष्पक’ आज भी मेरे लिए हिन्दुस्तान में बनी सर्वश्रेष्ठ हास्य फ़िल्मों मे से एक है. क्यों न हम इसे उस अधूरी छूटी परंपरा में ही देखें.

Delhi Belly Stills

  • गालियों से आगे निकलकर देखें कि कि कैसे सिर्फ़ एक दृश्य वर्तमान शहरी लैंडस्केप में तेज़ी से मृत्यु की ओर धकेली जा रही कला का माकूल प्रतीक बन जाता है. घर की चटकती छत में धंसा वो नृतकी का घुंघरू बंधा पैर सब कुछ कहता है. कला की मृत्यु, संवेदना की मृत्यु, तहज़ीब की राजधानी रहे शहर में एक समूचे सांस्कृतिक युग की मृत्यु. कथक की ताल पर थिरकते उन पैरों की थाप अब कोई नई प्रेम कहानी नहीं पैदा करती, अब वह अनचाहा शोर है. अब तो इससे भी कोई फ़र्क नहीं पड़ता कि वो कथक है या फिर भरतनाट्यम. सितार को गिटार की तरह बजाया जाता है और उसमें से चिंगारियाँ निकलती हैं.

  • शुभ्रा गुप्ता ने बहुत सही कहा, ’डेल्ही बेली’ की भाषा ’हिंग्लिश’ नहीं है. ’हिंग्लिश’ अब एक पारिभाषिक शब्द है. ऐसी भाषा जिसमें एक ही वाक्य में हिन्दी और अंग्रेजी भाषा का घालमेल मिलता है. वरुण ने इसका बड़ा अच्छा उदाहरण दिया था कुछ दिन पहले, “बॉय और गर्ल घर से भागे. पेरेंट्स परेशान”. ’यूथ ओरिएंटेड’ कहलाए जाने वाले अखबारों जैसे नवभारत टाइम्स और आई नेक्स्ट के फ़ीचर पृष्ठों पर आप इस तरह की भाषा आसानी से पढ़ सकते हैं. इसके उलट ’डेल्ही बेली’ में भाषा को लेकर वह समझदारी है जिसकी बात हम पिछले कुछ समय से कर रहे हैं. यहाँ किरदार अपने परिवेश के अनुसार हिन्दी या अंग्रेज़ी भाषा का इस्तेमाल कर रहे हैं. जैसे नायक आपस में अंग्रेज़ी में बात कर रहे हैं लेकिन उन्हें मारने आए गुंडो से हिन्दी में. जैसे नायिका अपने सहकर्मी से अंग्रेज़ी में बात कर रही है लेकिन पुरानी दिल्ली के जौहरी से हिन्दी में. उच्च-मध्यम वर्ग से आए पढ़े लिखे नायकों की गालियाँ आंग्ल भाषा में हैं लेकिन विजय राज की गालियाँ उसके किरदार के अनुसार शुद्ध देसी.

कहानी का अंत उस प्रसंग से करना चाहूँगा जिसने मेरे मन में भी कई सवाल खड़े किए हैं. फ़िल्म की रिलीज़ के अगले ही दिन जब मेरे घरशहरी दोस्त रामकुमार ने अपनी फेसबुक वाल पर लिखा कि ’क्यों न हम खुलकर यह कहें कि ’डेल्ही बेली’ एक ’एंटी-वुमन’ फ़िल्म है’ तो मुझे यह बात खटकी. मैंने अपनी असहमति दर्ज करवाई. फिर मेरा ध्यान गया, वहीं नीचे उन्होंने वह संवाद उद्धृत किया था जिसके आधार पर वे इस नतीजे तक पहुँचे थे. मेरी याद्दाश्त के हिसाब से संवाद अधूरा उद्धृत किया गया था और अगर उसे पूरा उतारा जाता तो यह भ्रम न होता. मैंने यही बात नीचे टिप्पणी में लिख दी.

अगले ही पल रामकुमार का फ़ोन आया. पहला सवाल उन्होंने पूछा, “मिहिर भाई, आपने फ़िल्म इंग्लिश में देखी या हिंदी में?” बेशक दिल्ली में होने के नाते मैंने फ़िल्म इंग्लिश में ही देखी थी. पेंच अब खुला था. हम दोनों अपनी जगह सही थे. जो संवाद मूल अंग्रेज़ी में बड़ा जनतांत्रिक था उसकी प्रकृति हिन्दी अनुवाद में बिल्कुल बदल गई थी और वो एक खांटी ’एंटी-वुमन’ संवाद लग रहा था.

चेतावनी – आप चाहें तो आगे की कुछ पंक्तियाँ छोड़ कर आगे बढ़ सकते हैं. मैं बात समझाने के लिए आगे दोनों संवादों को उद्धृत कर रहा हूँ.

(Ye shadi nahi ho sakti. because this girl given me a BJ and being a 21st century man I also given her oral pleasure.)

(ये शादी नहीं हो सकती. क्योंकि इस लड़की ने मेरा चूसा है और बदले में मैंने भी इसकी ली है.)

इसी ज़मीन से उपजे कुछ मूल सवाल हैं जिनके जवाब मैं खुले छोड़ता हूँ आगे आपकी तलाश के लिए…

  • क्या ऐसा इसलिए होता है कि सिनेमा बनाने वाले तमाम लोग अब अंग्रेज़ी में सोचते हैं और अंग्रेजी में लिखे गए संवादों को ’आम जनता’ के उपयुक्त बनाने का काम कुछ अगंभीर और भाषा का रत्ती भर भी ज्ञान न रखने वाले सहायकों पर छोड़ दिया जाता है? क्या हमें सच में ऐसे असंवेदनशील अनुवादों की आवश्यकता है?
  • या यह एक सोची समझी चाल है. हिन्दी पट्टी के दर्शकों को लेकर सिनेमा ने एक ख़ास सोच बना ली है और ठीक वैसे जैसे ’इंडिया टुडे’ एक ही कवर स्टोरी का सुरुचिपूर्ण मुख्य पृष्ठ हिन्दी के पाठकों की ’सौंदर्याभिरुचि’ को देखते हुए बदल देती है, यह भी जान-समझ कर की गई गड़बड़ी है? यह मानकर कि हिन्दी का दर्शक बाहर चाहे कितनी गाली दे, भीतर ऐसे संवाद को इस बदले अंदाज़ में ही पसन्द करेगा? यह दृष्टि फ़िल्म के उन प्रोमो से भी सिद्ध होती है जहाँ इस संवाद को हमेशा आधा ही उद्धृत किया गया है.
  • क्या हमारी वर्तमान हिन्दी भाषा में वो अभिव्यक्ति ही नहीं है जिसके द्वारा हम ऊपर उद्धृत वाक्य के दूसरे हिस्से का ठीक हिन्दी अनुवाद कर पाएं?

भाषा का विद्यार्थी होने के नाते मेरे लिए आखिरी सवाल सबसे डरावना है. मैं चाहता हूँ कि कहीं से कोई आचार्य ह़ज़ारीप्रसाद द्विवेदी का शिष्य फिर निकलकर सामने आए और मुझे झूठा साबित कर दे. फिर कोई सुचरिता बाणभट्ट को याद दिलाए, “मानव देह केवल दंड भोगने के लिए नहीं बनी है, आर्य! यह विधाता की सर्वोत्तम सृष्टि है. यह नारायण का पवित्र मंदिर है. पहले इस बात को समझ गई होती, तो इतना परिताप नहीं भोगना पड़ता. गुरु ने मुझे अब यह रहस्य समझा दिया है. मैं जिसे अपने जीवन का सबसे बड़ा कलुष समझती थी, वही मेरा सबसे बड़ा सत्य है. क्यों नहीं मनुष्य अपने सत्य को देवता समझ लेता आर्य?”

इस रात की सुबह नहीं

’लव, सेक्स और धोखा’ पर व्यवस्थित रूप से कुछ भी लिख पाना असंभव है. बिखरा हुआ हूँ, बिखरे ख्यालातों को यूं ही समेटता रहूँगा अलग-अलग कथा शैलियों में. सच्चाई सही नहीं जाती, कही कैसे जाए.

मैं नर्क में हूँ.

यू कांट डू दिस टू मी. हाउ कैन यू शो थिंग्स लाइक दैट ? यार मैं तुम्हारी फ़िल्मों को पसंद करती थी. लेकिन तुमने मेरे साथ धोखा किया है. माना कि मेरे पिता थोड़े सख़्त हैं लेकिन मेरा स्कूल का ड्रामा देखकर तो खुश ही होते थे. यू कांट शो हिम लाइक दैट. और वो ’राहुल’… वो तो एकदम… दिबाकर मैं तुम्हें मार डालूंगी. यू डोन्ट हैव एनी राइट टू शो माई लाइफ़ लाइक दैट इन पब्लिक. अपनी इंटरप्रिटेशंस और अपनी सो-कॉल्ड रियलस्टिक एंडिंग्स तुम अपने पास रखो. हमेशा ही ’सबसे बुरा’ थोड़े न होता है. और हमारे यहाँ तो वैसे भी अब ’कास्ट-वास्ट’ को लेकर इतनी बातें कहाँ होती हैं. माना कि पापा उसे लेकर बड़े ’कॉशस’ रहते हैं लेकिन… शहरों में थोड़े न ऐसा कभी होता है. वो तो गाँवों में कभी-कभार ऐसा सुनने को मिलता है बस. और फ़िल्मों में, फ़िल्मों में तो कभी ऐसा नहीं होता. फ़िल्में ऐसी होती हैं क्या ? तुम फ़िल्म के नाम पर हमें कुछ भी नहीं दिखा सकते. यह फ़िल्म है ही नहीं. नहीं है यह फ़िल्म.

ठीक है, हमारे यहाँ कभी कास्ट से बाहर शादी नहीं हुई है. तो ? क्या हर चीज़ का कोई ’फ़र्स्ट’ नहीं होता ? पहले सब ऐसे ही बुरा-बुरा बोलते हैं, बाद में सब मान लेते हैं. वो निशा का याद नहीं, माना कि उसका वाला लड़का ’सेम कास्ट’ का था लेकिन थी तो ’लव मैरिज’ ना ? कैसे शादी के बाद सबने मान लिया था. दीपक के पापा ने तो पूरा दहेज भी लिया था दुबारा शादी करवाकर. देख लेना मेरा भी सब मान लेंगे. शुरु में प्रॉब्लम होगी उसकी कास्ट को लेकर लेकिन दिबाकर तुम देख लेना. और ‘उसे’ जानने के बाद कैसे कोई उसे नापसंद कर सकता है. पापा को मिलने तो दो, नाम-वाम सब भूल जायेंगे उससे मिलने के बाद. देख लेना  सब मान लेंगे जब मैं उन्हें सब बताऊँगी. शादी के पहले नहीं बतायेंगे, और जब शादी के बाद उनसे मिलवाऊँगी… आई प्लान्ड एवरीथिंग. बट दिबाकर, यू मेस्ड अप ऑल इन माई माइंड. नाऊ व्हाट विल आई डू, हॉऊ विल आई गैट बैक ? इट्स नॉट ए मूवी एट-ऑल. आई हेट दिस मूवी.

एंड वन मोर थिंग… नोट दिस डाउन… माई सरनेम इस नॉट ’दहिया’.

Love_sex_aur_dhokha

“मैं खामोशी की मौत नहीं मरना चाहता!” ~पीयूष मिश्रा.

पीयूष मिश्रा से मेरी मुलाकात भी अनुराग कश्यप की वजह से हुई. पृथ्वी थियेटर पर अनुराग निर्मित पहला नाटक ‘स्केलेटन वुमन’ था और पीयूष वहीं बाहर दिख गए. मैंने थोड़ा जोश में आकर पूछ लिया कि आपका इंटरव्यू कर सकता हूँ एक हिंदी ब्लॉग के लिए – साहित्य, राजनीति और संगीत पर बातें होंगी. उन्होंने ज़्यादा सोचे बिना कहा – परसों आ जाओ, यहीं, मानव (कौल) का प्ले है, उससे पहले मिल लो. बातचीत बहुत लंबी नहीं हुई पर पीयूष जितना तेज़ बोलते हैं, उस हिसाब से बहुत छोटी भी नहीं रही. उनके गीतों का रेस्टलेसनेस उनके लहज़े में भी दिखा और उनके लफ्ज़ों में भी. ये तो नहीं कहा जा सकता कि वो पूरे इंटरव्यू में ‘पॉलिटिकली करेक्ट’ रहे पर कुछ जगहों पर कोशिश ज़रूर नज़र आई. पर बातचीत का अंतिम चरण आते आते उन्होंने खुद को बह जाने दिया और थियेटर-वाले पाले से भी बात की, जबकि बाकी के ज़्यादातर सवालों में वो यही यकीन दिलाते दिखे कि अब पाला बदल चुका है.

लिखित इंटरव्यू में वीडियो रिकार्डेड बातचीत के ज़रूरी सवालों का जोड़ है, पर पूरा सुनना हो तो वीडियो ही देखें. पृथ्वी थियेटर की बाकी टेबलों पर चल रही बहस और बगल में पाव-भाजी बनाते भाई साब की बदौलत कुछ जगहों पर आवाज़ साफ नहीं है. ऐसे ‘गुम’ हो गए शब्दों का अंदाज़न एवज दे दिया है, या खाली डॉट्स लगा दिए हैं. मैं थोड़ा नरवस था, और कुछ जगहों पर शायद सवालों को सही माप में पूछ भी नहीं पाया, पर शुक्रिया पीयूष भाई का कि उन्होंने भाव भी समझा और विस्तार में जवाब भी दिया.

समाँ बहुत बाँध लिया, अब लीजिए इंटरव्यू:-                                                                                           ~वरुण ग्रोवर

वरुण~ आपका अब भी लेफ्ट विचारधारा से जुड़ाव है?

पीयूष~ (लेफ्टिस्ट होने का मतलब ये नहीं कि) परिवार के लिए कम्प्लीटली गैर-ज़िम्मेदार हो जाओ.

लेफ्ट बहुत अच्छा है एक उमर तक… उसके बाद में लेफ्ट आपको… या तो आप लेफ्टिस्ट हो जाओ… लेफ्टिस्ट वाली पार्टी में मिल जाओ… तब आप बहुत सुखी… (तब) लेफ्ट आपके जीवन का ज़रिया बन सकता है.

और अगर आप लेफ्ट आइडियॉलजी के मारे हो… तो प्रॉब्लम यह है कि आप देखिए कि आप किसका भला कर रहे हो? सोसाइटी का भला नहीं कर सकते, एक हद से आगे. सोसाइटी को हमारी ज़रूरत नहीं है. कभी भी नहीं थी. आज मैं पीछे मुड़ के देखता हूँ तो लगता है कि (लेफ्ट के शुरुआती दिनों में भी) ज़िंदा रहने के लिए, फ्रेश बने रहने के लिए, एक्टिव रहने के लिए (ही) किया था तब… बोलते तब भी थे की ज़माने के लिए सोसाइटी के लिए किया है.

वरुण~ तो अब पॉलिटिक्स से आपका उतना लेना देना नहीं है?

पीयूष~ पॉलिटिक्स से लेना देना मेरा… तब भी अंडरस्टैंडिंग इतनी ही थी. मैं एक आम आदमी हूँ, एक पॉलिटिकल कॉमेंटेटर नहीं हूँ कि आज (…..) आई विल बी ए फूल टू से दैट आई नो सम थिंग! पहले भी यही था… हाँ लेकिन यह था कि जागरूक थे. एज़ पीयूष मिश्रा, एज़ अन आर्टिस्ट उतना ही कल था जितना कि आज हूँ. (अचानक से जोड़ते हैं) पॉलिटिक्स है तो गुलाल में!

वरुण~ हाँ लेकिन जो लोग ‘एक्ट वन’ को जानते हैं, उनका भी यह कहना है कि ‘एक्ट वन’ में जितना उग्र-वामपंथ निकल के सामने आता था, ‘एक्ट वन’ की एक फिलॉसफी रहती थी कि थियेटर और पॉलिटिक्स अलग नहीं हैं, दोनों एक ही चीज़ का ज़रिया हैं.

पीयूष~ ठीक है, वो ‘एक्ट वन’ हो गया. ‘एक्ट वन’ ने बहुत कुछ सिखाया. ‘एक्ट वन’ (की) ‘सो कॉल्ड’ उग्र-वामपंथी पॉलिसी ने बहुत कुछ दिया है मुझको. (लेकिन) उससे मन का चैन चला गया. ‘एक्ट वन’ ने (जीना) सिखाया… ‘एक्ट वन’ की जो ‘सो-कॉल्ड’ उग्र-वामपंथी पॉलिटिक्स है, यह, मेरा ऐसा मानना है की इनमें से अधिकतर लोग जो हैं तले के नीचे मखमल के गद्दे लगाकर पैदा होते हैं. वही लोग जो हैं वामपंथ में बहुत आगे बढ़ते हैं. अदरवाइज़ कोई, कभी कभार, कुछ नशे के दौर में आ गया. (कोई) मारा गया सिवान में! अब सिवान कहाँ पर है, लोगों से पूछ रहे हैं…सफ़दर हाशमी मारा जाता है, तहलका मच जाता है, ट्रस्ट बन जाते हैं, ना मालूम कौन कौन, (जो) जानता नहीं है सफ़दर को, वो जुड़ जाता है और वहाँ पर मंडी हाउस में… फोटो छप रहे हैं, यह है, वो है… सहमत! चंद्रशेखर को याद करने के लिए पहले तो नक़्शे में सिवान को देखना पड़ेगा, है कहाँ सिवान? कौन सा सिवान? कैसा सिवान?  कौन सा चंद्रशेखर? सफ़दर के नाम से जुड़ने के लिए ऐसे लोग आ जाते हैं जो जानते नहीं थे सफ़दर को… सफ़दर का काम, सफ़दर का काम… क्या है सफदर का काम? मैं उनकी (सफ़दर की) इन्सल्ट नहीं कर रहा… ऐसे ऐसे काम कर के गए हैं की कुछ कहने की… खामोशी की मौत मरे हैं. मैं खामोशी की मौत नहीं मरना चाहता! थियेटर वाले की जवानी बहुत खूबसूरत हो सकती है, थियेटर वाले का बुढ़ापा, हिन्दुस्तान में कम से कम, मैं नहीं समझता कि कोई अच्छी संभावना है.

अधिकतर लोग सीनाइल (सठिया) हो जाते हैं. अचीवमेंट के तौर पर क्या? कुछ तारीखें, कुछ बहुत बढ़िया इश्यूस भी आ गये… कर तो लिया यार… अब कब तक जाओगे चाटोगे उसको? चार साल पहले जब मैं दिल्ली जाया करता था तो मेरा मोह छूटता नहीं था, मैं जाया करता था वहाँ पर जहाँ मैं रिहर्सल करता था… शक्ति स्कूल या विवेकानंद. ज़िंदगी बदल गई यार, दैट टाइम इज़ गॉन! अच्छा टाइम था, बहुत कुछ सिखाया है, बहुत कुछ दिया है, इस तरह मोह नहीं पालना चाहिए.

वरुण~ एन. के. शर्मा जी अभी भी वहीं हैं, उनके साथ के लोग एक-एक कर के यहाँ आते रहे, मनोज बाजपाई, दीपक डोबरियाल… उनका क्या व्यू है, थियेटर से निकलकर आप लोग सिनिमा में आ रहे हैं?

पीयूष~ एन. के. शर्मा जी का व्यू अब आप एन. के. शर्मा से ही पूछो. उनका ना तो मैं स्पोक्स मैन हूँ… उनसे ही पूछो!

वरुण~ बॉम्बे में एक ऑरा है उनको लेकर… वो लोगों (एक्टर्स) को बनाते हैं.

पीयूष~ टॉक टू हिम… टॉक टू हिम!

वरुण~ आप खुद को पहले कवि मानते हैं या एक्टर?

पीयूष~ ऐसा कुछ नहीं है.

वरुण~ बॉम्बे में आप खुद को आउट-साइडर मानते हैं?

पीयूष~ कैसे मानूँगा? मेरी जगह है यह. मेरा बच्चा यहाँ पैदा हुआ है. कैसे मानूँगा मैं? (इसके अलावा भी काफी कुछ कहा था इस बारे में, वीडियो में सुन सकते हैं.)

वरुण~ लेकिन आउटसाइडर इन द सेन्स, मैं प्रोफेशनली आउटसाइडर की बात कर रहा हूँ. जिसमें थियेटर वालों को हमेशा थोड़ा सा सौतेला व्यवहार दिया जाता है यहाँ पर.

पीयूष~ नहीं नहीं. उल्टा है भाई! थियेटर वालों को बल्कि…

वरुण~ स्टार सिस्टम ने कभी थियेटर वालों को वो इज़्ज़त नहीं दी…

पीयूष~ हाँ… स्टार सिस्टम अलग बात है. स्टार सिस्टम की जो ज़रूरत है वो… थियेटर वालों को मालूम ही नहीं कि बुनियादी ढाँचा कैसे होता है. मैं तो बड़ा सोचता था कि खूबसूरत बंदे थियेटर पैदा क्यूँ नहीं कर पाया. मैं समझ ही नहीं पाया आज तक! थियेटर वाले होते हैं, मेरे जैसी शकल सूरत होती है उनकी टेढ़ी-मेढ़ी सी.

लेकिन ऐसा कुछ नहीं है… आज… नसीर हैं, ओम पुरी हैं… पंकज कपूर… दे आर रेकग्नाइज़्ड, अनुपम खेर हैं…

वरुण~ नहीं वह बात है कि उनको इज़्ज़त ज़रूर मिलती है लेकिन उनको इज़्ज़त दे कर पेडेस्टल पे रख दिया जाता है लेकिन उससे आगे बढ़ने की कभी भी शायद…

पीयूष~ आगे बढ़ने की सबकी अपनी अपनी क़ाबिलियत है. और जितना आगे बढ़ना था, जितना सोच के नहीं आए थे उससे आगे बढ़े ये लोग. पैसे से लेकर नाम तक. इससे बेहतर क्या लोगे आप.

वरुण~ पुराने दिनों के बारे में, ख़ास कर के ‘एन ईवनिंग विद पीयूष मिश्रा’ होता था…

पीयूष~ तीन प्लेज़ थे एक-एक घंटे के. पहला ’दूसरी दुनिया’ था निर्मल वर्मा साब का, दूसरा ’वॉटेवर हैपंड टू बेट्टी लेमन’ (अरनॉल्ड वास्कर का), तीसरा विजयदान देथा का ‘दुविधा’. तब पैसे नहीं थे, प्लेटफॉर्म था नहीं… आउट ऑफ रेस्टलेसनेस किया था. वह फॉर्म बन गया भई की नया फॉर्म बनाया है. फॉर्म-वार्म कुछ नहीं था. ‘एक्ट वन’ मैंने जब छोड़ा था ’95 में, ऑलमोस्ट मुझे लगा था की मैं ख़तम हो गया. ‘एक्ट वन’ वाज़ मोर लाइक ए फैमिली. और वहाँ से निकलने के बाद यह नई चीज़ आई.

रुण~ (असली सवाल पर आते हुए) मेरे लिए ज़्यादा फैसिनेटिंग यह था कि उसकी ब्रान्डिंग, सेलिंग पॉइंट था आपका नाम. 1996 में दिल्ली में आपके नाम से प्ले चल रहा था, कहानियों के नाम से या लेखक के नाम से या नाटक के नाम से नहीं, आपके नाम से परफॉर्मेन्स हो रही थी. बॉम्बे ने अब जा कर रेकग्नाइज़ किया है…

पीयूष~ ‘झूम बराबर झूम’ में काम किया, वो चल नहीं पाई. ‘मक़बूल’ में काम किया, उसका ज़्यादा श्रेय पंकज कपूर और इरफ़ान को मिला… वो भी अच्छे एक्टर हैं… पर पता नहीं कुछ कारणों से, ‘मक़बूल’ में बहुत तारीफ़ के बावजूद रेकग्निशन नहीं मिला. ‘आजा नच ले’ में काम किया, उसका लास्ट का ओपेरा लिखा… ऐसा हुआ कि बस यह फिल्म (गुलाल) बड़ी ब्लेसिंग बन कर आई मुझ पर. जितना काम था, सब एक साथ निकालो. लोग रेस्पेक्ट करते थे… जानते थे भाई यह हैं पीयूष मिश्रा. लेकिन ऐसा कुछ हो जाएगा, यह नहीं सोचा था.

वरुण~ गुलाल की बात करें तो… उसमें यह दुनिया अगर मिल भी जाए है, बिस्मिल की नज़्म है, कुछ पुराने गानों में भी री-इंटरप्रेटेशन किया है. इस सब के बीच आप मौलिकता किसे मानते हैं?

पीयूष~ एक लाइन ली है… एक लाइन के बाद तो हमने सारा का सारा री-क्रियेट किया है. जितनी यह बातें हैं… वो आज की जेनरेशन की ज़ुबान बदल चुकी है. और आप उन्हें दोष भी नहीं दे सकते. अब नहीं है तो नहीं है, क्या करें. लेकिन उसी का सब-टेक्स्ट आज की जेनरेशन को आप कम्यूनिकेट करना चाहें, कि कहा बिस्मिल ने था… ऐसा कुछ कहा था – कम्यूनिकेशन के लिए फिर प्यूरिस्ट होने की ज़रूरत नहीं है आपको कि बहुत ऐसी बात करें कि नहीं यार जैसा लिखा गया है वैसा. और ऐसा नहीं है की उनको मीनिंग दिया गया है. नहीं – यह नई ही पोयट्री है.

वरुण~ फिर भी, मौलिकता का जो सवाल है, फिल्म इंडस्ट्री में बार बार उठता है. संगीत को लेकर, कहानियों को लेकर, उसपर आपका क्या टेक है?

पीयूष~ मालूम नहीं… इंस्पिरेशन के नाम पर यहाँ पूरा टीप देते हैं. सारा का सारा, पूरा मार लेते हैं.

वरुण~ आपके ही नाटक ‘गगन दमामा बाज्यो’ को ‘लेजेंड ऑफ भगत सिंह’ बनाया गया. वहाँ मौलिकता को लेकर दूसरी तरह का डिबेट था.

पीयूष~ वहाँ पर जो है की फिर यू हैव टू बी रियल प्रोफेशनल. बॉम्बे का प्रोफेशनल! कैसे एग्रीमेंट होता है… मुझे उस वक़्त कुछ नहीं मालूम था. उस वक़्त मैं कर लिया करता था. हाँ भाई, चलो, आपके लिए कर रहे हैं मतलब आपके लिए कर रहे हैं. वहाँ फिर धंधे का सवाल है.

वरुण~ ‘ब्लैक फ्राइडे’ के गाने भी आपके ही थे. उनको उतना रेकग्निशन नहीं मिला जितना गुलाल को मिला.

पीयूष~ हूँ… हूँ… नहीं इंडियन ओशियन का वह गाना तो बहुत हिट है. उनका करियर बेस्ट है अभी तक का गाना. (‘अरे रुक जा रे बँदे’)… लाइव कॉन्सर्ट करते हैं… उन्हीं के हिसाब से, दैट्स देयर ग्रेटेस्ट हिट! लेकिन अगर ‘ब्लैक फ्राइडे’ सुपरहिट हो जाती, मालूम पड़ता पीयूष मिश्रा ने लिखा है गाना तो… सिनेमा के चलने से बहुत बहुत फ़र्क पड़ता है. हम थियेटर वालों को थोड़ी हार मान लेनी चाहिए की सिनेमा का मुक़ाबला नहीं कर सकते. वो तब तक नहीं होगा जब तक कि यहाँ (थियेटर की) इंडस्ट्री नहीं होगी. और इंडस्ट्री यहाँ पर होने का बहुत… यह देश इतना ज़्यादा हिन्दीवादी है ना… गतिशील ही नहीं है. यहाँ पर ट्रेडीशन ने सारी गति को रोक कर रख दिया है. हिन्दी-प्रयोग! पता नहीं क्या होता है हिन्दी प्रयोग? जो पसंद आ रहा है वो करो ना. हिन्दी नाटक… भाष्य हिन्दी का होना चाहिए, अरे हिन्दी भाष्य में कोई नहीं लिख रहा है नाटक यार. कोई ले दे के एक हिन्दी का नाटक आ जाता है तो लोग-बाग पागल हो जाता है की हिन्दी का नाटक आ गया! अब उन्हें नाटक से अधिक हिन्दी का नाटक चाहिए. लैंग्वेज के प्रति इतने ज़्यादा मुग्ध हैं… मैने जितने प्लेज़ लिखे उनमें से एक हिन्दी का नहीं था, सब हिन्दुस्तानी प्लेज़ थे.

एकेडमीशियन और थियेटर करने वालों में कोई फ़र्क नहीं (रह गया) है. जितने बड़े बड़े थियेटर के नाम हैं, सब एकेडमीशियन हैं. करने वाले बंदे ही अलग हैं. करने वाले बंदों को बहुत ही हेय दृष्टि से देखा जाता है. “यह नाटक कर रहा है… लेकिन वी नो ऑल अबाउट नाट्य-शास्त्र!” अरे जाओ, पढ़ाओ बच्चों को…

वरुण~ लेकिन आपका मानना है कि बॉम्बे में थियेटर चल रहा है… दिल्ली के मुक़ाबले.

पीयूष~ दिल्ली में लुप्त हो गया है. दिल्ली में बाबू-शाही की क्रांति के तहत आया था थियेटर. (नकल उतारते हुए) “नाटक में क्या होना चाहिए – जज़्बा होना चाहिए! जज़्बा कैसा? लेफ्ट का होना चाहिए.” एक्सपेरिमेंटेशन भी पता नहीं कैसा! यहाँ पर देखो, यह अभी भी चल रहा है – मानव (कौल) ने लिखा है यह प्ले (पार्क)… प्लेराइटिंग कर रहे हैं हिन्दी में और अच्छी-खासी हिन्दी है. कितना सारा नया काम हो रहा है यहाँ पर. और कमर्शियल थियेटर क्या है? ये कमर्शियल थियेटर नहीं है क्या… डेढ़ सौ रु. का टिकट ख़रीद रहा हूँ मैं यहाँ पर, कल मेरी बीवी देख रही है दो सौ रु. के टिकट में… दो सौ में तो मैं मल्टीप्लैक्स में नहीं देखूँ… सौ से आगे की वहाँ टिकट होती है तो मैं हार मान लेता हूँ कि नहीं जाऊँगा मैं लेकिन मैं देख रहा हूँ यहाँ. और इट्स ए वंडरफुल प्ले. हिन्दी का प्ले हैं, हिन्दी भाष्य का प्ले है, और क्या चाहिये आपको?

वहाँ पर होते (दिल्ली में) तो वो हिन्दी नाट्य.. हिन्दी नाट्य… क्या होता है ये हिन्दी नाट्य? भगवान जाने… ये बुढ़ापा चरमरा गया हिन्दुस्तान का… गाली देने की इच्छा होती है.

वरुण~ फिर क्या इसमें एन.एस.डी. का दोष है?

पीयूष~ एन.एस.डी. का दोष (क्यों?)… एन.एन.डी. में तो अधिकतर बाहर के प्ले होते हैं.

वरुण~ लेकिन भारत में ऐसे दो-तीन ही तो इंस्टीट्यूट हैं जहाँ थियेटर पढ़ाया जाता है, सिखाया जाता है.

पीयूष~ वो एक अलग से लॉबी है जिनको लगता है कि हिन्दी प्लेज़ होने चाहिए. हिन्दी प्लेज़ से रेवोल्यूशन आयेगा. ये एक बहुत बड़ी एंटी-अलकाजी लॉबी है.. अलकाजी अगर नहीं होते और इसके बजाय कोई हिन्दी वाला होता वहाँ पर तो बात कुछ और ही होती (कहने वाले). उस बन्दे ने सम्भाला इतने दिनों तक, उस बन्दे ने हिन्दुस्तान के थियेटर को दिशा दी. अगर वो नहीं होता तो शांति से बैठकर प्ले कैसे लिखते हैं हमें नहीं मालूम पड़ता. हम तो चटाइयों वाले बन्दे थे. हमारी औकात वही थी और हम वही रहते… उस बन्दे ने हमें सिखाया कि खांसी आ जाए तो एक्सक्यूज़ मी कह देना चाहिये, माफ़ कीजियेगा, या बाहर चले जाओ. इतने बेवकूफ़ हैं हिन्दी भाषी और विशेषकर जो हमसे ऊपरवाली जनरेशन के हैं वो सिफ़र हैं यहाँ से (दिमाग़ की ओर इशारा). ख़ाली व्यंग्य करना आता है, टीका-टिप्पणी करना आता है… अगर ऐसा होता तो ऐसे हो जाता… ऐसा होता तो ऐसे हो जाता… जो हुआ है उस व्यक्ति को उसका श्रेय नहीं दे रहे हैं. अलकाजी साहब अगर नहीं होते तो नुकसान में थियेटर ही होता. अभी तक पारसी थियेटर ही होता रहता. सूखे-बासे नाटक होते रहते. वो नाटक के नाम पे हमको करना पड़ता. ही वाज़ दि पर्सन हू इंट्रोड्यूस्ड थियेटर इन इंडिया.

वरुण~ आजकल मीडिया की जो भाषा है, न्यूज़ में भी हिन्दी और इंग्लिश मिक्स होता है.

पीयूष~ कहाँ तक बचाओगे यार? शास्त्रीय संगीत बचा क्या आज की तारीख़ में? कहाँ तक बचाओगे आप? कब तक? शुभा मुदगल को इल्ज़ाम दे दिया कि आप कुमार गंधर्व से पढ़ी और उसके बाद आप दूसरा किस्म का म्यूज़िक… कहाँ तक बचाओगे आप? ज़माना बदल रहा है, बदलेगा. ये परिवर्तन सब बहुत ही ज़रूरी अंग हैं दुनिया का. इसको बदलने दो. ज़्यादा गाँठ बाँधकर बैठोगे तो फिर वही गाँव के गाँव-देहात में बँधकर बैठना पड़ेगा कि चौपाल के आस-पास आपके किस्से सुनते रहेंगे लोग-बाग. उसके आगे कोई आपकी बात नहीं सुनेगा.

आज का संप्रेषण अलग है, आज की भाषा अलग है. बॉम्बे को देखकर लगता है कि भाषा… बॉम्बे के, साउथ बॉम्बे के किसी लौंडे से अब आप अपेक्षा करें कि वो उर्दू समझता हो या हिन्दी समझता हो… ’यो’ वाला लौंडा है वो, ऐसे ही बड़ा हुआ है तो आप उसको इल्ज़ाम क्यों देते हैं? आप सम्भाल कर रखिये. यहाँ पर बहुत सारे लोग हैं जिन्होंने अपनी भाषा सम्भालकर रखी है… मानव कौल अभी तक हिन्दी में लिख रहा है और क्या हिन्दी है उसकी… कोई टूटी-फूटी हिन्दी नहीं है. तो किसने कहा. आप बिगड़ने देना चाहते हैं तो आपकी भाषा बिगड़ जाएगी, जिस चीज़ से आपको मोह है उसे आप सम्भालकर रखेंगे. लेकिन उसमें झंडा उठाने की ज़रूरत नहीं है कि मैं वो हूँ… कि सबको ये करना चाहिए. जिसकी जो मर्ज़ी है वो करने दो ना यार. क्यों डेविड धवन को कोसो कि आप ऐसी फ़िल्म क्यों बनाते हैं, क्यों अनुराग को… अनुराग कश्यप की पिक्चरें भी लोगों को अच्छी नहीं लगतीं. ऐसा नहीं है कि हर बन्दा ऐसी पिक्चर को पसन्द ही करेगा. लेकिन ठीक है, हर बन्दे को अपनी-अपनी गलतियों के हिसाब से जीने का हक़ है.

ऊधो मोहि ब्रज बिसरत नाहीं

मेरे दोस्त समझ जायेंगे कि मैं आजकल ‘घर’ को इतना क्यों याद करता हूँ. ‘घर’ के छूटने का अहसास बहुत तीखा है. दोस्त मेरे भीतर कुछ अजीब से संशय देखते हैं. ठीक ठीक वजह तो मुझे भी नहीं मालूम लेकिन बहुत दिनों बाद यह एक ऐसा दौर है कि मेरे डर अचानक सामने बैठे दोस्त को दिख जाते हैं. मेरी चिट्ठियाँ राह भटक जाती हैं. लेकिन मुझे भरोसा है कि इस वक्त वो आयेंगे और मुझे संभाल लेंगे. वो जहाँ कहीं भी हैं, सोचेंगे और उनका सोचना ही काफ़ी है. डर हैं, और डर किस मन में नहीं होते लेकिन मैं सपने देखना नहीं छोडूंगा. सपनों में उन्हें देखना नहीं छोडूंगा. एक कुतुबनुमा मेरे पास भी है…

“हम सबका एक ‘घर’ होता है. बहुत प्यारा, संपूर्ण, सुरक्षित और स्वस्तिदायक… फिर हम ‘बड़े’ होते हैं और घर ‘छोटा’ होता जाता है, छूट जाता है. ज़िंदगीभर हम उसी की तलाश में भटकते रहते हैं. कभी सोच में, कभी सपनों में, कभी रचनाओं में, भौतिक उपलब्धियों में, प्रशस्तियों में, विद्रोह और समझौतों में, कभी निष्क्रियाताओं में तो कभी कर्म की दुनिया में… मगर उम्र का, स्थान का, विश्वासों का, मूल्य और मान्यताओं का, भावनाओं और सुरक्षाओं का वह घर हमें कभी नहीं मिलता. लौटकर जाएँ तो भी पीछे छूटा हुआ न तो घर वही रह जाता है, न हम… जो कुछ मिलता है वह ‘अपना घर’ नहीं होता और हम सोचते हैं : कहीं कोई घर होता भी है? इस सच्चाई का सामना करने से भी हम डरते हैं कि कहीं ऐसा तो नहीं है कि सचमुच कोई घर हो ही नहीं और हम एक भ्रम को जीते रहे हों… क्या है यह ‘घर’ का भ्रम जो हमेशा खींचता रहता है? यह भी तो तय करना मुश्किल है कि घर की तलाश आगे की ओर है या पीछे की ओर? यह स्मृति है या स्वप्न? विज़न या नास्टेल्जिया? या फैलकर बेहतर दुनिया के लिए आस्था? कभी भी अधूरी छूट जाने के लिए अभिशप्त एक अंतहीन यात्रा ही क्या हमारी नियति है? उपलब्धियों के नाम पर कुछ पड़ाव, कुछ नखलिस्तान… चंद तसवीरें… अनेक पात्रों के नाम से की जानेवाली कुछ आत्म-स्वीकृतियां.

कभी कभी मैं सोचता हूँ कि क्या दुनिया की सारी सभ्यताएँ और संस्कृतियाँ उन्हीं लोगों ने तो नहीं रचीं जो विस्थापित थे और पीछे छूटे घर की याद में निरंतर वर्तमान और भविष्य की रचना करते रहे? हमें ऐसे वर्तमान में फेंक दिया गया है जो लगातार हमें भविष्य में धकेल रहा है ओर हर ‘है’ को अनुक्षण अतीत बना रहा है. इस प्रक्रिया में हम अपने ‘अब’ को सिर्फ़ ‘था’ में बदलते जाने के निमित्तभर नहीं हैं? जो ‘था’ वो कभी नहीं ‘होगा’, मगर हम उसे ही याद करेंगे, यानी उस स्मृति के किसी न किसी अंश को अपना सपना बनाते रहेंगे… वर्तमान और भविष्य चाहे जितने समृद्ध, संपन्न और महान बन जाएँ, मगर हमें हमेशा लगेगा कि जो बात पीछे थी वो आज नहीं है. होगी भी नहीं. शव पर चढ़े या सिंहासन पर, गले में हों या शीश पर, फूल तो हम पीछे छूटे हुए किसी पेड़ के ही हैं. हम आज जहाँ हैं वहाँ के हैं नहीं, बिलोंग कहीं और करते हैं. -कहाँ, यह भी हमें पता नहीं. एक भटका हुआ बच्चा जिसे अपने घर-बार, माँ-बाप किसी का नाम पता मालूम नहीं. मगर रोता उन्हीं के लिए है और हम समझाते हैं कि जहाँ हम उसे ले जा रहे हैं वहीं उसके घर-बार, माँ-बाप सभी हैं. इस झूठ की रचना या पीछे छूटे हुए को वापस दे देने के आश्वासन का नाम ही सभ्यता-संस्कृति नहीं है? तब फ़िर हम क्या ऐसे शाश्वत-शिशु ही हैं जो हर कहीं, हर किसी में अपना घर देखता है. बहुत कुछ बनाता और तोड़ता है और हर समय जानता रहता है कि यह उसका घर नहीं है.

कहते हैं आदमी हर क्षण अपने पीछे छूटे हुए किसी ‘स्वर्ग’ में लौटना चाहता है जहाँ वह सुरक्षित और सुखी था. व्यक्तिगत स्तर पर माँ के गर्भ में लौटने की ललक है. छूटा हुआ असली ‘घर’ तो वही था. मगर वह यह भी जानता है कि वहाँ या किसी भी स्वर्ग में वह कभी नहीं लौटेगा. उसे अपना स्वर्ग ख़ुद बनाना पड़ता है. इकबाल की तरह या स्वर्ग से निष्कासित नहुष की तरह; किसी विश्वामित्र के मंत्रों पर सवार होकर… हमारी उस बैचनी को समझकर न जाने कितने विश्वमित्रों ने हमें ‘घर’ या स्वर्ग देने के आश्वासन दिए हैं, सपने दिखाए हैं और वहाँ जाकर हमने पाया है कि न तो वह हमारा घर है, न वायदे का स्वर्ग. इस विश्वासघात से क्षुब्ध हम स्वयं उस घर और स्वर्ग को तोड़ते हैं. फ़िर से नए सपने के निर्माण के लिए. कितना थका देनेवाला, लेकिन कितना अनिवार्य है यह सिलसिला. हर बार किसी पैगम्बर, किसी गुरु या अवतार के दिए हुए सपनों का हिस्सा बनने की छलना, वहाँ पहुँचकर फ़िर एक नए नरक में पहुँचने का अहसास और फ़िर एक नए अवतार की प्रतीक्षा. फ़िर इस दुष्चक्र में धर्म, राजनीति या विज्ञान, तकनीक के नए-नए सम्प्रदायों को बनाते चले जाना, जो इसमें बाधक हैं उन्हें हटाते या समाप्त करते चले जाना ताकि अपने सपने को साकार किया जा सके. यानि सब मिलाकर हमेशा एक उम्मीद, संक्रमण, और यात्रा में बने रहने की नियति… युग-युग धावित यात्री. किंतु पहुँचना उस सीमा तक जिसके आगे राह नहीं… चरैवेति… चरैवेति…”

राजेंद्र यादव. “अभी दिल्ली दूर है” की भूमिका से.

हम काले हैं तो क्या हुआ दिलवाले हैं!

सीरीफोर्ट में एशियाई और अरब फिल्मों का एक बार फ़िर जमावड़ा. दसवें ओसियन सिनेफैन फ़िल्म फेस्टिवल की शुरुआत. पहले दिन ही कुछ महत्त्वपूर्ण सबक मिले जो आपके काम आ सकते हैं.

अपनी सीट पर बैठते वक़्त सावधान रहें. और कोशिश करें कि फेस्टिवल में अगले दो-तीन दिन कोई नया कपड़ा पहनकर ना जाएँ. मेरे जैसे नया कुरता तो बिल्कुल नहीं. वजह? सीरीफोर्ट सभागार की सभी सीटों के हत्थों पर किया गया नया काला रंग अभी भी ताज़ा है. आपके हाथ रखते ही वो अपना असर दिखा देगा. शायद फ़िल्म फेस्टिवल के लिए सीरीफोर्ट के रंग रोगन का काम कुछ देर से शुरू हुआ हो. वैसे भी आजकल दिल्ली सरकार को आनेवाले राष्ट्रमंडल खेलों के अलावा और कुछ कहाँ दिखता है! इस काले रंग से बचने के उपाय कुछ ऐसे हो सकते हैं.. कागज़ का उपयोग करें. बैठने से पहले हत्थों पर ये कागज़ बिछा लें. आज इस कागज़ के रूप में बाहर बुकिंग काउंटर पर मिलने वाले डेली न्यूज़ बुलेटिन का सबसे ज़्यादा इस्तेमाल किया गया.

इसबार एक प्रतिभागी को एक ही टिकट लेने की इजाज़त है. याने अपने डेलिगेट पास को दिखाकर आप हर शो का सिर्फ़ एक ही टिकट ले सकते हैं. शायद ऐसा टिकटों की ब्लैक मार्केटिंग रोकने के लिहाज से किया गया हो. तो अगर आप एक साथ सभी दोस्तों के लिए फ़िल्म के टिकट लेने की योजना बनाकर सीरीफोर्ट जा रहे हैं तो  दोस्तों को कहिये कि उन्हें ख़ुद ही आना होगा. हाँ ये हो सकता है कि आप जितने टिकट चाहियें उतने ही डेलिगेट पास खरीद लें क्योंकि डेलिगेट पास बनवाने के लिए हस्ताक्षर की ज़रूरत नहीं है.

पिछली बार से उलट मोबाइल और बैग हॉल में ले जाना मान्य है. वैसे हो सकता है आने वाले दिनों में इसमें कुछ परिवर्तन आ जाए. खाने की चीज़ें हमेशा की तरह बहुत महँगी हैं. चाय भी 10रु. की मिल रही है. टिकट की दर भी 20 से बढ़ाकर 30 कर दी गई है. डेलिगेट फीस 50 है. फ़िर भी बड़े सिनेमाघरों से तो फेस्टिवल में फ़िल्म देखना कहीं सस्ता है.

11 तारीख़ को समारोह का विधिवत उदघाटन प्रस्तावित है. हाँग-काँग की फ़िल्म ‘स्पैरो’ से समारोह का आगाज़ होगा. अगले दिनों में आप यहाँ उदय प्रकाश की कहानी पर बनी फ़िल्म ‘मोहनदास’, मृणाल सेन की ‘खंडहर’, समीरा मक्मल्बफ़ की बहुचर्चित फ़िल्म ‘ब्लैकबोर्ड’, मार्टिन स्कोर्सेसी की पुरानी क्लासिक ‘टैक्सी ड्राईवर’, मणि कौल की बिज्जी की कहानी पर निर्मित ‘दुविधा’ और फेलिनी की ‘एट एंड अ हाफ’ जैसी फिल्में देख सकते हैं. यह समारोह आपको गोविन्द निहलाणी, पॉल श्रेडर, अब्बास टायरवाला, चेतन भगत और कुणाल बासु जैसे लेखकों और फिल्मकारों से मुलाकात का मौका भी दे रहा है. समारोह में इन सभी हस्तियों के साथ बातचीत के सत्र प्रस्तावित हैं. समारोह 20 जुलाई तक चलेगा.