हमारे हिस्से की ‘पैरासाइट’

Parasite 2019

Spoilers ahead… 

सुनील खिलनानी अपनी मील का पत्थर पुस्तक ‘दी आइडिया ऑफ़ इंडिया’ में नई दिल्ली शहर की बसावट को लेकर मुख्य स्थापत्यकार एडविन लुटियंस और उनके चीफ़ असिस्टेंट हरबर्ट बेकर के बीच हुई एक बहुत दिलचस्प बहस का ज़िक्र करते हैं। इस तीखी बहस के केंद्र में था एक सवाल, कि रायसीना की पहाड़ी पर वायसरॉय हाउस ठीक-ठीक कहाँ बनाया जाए। लुटियंस ने उसके लिए रायसीना के टीले की सबसे ऊंची जगह तय की थी, जिससे पूरी नई दिल्ली की संरचना में राष्ट्र के ‘सर्वोच्च शासक’ का घर भौगोलिक रूप से भी सर्वोच्च स्थान पर हो। यह नगर की भौतिक संरचना में सामाजिक स्तरीकरण का बुलन्द उद्घोष था।

लेकिन दिक्कत ये थी कि अगर वायसरॉय हाउस को टीले पर पीछे सबसे उच्च स्थान पर लेकर जाया जाएगा, तो नीचे इंडिया गेट के पास राजपथ से वो दिखना ही बंद हो जाएगा। बेकर इसी के चलते अपनी असहमति दर्ज करवा रहे थे, कि अगर ‘प्रजा’ अपने राजा को सीधे देख भी ना पाए तो ऐसी भव्य संरचना का उद्देश्य असफ़ल हो जाता है। तनाव इतना बढ़ा कि दोनों में लंबे समय तक बोलचाल भी बंद रही। खैर, अन्ततः लुटियंस साहब की चली और वायसरॉय हाउस रायसीना पहाड़ी के सबसे ऊंचे स्थान पर ही बना। इसका नतीजा ये है कि आज भी नीचे इंडिया गेट के आगे राजपथ से खड़े होकर देखें तो राष्ट्रपति भवन का सिर्फ़ गुम्बद ही नज़र आएगा, पूरा राष्ट्रपति भवन नहीं।

मैं जब इस किस्से को अपने बीए के दिनों में पहली बार पढ़ रहा था, तो दक्षिण राजस्थान के उदयपुर नामक छोटे से पुराने शहर में रहता था। आपमें से बहुत लोग परिचित होंगे, पुराना उदयपुर मेवाड़ राजघराने की लंबे समय तक राजधानी रहा सामन्ती परिवेश का शहर है। और आज भी रोज़गार के लिए पर्यटन व्यवसाय पर निर्भरता के चलते उदयपुर अपनी पारंपरिक धरोहर पहचान को बचाकर रखने की कोशिश करता है। ऐसे में दिलचस्प संयोग यह था कि शहरी स्थापत्य में जिस स्तरीकरण की बात मैं आधुनिक यूरोपियन मूल्यों पर रची गई नई दिल्ली के सन्दर्भ में पढ़ रहा था, वैसी ही बसावट मैं अपने शहर में उदयपुर की सामंती राजव्यवस्था द्वारा निर्मित नगर संरचना में देख पा रहा था।

राजाजी का महल (आजकल जिसे सिटी पैलेस के नाम से जानते हैं) चारदीवारी के भीतर उदयपुर में सबसे ऊंचे स्थान पर बनी संरचना है। इसका नतीजा है कि पुराने शहर में आप किसी भी पोल (दरवाज़े) से प्रवेश कर सिटी पैलेस की दिशा में बढ़ें, तो ऐसा अहसास होगा कि जैसे आप किसी चढ़ाई पर चढ़ रहे हैं। इस संरचना में महल सबसे ‘ऊपर’ है, जैसे किसी चोटी पर खड़ा। ठीक नई दिल्ली के ‘वायसरॉय हाउस की तरह। शहर के हर हिस्से से देखो तो ‘ऊपर’ की ओर ही नज़र आता है। और वहाँ महल से ‘नीचे’ किसी भी ओर देखने पर शहर की ‘रैय्यत’ के छोटे-छोटे आशियानों का विहंगम दृश्य दिखाई देता है।

क्या चमत्कार है, सामन्ती व्यवस्था पूंजीवाद से गुपचुप गठजोड़ कर अपनी गैरबराबरियाँ उसे उत्तराधिकार में सौंप देती है और मध्यकालीन समाज व्यवस्था द्वारा रचा गया स्तरीकरण आधुनिक शहर की संरचना से एकाकार हो जाता है।

parasite‘शहर की अदृश्य सीढ़ियाँ’

बोंग जून-हो की ‘पैरासाइट’ दो परिवारों की कहानी है। समाज के स्तरीकरण के दो प्रतिलोम पर खड़े परिवार, लेकिन यह पूरी तरह विलोम में बंटे शहर की कहानी भी है। सामाजिक स्तरीकरण को अपनी फ़िल्मों में कुशलता से फ़िल्माने वाले निपुण निर्देशक इसे दर्शाने के लिए यहाँ शहरी स्थापत्य से लेकर हवा, पानी और ज़मीन से उपजे बिम्बों और ध्वनि तथा कैमरा गति तक का उपयोग करते हैं। फ़िल्म का पहला ही दृश्य हमें किम परिवार के घर में ले जाता है। पूंजीवाद की अंतिम सीढ़ी से कुछ ही ऊपर खड़े निम्नमध्यमवर्गीय किम परिवार का घर एक लम्बी ढलान के अंतिम कोने पर बना है और आधे से ज़्यादा सड़क के नीचे है, जिसमें सिर्फ़ रौशनदान से ही प्रकाश भीतर आता है।

‘आर्किटेक्चरल डाइज़ेस्ट’ को दिये अपने एक साक्षात्कार में निर्देशक ने इस घर की संरचना में छिपे प्रतीक अर्थों पर बात करते हुए बताया था,

“यह घर दरअसल अपनी संरचना में किम परिवार की मानसिकता को दर्शाता है। आप ज़मीन से कुछ ऊपर हैं और यह एहसास आपको सुकून देता है कि चलो, कम से कम आप सूरज की रौशनी तो देख पा रहे हैं। आप पूरी तरह ज़मीदोज़ तो नहीं हुए। यह उम्मीद के साथ ऐसे डर का अजब सा घालमेल है, जिसमें लगता है कि कहीं आप और नीचे ना गिर जायें। यही किम परिवार का भी सबसे आधारभूत भय है, उनके मनोभावों का सच्चा प्रतिनिधि।”

यह कुछ-कुछ गले तक पानी में डूबे होने जैसा एहसास है। गौर कीजिए कि इस पहले ही दृश्य में कैमरे की गति ‘ऊपर से नीचे’ की ओर है। इस प्रयोग को बोंग जून-हो ने आगे कई बार दोहराया है।

इसके विपरीत पूंजीवादी संपन्नता के दूसरे छोर पर खड़े पार्क परिवार के घर तक पहुँचने के लिए हमें साक्षात ऊपर की ओर चढ़ना होता है। यह उर्ध्वाधर गति भौतिक धरातल पर ही नहीं, इसके गहरे सामाजिक अर्थ हैं। किम परिवार के कोलाहल से भरे पड़ोस, जहाँ एक दारूबाज़ हर दूसरे दिन उनके घर के ऊपर रौशनदान पर ही पेशाब करने आ जाता है, के विपरीत यहाँ नीरव शांति है। किम परिवार के छोटे से सेमी-बेसमेंट घर के विपरीत यहाँ घर के चारों सदस्यों का अपना विशाल निजी स्पेस है। निजता है तो अकेलापन भी है। बोंग जून-हो यहाँ इट्रोडक्शन सीन में स्लो मोशन में ‘नीचे से ऊपर’ की ओर कैमरा गति का प्रयोग करते हैं। इसके साथ पहले ही दृश्य में घर के पीछे से निकलती सूरज की सीधी किरणें इस घर की केन्द्रीयता और सर्वोच्चता को बखूबी स्थापित करती हैं। पार्क परिवार का घर यहाँ शहर के उस हिस्से का प्रतीक है, जो ‘आम जनता’ की पहुँच से बाहर है।

कहानी की शुरुआत में ही संयोग से मिला मौका किम परिवार के एक युवा सदस्य को पार्क परिवार के आलीशान घर में एंट्री देता है, और कहानी अपना पहला दिलचस्प मोड़ लेती है। फूंक-फूंककर कदम रखते हुए किम परिवार के चारों सदस्य एक-एक कर पार्क परिवार में विभिन्न किस्म की नौकरियाँ हासिल कर लेते हैं और इस तरह यह दोनों विपरीत ध्रुवों पर खड़े परिवार अचानक एक ही भौतिक स्पेस में आ खड़े होते हैं। ठीक आमने-सामने। पार्क परिवार धनवान है, लेकिन हृदयहीन नहीं है। उनके भोलेपन पर हँसता, उनकी सहृदयता को सराहता किम परिवार जैसे इस सहारे ज़मीन से बाहर निकलकर सूरज की सीधी रौशनी में आ रहा है।

एक दिन पार्क परिवार की अनुपस्थिति में किम परिवार के चारों सदस्य घर की संपन्नता को भोग रहे हैं। यह जैसे ‘वर्जित फ़ल’ चखने का अहसास है। सेंसुअल, विस्मयकारी, रोमांचकारी। शहर के विपरीत छोर पर खड़े इस आलीशान मकान में बैठे वे अपनी पहुँच से बहुत-बहुत दूर के सपने शायद पहली बार देखने की हिम्मत कर रहे हैं। उन्हें लगता है कि वे तर जायेंगे।

यही निर्णायक मौका है। पूंजीवाद की असली सफ़लता यह नहीं है कि वह समाज के चुनिंदा ‘एक प्रतिशत’ एलीट को अकल्पनीय संपन्नता देता है। पूंजीवाद की असली सफ़लता इसमें है कि वह इस चुनिंदा ‘एक प्रतिशत’ के मुकाबले कहीं बड़ी निम्नमध्यमवर्गीय आबादी को यह विश्वास दिलवाने में सफ़ल रहता है कि वह उसके शोषण का यंत्र नहीं, ‘मुक्ति’ का रास्ता है। कि अन्तत: उन्हें भी मौका मिलेगा और अन्तत: वे भी तर जायेंगे।

‘पानी पे लिखा’

और उसी निर्णायक मौके पर, जहाँ सामाजिक स्तरीकरण के दो छोरों पर खड़े पार्क और किम परिवार शायद एक दूसरे के सबसे नज़दीक हैं और लगता है कि जैसे बस अब ये गैर-बराबरी का झीना परदा गिर जायेगा और दोनों एक-दूसरे को छू लेंगे, मिल जायेंगे… घनघोर बरसात आती है। बोंग जून-हो पानी के मैटाफ़र का चमत्कारिक इस्तेमाल करते हुए उसकी द्वैध उपस्थिति के माध्यम से पूंजीवादी सपने द्वारा गढ़ी जा रही इस छद्म बराबरी के सारे काल्पनिक महल गिरा देते हैं। पूरब की सभ्यताओं में जलप्लावन का प्रतीक बहुत गहरे पैठा है, और बोंग जून-हो यहाँ जैसे हमारे अवचेतन के उसी भय को ज़िन्दा कर देते हैं।

पानी किसी के लिए रूमानियत है। पानी किसी के लिए तबाही है। पर सच्चाई यही है कि हमारी नागर सभ्यता के तमाम बराबरी हासिल करने के वादे एक घनघोर बरसात में बदबू से बजबजाती नाली के गंदे पानी में बह जाते हैं। यही आज की दिल्ली की सच्चाई है, यही सिओल की। मुझे यहाँ विशाल भारद्वाज की कमाल के मैटाफ़र्स से भरी फ़िल्म ‘मटरू की बिजली का मंडोला’ याद आती है। एक ओर मूसलाधार बरसात में नवधनाड्य वर्ग मगन ‘रेन डांस’ कर रहा है, वहीं दूसरे ही दृश्य में किसान अपनी खड़ी खेती बह जाने से खून के आँसू रो रहा है। ‘बादल उठ्या री सखी…’

‘पैरासाइट’ के आभासी सीढ़ियों में बंटे शहर की जीती-जागती सीढ़ीनुमा भौतिक संरचना उस आधी रात की मूसलाधार बरसात में पार्क परिवार के आलीशान घर से किम परिवार की वापस अपने दड़बेनुमा घर की ओर अंतहीन पैदल यात्रा में खुलकर सामने आ जाती है। यह वापस ‘ऊपर से नीचे’ की ओर यात्रा है। अभिधा में भी, व्यंजना में भी। उनका अप्राप्य को पाने का सपना डूब रहा है, उनका अपना घर डूब रहा है।

वजह, उन्होंने सपनीले उदार पूंजीवाद के भयावह ज़िन्दा तहखाने अपनी आँखों से देख लिये हैं।

इस निर्णायक बारिश में ‘पैरासाइट’ के इस उर्ध्वाधर गति के सर्वोच्च शिखर पर स्थित संपन्नता के निर्जन टापूनुमा घर के तहखाने में छिपे कुरूप राज़ खुल जाते हैं। जिस पूंजीवादी सपने में सबके लिए ‘मौके’ का वादा था, उसकी असली क्रूर हकीकत जब खुलकर सामने आती है तो इंसान इस वीभत्स सच्चाई का सामना नहीं कर पाता। समाज के जिन दो विपरीत ध्रुवों की हमने ऊपर बात की − ‘हैव्स’ और ‘हैव नॉट्स’ के बीच बंटी दुनिया। सच्चाई यह है कि इस ‘एक प्रतिशत’ अकल्पनीय संपन्नता और बहुमत निम्नमध्यम वर्गीय कामकाजी आबादी की विपरीत जोड़ियों के सभ्य दायरे से बाहर एक तीसरा वर्ग भी मौजूद है − ‘आउटकास्ट्स’ का। जिन्हें इंसानी समाज ने अपनी सभ्यता के दायरों से बाहर कर दिया है। अब यह उनके लिए नागरिक नहीं, उदार पूंजीवाद का अपशिष्ट हैं।

पार्क परिवार के तहखाने की वीभत्स उपस्थितियों से आँखें मत फेरिये। आज यह क्रूर कल्पना जीते-जागते रूप में हमारे देश भारत के उन ‘डिटेंशन कैम्पों’ में रची जा रही है, जिनके बारे में हमारे माननीय प्रधानमंत्री लाखों की भीड़ के सामने सार्वजनिक घोषणा कर चुके हैं कि वे ‘झूठ हैं, झूठ हैं, झूठ हैं’। गौर से देखिये, यही ‘पैरासाइट’ का वो अदृश्य तहखाना है, जहाँ दुनिया की इस सबसे पुरानी गौरवशाली नागर सभ्यता ने नागरिकता के सबसे प्राथमिक नियम भी स्थगित कर दिये हैं।

मुझे कबीर याद आते हैं, जिन्होंने अपनी उलटबाँसियों में पानी के ‘औलोती से बरंडे’ की ओर उल्टा चढ़ जाने की असंभव कल्पना की थी। कबीर की उलटबाँसी में भी यह असंभव कल्पना एक ऐसे दिवास्वप्न का प्रतीक थी जहाँ एक दिन समाज से यह पानी की गति की तरह ही ‘स्वाभाविक’ मान ली गई गैर-बराबरी खत्म हो जाएगी। निर्देशक बोंग जून-हो यहाँ कबीर जैसी असंभव कल्पना रचते हुए पानी की ‘स्वाभाविक गति’ के माध्यम से बताते हैं कि कबीर का स्वप्न आज भी अधूरा है। और उस स्वप्न का संधान पूंजीवाद के इस रूप तो क्या, किसी रूप में संभव नहीं।

‘पैरासाइट’ के अन्त को लेकर बहुत तरह की व्याख्याएं और बहसें मौजूद हैं। मेरी नज़र में निर्देशक बोंग जून-हो हिंसा और उदासी से भरे काव्यात्मक अन्त में पहली बार निम्नमध्यमवर्गीय कामकाजी पहचान को इस दूसरी आउटकास्ट बना दी गई श्रमिक पहचान के आमने-सामने बनाम नहीं, साझेदारी में खड़ा कर एक स्पष्ट स्टेटमेंट देते हैं। स्टेटमेंट, कि एका के बिना मुक्ति नहीं। कि हमारे लिए कोई खड़ा नहीं होगा, अन्तत: खुद हमें ही एक-दूसरे के सम्मान के लिए खड़ा होना होगा। मेरे लिए यहाँ उनकी आत्मघाती हार महत्वपूर्ण नहीं, उनमें पहली बार उभरी साझेदारी की चेतना महत्वपूर्ण है।

_____

~ साहित्यिक पत्रिका ‘हंस’ में मार्च महीने में प्रकाशित कॉलम ‘आराम नगर’ से

नीले और लाल से मिलकर बनी ‘काला’ की चुनौती

kaala

करण जौहर द्वारा निर्मित ‘धड़क’ ने बहस का नया पिटारा खोल दिया है। नागराज मंजुले की माइलस्टोन मराठी फ़िल्म ‘सैराट’ की ऑफिशियल हिंदी रीमेक। यह तो अच्छा है कि अब हिन्दी सिनेमा बाकायदा दूसरी भाषाओं की फ़िल्मों के राइट्स खरीदकर उन्हें अडॉप्ट कर रहा है, ‘प्रेरणा’ से नहीं। लेकिन ‘धड़क’ उदाहरण भी है समझने के लिए कि जब दलित अस्मिता के स्वघोष को ‘सवर्ण उत्तर भारतीय नज़र’ से दोहराने की कोशिश की जाए तो वो कितनी कृत्रिम हो जाती है।

इस ‘दलित नज़र’ को हमें समझना होगा। यही ‘दलित नज़र’ निर्देशक पा रंजीथ की तमिल फ़िल्म ‘काला’ में है। पिछले हफ़्ते ‘काला’ अमेज़न प्राइम पर तीन भाषाओं में रिलीज़ हुई और उत्तर भारतीय दर्शकों के लिए ‘काला’ देखना, अपने परिचित फॉर्मूला सिनेमा को विपरीत सिरे पर खड़े होकर देखने का अनोखा अनुभव है।

***

निर्देशक पा रंजीथ की ‘काला’ ने रामकथा को उलट दिया है। रावण यहाँ नायक है और छली राम खलनायक। यह सिनेमा के पर्दे पर दलित अस्मिता का उद्घोष है, अपनी पूरी गमक के साथ। ऐसा नहीं कि हिन्दी सिनेमा ने दलित उत्पीड़न की कथाएं देखी नहीं। हमारा सत्तर और अस्सी के दशक का समांतर सिनेमा आन्दोलन सदा वंचित की कथा कहता रहा। लेकिन वो सिनेमायी भाषा मुख्यधारा सिनेमा से अलग थी, आम पब्लिक से दूर थी। तमिल सिनेमा से आयी रजनीकांत की ‘काला’ की सबसे खास बात यह है कि यहाँ पा रंजीथ अपनी बात लोकप्रिय सिनेमा की भाषा में कहते हैं। याद हो, कुछ-कुछ यही काम इससे पहले नागराज मंजुले ने बेहतरीन मराठी फ़िल्म ‘सैराट’ में किया था।

यहाँ इंद्रधनुषी रंग भी हैं और रैप भी। गीतों भरी प्रेम कहानियाँ भी हैं और अदम्य नायकीय एक्शन भी। स्लो-मो और स्पेशल इफेक्ट्स, तकनीक का प्रदर्शनकारी इस्तेमाल करते हुए फ़िल्म डिज़ाइनर फाइट सीक्वेंस रचने से लेकर एनिमेशन तक सबका इस्तेमाल करती है। सिनेमायी भाषा के लिहाज से यह फुल-फुल मसाला फ़िल्म है। संयोगों और मेलोड्रामा से भरपूर। बिम्ब वही पर अर्थ उलट, कबीर की उलटबांसियों की तरह।

यह लोकप्रिय हिन्दी सिनेमा के लिए जैसे एंटी-थीसिस है। विस्मयकारी क्लाइमैक्स में एक ओर रामायण की कथा का वाचन जारी है, वहीं धारावी झोपड़पट्टी का बहुजन महानायक काला करिकालन जैसे कथा से ऊपर उठकर उस वैचारिक युद्ध का प्रतीक बन जाता है जो आज के शहरी भारत से लेकर दण्डकारण्य के जंगलों तक जारी है। युद्ध, जो ज़मीन पर कब्जे के लिए सवर्ण राज्यसत्ता और बहुजन समाज के बीच लड़ा जा रहा है। सवर्ण कॉर्पोरेट सत्ता के लिए यह ज़मीन ताक़त है, बहुजन समाज के लिए उसकी ज़िन्दगी। रामायण में आये रावण के दस सर यहाँ बहुजन सामूहिकता के प्रतीक बन जाते हैं। एक काटोगे तो दूसरा उग आएगा।

काला कहता है, बहुजन का अन्तिम हथियार उसका शरीर है। उसकी मेहनत के बल पर ही इस शहर का चक्का रोज़ घूमता है। अन्त में, धारावी का रहनेवाला हर इंसान खुद काला है।
Kaala

 

और भी दिलचस्प है फ़िल्म का ‘स्वच्छता’ और ‘गंदगी’ के विलोम को उसके सर के बल खड़ा कर देना, जो आज के राजनैतिक परिदृश्य में कहीं ज़्यादा मानीखेज़ है। यहाँ विलेन ‘क्लीन कंट्री’ अभियान चलानेवाला और ‘डिजिटल मुम्बई’ का सपना बेचनेवाला एक ऐसा राष्ट्रवादी राजनेता है जिसका चेहरा शहर के हर बिलबोर्ड पर चस्पां है। काला अपने से छोटों से भी आगे बढ़कर हाथ मिलाता है, बराबरी का रिश्ता कायम करता है। वो भगवा पार्टी का नेता चरण स्पर्श की गैरबराबर रूढ़ि में बंधा है। काला का स्याह रंग मेहनत का रंग है, सब पहचानों का सद्भाव है उसमें। धवलवर्णी विलेन ऐसे एकायामी भारत का कांक्षी है जिसमें हर विपक्षी को राष्ट्र की प्रगति में बाधक ‘देशद्रोही’ बताया जाता है। गौर से देखिये, उसे पहचानना ज़रा भी मुश्किल नहीं।

फ़िल्म अम्बेडकरवादी प्रतीकों और पहचानों से भरी है। भीमा चाल के पते से लेकर जय भीम के अभिवादन तक। भीमजी से लेकर लेनिन तक युवा किरदार काला के साथ खड़े नजर आते हैं। काला के छोटे बेटे ‘लेनिन’ का किरदार मुझे फ़िल्म में सबसे दिलचस्प लगा। वो फ़िल्म का युवा नायक है। दलित समाज की शिक्षित चेतनासम्पन्न नई पीढ़ी का प्रतिनिधि। और अब वो अपनी वाजिब हिस्सेदारी को संवैधानिक तरीके से हासिल करना चाहता है।

लेनिन पिता काला का वैचारिक उत्तराधिकारी है। खुद काला करिकालन दलित अस्मिता का ज़िन्दा प्रतीक है, लेकिन मरीन ड्राइव पर फिल्माए गए फ़िल्म के सबसे रोमांचक एक्शन सीक्वेंस में वो काली छतरी को हथियार बना लड़ते हुए अपनी वर्गीय पहचान भी स्पष्ट करता है। यह काली छतरी बम्बई के मजदूर वर्ग का सबसे पुख्ता सिनेमायी प्रतीक है। काला के रंग अगर स्याह और नीले हैं तो लेनिन का प्रतिनिधि रंग लाल है।

Kaala_0

 

लेनिन अपनी झोपड़पट्टी की हालत को सुधारना चाहता है, उसकी किस्मत बदलना चाहता है। लेकिन सत्ता द्वारा बेचे जा रहे ‘रीडेवलपमेंट’ के प्लान की असल हकीकत नहीं समझ पाता। पर काला और उसके लोगों ने सवर्ण सत्ता के इन सुहावने पर दोगले वादों को नज़दीक से देखा, भुगता है। वो जानता है कि पचहत्तर एकड़ पर गोल्फ़ कोर्स बनवानेवाली ‘मनु बिल्डर्स’ की योजनाओं में उन जैसों के लिए कोई जगह नहीं होगी। राज्यसत्ता, और उसके द्वारा बेचे जा रहे ‘विकास’ के नारों के असलीे सवर्ण चेहरे की ठीक-ठीक पहचान में अंततः काला ही सही ठहरता है।

फ़िल्म एक ओर लेनिन को काला करिकालन के मौलिक वैचारिक उत्तराधिकारी के रूप में प्रस्तुत करती है, वहीं इस गैर-बराबर समाज में उसकी शुद्ध वाम आदर्शों पर खड़ी वर्गीय समझ की सीमाओं को भी चिह्नित कर देती है। अच्छा है कि यह फ़िल्म पुराने हिन्दी सिनेमा की ख्वाजा अहमद अब्बास से लेकर जावेद अख्तर जैसे मार्क्सवादी लेखकों द्वारा रची गयी उस एकायामी समझ से बंधी नहीं है जिसमें जाति की समस्या को क्लास प्रॉब्लम के एक बाई-प्रोडक्ट जैसे ट्रीट किया जाता रहा।

लेकिन यह वैचारिक संपन्नता हासिल किया दलित युवा ही भविष्य है। फ़िल्म के आखिर में एक कमाल के कोरियोग्राफ सीन में जहाँ धवलवर्णी विलेन पर रंगों का हमला होता है तो वो काला भी है, नीला भी और लाल भी। नीला और लाल, यही दोनों रंग उस वैचारिक चुनौती के प्रतीक हैं जिससे सवर्ण-कॉर्पोरेट सत्ता का गठजोड़ पटखनी खाएगा, और काला इनके एका का प्रतीक है। नागराज मंजुले और पा रंजीथ की फ़िल्में प्रस्थान हैं, ‘सहानुभूति’ से ‘स्वानुभूति’ की ओर। यह ‘दलित नज़र’ है, जो लोकप्रिय हिन्दी सिनेमा से अभी तक अनुपस्थित थी।
Kaala-Box-Office-Collection***
इस आलेख का संक्षिप्त संस्करण आज पाँच अगस्त के प्रभात खबर में ‘दलित नज़र को समझाती फ़िल्में’ शीर्षक से प्रकाशित हुआ

एन इनसिग्निफिकेंट मैन : जैसे अपने नायक को बिना कवच-कुंडल के देखना

23244518_2002833723287558_1830958877288424094_n

पहली बार न्यूज़लॉड्री हिन्दी पर प्रकाशित हुआ आलेख। पूरी फ़िल्म VICE के यूट्यूब चैनल पर देखे जाने के लिए यहाँ उपलब्ध है। फ़िल्म देखकर आलोचना पढ़ेंगे तो आैर अच्छा होगा।

_____

तीन साल पहले लॉरा पॉइट्रास की सनसनीखेज़ दस्तावेज़ी फ़िल्म ‘सिटिज़नफोर’ देखते हुए मैं एक अद्भुत रोमांच से भर गया था। यह जैसे इतिहास को रियल-टाइम में आँखो के सामने घटते हुए देखना था। एडवर्ड स्नोडन को यह अंदाज़ा तो था कि वे कुछ बड़ा धमाका करने जा रहे हैं, लेकिन उसके तमाम आफ़्टर-इफेक्ट्स तब भविष्य के गर्भ में थे। ऐसे में ‘सिटिज़नफोर’ में उन शुरुआती चार दिनों की फुटेज में एडवर्ड को देखना, जब तक वे दुनिया के सामने बेपर्दा नहीं हुए थे, एक अजीब सी सिहरन से भर देता है। यह जैसे किसी क्रांतिकारी विचार को उसकी सबसे पवित्र आरंभिक अवस्था में देखना है, जहाँ उसमें समझौते की ज़रा भी मिलावट ना की गई हो।

खुशबू रांका आैर विनय शुक्ला निर्देशित दस्तावेज़ी फ़िल्म ‘एन इनसिग्निफिकेंट मैन’ देखते हुए मुझे फिर वैसी ही सिहरन महसूस हुई, बदन में रोंगटे खड़े हुए। इसमें एक गवाही इस बात की भी है कि दस साल से दिल्ली का बाशिंदा होने के नाते आैर फिर इसी शहर पर किताब लिखने की प्रक्रिया में मेरा इस शहर से जुड़ाव ज़रा भी निरपेक्ष नहीं रह जाता। पर एक व्यापक परिदृश्य में यह उन तमाम लोगों के लिए बहुत ही विचलनकारी फ़िल्म होनेवाली है जिन्होंने दिसम्बर 2012 से लेकर दिसम्बर 2013 तक की उस अनन्त संभावनाअों से भरी दिल्ली को लिखा है, जिया है।

Continue reading

न्याय के बिना कोई बराबरी संभव नहीं है : अलीगढ़

aligarh1

निर्देशक ‘हंसल मेहता’ की ‘अलीगढ़’ इस साल का सबसे गहरे पानी में डूबा मोती है. उनींदे से उत्तर भारतीय शहर के हृदय में बसे प्रतिष्ठित विश्वविद्यालय में मराठी पढ़ाने वाले विदुर प्रोफेसर के घर देर रात सनसनीखेज़ स्टिंग होता है. विश्वविद्यालय फौरन क़दम उठाता है. लेकिन स्टिंग करनेवालों की धरपकड़ के बजाए वो खुद प्रोफेसर को बरख़ास्त कर देता है. कारण, प्रोफेसर की समलैंगिक पहचान का उजागर होना.

aligarh-movie-review

‘अलीगढ़’ हमें लड़ाई को अनिच्छुक, लेकिन अद्भुत जीवट वाले इस प्रोफेसर श्रीनिवासन रामचंद्र सिरस की अकेली लेकिन निहायत ही कोमल दुनिया के भीतर लेकर जाती है. साथ ही उस ‘सभ्य समाज’ का असल चेहरा भी हमारे सामने उजागर करती है, जिसे अपने से भिन्न कोई असहज करती पहचान बर्दाश्त तक नहीं. यह बहुमत नहीं, भीड़ है. आतताती भीड़. हत्यारी भीड़. कमाल की संवेदनशीलता के साथ बनाई गई ’अलीगढ़’ की चिंताअों का दायरा बड़ा है. यह फिल्म दरअसल हर उस अल्पसंख्यक पहचान के बारे में है, जिसकी रक्षा के वादे पर ही हमारा संविधान, हमारा लोकतंत्र आैर हमारा देश टिका है.

Continue reading

वो पांच प्रसंग जब हमारा सिनेमा बड़ा हो रहा था : सिनेमा 2016

vlcsnap-2016-12-31-21h31m17s083

‘बॉलीवुड’ कहा जाने वाला मुख्यधारा हिन्दी सिनेमा हमेशा से मेरे लिए एक बहुवचन रहा है. कई नितांत भिन्न, आपस में टकराती पहचानों को साथ संभालने की कोशिश करता माध्यम. आैर फिर सिनेमा तो ठहरा भी सामुदायिक कला. इसलिए कोई फिल्म अकेली नहीं होती. दरअसल वह कितने ही भिन्न समुच्चयों का सामंजस्य होती है. सदा बहुवचन होती है. ऐसे में, मेरे लिए हमेशा ही साल के अन्त में ‘पसन्दीदा फिल्म’ छांटने से ज़्यादा दिलचस्प ‘पसन्दीदा प्रसंग’ छांटना रहा है. ऐसे मौके, जहां मेरी नज़र में हमारे सिनेमा ने कुछ भिन्न किया, या कुछ निडरता दिखाई. मुझे डूबने का मौका दिया, या मुझे चौंकाया.

तो सदी के इस सोलहवें बसंत में, ऐसे ही पांच मौके मेरी पसन्द के, जहां हमारा सिनेमा कुछ ‘बड़ा’ होता है.

Continue reading

“हम चीज़ों को भूलने लगते हैं, अगर हमारे पास कोई होता नहीं उन्हें बताने के लिए” : दि लंचबॉक्स

the-lunchbox-poster

“हम चीज़ों को भूलने लगते हैं, अगर हमारे पास कोई होता नहीं उन्हें बताने के लिए”

स्थापत्यकार राहुल महरोत्रा समकालीन मुम्बई शहर की विरोधाभासी संरचना को केन्द्र बनाकर लिखे गए अपने चर्चित निबंध में शहर की संरचना को दो हिस्सों में विभाजित कर उन्हें ‘स्टेटिक सिटी’ तथा ‘काइनैटिक सिटी’ का नाम देते हैं। वे लिखते हैं, “आज के भारतीय शहर दो हिस्सों से मिलकर बनते हैं, जो एक ही भौतिक स्पेस के भीतर मौजूद हैं। इनमें पहली औपचारिक नगरी है जिसे हम ‘स्टेटिक सिटी’ कह सकते हैं। ज़्यादा स्थायी सामग्री जैसे कंक्रीट, स्टील और ईंटों द्वारा निर्मित यह शहर का हिस्सा शहर के पारम्परिक नक्शों पर द्विआयामी जगह घेरता है और अपनी स्मारकीय उपस्थिति दर्ज करवाता है। दूसरा शहर, शहर का अनधिकृत या कहें अनौपचारिक हिस्सा है जिसे हम ‘काइनैटिक सिटी’ कह सकते हैं। इसे द्विआयामी सांचे में बाँधकर समझना असंभव है। यह सदा गतिमान शहर है – जिसका निर्माण शहर में बढ़ती हुई वैकासिक त्रिआयामी गतिविधियों द्वारा होता है।”[1] काइनैटिक सिटी अपने स्वभाव में ज़्यादा अस्थायी और गतिमान होती है और यह निरंतर खुद में सुधार करती रहती है और खुद को बदलती रहती है। काइनैटिक सिटी शहर के स्थापत्य में नहीं है। यह तो निरंतर बदलती शहरी ज़िन्दगियों की आर्थिक, साँस्कृतिक और सामाजिक गतिविधियों में निवास करती है।

इस काइनैटिक सिटी का उदाहरण गिनाते हुए महरोत्रा मुम्बई की मशहूर डब्बावाला संस्कृति को शहर के इन दो हिस्सों − स्टेटिक सिटी और काइनैटिक सिटी के मध्य संबंध के सबसे प्रतिनिधि उदाहरण के रूप में याद करते हैं। वे लिखते हैं कि मुम्बई के डिब्बावाले शहर के इन दो हिस्सों, स्टेटिक सिटी और काइनैटिक सिटी के मध्य, औपचारिक और अनौपचारिक शहर के मध्य संबंध का सबसे बेहतर उदाहरण हैं। यह टिफिन सेवा शहर के मध्य यातायात के लिए मुम्बई की लोकल ट्रेन सेवा पर निर्भर रहती है और अपने ग्राहक को औसतन महीने का 200 रुपया खर्चे की पड़ती है। इसके महीने का टर्नओवर तक़रीबन पाँच करोड़ रुपये तक का हो जाता है। एक अनुमान के अनुसार तक़रीबन 4,500 डिब्बेवाले शहर में रोज़ 2 लाख से ज़्यादा खाने के डिब्बों को एक जगह से दूसरी जगह पहुँचाने का काम करते हैं।[2]

Continue reading

सुंदर का स्वप्न : शिप ऑफ़ थिसियस

Ship Of Theseus

शायद किराये के मकानों में ऐसा अक्सर होता है। जिस घर में हम रहने आये, उसकी दीवारों पर पिछले रहनेवालों के निशान पूरी तरह मिटे नहीं थे। ख़ासकर बच्चों की उपस्थिति के निशान। कमरे की दीवारों पर रंग बिरंगी पेंसिल की कलाकारियाँ और अलमारियों पर सांता क्लाज़ के स्टिकर। उससे भी कमाल था बाथरूम की एक अलमारी पर अनगिनत स्टिकर से बना एक कोलाज जिसमें एक बच्चे की कल्पना की उड़ान में आनेवाली तमाम तरह की चीज़ें थीं। नए रंग रोगन ने दीवार की कलाकारियों को तो मिटा दिया। लेकिन अलमारी का कोलाज हमने उतारा नहीं। एक स्कूलबस, कुछ जोड़ी जूते, एक लम्बी दूरबीन, बहुत सारी मछलियाँ। थोड़ा सा उन अनदेखे बच्चों को वहाँ रहने दिया। शायद थोड़ा खुद को। अपना बचपन भी तो मैं शहरी आबादी से बहुत दूर एक बड़े से चौक वाले मकान के किसी शांत कोने में छोड़ आया था किन्हीं और अनदेखे लोगों द्वारा संभाले जाने के लिए।

Continue reading

नाम-पते वाला सिनेमा : 2012 Roundup

Gangs Of Wasseypur 2

फिर एक नया साल दरवाज़े पर है अौर हम इस तलाश में सिर भिड़ाए बैठे हैं कि इस बीते साल में ‘नया’ क्या समेटें जिसे अागे साथ ले जाना ज़रूरी लगे। फिर उस सदा उपस्थित सवाल का सामना कि अाखिर हमारे मुख्यधारा सिनेमा में क्या बदला?

क्या कथा बदली? इसका शायद ज़्यादा ठीक जवाब यह होगा कि यह कथ्य में पुनरागमन का दौर है। ‘पान सिंह तोमर’ देखते हुए जिस निस्संगता अौर बेचैनी का अनुभव होता है, वह अनुभव गुरुदत्त की ‘प्यासा’ के एकालाप ‘जिन्हें नाज़ है हिन्द पर वो कहाँ हैं’ तक जा पहुँचता है। ‘गैंग्स अॉफ वासेपुर’ की कथा में वही पुरानी सलीम-जावेद की उग्र भंगिमा है जिसके सहारे अमिताभ ने अपना अौर हिन्दी सिनेमा का सबसे सुनहरा दौर जिया। ‘विक्की डोनर’, ‘लव शव ते चिकन खुराना’, ‘अइय्या’, ‘इंग्लिश विंग्लिश’ अौर ‘तलाश’ जैसी फिल्में दो हज़ार के बाद की पैदाईश फिल्मों में नई कड़ियाँ हैं जिनमें अपनी अन्य समकालीन फिल्मों की तरह कुछ गंभीर लगती बातों को भी बिना मैलोड्रामा का तड़का लगाए कहने की क्षमता है। लेकिन अगर कथा नहीं बदली अौर न ही उसे कहने का तरीका थोड़े ताम-झाम अौर थोड़े मैलोड्रामा को कम करने के बावजूद ज़्यादा बदला, तो फ़िर ऐसे में अाखिर वो क्या बात है जो हमारे इस समकालीन सिनेमा को कुछ पहले अाए सिनेमा से भिन्न अनुभव बना रही है?

Continue reading

केंचुल उतारता शहर

dil-pe-mat-le-yaar

हंसल मेहता वापस अाए हैं बड़े दिनों बाद। अपनी नई फ़िल्म ‘शाहिद’ के साथ, जिसकी तारीफें फ़िल्म समारोहों में देखनेवाले पहले दर्शकों से लगातार सुनने को मिल रही हैं। उनकी साल 2000 में बनाई फ़िल्म ‘दिल पे मत ले यार’ पर कुछ साल पहले दोस्त अविनाश के एक नए मंसूबे के लिए लिखा अालेख, पिछले दिनों मैंने ‘कथादेश’ के दोस्तों से शेयर किया। वही अाज यहाँ अापके लिए। हंसल की ‘दिल पे मत ले यार’ अाज भी मेरी पसंदीदा फ़िल्मों में शुमार है, अौर कहीं न कहीं इसकी भी अप्रत्यक्ष भूमिका रही है मुझे मेरे वर्तमान शोध तक पहुँचाने में।

*****

“रामसरन हमारी खोई हुई इन्नोसेंस है. वो इन्नोसेंस जो हम सबमें कहीं है लेकिन जिसे हमने कहीं छिपा दिया है क्योंकि मुझे एक बड़ा बंगला चाहिए, तुम्हें एक अच्छी सी नौकरी चाहिए. लेकिन रामसरन को इनमें से कुछ नहीं चाहिए. उसका काम सिर्फ़ इंसानियत से चल जाता है…

एंड फ़ॉर मी, दैट्स माय स्टोरी!” – महेश भट्ट, ’दिल पे मत ले यार’ में अपना ही किरदार निभाते हुए.

Continue reading

कितने बाजू, कितने सर

Anhey-Ghode-Da-Daan-3

एमए के दिनों की बात है। हम देश के सबसे बड़े विश्वविद्यालय में थे और यहाँ छात्रसंघ चुनावों में वाम राजनीति को फिर से खड़ा करने की एक और असफ़ल कोशिश कर रहे थे। उन्हीं दिनों पंजाब से आए उन साथियों से मुलाकात हुई थी। हिन्दी में कम, पंजाबी में ज़्यादा बातें करने वाले, हमारे तमाम जुलूसों में सबसे आगे रहने वाले उन युवाओं में गज़ब का एका था। उन दिनों पंजाब में उग्र वाम फिर से लौट रहा था और वहाँ एम-एल की छात्र इकाई सबसे मज़बूत हुआ करती थी। वे लड़के बाहर से शान्त दिखते थे, लेकिन उनका जीवट प्रदर्शनों में निकलकर आता था और उन्हें देखकर हम भी जोश से भर जाते थे। सलवार-कुरते वाली कई लड़कियाँ थीं जो हमसे कम और आपस में ज़्यादा बातें करती थीं लेकिन सार्वजनिक स्थान पर किसी भी तनावपूर्ण क्षण के आते ही सबसे आगे डटकर खड़ी हो जाती थीं और कभी नहीं हिलती थीं। उन्हीं के माध्यम से मैं जाना था कि हमारे पडौसी इस ’धान के कटोरे’ में कैसी गैर-बराबरियाँ व्यापी हैं और कैसे वहाँ के दलित अब अपने हक़ के लिए खड़े होने लगे हैं। इस राजनैतिक चेतना के प्रभाव व्यापक थे। जब शोषित अपने हिस्से का हक़ मांगता है तो पहले से चला आया गैरबराबरी वाला ढांचा चरमराता है और इससे तनाव की षृष्टि होती है। बन्त सिंह आपको याद होंगें। यह बन्त सिंह की राजनैतिक चेतना ही थी जिसने उन्हें अन्याय का प्रतिकार करना सिखाया और यही बात उनके गाँव के सवर्ण बरदाश्त न कर सके। उन्होंने बन्त के हाथ-पैर काट उन्हें मरने के लिए छोड़ दिया। लेकिन न वो बन्त को खामोश कर पाए, न उनके क्रान्तिकारी लोकगीतों को।

Continue reading