उस शाम सराय में रविकांत और मैं मुम्बई की पहचान पर ही तो भिड़े थे. ’मुम्बई की आत्मा महानगरीय है लेकिन दिल्ली की नहीं’ कहकर मैंने एक सच्चे दिल्लीवाले को उकसा दिया था शायद. ’और इसी महानगरीय आत्मा वाले शहर में शिवसेना से लेकर मनसे तक के मराठी मानुस वाले तांडव होते हैं?’ रविकांत भी सही थे अपनी जगह. मैं मुम्बई का खुलापन और आज़ादी देखता था और वो बढ़ते दक्षिणपंथी राजनीति के उभार चिह्नित कर रहे थे. हम ’मेट्रोपॉलिटन’ और ’कॉस्मोपॉलिटन’ के भेद वाली पारिभाषिक बहसों में उलझे थे. हमारे सामने एक विरोधाभासी पहचानों वाला शहर था. हम दोनों सही थे. मुम्बई के असल चेहरे में ही एक फांक है. यह शहर ऐसी बहुत सारी पहचानों से मिलकर बनता है जो अब एक-दूसरे को इसके भीतर शामिल नहीं होने देना चाहती. हाँ यह कॉस्मोपॉलिटन है. लेकिन अब कॉस्मोपॉलिटन शहर की परिभाषा बदल रही है. दुनिया के हर कॉस्मोपॉलिटन शहर में एक धारा ऐसी भी मिलती है जो उस रंग-बिरंगी कॉस्मोपॉलिटन पहचान को उलट देना चाहती है. दरअसल इस धारा से मिलकर ही शहर का ’मेल्टिंग पॉट’ पूरा होता है.
’मेल्टिंग पॉट’. विशाल भारद्वाज की ’कमीने’ ऐसे ही ’मेल्टिंग पॉट’ मुम्बई की कहानी है जहां सब गड्ड-मड्ड है. सिर्फ़ चौबीस घंटे की कहानी. यह दो भाइयों (शाहिद कपूर दोहरी भूमिका में) की कहानी है जो एक-दूसरे की शक्ल से भी नफ़रत करते हैं और इस नफ़रत की वजह उनके अतीत में दफ़्न है. चार्ली तेज़ है, उसके सपने बड़े हैं. वह रेसकोर्स का बड़ा खिलाड़ी बनना चाहता है. गुड्डू छोटी इच्छाओं वाला जीव है जिसकी ज़िन्दगी का ख़ाका पॉलीटेक्नीक में डिप्लोमा, नौकरी, तरक्की, शादी से मिलकर बनता है. लेकिन इस सबके बीच एक प्रेम कहानी है. गुड्डू की ज़िन्दगी में स्वीटी (प्रियंका चोपड़ा) है जो माँ बनने वाली है और बदकिस्मती से वो लोकल माफिया डॉन भोपे भाऊ (अमोल गुप्ते) की बहन है. पूरी फ़िल्म धोखे और फरेब से भरी है लेकिन अंत में आपको महसूस होगा कि असल में यह फ़िल्म अच्छाई के बारे में है. यह इंसान के भीतर छिपी अच्छाई की तलाश है. यह कबूतर के भीतर छिपे मोर की तलाश है. ’कमीने’ को लिकप्रिय हिन्दी सिनेमा की सर्वकालिक महानतम क्लासिक ’शोले’ का आधुनिक संस्करण कह सकते हैं. और इस आधुनिक संस्करण के मूल सूत्र ’शोले’ से ही उठाए गए हैं.
इस मुम्बई में अन्डरवर्ल्ड माफिया के तीन अलग अलग तंत्र एक साथ काम कर रहे हैं और जिस ’क़त्ल की रात’ की यह कहानी है उस रात यह तीनों माफिया तंत्र आपस में बुरी तरह उलझ गए हैं. अपने सपनों के पीछे भागता एक भाई चार्ली ज़िन्दगी में शॉर्टकट लेने के चक्कर में ऐसे चक्कर में फंसा है कि अब जान बचानी मुश्किल है और दूसरा भाई गुड्डू न चाहते हुए भी अब भोपे भाऊ के निशाने पर है. मराठी अस्मिता के नाम पर अपनी राजनीति चमकाने वाले भोपे भाऊ के लिए एक उत्तर भारतीय दामाद उनकी राजनीतिक महत्वाकाक्षाओं का अंत है. और इसी सबके बीच उस बरसाती रात उनकी ज़िन्दगियां आपस में टकरा जाती हैं. जैसे एक-दूसरे का रास्ता काट जाती हैं. तेज़ बरसात है. गुप्प अंधेरा है. एक गिटार है जिसमें दस करोड़ रु. बन्द हैं. उस गिटार के आस-पास खून है, गोलियां हैं, लालच है, विश्वासघात है, मौत है. एक तरफ शादी की शहनाई बज रही है और दूसरी तरफ अंधाधुंध गोलियों की बौछार है. इस सारे मकडजाल से भाग जाने की इच्छा लिए हुए हमारे दोनों नायक हैं और चीज़ों को और जटिल बनाने के लिए इन दोनों नायकों की शक्लें भी एक हैं. इसी सबके बीच पुलिस के भेस में माफिया के गुर्गे हैं, बाराबंकी से मुम्बई रोज़ी की तलाश में होते विस्थापन के किस्से हैं, रिज़वानुर्रहमान से तहलका तक के उल्लेख हैं और सबसे ऊपर आर.डी बर्मन के गीत हैं. ’सत्या’ के साथ हिन्दी सिनेमा ने मुम्बई अन्डरवर्ल्ड का जो यथार्थवादी स्वरूप हमारे सामने प्रस्तुत किया है उसे अनुराग कश्यप और विशाल भारद्वाज अपने सिनेमा में नए आयाम दे रहे हैं.
गुड्डू की भूमिका में शाहिद कपूर हकलाते हैं और चार्ली की भूमिका में उनका उच्चारण गलत है (मैं ’फ़’ को ’फ़’ बोलता हूँ! आपने सुना ही होगा.) लेकिन इन शारिरिक भेदों से अलग शाहिद ने अपनी अदाकारी से दो अलग व्यक्तित्वों को जीवित किया है. स्वीटी के किरदार की आक्रामकता उसे आकर्षक बनाती है और एक मराठी लड़की के किरदार में प्रियंका बेहतर लगी हैं. भाइयों की कहानियां देखने की अभ्यस्त हिन्दुस्तानी जनता को विशाल ने खूब पकड़ा है. अब तक देखे मुख्यधारा के बॉलीवुड सिनेमा से आपकी जो भी समझ बनी है उसे साथ लेकर थियेटर में जाइएगा, वो सारे फॉर्मूले आपको बहुत काम आयेंगे इस फ़िल्म का आनंद उठाने में. वही बॉलीवुडीय परंपरा कभी आपको खास सूत्र देगी फ़िल्म को समझने के और वही कई बार आपको उस क्षण तक भी पहुंचाएगी जिसके आगे आपने जो सोचा होगा वो उलट जाएगा. श्रीराम राघवन की ही तरह विशाल भारद्वाज ने भी एक थ्रिलर को अमली जामा पहनाने के लिए हमारी साझा फ़िल्मी स्मृतियों का खूब सहारा लिया है. इस फ़िल्म की बड़ी खासियत इसके सह-कलाकारों का सही चयन और अभिनय है. कमाल किया है भोपे भाऊ की भूमिका में अमोल गुप्ते ने एवं मिखाइल की भूमिका में चंदन रॉय सान्याल ने. चंदन तो इस फ़िल्म की खोज कहे जा सकते हैं. अपने किरदार में वो कुछ इस तरह प्रविष्ठ हुए हैं कि उन्हें उससे अलगाना असंभव हो गया है.
विशाल का पुराना काम देखें तो यह सवाल उठना लाज़मी है कि ’कमीने’ सबके बीच कहां ठहरती है? क्या इसे शेक्सपियर की रचनाओं के विशाल द्वारा किए तर्जुमे ’मक़बूल’ और ’ओमकारा’ के आगे की कड़ी माना जाए? बेशक ’कमीने’ विशाल की पिछली ’ओमकारा’ और ’मक़बूल’ से अलग है. इसमें शेक्सपियर की कहानियों का मृत्युबोध नहीं है, इसमें संसार की निस्सारता और नश्वरता का अलौकिक बोध नहीं है. इस मायने में यह फ़िल्म अपने अनुभव में ज़्यादा सांसारिक फ़िल्म है. ज़्यादा आमफ़हम. शायद इसमें मृत्यु भी एक आमफ़हम चीज़ बन गई है. और यहीं यह फ़िल्म क्वेन्टीन टेरेन्टीनो की फ़िल्मों के सबसे नज़दीक ठहरती है.
इस फ़िल्म की सबसे बड़ी खूबी है कि एक बेहतरीन थ्रिलर की तरह यह पूरे समय अपना तनाव बरकरार रखती है. और यह तनाव बनाने के लिए विशाल ने किसी तकनीकी सहारे का उपयोग नहीं किया है बल्कि यह तनाव किरदारों के आपसी संबंधों से निकल कर आता है. ’कमीने’ कसी पटकथा और सटीक संवादों से रची फ़िल्म है जिसमें बेवजह कुछ भी नहीं है. हाँ इस कहानी में ’मक़बूल’ जितने गहरे अर्थ नहीं मिलेंगे लेकिन ’कमीने’ एक रोचक फ़िल्म है. और यह रोचक फ़िल्म अपना आकर्षण बनाए रखने के लिए हमेशा सही रास्ता चुनती है, कोई ’फॉर्टकट’ नहीं. यही मुंबई का ‘मेल्टिंग पॉट’ है।
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जनसत्ता के लिए लिखी गई थी. पहली बार मोहल्ला लाइव पर प्रकाशित.