in cricket

हम बड़े हुए, शहर बदल गए…

तुम अपने अकेलेपन की कहानियाँ कहो. तुम अपने डर को बयान करो. तुम अपने दुःख को किस्सों में गढ़ कर पेश करो. दुनिया यूँ सुनेगी जैसे ये उनकी ही कहानी है. हर लेखक हरबार अपनी ही कहानी कहता है. कथा और इतर-कथा तो बस बात कहने के अलग अलग रूप हैं. कहानी तो इस रूप के भीतर कहीं छुपी है. अपना microcosm खोजो और फिर देखो इस भरमाती दुनिया को. ये बातें करती है.

वरुण और मेरे लिए बहुत से मामलों में ‘एक-सा संगीत’ है. हम दुनिया को देखने के लिए एक चश्मे का इस्तेमाल करते हैं शायद. क्रिकेट, सिनेमा और राजनीति.. हमारे लिए एक complex society को समझने का जरिया बनते हैं.  एक दूसरे की scrapbook में लिखकर अपनी उलझनें सुलझाना हमारा पुराना शगल है! वैसे भी Orkut  हमारे लिए ख़ास है क्योंकि हमारी मुलाकात यहीं हुई थी. वरुण के लेखन का मैं तब से फैन रहा हूँ जब वो ‘ग्रेट इंडियन कॉमेडी शो’ लिखा करता था. हाल ही में उसमे अपनी पहली हिन्दी कहानी के प्रकाशन के साथ हिन्दी साहित्य जगत में भी धमाकेदार एंट्री ली है. आप ‘डेन्यूब के पत्थर’ में ना जाने कितनी समकालीन परिस्थितियों की गूँज सुन सकते हैं.

अनिल कुंबले के जाने से शायद हम दोनों अनमने से थे और ऐसे में ये Orkut की skrapbook वार्ता आई. आज पढ़ा तो मुझे लगा कि एक लेख लिखने से ज़्यादा खूबसूरत ख़याल इसे blog पर डाल देना होगा. कुंबले हमारे जीवन में क्या जगह रखता था इसे देखना ज़रूरी है.

मिहिर:~ अरे यार.. मेरे हीरो ने आज यूँ अचानक अलविदा कह दिया. कुछ अच्छा नहीं लग रहा है…
मालूम था कि एक दिन ये होगा लेकिन क्या करुँ यार.. मैं कुंबले के बिना जिंदगी की कल्पना नहीं कर सकता…
He is my childhood hero. my first cricket memory coincides with his first coming-of-age performance. 1993 Hero cup final where he took 6-12… is there a life after kumble…?

वरुण:~ यार…सच में… दोपहर से बड़ा ख़ाली-ख़ाली लग रहा है. कुंबले को जाना था, यह कब से मालूम था… लेकिन फिर भी, एक्सेप्ट करना मुश्किल ही होता है. मुझे भी हीरो कप का वो फाइनल हमेशा याद रहेगा. शायद दिवाली के एक-दो दिन बाद ही था… हमारे पास बहुत सारे पटाखे बचे हुए थे और हमने जम के फोड़े थे. कुंबले उस दिन ख़ुदा लग रहा था… और हमेशा ही लगा है जब उसकी फ्लिपर्स लोअर-आर्डर बल्लेबाजों को खड़े-खड़े उड़ा देती हैं.

एक बार साउथ अफ्रीका में शायद 89 रन भी बनाए थे और उस दिन मुझे बड़ा बुरा लगा था कि सेंचुरी नहीं हुई.

आज अचानक से यह ख़याल आया कि जब सचिन भी चला जायेगा और राहुल भी… तब हम क्रिकेट क्यूँ देखेंगे? शायद उनके साथ साथ हमें भी रिटायर हो जाना चाहिए. हम भी बूढे हो चले हैं शायद. ऐसा ही होता है – एक आइकन के गुज़र जाने से साथ में वो era, उस era की values/memories/motivations सब गुज़र जाती हैं. अपनी गुज़रती उम्र का एहसास करा जाती हैं.

यह बात वैसे हर दौर के लोग बोलते होंगे… (और बोलते हैं, यह जानते हुए भी, मैं कहूँगा) कि क्रिकेट अब वैसा नहीं रहा. और कुछ दिन बाद इस बात का भरम भी खत्म हो जायेगा – जब हम सचिन, राहुल, लक्ष्मण को भी अलविदा कह देंगे.

एक मज़ेदार बात याद आई. जब दुनिया में शायद किसी ने भी कुंबले का नाम ‘जम्बो’ नहीं रखा था, तब भी मैं और मेरा छोटा भाई उसे ‘हाथी’ ही बोलते थे. उसके बड़े पैरों की वजह से नहीं (जो कि शायद उसके निकनेम की असली वजह है) बल्कि इसलिए कि बॉलिंग एक्शन के वक्त उसके हाथ किसी हाथी की सूंड जैसे लहराते थे… मानो हाथी नारियल उठा के नमस्कार कर रहा हो.

फिर बाद में जब हमें पता चला कि टीम ने उसका नाम जम्बो रख दिया है तो हमें बड़ी खुशी हुई…

मिहिर:~ अगर मुझे सही याद है तो 88.. उसी पारी में अज़हर ने सेंचुरी बनायी थी और कुंबले ने उसके साथ एक लम्बी पार्टनरशिप की थी. अज़हर के आउट होते ही मुझे डर लगा था कि देखना अब कुंबले की सेंचुरी रह जायेगी और वही हुआ था. 90s की क्रिकेट तो मुझे (हमें!) ज़बानी रटी हुई है!

एक दौर था जब मैं कुंबले के एक-एक विकेट को गिना करता था. मैं उसकी ही वजह से स्पिनर बना (अपनी गली क्रिकेट का ऑफ़ कोर्स!) और उसके होने से मुझे दुनिया कुछ ज्यादा आसान लगती थी. क्लास में बिना होमवर्क किए जाने के डर से कुंबले की बॉलिंग निजात दिलाती थी. संजय जी की डांट से कुंबले बचाता था (मुझे ऐसा लगता था). एक self-confidence आता था मेरे भीतर जो ये अनिल कुंबले नाम का शक़्स देता था. चाहे कुछ हो जाए.. चाहे मैच में स्कोर 200-1 हो लेकिन इसकी बॉलिंग में फर्क नहीं देखा कभी…

कभी कभी लगता है कि ये दौर आज नही ख़त्म हुआ है, ये दौर तो बहुत पहले जा चुका. लेकिन एक भरम हम बनाकर रखते हैं जैसा तुमने कहा. आज वो टूट गया…

टाईटन कप.. सहारा कप.. Independence cup.. टाईटन कप में कुंबले और श्रीनाथ की वो लास्ट पार्टनरशिप याद है! उस मैच में सचिन को मैन-ऑफ़-दी-मैच मिला था लेकिन बाद में सचिन ने कहा था कि मैं तो मैच को बिना जिताए आउट होकर आ गया था, मैच तो इन दोनों ने जिताया है. मैन-ऑफ़-दी-मैच तो इन्हें मिलना चाहिए. और सबने कहा था, मैच बंगलौर में था ना.. आख़िर शहर के लड़के ही स्टार बने हैं! और फिर वो फाइनल.. क्या दिन थे यार!

आज लगता है मैं बड़ा हो गया यार. बचपन ख़त्म हुआ…

वरुण:~ हाँ…मैं बचपन में बहुत मोटा था और तेज़ बॉलिंग तो कर ही नहीं सकता था. ऐसे वक्त में मुझे मेरा हीरो मिल गया था – कुंबले. दो लम्बी डींगें भरो, हाथ को हवा में ऊँचा ले जाओ, और गेंद छोड़ते समय ऊँगली से हल्का सा झटका या ट्विस्ट दो…लेग-स्पिन नहीं तो ऑफ़-स्पिन तो हो ही जाती थी.

और गेंद करने से पहले, हाथ में गेंद को घुमाते हुए उछालना… उस वक्त लगता था हम भी कुंबले हैं. लगता था बैट्समैन अब हमसे भी डर रहा होगा. मुझे आज तक हाथ में वैसे गेंद घुमाने का शौक है… और एक अजीब सा confidence आता है अपने अन्दर.

और सही कहते हो- वो वाला दौर कब का जा चुका. हम बस उसके illusion में जी रहे हैं… और वो भी टूटता जाता है.

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हक्का और बक्का ना जाने कबका… हल कहाँ है.. श्रृष्टि का रचयता तो यहाँ है…. पैरों को पकड़ो ढूँढो उसके चरण जहाँ है. काटो ना किसी पेड़ की डाली को उसके फलों में अब रस भी कहाँ है. अब था तब था वो कौआ फ्यूचर में उड़ गया कबका, मगरमच्छ भी उड़ते देखे हैं मैने, हाथी ने अंडा दिया अंडे में बच्चा कहाँ है.

मिहिर, ‘तुम्हारी बाँहों में मछलियाँ क्यों नहीं हैं’ पर तुम्हारी टिप्पणी पढ़ी। सच में बहुत अच्छा लगा। इसी बीच पहली बार तुम्हारा ब्लॉग देखा। पीयूष मिश्रा का इंटरव्यू वाकई ज़रूरी और प्रशंसनीय था। वरुण को शुक्रिया। अपनी मेल आई डी देना। मेरी है aaawarapan@gmail.com

शुक्रिया उदय जी, आपका कमेंट पाकर मैं निहाल हुआ. (और मुझे पता है अभी वरुण की भी यही प्रतिक्रिया होगी!) सच है कि अपने-अपने दौर में हमारे लिए हमेशा कोई एपिक पर्सन होता है. ऊपर मेरे बड़े भाई ने अज़हर के लिए यही बात कही और अब आपने गावस्कर का नाम लिया. कितनी मज़ेदार बात है ना कि हम तीनों JNU के तीन अलग-अलग दौर में छात्र रहे हैं और तीन अलग-अलग दौर के खिलाड़ियों से अपना व्यक्तिगत रिश्ता जोड़ते हैं. यह एक तार गावस्कर से सचिन तक को जोड़ता आता है. और ये जे.एन.यू. वाली बात मैं इसलिए जोड़ रहा हूँ क्योंकि इस धारा में आप दोनों के पीछे अपने को खड़ा पाना मेरे लिए बहुत ही ख़ास अनुभूति है.

@ Rohit
क्या बचपन कहीं छूट जाता है, पीछे रह जाता है, इंतज़ार करता आपके लौटने का? नहीं, मुझे लगता है कि आप अपने बचपन को अपने साथ लेकर चलते हैं. वो वहीं होता है हमेशा, आपके साथ. ऐसा लगता है कि बचपन उस घर में ही रह गया जिसे आप छोड़ आये हैं, उस गली में ही खो गया जो अब आपको पहचानती तक नहीं. लेकिन नहीं, बचपन उस घर में चुपके से निकल कर आपके कोट के जेब में घुस जाता है और आपको पता भी नहीं चलता. बचपन आपके साथ होता है हमेशा.

hey miyaan yaar ye hamare bachpan ki shaamen hain…..kumble ko sabse mahan spiner karaar dena aur …is baat ka maja lena ki kaise woh har match main 4-5 wicket jhatak leta hai…..kaamal tha ….tune bahut accccha conversation post kiya hai …as usual ur great

Wonderful piece. It’s combine of memories with expertise, making a comment memorable. When Suneel Gavaskar announced his final retirement, I remembered Lata Mangeshkar.
They both had something epic……like Kumble or Sachin…!
Kudos to Mihir….

@ Himanshu
शुक्रिया दादा, जैसा वरुण ने लिखा है यह सही है कि हर दौर का एक नायक (या खलनायक) होता है जिससे उस दौर को पहचाना जाता है. और अब तो तीन-तीन साल में पीढ़ियां बदलती हैं!

@ Prateek
दोस्तों की दोस्ती ऐसी ही होनी चाहिये जिसे देख दुनिया जले! क्यों ठीक बात है ना प्रतीक!

@ Sushant
एक दिन तो सचिन भी जायेगा यार. तुम सचिन पर मेरा एक पुराना लेख पढ़ना, आर्काइव मे मिल जायेगा. ’सचिन नामक मिथक की खोज उर्फ़ सुनहरे गरुड की तलाश में’ शीर्षक से है. शायद तुम्हारा डर कुछ कम हो. (या शायद और बढ़ जाये!)

@ Animesh
शुक्रिया अनिमेष. RESPECT!

@ Kunal
शुक्रिया कुणाल. तुम्हारा तो अब यहां हमेशा इंतज़ार रहेगा. असल में इस पोस्ट से मुझे सबसे ज़्यादा फ़ायदा तो यही हुआ है कि वरुण के इतने सारे अच्छे दोस्त मेरे भी दोस्त बन गये. दोस्तों की ये अदला-बदली हमें बहुत पसंद है!

@ Manoj & Gaurav
बहुत शुक्रिया दोस्तों तारीफ़ के लिये. मुझे पता है कि इस पोस्ट की लोकप्रियता की वजह अनिल कुम्बले का जादू है.

@ Varun
अब तुम्हें क्या कहूं.. चलो बंगलोर चलते हैं. अनिल कुम्बले को यह पोस्ट और इसपर आये कमेन्ट नहीं दिखाने क्या!

dil ko choo lene vala samvad tha.meri aisi koi smriti nahi hai.par apke saath isse gujrna main bhi ek anand hai.

वरुण के scrapbook पर गाहे-बेगाहे जाने के दौरान कई बार “मिहीर” नाम का एक शक्स अपनी सुघढ हिन्दी, क्रिकेट, सिनेमा और समकालीन राजनीती पर अपनी जबरदस्त पकड दर्शाता नजर आता था और मै चाह कर भी उस conversatation को follow करने से अपने को रोक अही पाता था| आज जब तुमने इसे अपने ब्लोग पर स्थान दे ही दिया है, जो कि मेरी भी इक्छा थी की तुम दोनो को इसे preserve करना चाहिये, आज इस पर अपनी प्रितिक्रिया देने से रोक नही पा रहा हुँ| मै भी उसी दौर से हुँ और कमोबेश हमारी रुची भी समान है इसलिये किसी भी बह्स मे खुद को जोड्ना बहुत सहज हो जाता है| अनिल कुम्बले को याद करते हुये चली ये बह्स मुझे भी कुछ भींगो सी गई…मै भी हीरो कप टुर्णामेण्ट के कुम्ब्ले के कारण मिली उस जीत को याद कर बैठा जब पापा के साथ स्कुटर मे १० km तक सिर्फ इस लिये घुम कर आया कि लोग पटाखे कहाँ कहाँ फोड रहे है और जीत की खुशी से भीने लोगो की सहज खुशी कितनी खुशगवार लगती है| वरुण का बाल को कुम्ब्ले की तरह घुमाना पेट मे गुदगुदी कर गया क्योकी अब जब भी कुम्ब्ले की याद आयेगी, वरुण भी जेहन मे उसी तरह बाल घुमाता नजर आयेगा….
तुम दोनो इसी तरह लिखते रहो, दोस्ती यु ही बनी रहे, यही कामना है….

Awesome, bhai log! App logon ney dara diya ki mera hero Sachin bhi kabhie retire hoga :(( pata nahi kaisa hoga mera jeevan uskey baad!

mihir bhai -varun bhai maja aa gaya padh kar…………tumhare beech ka vartalab itna sajeev hai ki aise jaan padta hai ki saamne baith kar 2 jane baat karr rahe ho …….must likhte ho tum log yaaaar……. good luck to both of you.

Main bhi soch hi raha tha tumhaari likhi baaton ko sanjo ke rakhne ka…Kumble ko ek tribute ki tarah!

Par dukh hota hai dekhkar ki kitne kam logon Main bhi ek waqt pe uski har wicket gina karta tha aur maanta bhi tha ki Warne ko peechhey chhod dega yeh. Mcgrath se aage rehta tha, iss baat ki khushi hamesha hoti thi.

Aur shuru mein jab Daniel Vettori bhi chashma laga ke bowling karta tha toh mujhe khushi hoti thi ki Kumble ne iss trend ko maanyata dilwaayi hai.

Itna kuchh yaad dilaane ke liye dhanyawaad…aur iss assembled-article ke liye bhi. (Jab bhi koi bada khilaadi ya star retire hota hai toh mujhe bas ek hi cheez ki khushi hoti hai ki ab iss-se milna utna mushkil nahin hoga. Jab Madhuri ki shaadi huyi thi tab bhi maine yahi socha tha aur jab Steffi Graf retire huyi thi…tab bhi. Ho sakta hai ab Kumble se bhi kabhi saamne baith ke mil paayein.)