हमारे हिस्से की ‘पैरासाइट’

Parasite 2019

Spoilers ahead… 

सुनील खिलनानी अपनी मील का पत्थर पुस्तक ‘दी आइडिया ऑफ़ इंडिया’ में नई दिल्ली शहर की बसावट को लेकर मुख्य स्थापत्यकार एडविन लुटियंस और उनके चीफ़ असिस्टेंट हरबर्ट बेकर के बीच हुई एक बहुत दिलचस्प बहस का ज़िक्र करते हैं। इस तीखी बहस के केंद्र में था एक सवाल, कि रायसीना की पहाड़ी पर वायसरॉय हाउस ठीक-ठीक कहाँ बनाया जाए। लुटियंस ने उसके लिए रायसीना के टीले की सबसे ऊंची जगह तय की थी, जिससे पूरी नई दिल्ली की संरचना में राष्ट्र के ‘सर्वोच्च शासक’ का घर भौगोलिक रूप से भी सर्वोच्च स्थान पर हो। यह नगर की भौतिक संरचना में सामाजिक स्तरीकरण का बुलन्द उद्घोष था।

लेकिन दिक्कत ये थी कि अगर वायसरॉय हाउस को टीले पर पीछे सबसे उच्च स्थान पर लेकर जाया जाएगा, तो नीचे इंडिया गेट के पास राजपथ से वो दिखना ही बंद हो जाएगा। बेकर इसी के चलते अपनी असहमति दर्ज करवा रहे थे, कि अगर ‘प्रजा’ अपने राजा को सीधे देख भी ना पाए तो ऐसी भव्य संरचना का उद्देश्य असफ़ल हो जाता है। तनाव इतना बढ़ा कि दोनों में लंबे समय तक बोलचाल भी बंद रही। खैर, अन्ततः लुटियंस साहब की चली और वायसरॉय हाउस रायसीना पहाड़ी के सबसे ऊंचे स्थान पर ही बना। इसका नतीजा ये है कि आज भी नीचे इंडिया गेट के आगे राजपथ से खड़े होकर देखें तो राष्ट्रपति भवन का सिर्फ़ गुम्बद ही नज़र आएगा, पूरा राष्ट्रपति भवन नहीं।

मैं जब इस किस्से को अपने बीए के दिनों में पहली बार पढ़ रहा था, तो दक्षिण राजस्थान के उदयपुर नामक छोटे से पुराने शहर में रहता था। आपमें से बहुत लोग परिचित होंगे, पुराना उदयपुर मेवाड़ राजघराने की लंबे समय तक राजधानी रहा सामन्ती परिवेश का शहर है। और आज भी रोज़गार के लिए पर्यटन व्यवसाय पर निर्भरता के चलते उदयपुर अपनी पारंपरिक धरोहर पहचान को बचाकर रखने की कोशिश करता है। ऐसे में दिलचस्प संयोग यह था कि शहरी स्थापत्य में जिस स्तरीकरण की बात मैं आधुनिक यूरोपियन मूल्यों पर रची गई नई दिल्ली के सन्दर्भ में पढ़ रहा था, वैसी ही बसावट मैं अपने शहर में उदयपुर की सामंती राजव्यवस्था द्वारा निर्मित नगर संरचना में देख पा रहा था।

राजाजी का महल (आजकल जिसे सिटी पैलेस के नाम से जानते हैं) चारदीवारी के भीतर उदयपुर में सबसे ऊंचे स्थान पर बनी संरचना है। इसका नतीजा है कि पुराने शहर में आप किसी भी पोल (दरवाज़े) से प्रवेश कर सिटी पैलेस की दिशा में बढ़ें, तो ऐसा अहसास होगा कि जैसे आप किसी चढ़ाई पर चढ़ रहे हैं। इस संरचना में महल सबसे ‘ऊपर’ है, जैसे किसी चोटी पर खड़ा। ठीक नई दिल्ली के ‘वायसरॉय हाउस की तरह। शहर के हर हिस्से से देखो तो ‘ऊपर’ की ओर ही नज़र आता है। और वहाँ महल से ‘नीचे’ किसी भी ओर देखने पर शहर की ‘रैय्यत’ के छोटे-छोटे आशियानों का विहंगम दृश्य दिखाई देता है।

क्या चमत्कार है, सामन्ती व्यवस्था पूंजीवाद से गुपचुप गठजोड़ कर अपनी गैरबराबरियाँ उसे उत्तराधिकार में सौंप देती है और मध्यकालीन समाज व्यवस्था द्वारा रचा गया स्तरीकरण आधुनिक शहर की संरचना से एकाकार हो जाता है।

parasite‘शहर की अदृश्य सीढ़ियाँ’

बोंग जून-हो की ‘पैरासाइट’ दो परिवारों की कहानी है। समाज के स्तरीकरण के दो प्रतिलोम पर खड़े परिवार, लेकिन यह पूरी तरह विलोम में बंटे शहर की कहानी भी है। सामाजिक स्तरीकरण को अपनी फ़िल्मों में कुशलता से फ़िल्माने वाले निपुण निर्देशक इसे दर्शाने के लिए यहाँ शहरी स्थापत्य से लेकर हवा, पानी और ज़मीन से उपजे बिम्बों और ध्वनि तथा कैमरा गति तक का उपयोग करते हैं। फ़िल्म का पहला ही दृश्य हमें किम परिवार के घर में ले जाता है। पूंजीवाद की अंतिम सीढ़ी से कुछ ही ऊपर खड़े निम्नमध्यमवर्गीय किम परिवार का घर एक लम्बी ढलान के अंतिम कोने पर बना है और आधे से ज़्यादा सड़क के नीचे है, जिसमें सिर्फ़ रौशनदान से ही प्रकाश भीतर आता है।

‘आर्किटेक्चरल डाइज़ेस्ट’ को दिये अपने एक साक्षात्कार में निर्देशक ने इस घर की संरचना में छिपे प्रतीक अर्थों पर बात करते हुए बताया था,

“यह घर दरअसल अपनी संरचना में किम परिवार की मानसिकता को दर्शाता है। आप ज़मीन से कुछ ऊपर हैं और यह एहसास आपको सुकून देता है कि चलो, कम से कम आप सूरज की रौशनी तो देख पा रहे हैं। आप पूरी तरह ज़मीदोज़ तो नहीं हुए। यह उम्मीद के साथ ऐसे डर का अजब सा घालमेल है, जिसमें लगता है कि कहीं आप और नीचे ना गिर जायें। यही किम परिवार का भी सबसे आधारभूत भय है, उनके मनोभावों का सच्चा प्रतिनिधि।”

यह कुछ-कुछ गले तक पानी में डूबे होने जैसा एहसास है। गौर कीजिए कि इस पहले ही दृश्य में कैमरे की गति ‘ऊपर से नीचे’ की ओर है। इस प्रयोग को बोंग जून-हो ने आगे कई बार दोहराया है।

इसके विपरीत पूंजीवादी संपन्नता के दूसरे छोर पर खड़े पार्क परिवार के घर तक पहुँचने के लिए हमें साक्षात ऊपर की ओर चढ़ना होता है। यह उर्ध्वाधर गति भौतिक धरातल पर ही नहीं, इसके गहरे सामाजिक अर्थ हैं। किम परिवार के कोलाहल से भरे पड़ोस, जहाँ एक दारूबाज़ हर दूसरे दिन उनके घर के ऊपर रौशनदान पर ही पेशाब करने आ जाता है, के विपरीत यहाँ नीरव शांति है। किम परिवार के छोटे से सेमी-बेसमेंट घर के विपरीत यहाँ घर के चारों सदस्यों का अपना विशाल निजी स्पेस है। निजता है तो अकेलापन भी है। बोंग जून-हो यहाँ इट्रोडक्शन सीन में स्लो मोशन में ‘नीचे से ऊपर’ की ओर कैमरा गति का प्रयोग करते हैं। इसके साथ पहले ही दृश्य में घर के पीछे से निकलती सूरज की सीधी किरणें इस घर की केन्द्रीयता और सर्वोच्चता को बखूबी स्थापित करती हैं। पार्क परिवार का घर यहाँ शहर के उस हिस्से का प्रतीक है, जो ‘आम जनता’ की पहुँच से बाहर है।

कहानी की शुरुआत में ही संयोग से मिला मौका किम परिवार के एक युवा सदस्य को पार्क परिवार के आलीशान घर में एंट्री देता है, और कहानी अपना पहला दिलचस्प मोड़ लेती है। फूंक-फूंककर कदम रखते हुए किम परिवार के चारों सदस्य एक-एक कर पार्क परिवार में विभिन्न किस्म की नौकरियाँ हासिल कर लेते हैं और इस तरह यह दोनों विपरीत ध्रुवों पर खड़े परिवार अचानक एक ही भौतिक स्पेस में आ खड़े होते हैं। ठीक आमने-सामने। पार्क परिवार धनवान है, लेकिन हृदयहीन नहीं है। उनके भोलेपन पर हँसता, उनकी सहृदयता को सराहता किम परिवार जैसे इस सहारे ज़मीन से बाहर निकलकर सूरज की सीधी रौशनी में आ रहा है।

एक दिन पार्क परिवार की अनुपस्थिति में किम परिवार के चारों सदस्य घर की संपन्नता को भोग रहे हैं। यह जैसे ‘वर्जित फ़ल’ चखने का अहसास है। सेंसुअल, विस्मयकारी, रोमांचकारी। शहर के विपरीत छोर पर खड़े इस आलीशान मकान में बैठे वे अपनी पहुँच से बहुत-बहुत दूर के सपने शायद पहली बार देखने की हिम्मत कर रहे हैं। उन्हें लगता है कि वे तर जायेंगे।

यही निर्णायक मौका है। पूंजीवाद की असली सफ़लता यह नहीं है कि वह समाज के चुनिंदा ‘एक प्रतिशत’ एलीट को अकल्पनीय संपन्नता देता है। पूंजीवाद की असली सफ़लता इसमें है कि वह इस चुनिंदा ‘एक प्रतिशत’ के मुकाबले कहीं बड़ी निम्नमध्यमवर्गीय आबादी को यह विश्वास दिलवाने में सफ़ल रहता है कि वह उसके शोषण का यंत्र नहीं, ‘मुक्ति’ का रास्ता है। कि अन्तत: उन्हें भी मौका मिलेगा और अन्तत: वे भी तर जायेंगे।

‘पानी पे लिखा’

और उसी निर्णायक मौके पर, जहाँ सामाजिक स्तरीकरण के दो छोरों पर खड़े पार्क और किम परिवार शायद एक दूसरे के सबसे नज़दीक हैं और लगता है कि जैसे बस अब ये गैर-बराबरी का झीना परदा गिर जायेगा और दोनों एक-दूसरे को छू लेंगे, मिल जायेंगे… घनघोर बरसात आती है। बोंग जून-हो पानी के मैटाफ़र का चमत्कारिक इस्तेमाल करते हुए उसकी द्वैध उपस्थिति के माध्यम से पूंजीवादी सपने द्वारा गढ़ी जा रही इस छद्म बराबरी के सारे काल्पनिक महल गिरा देते हैं। पूरब की सभ्यताओं में जलप्लावन का प्रतीक बहुत गहरे पैठा है, और बोंग जून-हो यहाँ जैसे हमारे अवचेतन के उसी भय को ज़िन्दा कर देते हैं।

पानी किसी के लिए रूमानियत है। पानी किसी के लिए तबाही है। पर सच्चाई यही है कि हमारी नागर सभ्यता के तमाम बराबरी हासिल करने के वादे एक घनघोर बरसात में बदबू से बजबजाती नाली के गंदे पानी में बह जाते हैं। यही आज की दिल्ली की सच्चाई है, यही सिओल की। मुझे यहाँ विशाल भारद्वाज की कमाल के मैटाफ़र्स से भरी फ़िल्म ‘मटरू की बिजली का मंडोला’ याद आती है। एक ओर मूसलाधार बरसात में नवधनाड्य वर्ग मगन ‘रेन डांस’ कर रहा है, वहीं दूसरे ही दृश्य में किसान अपनी खड़ी खेती बह जाने से खून के आँसू रो रहा है। ‘बादल उठ्या री सखी…’

‘पैरासाइट’ के आभासी सीढ़ियों में बंटे शहर की जीती-जागती सीढ़ीनुमा भौतिक संरचना उस आधी रात की मूसलाधार बरसात में पार्क परिवार के आलीशान घर से किम परिवार की वापस अपने दड़बेनुमा घर की ओर अंतहीन पैदल यात्रा में खुलकर सामने आ जाती है। यह वापस ‘ऊपर से नीचे’ की ओर यात्रा है। अभिधा में भी, व्यंजना में भी। उनका अप्राप्य को पाने का सपना डूब रहा है, उनका अपना घर डूब रहा है।

वजह, उन्होंने सपनीले उदार पूंजीवाद के भयावह ज़िन्दा तहखाने अपनी आँखों से देख लिये हैं।

इस निर्णायक बारिश में ‘पैरासाइट’ के इस उर्ध्वाधर गति के सर्वोच्च शिखर पर स्थित संपन्नता के निर्जन टापूनुमा घर के तहखाने में छिपे कुरूप राज़ खुल जाते हैं। जिस पूंजीवादी सपने में सबके लिए ‘मौके’ का वादा था, उसकी असली क्रूर हकीकत जब खुलकर सामने आती है तो इंसान इस वीभत्स सच्चाई का सामना नहीं कर पाता। समाज के जिन दो विपरीत ध्रुवों की हमने ऊपर बात की − ‘हैव्स’ और ‘हैव नॉट्स’ के बीच बंटी दुनिया। सच्चाई यह है कि इस ‘एक प्रतिशत’ अकल्पनीय संपन्नता और बहुमत निम्नमध्यम वर्गीय कामकाजी आबादी की विपरीत जोड़ियों के सभ्य दायरे से बाहर एक तीसरा वर्ग भी मौजूद है − ‘आउटकास्ट्स’ का। जिन्हें इंसानी समाज ने अपनी सभ्यता के दायरों से बाहर कर दिया है। अब यह उनके लिए नागरिक नहीं, उदार पूंजीवाद का अपशिष्ट हैं।

पार्क परिवार के तहखाने की वीभत्स उपस्थितियों से आँखें मत फेरिये। आज यह क्रूर कल्पना जीते-जागते रूप में हमारे देश भारत के उन ‘डिटेंशन कैम्पों’ में रची जा रही है, जिनके बारे में हमारे माननीय प्रधानमंत्री लाखों की भीड़ के सामने सार्वजनिक घोषणा कर चुके हैं कि वे ‘झूठ हैं, झूठ हैं, झूठ हैं’। गौर से देखिये, यही ‘पैरासाइट’ का वो अदृश्य तहखाना है, जहाँ दुनिया की इस सबसे पुरानी गौरवशाली नागर सभ्यता ने नागरिकता के सबसे प्राथमिक नियम भी स्थगित कर दिये हैं।

मुझे कबीर याद आते हैं, जिन्होंने अपनी उलटबाँसियों में पानी के ‘औलोती से बरंडे’ की ओर उल्टा चढ़ जाने की असंभव कल्पना की थी। कबीर की उलटबाँसी में भी यह असंभव कल्पना एक ऐसे दिवास्वप्न का प्रतीक थी जहाँ एक दिन समाज से यह पानी की गति की तरह ही ‘स्वाभाविक’ मान ली गई गैर-बराबरी खत्म हो जाएगी। निर्देशक बोंग जून-हो यहाँ कबीर जैसी असंभव कल्पना रचते हुए पानी की ‘स्वाभाविक गति’ के माध्यम से बताते हैं कि कबीर का स्वप्न आज भी अधूरा है। और उस स्वप्न का संधान पूंजीवाद के इस रूप तो क्या, किसी रूप में संभव नहीं।

‘पैरासाइट’ के अन्त को लेकर बहुत तरह की व्याख्याएं और बहसें मौजूद हैं। मेरी नज़र में निर्देशक बोंग जून-हो हिंसा और उदासी से भरे काव्यात्मक अन्त में पहली बार निम्नमध्यमवर्गीय कामकाजी पहचान को इस दूसरी आउटकास्ट बना दी गई श्रमिक पहचान के आमने-सामने बनाम नहीं, साझेदारी में खड़ा कर एक स्पष्ट स्टेटमेंट देते हैं। स्टेटमेंट, कि एका के बिना मुक्ति नहीं। कि हमारे लिए कोई खड़ा नहीं होगा, अन्तत: खुद हमें ही एक-दूसरे के सम्मान के लिए खड़ा होना होगा। मेरे लिए यहाँ उनकी आत्मघाती हार महत्वपूर्ण नहीं, उनमें पहली बार उभरी साझेदारी की चेतना महत्वपूर्ण है।

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~ साहित्यिक पत्रिका ‘हंस’ में मार्च महीने में प्रकाशित कॉलम ‘आराम नगर’ से

सिनेमा का नमक

phalke at work

बीते महीने हमारा सिनेमा अपने सौंवे साल में प्रवेश कर गया। यह मौका उत्सव का है। किसी भी विधा के इतना जल्दी, जीवन में इतना गहरे समाहित हो जाने के उदाहरण विरले ही मिलते हैं। सिनेमा हमारे ’लोक’ का हिस्सा बना और इसीलिए उसमें सदा आम आदमी को अपना अक्स नज़र आता रहा। कथाएं चाहे अन्त में समझौते की बातें करती रही हों, और व्यवस्था के हित वाले नतीजे सुनाती रही हों, उन कथाओं में मज़लूम के विद्रोह को आवाज़ मिलती रही। लेकिन इस उत्सवधर्मी माहौल में हमें उस नमक को नहीं भूलना चाहिए जिसे इस सिनेमा के अंधेरे विस्तारों में रहकर इसके सर्जकों ने बहाया। के आसिफ़ जैसे निर्देशक जिनका सपना उनकी ज़िन्दगी बन गया और उस एक चहेते सपने का साथ उन्होंने नाउम्मीदी के अकेले रास्तों में भी नहीं छोड़ा। शंकर शैलेन्द्र जैसे निर्माता जिन्होंने अपने प्यारे सपने को खुद तिनका-तिनका जिया और उसके असमय टूटने की कीमत अपनी जान देकर चुकाई।

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द आर्टिस्ट : ज़िन्दगी का गीत

The Artist movie posterकई दफ़े फ़िल्म के सिर्फ़ किसी एक दृश्य में इतना चमत्कार भरा होता है कि वो सम्पूर्ण फ़िल्म से बड़ा हो जाए. तक़रीबन दो घंटे लम्बी निर्देशक Michel Hazanavicius की फ्रांसीसी फ़िल्म ’द आर्टिस्ट’ जिसकी कहानी सन 1927 से शुरु होती है, में ध्वनियां और संवाद नहीं हैं ठीक उन्नीस सौ बीस के दशक की किसी फ़िल्म की तरह. प्रामाणिकता का आग्रह ऐसा कि फ़िल्म उन्हीं संवादपट्टों द्वारा बात करती है जिन्हें आप चार्ली चैप्लिन की फ़िल्मों में देखते थे. वो सिर्फ़ एक वाकया है जहां फ़िल्म में ध्वनि आपको सुनाई देती है, और मैं वादा करता हूँ कि वो क्षण आपको सालों याद रहने वाला है. किसी कविता की हद को छूता यह प्रसंग एक ख़त्म होते हुए दौर को आपके नंगा कर रख देता है और अचानक यह समझ आता है कि उस बीते कल की तमाम खूबियां, खूबसूरती और मासूमियत उस दौर के साथ ही चली गई हैं और अब कभी वापिस नहीं आयेंगी.

’द आर्टिस्ट’ का चमत्कार शायद उसकी कहानी में नहीं. यह मूक फ़िल्मों के दौर के एक ऐसे महानायक की कहानी है जिसे सवाक फ़िल्मों का नया दौर अचानक अप्रासंगिक बना देता है. साथ ही यह एक ऐसी प्रेम कहानी भी है जिसे सिनेमा में कई बार दोहराया गया है. लेकिन ’द आर्टिस्ट’ दरअसल हमें उस मासूमियत की याद दिलाती है जिसे हम मूक फ़िल्मों की तरह अपने विगत में कहीं भूल आए हैं. यह सिनेमा से प्रेम की कहानी है. ’सनसेट बुलिवार्ड’ का फ़ीलगुड वर्ज़न जिसे देखकर आपका मन चार्ली चैप्लिन की वो तमाम फ़िल्में फिर से देखने का करता है जिन्हें आपने ख़रीदने के बाद अपनी दराज़ के किसी निचले ख़ाने में धीरे से सरका दिया था.

और यह संयोग नहीं है कि ’द आर्टिस्ट’ देखते हुए चार्ली याद आते हैं. याद कीजिए उनकी आत्मकथा में आया ’सिटी लाइट्स’ वाला प्रसंग,

“किसी भी अच्छी मूक फ़िल्म में विश्वव्यापी अपील होती थी जो बुद्धिजीवी वर्ग और आम जनता को एक जैसे पसन्द आती थीं. अब ये सब खो जाने वाला था. लेकिन मैं इस बात पर अड़ा हुआ था कि मैं मूक फ़िल्में ही बनाता रहूंगा क्योंकि मेरा ये मानना था कि सभी तरह के मनोरंजन के लिए हमेशा गुंजाइश रहती है. इसके अलावा, मैं मूक अभिनेता, पेंटोमाइमिस्ट था और उस माध्यम में मैं विरल था और अगर इसे मेरी खुद की तारीफ़ न माना जाये तो मैं इस कला में सर्वश्रेष्ठ था. इसलिए मैंने एक और मूक फ़िल्म द सिटी लाइट्स के लिए काम करना शुरु कर दिया.”

लेकिन चार्ली चैप्लिन को ’सिटी लाइट्स’ बनाने के दौरान सवाक फ़िल्मों की कठिन चुनौती का सामना करना पड़ा. उनकी आत्मकथा में उस दौरान हुए कई मज़ेदार अनुभवों की चर्चा है. सवाक फ़िल्में उस दौर का चढ़ता हुआ सूरज थीं और चार्ली धारा के विपरीत तैरने की कोशिश कर रहे थे. फ़िल्म के पहले प्रिव्यू शो को याद करते हुए चार्ली उसके लिए ’भयानक’ जैसा शब्द काम में लेते हैं. वे लिखते भी हैं कि वजह फ़िल्म खराब होना नहीं बल्कि देखनेवालों का ओरियंटेशन बदल जाना है. अब वे सिनेमा के परदे पर ड्रामा देखने आते हैं और मूक कॉमेडी उन्हें असहज कर देती है.


’द आर्टिस्ट’ में ऐसी तमाम रेखाएं हैं जो लौटकर आती हैं और अपना घेरा पूरा करती हैं. फ़िल्म के बीच में कहीं अचानक आपको उसका पहला दृश्य याद आता है और आप उसमें छिपे उस अद्भुत प्रतीक को समझ मन ही मन खिलखिलाते हैं. मूक फ़िल्मों का नायक हमेशा सीढ़ियां उतरता हुआ दिखाई देता है और सवाक फ़िल्मों की सितारा नायिका हमेशा सीढ़ियां चढ़ती हुई. और साथ में मौजूद कुत्ता अपनी सिर्फ़ एक अदा से आपको सितारों के अभिनय की तमाम ऊँचाइयाँ भुला देता है. ’द आर्टिस्ट’ ज़िन्दगी से प्यार की कहानी है और यहां आकर सिनेमा और ज़िन्दगी में फर्क बहुत कम रह जाता है.

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साहित्यिक पत्रिका ‘कथादेश‘ के नवम्बर अंक में आया.

तारे ज़मीं पर : कान फ़िल्मोत्सव

कान फ़िल्मोत्सव का संक्षिप्त परिचय पत्र दोस्त दुष्यंत के आग्रह पर.
आज ही  सुबह डेली न्यूज़ के रविवारीय ’हम लोग’ में प्रकाशित हुआ.

Midnight_in_Parisवैसे तुलनाएं हमेशा ही नाजायज़ कोशिश होती हैं लेकिन फिर भी समझने के लिहाज से कहा जाए तो जैसे ऑस्कर विश्व सिनेमा के ’फ़िल्मफ़ेयर’ हैं वैसे ही कान फ़िल्म फ़ेस्टिवल की जीत ’राष्ट्रीय पुरस्कार’ जैसे किसी सम्मान सरीख़ी है. ऑस्कर जहाँ मूलत: अमेरिकन पुरस्कार हैं और उनमें ज़्यादा बोलबाला हमेशा हॉलीवुड की फ़िल्मों का ही होता है, कान फ़िल्म फ़ेस्टिवल हमारे सामने विश्व सिनेमा की विविधरंगी और कुछ ज़्यादा लोकतांत्रिक तस्वीर प्रस्तुत करता है. लेकिन कान फ़िल्मोत्सव का अर्थ सिर्फ़ इतना भर नहीं. यह सारे संसार की बहु-भाषा भाषी सिनेमाई दुनिया को एक मंच पर इकठ्ठा करता एक ऐसा बहुरंगी मेला है जिसका जोड़ कायनात में कहीं और मिलना मुश्किल है. फ्रांस के दक्षिणी किनारे पर बसे छोटे से शहर कान को हर साल मई के महीने में होने वाले इस अंतरराष्ट्रीय फ़िल्म समारोह ने विश्व पटल पर अविस्मरणीय पहचान दिलवाई है. द्वितीय विश्व युद्ध के ख़ात्मे के साथ ही साल 1946 में इस सालाना समारोह की शुरुआत हुई थी और धीरे-धीरे इसने न केवल यूरोपीय सिनेमा जगत में बल्कि विश्व सिनेमा परिदृश्य पर अपनी अमिट जगह बनाई.

इस साल भी भूमध्यसागर किनारे सिनेमा का यह मेला अपनी पूरी रंगत बिखेरता चल रहा है. इस वर्ष मुख्य स्पर्धा के निर्णायक मंडल के अध्यक्ष रॉबर्ट डि नीरो हैं. प्रेम कहानियों के मास्टर वुडी एलन की ’मिडनाइट इन पेरिस’ से शुरु हुए इस सालाना जलसे में स्पेनिश पैद्रो अल्मोदोवार की ’द स्किन आई लिव इन’, लार्स वॉन ट्रायर की ’मैलेंकॉलिया’ तथा सीन पेन और ब्रैड पिट जैसे अभिनेताओं से सजी अमेरिकन फ़िल्म ’द ट्री ऑफ़ लाइफ़’ मुख्य स्पर्धा वर्ग में शामिल हैं. इनके अलावा कोरिया के जाने माने निर्देशक किम-की-डुक और अमेरिकन गस वान सांत की नई फ़िल्में Un Certain regard खंड में दिखाई जायेंगी. कान फ़िल्मोत्सव इस बार विशेष पहल के तहत उन दो ईरानियन फ़िल्मकारों को सम्मानित कर रहा है जिन्हें ईरान की सरकार ने एक तानाशाही फ़रमान सुनाकर कैद में डाल रखा है. इसी सम्मान के तहत जफ़र पनाही और मोहम्मद रसूलोव की फ़िल्में ’गुडबाय’ और ’दिस इज़ नॉट ए फ़िल्म’ महोत्सव में दिखाई जायेंगी. यह एक गैर लोकतांत्रिक सत्ता के विपक्ष को रचता कलात्मक प्रतिरोध है. यह याद दिलाता है 2004 की उस शाम की जब क्वेन्टिन टेरेन्टीनो की अध्यक्षता वाली निर्णायक समिति ने माइकल मूर की ’फ़ेरेनहाइट 9/11’ को समारोह की सर्वश्रेष्ठ फ़िल्म चुनकर तत्कालीन अमानवीय अमेरिकन सत्ता और उनके उदंड सिपहसालार को प्रतिरोध का रचनात्मक काला झंडा दिखाया था.

वैसे इस बार का समारोह एक बड़े विवाद के भी नाम रहा जब ’मैलेंकॉलिया’ के निर्देशक लार्स वॉन ट्रायर की हिटलर को लेकर कही गई कुछ विवादित टिप्पणियों ने उन्हें समारोह से निष्कासित करवा दिया. यह कान में अपनी तरह का पहला मामला है. हालांकि आयोजकों द्वारा कहा गया कि उनकी फ़िल्म मुख्य स्पर्धा में बनी रहेगी.

हिन्दुस्तानी सिनेमा विश्व पटल पर अब भी अपनी सही जगह और पहचान की तलाश में है, और कान फ़िल्मोत्सव भी इसका अपवाद नहीं है. लेकिन मज़ेदार बात यह जानना है कि कान फ़िल्मोत्सव के पहले ही साल भारतीय सिनेमा ने वहाँ अपनी धमक सुनवाई थी. ख्वाजा अहमद अब्बास की लिखी और चेतन आनंद द्वारा निर्देशित ’नीचा नगर’ को उन्नीस सौ छियालीस में हुए कान फ़िल्मोत्सव में ’ग्रैंड प्रिक्स’ पुरस्कार से नवाजा गया था. आगे भी सत्यजित राय और एम. एस. सथ्यू जैसे निर्देशकों ने सर्वश्रेष्ठ फ़िल्म सम्मान के लिए नामांकन पाया, लेकिन ’पाल्म डे’ओर’ (Palme d’Or) या कहें गोल्डन पाल्म भारतीय निर्देशकों से कुछ दूरी पर ही रहा. वैसे कान के गोल्डन पाल्म का इतिहास सिनेमा के पुराने धुरंधरों फ़ेलिनी, कुरोसावा और कोपोला से लेकर आधुनिक सिनेमाई उस्तादों सोडरबर्ग, लार्स वॉन ट्रायर और माइकल हनेके के नामों से जगमगाता रहा है.

Piraviउन्नीस सौ अठत्तर में कान फ़िल्मोत्सव में एक नया वर्ग Un Certain regard नाम से शुरु किया गया. यह विश्व सिनेमा में हो रहे नए और चुनौतीपूर्ण काम को उत्सव के पटल पर रेखांकित करने का प्रयास था. इस वर्ग में हिन्दुस्तानी सिनेमा ने लगातार अपनी उपस्थिति दर्ज करवाई है. मणि कौल की फ़िल्म ’सतह से उठता आदमी’, मृणाल सेन की ’खंडहर’, शाजी करुण की ’पीरावी’ और ’वानप्रस्थम’, गौतम घोष की ’गुड़िया’ तथा पिछले साल आई विक्रमादित्य मोटवाने की ’उड़ान’ जैसी कई फ़िल्मों ने इस खंड में स्थान पाया.

कान जैसे उत्सवों में हिन्दुस्तानी सिनेमा अपनी ठोस पहचान क्यों नहीं बना पाता? अडूर गोपालकृष्णन (जिनकी फ़िल्म ’इलिप्पाथायम’ 1982 के कान फ़िल्मोत्सव के लिए चुनी गई थी) इस कथन को आलोचनात्मक नज़र से देखते हैं. उनका कहना है, “कान जैसे फ़िल्मोत्सव का सिनेमाई नज़रिया बड़ा यूरोपीय-अमेरिकी झुकाव वाला होता है जो हमारे सिनेमा से काफ़ी अलग है. न तो हम जापान जैसे ’सुदूर-पूर्व’ वाले देश हैं और न ही पश्चिम. हम कहीं बीच में अटके हैं उनकी नज़र में. हमारी संस्कृति की सही समझ पश्चिम में अब भी काफ़ी कम है. और सिनेमा की तारीफ़ तो उस देश की संस्कृति और लोगों के बारे में समझ से ही निकलती है.”

अनुराग कश्यप का कहना है कि विश्व सिनेमा पटल पर हिन्दी सिनेमा की ऐसी छवि बनी हुई है जैसे वो कोई मसखरा हो. लेकिन सच में ऐसा है नहीं. और अब हिन्दी सिनेमा भी केवल ’नाच-गाने’ वाला सिनेमा नहीं रहा. वैसे इस छवि को पोषित करने में कुछ गलती हमारी भी है. जैसे इस साल कान में दिखाई गई शेखर कपूर द्वारा बनाई फ़िल्म “बॉलीवुड : ग्रेटेस्ट लव स्टोरी एवर टोल्ड” हिन्दी सिनेमा की कुछ ऐसी ही स्टीरियोटाइप छवि प्रस्तुत करती है और इस वजह से उसे काफ़ी आलोचनाओं का सामना भी करना पड़ा है.