ख़रगोश

‘ख़रगोश’ एक अद्भुत चाक्षुक अनुभव है. मुख्यधारा के सिनेमा से अलग, बहुत दिनों बाद इस फ़िल्म को देखते हुए आप परदे पर निर्मित होते वातावरण का रूप, रंग, गंध महसूस करते हैं. इसकी वजह है फ़िल्म बेहतरीन कैमरावर्क और पाश्वसंगीत. निर्देशक परेश कामदार की बनाई फ़िल्म ’ख़रगोश’ कथाकार प्रियंवद की एक हिन्दी कहानी पर आधारित है. काम इच्छाओं की किशोर जीवन में पहली आमद का एक व्यक्तिगत दस्तावेज़. जैसा परेश कामदार अपने निर्देशकीय वक्तव्य में लिखते हैं,

“ख़रगोश एक दस साला लड़के के साथ ऐसा सफ़र है जिसमें वह इंद्रियबोध के नए बियाबान में कदम रख रहा है. कहीं यह कथा कामना के भंवर से उपजे तनावों की भी बात करती है. सिनेमाई भाषा के संदर्भ में यह एक ’सादा कविता’ जैसी है. कथा के भौतिक वातावरण में से उठाए चित्र और ध्वनियाँ एक ऐसा अनुभव संसार रचते हैं जो लड़के के अनुभव की जटिलता और आवेग हमारे सामने खोलता है.”

कहानी के केन्द्र में है बंटू, एक दल साल का लड़का, याने हमारा कथानायक. उसकी दुनिया घर, स्कूल, माँ के चूल्हे की रोटियों, कटपुतली वाले के तमाशे के बीच फैली है. उस फ़ीके से कस्बाई माहौल में, बंटू के घर और स्कूल के बीच के अनमने चक्करों के बीच उसके सबसे अच्छे साथी हैं अवनीश भैया. वो उनके साथ पतंग उड़ाता है. एक दिन बंटू भैया उसे अपने साथ बाज़ार ले जाते हैं. बंटू उनकी आवेगभरी प्रेम-कहानी का अकेला गवाह है. उनके संदेसे लाना, चिठ्ठियाँ पहुँचाना, मिलने के अवसरों को सुलभ बनाना बंटू को उत्सुक्ता से भर देता है.

लेकिन बंटू भी उमर के नाज़ुक दौर में है. केवल संदेसेवाला बने रह जाना उसे अख़रने लगता है. किशोरमन अब अवनीश में दोस्त और बड़े भाई की जगह प्रतिद्वंद्वी देखने लगा है. वो इस प्रेम-कहानी का एक सहायक किरदार नहीं, कथानायक होना चाहता है. एक विचारोत्तेजक अंत में परेश हमें किशोरमन के अनछुए पहलुओं से परिचित कराते हैं. ये ऐसे अंधेरे कोने हैं जिन्हें हिन्दी सिनेमा ने कम ही छुआ है. ’ख़रगोश’ चाक्षुक बिम्बों और रेखांकित करने योग्य घ्वनि संकेतों द्वारा किशोर मन के नितांत व्यक्तिगत अनुभवों से तैयार हुआ एक विहंगम कोलाज रचती है.

’नैनीताल फ़िल्म उत्सव’ की स्मारिका के लिए लिखा गया ’ख़रगोश’ फ़िल्म का परिचय.

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ओशियंस में गुलज़ार और विशाल की जुगलबन्दी

kuch aur nazmeinओशियंस में गुलज़ार और विशाल भारद्वाज साथ थे. बात तो ’कमीने’ पर होनी थी लेकिन शुरुआत में कुछ बातें संगीत को लेकर भी हुईं. बातों से सब समझ आता है इसलिए हर बात के साथ उसे कहने वाले का नाम जोड़ना ज़रूरी नहीं लगता. सम्बोधन से ही सब साफ़ हो जाता है. वहीं गुलज़ार ने यह भी बताया कि अब पंचम के बाद उनके साथ सबसे ज़्यादा गीत बनाने वाले विशाल ही हैं. इन गीतों में ’छोड़ आये हम वो गलियाँ का नॉस्टेल्जिया भी शामिल है और ’जंगल जंगल बात चली है’ का बचपना भी. “धम धम धड़म धड़ैया रे” की गगन गुंजाती ललकार भी और ’एश्ट्रे’ की नश्वरता और मृत्युबोध भी. ’रात के ढाई बजे की उत्सवप्रिय निडरता से ’कश लगा’ की ’घर फूँक, तमाशा देख’ प्रवृत्ति भी. यह जोड़ी मिलकर मेरी नज़र में पिछले दशक के कुछ सबसे यादगार गीतों के लिए ज़िम्मेदार है. कुछ झलकियाँ पेश हैं.

  • गुलज़ार साहब की एक किताब है “कुछ और नज़्में”. एक दौर था जब मुझे इस किताब की सारी नज़्में ज़बानी याद हुआ करती थीं और आप बीच में कहीं से भी कोई लाइन बोल दें और मैं आगे की पूरी नज़्म सुना दिया करता था. मेरे पिता बार-बार मेरे सामने गुलज़ार साहब की आलोचना करते थे. बाद में मुझे समझ आया कि इस तरह वो मुझे छेड़ा करते थे. मैं मुम्बई आया ही यह सोचकर था कि बस गुलज़ार साहब के साथ एक बार काम कर पाऊँ और मेरा करियर पूरा हो जाएगा.

  • विशाल के साथ मेरे शुरुआती काम “चड्डी पहन के फूल खिला है” की बहुत तारीफ़ हुई है. उसके लिए भी मुझे तब बहुत-कुछ सुनना पड़ा था. कहा गया कि गाने में ये ’चड्डी’ शब्द का इस्तेमाल कुछ ठीक नहीं. यहाँ तक सलाह दी गई कि इस चड्डी को बदल कर ’लुंगी’ कर लीजिए! मैंने वो करने से इनकार कर दिया. अरे भई मोगली की एक इमेज है और उसके हिसाब से ही गाना लिखा गया है. उस वक़्त जया जी चिल्ड्रंस फ़िल्म सोसायटी की अध्यक्ष हुआ करती थीं. आखिर उनके अस्तक्षेप से वो गाना आगे बढ़ा.

  • उस दौर में ही हमने साथ एक एनीमेशन “टॉम एंड जैरी” के लिये भी गाने किए थे. उसका एक गाना बहुत ख़ास है. हमारे यहाँ माँ के लिए तो बहुत गाने लिखे गए लेकिन पापा के लिए गाने ढूँढे से भी नहीं मिलते. गुलज़ार साहब के लिखे उस गाने के बोल शायद कुछ यूँ थे, “पापा आओ मैं तुम्हारे पास हूँ, पापा आओ मैं बहुत उदास हूँ. लाल कॉपी में तुम्हारी हिदायतें, नीली कॉपी में मेरी शिकायतें. पापा आओ और हिसाब दो.”

  • विशाल मेरे गाने ख़ारिज भी कर देते हैं. कुछ जम नहीं रहा, कुछ और, कुछ और कह कहकर. और ये अपने गाने भी ख़ारिज करते रहते हैं. बोरी भर नहीं तो कम से कम तकिया भर गाने तो मेरे इनके यहाँ पड़े मिल ही जायेंगे!
  • मुझे सेलेब्रेशन के गाने बनाने में बहुत दिक्कत होती है. उस वक़्त भी हुई थी और आज भी होती है. शायद मेरी तबियत ही उदास है तो उदास गाने ही बनते हैं! (चप्पा चप्पा का संदर्भ आने पर विशाल ने कहा)
  • अभी तीन-चार दिन से ’इश्किया’ के लिए एक ऐसे ही मूड का गाना बनाने की कोशिश में लगा था लेकिन कुछ बनता ही नहीं था. फिर गुलज़ार साहब ने कहा, “तुम हिट गाना बनाने की कोशिश करोगे तो नहीं बनेगा. लेकिन तुम गाना बनाने की कोशिश करोगे तो बन जाएगा.”
  • चप्पा चप्पा के दौरान तो यह बार-बार हुआ कि मैं डमी लिरिक्स देता था और विशाल उन्हें ही लिरिक्स में बदल देता था. ’चप्पा चप्पा’ गीत में ऐसे ही आया. मैंने कहा कि गाने की शुरुआत तो कुछ ऐसी होनी चाहिए जैसे ’चप्पा चप्पा चरखा चले’ और विशाल ने कहा कि बस आप तो यही दे दीजिए. यूँ ही मेरा कहा “गोरी, चटख़ोरी जो कटोरी से खिलाती थी” इसने गीत के बोल में बदल दिया.

“शंकर शैलेन्द्र को हिन्दी सिनेमा का सबसे बड़ा गीतकार कहा जा सकता है.” -गुलज़ार.

poet-gulzarइस बार के ओशियंस में प्रस्तुत गुलज़ार साहब का पर्चा “हिन्दी सिनेमा में गीत लेखन (1930-1960)” बहुत ही डीटेल्ड था और उसमें तीस और चालीस के दशक में सिनेमा के गीतों से जुड़े एक-एक व्यक्ति का उल्लेख था. वे बार-बार गीतों की पंक्तियाँ उदाहरण के रूप में पेश करते थे और जैसे उस दौर का चमत्कार फिर से जीवित कर देते थे. पेश हैं गुलज़ार साहब के व्यख्यान की कुछ झलकियाँ :-

  • एक पुराना किस्सा है. एक बार ओम शिवपुरी साहब ने अपने साहबज़ादे को एक चपत रसीद कर दी. अब कर दी तो कर दी. साहबज़ादे ने जवाब में अपने पिता से पूछा कि क्या आपके वालिद ने भी आपको बचपन में चपत रसीद की थी? तो उन्होंने जवाब में बताया हाँ. और उनके पिता ने भी.. फिर जवाब मिला हाँ. और उनके पिता ने भी? शिवपुरी साहब ने झल्लाकर पूछा आखिर तुम जानना क्या चाहते हो? तो जवाब में उनके साहबज़ादे ने कहा, “मैं जानना चाहता हूँ कि आख़िर यह गुंडागर्दी शुरु कहाँ से हुई!” तो इसी तरह मैं भी अपनी रोज़ी-रोटी के लिए जो काम आजकल करता हूँ इसकी असल शुरुआत कहाँ से हुई इसे जानने के लिए मैं सिनेमा के सबसे शुरुआती दौर की यात्रा पर निकल पड़ा…
  • आप शायद विश्वास न करें लेकिन सच यह है कि हिन्दी सिनेमा में गीतों की शुरुआत और उनका गीतों से अटूट रिश्ता बोलती फ़िल्मों के आने से बहुत पहले ही शुरु हो गया था. साइलेंट सिनेमा के ज़माने में ही सिनेमा के पर्दे के आगे एक बॉक्स में एक उस्ताद साहब अपने शागिर्दों के साथ बैठे रहते थे और पूरे सिनेमा के दौरान मूड के मुताबिक अलग-अलग धुनें और गीत-भजन बजाया-गाया करते थे. इसकी दो ख़ास वजहें भी थीं. एक तो पीछे चलते प्रोजैक्टर का शोर और दूसरा सिनेमा के आगे दर्शकों में ’पान-बीड़ी-सिगरेट’ बेचने वालों की ऊँची हाँक. लाज़मी था कि गीत-संगीत इतने ऊँचे स्वर का हो कि ये ’डिस्टरबिंग एलीमेंट’ उसके पीछे दब जाएं. इतनी सारी अलग-अलग आवाज़ें सिनेमा हाल में एक साथ, वास्तव में यह साइलेंट सिनेमा ही असल में सबसे ज़्यादा शोरोगुल वाला सिनेमा रहा है.
  • इन्हीं साज़ बजाने वालों में एक हुआ करते थे मि. ए.आर. कुरैशी जिन्हें आज आप और हम उस्ताद अल्लाह रक्खा के नाम से और ज़ाकिर हुसैन के पिता की हैसियत से जानते हैं. उन्होंने मुझे कहा था कि मैंने तो कलकत्ता में सिनेमा के आगे चवन्नी में तबला बजाया है. यूँ ही जब ये सिनेमा के आगे बजने वाले गीत लोकप्रिय होने लगे तो आगे से आगे और गीतों की फरमाइश आने लगीं. सिनेमा दिखाने वालों को भी समझ आने लगा कि भई उस सिचुएशन में वहाँ पर तो ये गीत बहुत जमता है. इस तरह गीत सिचुएशन के साथ सैट होने लगे. इसी बीच किसी फरमाइश के वशीभूत मुंशी जी को किसी लोकप्रिय मुखड़े का सिचुएशन के मुताबिक आगे अंतरा लिख देने को कहा गया होगा, बस वहीं से मेरी इस रोज़ी-रोटी की शुरुआत होती है.
  • साल उन्नीस सौ सैंतालीस वो सुनहरा साल था जिस साल आधा दर्जन से ज़्यादा सिनेमा के गीतकार खुद निर्देशक के रूप में सामने आए. इनमें केदार शर्मा और मि. मधोक जैसे बड़े नाम शामिल थे.
  • केदार शर्मा जितने बेहतरीन निर्देशक थे उतने ही बेहतरीन शायर-गीतकार भी थे. अफ़सोस है कि उनके इस रूप की चर्चा बहुत ही कम हुई है. उनकी इन पंक्तियों, “सुन सुन नीलकमल मुसकाए, भँवरा झूठी कसमें खाए.” जैसा भाव मुझे आज तक कहीं और ढूँढने से भी नहीं मिला. उस कवि में एक तेवर था जो उनके लिखे तमाम गीतों में नज़र आता है.
  • कवि प्रदीप चालीस के दशक का मील स्तंभ हैं. उनके गीतों में हमेशा नेशनलिज़्म का अंडरटोन घुला देखा जा सकता है. इसका सबसे बेहतर उदाहरण है आज़ादी से पहले आया उनका गीत “दूर हटो ए दुनियावालों हिन्दुस्तान हमारा है.” और इसके अलावा उनके लिखे गीत “ए मेरे वतन के लोगों, ज़रा आँख में भर लो पानी” से जुड़ा किस्सा तो सभी को याद ही होगा. जिस गीत को सुनकर पंडित जी की आँखों में आँसू आ गए हों उसके बारे में और क्या कहा जाये.
  • ग़ालिब के कलाम का हिन्दी सिनेमा में सर्वप्रथम आगमन होता है सन 1940 में और नज़्म थी, “आह को चाहिए एक उम्र असर होने तक”. चालीस के दशक में ही हिन्दी सिनेमा फ़ैज़ की नज़्म को और टैगोर की कविता को गीत के रूप में इस्तेमाल कर चुका था.
  • बिना शक शंकर शैलेन्द्र को हिन्दी सिनेमा का आज तक का सबसे बड़ा लिरिसिस्ट कहा जा सकता है.  उनके गीतों को खुरच कर देखें और आपको सतह के नीचे दबे नए अर्थ प्राप्त होंगे. उनके एक ही गीत में न जाने कितने गहरे अर्थ छिपे होते थे.
  • जैसे सलीम-जावेद को इस बात का श्रेय जाता है कि वो कहानी लेखक का नाम सिनेमा के मुख्य पोस्टर पर लेकर आये वैसे ही गीत लेखन के लिए यह श्रेय साहिर लुधियानवी को दिया जाएगा.
  • gulzarसाहिर भी अपने विचार को लेकर बड़े कमिटेड थे. वो विचार से वामपंथी थे और वो उनके गीतों में झलकता है. गुरुदत्त की “प्यासा” उनके लेखन का शिखर थी.
  • एक गीत प्रदीप ने लिखा था “देख तेरे इंसान की हालत क्या हो गई भगवान” और इसके बाद इसी गाने की पैरोडी साहिर ने लिखी जो थी, “देख तेरे भगवान की हालत क्या हो गई इंसान”!
  • इस पूरे दौर में राजेन्द्र कृष्ण को नज़र अंदाज़ नहीं किया जा सकता. तक़रीबन तीन दशक तक दक्षिण भारत के स्टूडियोज़ से आने वाली हर दूसरी फ़िल्म में उनके गीत होते थे. उनके गीत सीधा अर्थ देने वाले होते थे, जैसे संवादों को ही गीतों में ढाल दिया हो.
  • मेरा प्रस्ताव यह है कि जहाँ हम पचास के दशक को हिन्दी सिनेमा के गीतों का सुनहरा समय मानते हैं तो वहाँ हमें इस सुनहरे दौर में तीस के दशक और चालीस के दशक को भी शामिल करना चाहिए. यही वह दौर है जब इस सुनहरे दौर की नींव रखी जा रही थी. तेज़ी से नए-नए बदलाव गीत-संगीत में हो रहे थे और तमाम नए उभरते गीतकार-संगीतकार-गायक अपने पाँव जमा रहे थे. लता आ रहीं थीं, बर्मन आ रहे थे, साहिर आ रहे थे. यह पूरा चालीस का दशक एक बहुत ही समृद्ध परम्परा है जिसे हमारे हाथ से छूटना नहीं चाहिए.

इसे कहते हैं धमाकेदार शुरुआत!

IMG_1601इस बार के ओशियंस में लाइफ़ टाइम अचीवमेंट पुरस्कार से सम्मानित हुए गुलज़ार साहब समारोह के डायरेक्टर जनरल मणि कौल के हाथों तैयार किया प्रशस्ति पत्र ग्रहण कर बैठने को हुए ही थे कि अचानक मंच संचालक रमन पीछे से बोले, “गुलज़ार साहब, हमने आपके लिए कुछ सरप्राइज़ रखा है!” और फिर अचानक परदे के पीछे से आयीं रेखा भारद्वाज. उन्हें यूँ देखकर एक बार तो गुलज़ार साहब के साथ बैठे विशाल भारद्वाज भी ’चौंक गए’ से लगे. धूसर किरदारों वाला सिनेमा रचने वाले ये दोनों कलाकार आज भी हमेशा की तरह अपने पसन्दीदा ब्लैक एंड वाइट के विरोधाभासी परिधानों को धारण किए मंच पर उपस्थित थे. रेखा भी ख़ाली हाथ नहीं आई थीं. उनके हाथ में माइक था और उसके साथ ही शुरु हुआ गुलज़ार के कुछ अमर गीतों का उनकी जादुई उपस्थिति में पुनर्पाठ. तुझसे नाराज़ नहीं ज़िन्दगी… दिल हूम हूम करे…

गुलज़ार साहब ने कहा कि आते हुए जो सिनेमा कि गलियाँ मैंने इस समारोह स्थल के अहाते में देखीं उनसे गुज़रते हुए अहसास हुआ कि वक़्त कैसे पंख लगाकर उड़ जाता है. उन्होंने बताया कि बाहर लगे बंदिनी के उस पोस्टर वाले सीन का क्लैप मैंने दिया था. जो कुछ पाया है अब तक, जो कुछ सहेजा है उसे आगे भी यूँ ही बाँटते रहने का वादा कर गुलज़ार साहब ने सबका धन्यवाद किया. सब जैसे सपनों की सी बातें थीं. संचालक रमन भी रह-रह कर समारोह का क्रम भूल-भूल जाते थे. समाँ कैसा मतवाला था इसका अन्दाज़ा आप इस बात से लगाइये कि गौरव ए. सी. की तेज़ी से परेशान हो टॉयलेट में घुसा तो उसने अपने एक ओर गुलज़ार को और दूसरी ओर विशाल भारद्वाज को हल्का होते पाया. तमाम कैमरे निरर्थक साबित हुए और माहौल को हमने अपने भीतर उतरते पाया. जैसे दो दुनियाओं के बीच का फ़र्क, लम्बा फ़ासला अचानक मिट गया हो. जादू हो जादू.

ग्यारहवें ओशियंस की ओपनिंग फ़िल्म थी रोमानिया की ’हुक्ड’. एक प्रेमी जोड़े की कहानी किसका कालखंड कुल-जमा एक शाम भर का था. बदहवास कैमरा जैसे दोनों पात्र उसे बदल-बदल कर चला रहे हों. संवादों में बनता तनाव और पात्रों के बीच लगातार उस तनाव को उठाकर ख़ुद से दूर फैंक देने की असफल जद्दोजहद. और फिर एक अनचाहे एक्सीडेंट के साथ फ़िल्म में आगमन होता है तीसरी पात्र का, एक प्रॉस्टीट्यूड. फ़िल्म की कहानी इन्हीं तीन किरदारों के सहारे आगे बढ़ती है. ’हुक्ड’ रिश्तों में ईमानदारी और विश्वास की ज़रूरत को दर्शाती फ़िल्म है. यह उन तनावों की फ़िल्म है जिन्हें हम अपनी ज़िन्दगी में खुशी पाने की चाहत में छोटे-छोटे समझौते कर खुद अपने ऊपर ओढ़ लेते हैं. जैसा फ़िल्म की नायिका ने फ़िल्म की शुरुआत से पहले अपने वक्तव्य में कहा था कि हो सकता है यह बहुत दूर देश की कहानी है लेकिन इसके पात्रों और उन पर तारी तनावों से आप ज़रूर रिलेट कर पायेंगे.

इस बार ओशियंस के पिटारे में फ़िल्में कम चर्चाएं ज़्यादा हैं. आगे कतार में कुछ बेहतरीन सेशन विशाल भारद्वाज, अनुराग कश्यप, ज़ोया अख़्तर, इम्तियाज़ अली, राजकुमार गुप्ता और दिबाकर बैनर्जी के साथ प्रस्तावित हैं. इसके अलावा आप आने वाले दिनों में ’हरीशचन्द्र फ़ैक्ट्री’, ’ख़रगोश’, ’आदमी की औरत और अन्य कहानियाँ’ जैसी हिन्दुस्तानी और बहुत सी चर्चित विदेशी फ़िल्मों का हाल भी जान पायेंगे. तो खेल शुरु किया जाए!

सिद्धार्थ- द प्रिजनर : महानगरीय सांचे में ढली नीतिकथा

मूलत: तहलका समाचार के फ़िल्म समीक्षा खंड ’पिक्चर हॉल’ में प्रकाशित

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बचपन में पंचतंत्र और हितोपदेश की कहानियाँ सुनकर बड़ी हुई हिन्दुस्तान की जनता के लिए ’सिद्दार्थ, द प्रिज़नर’ की कहानी अपरिचित नहीं है. सोने का अंडा देने वाली मुर्गी और व्यापारी की कहानी के ज़रिये ’लालच बुरी बला है’ का पाठ बचपन में हम सबने सीखा है. इस तरह की कहानियों को हम नीति कथायें (मोरल टेल) कहते हैं. सिद्दार्थ और मोहन की कहानी एक ऐसी ही नीति कथा का मल्टीप्लैक्सीय संस्करण है जो अपना रिश्ता ऋग्वेद और बुद्धनीति से जोड़ती है. फ़िल्म के मुख्य किरदार रजत कपूर के नाम ’सिद्दार्थ’ में भी यही अर्थ-ध्वनि व्यंजित होती है. कहानी की सीख है, “इच्छाएं ही इंसान के लिए सबसे बड़ा बंधन हैं. इच्छाओं से मुक्ति पाकर ही इंसान सच्ची आज़ादी पाता है.”

मैंने यह फ़िल्म पिछले साल ’ओशियंस’ में देखी थी जहाँ रजत कपूर को इस फ़िल्म के लिए सर्वश्रेष्ठ अभिनेता का पुरस्कार मिला था. ’ओशियंस’ में यह उन हिन्दुस्तानी फ़िल्मों में से एक थी जिसका टिकट मैंने समारोह शुरु होते ही सबसे पहले खरीदा था. वजह? ऑन पेपर, इस फ़िल्म का मूल प्लॉट हिन्दी सिनेमा इतिहास में आई थ्रिलर फ़िल्मों में अबतक के सबसे आकर्षक प्लॉट्स में से एक है. कुछ ही समय पहले जेल से रिहा हुए और अब अपनी ज़िन्दगी नए सिरे से शुरु करने की कोशिश में लगे लेखक सिद्दार्थ रॉय की नई किताब की इकलौती पांडुलिपि सायबर कैफ़े चलानेवाले मोहन (सचिन नायक) के रुपयों से भरे ब्रीफ़केस से बदल जाती है. सिद्दार्थ अपनी किताब को लेकर बैचैन है वहीं मोहन की जान उस पैसों से भरे ब्रीफ़केस में अटकी है जो अब सिद्दार्थ के पास है. इंसान की इच्छाएं उसे क्या-क्या नाच नचाती हैं. आगे इस कहानी में प्यार, रोमांच, धोखा, लालच, झूठ और मौत सभी कुछ है. लेकिन इस चमत्कारिक प्लॉट के बाद भी कुछ है जो अटका रह जाता है. थ्रिलर होते हुए भी यह फ़िल्म रजत कपूर की ही पिछली फ़िल्म मिथ्या की तरह अंत में आपके ऊपर एक उदासी का साया छोड़ जाती है. शुरुआत में आपको यह फ़िल्म एक थ्रिलर होने के नाते रफ़्तार में धीमी लग सकती है लेकिन इच्छाओं के पीछे भागती जिस जिन्दगी की व्यर्थता को दर्शाने की कोशिश फ़िल्म कर रही है उस तक पहुँचने के लिए यह कारगर हथियार है. जेल से छूटने के बाद सिद्दार्थ की रिहाइशगाह के शुरुआती सीन मेरे मन में फ़िर कभी न उगने के लिए डूबते सूरज का सा प्रभाव छोड़ते हैं. मेरे लिए यह फ़िल्म औसत से एक पायदान ऊपर खड़ी है. छोटी सी कहानी जिसकी चाहत एक बड़ा कैनवास रचकर कुछ बड़ा कहना नहीं. ओ. हेनरी और मोपांसा की लघु कथाओं की याद दिलाती यह फ़िल्म सिनेमा हाल से चाहे अनपहचानी ही निकल जाये लेकिन लेकिन आनेवाले वक़्तों में हमारे घरों में मौजूद और धीरे-धीरे बड़े हो रहे डी.वी.डी. संग्रह का हिस्सा ज़रूर बनेगी ऐसी मुझे उम्मीद है.

विज्ञापन जगत से सिनेमा में आये प्रयास गुप्ता के लिये सबसे बड़ी तारीफ़ है ’बैंग-ऑन’ कास्टिंग. रजत कपूर को देखकर तो मुझे शुरु से ही लगता रहा है कि वे तो बने ही लेखक का रोल करने के लिए हैं! वो इस रोल में इतने फ़िट हैं कि आप उनकी बेहतरीन अदाकारी को नोटिस तक नहीं करते. लेकिन अदाकारी में कमाल किया है अपने दांतों से पूरे महल को रौशन करते रहे ’हैप्पीडेंट वाइट फ़ेम’ सचिन नायक ने. सच्चाई, ईमानदारी, नैतिकता और भौतिक सुख के बीच छिड़ी जंग के निशान आप उसके चेहरे पर पढ़ सकते हैं. फ़िल्म की उदासी और निस्सहायता उनके किरदार से ही सबसे बेहतर तरीके से व्यंजित होती है. प्रदीप सागर के रूप में एक बार फिर हम ’भाई’ का ’दूसरा’ चेहरा देखते हैं और मुझे ’सत्या’ याद आती है. लेकिन ‘सिद्दार्थ’ रामू की ’सत्या’ की तरह बड़े कैनवास वाली ’मैग्नमओपस’ नहीं है. यह ज़िन्दगी की कतरन है, ’स्लाइस ऑफ़ लाइफ़’ जो बात तो छोटी कहती है लेकिन पूरी साफ़गोई से कहती है.

मोहनदास

विचित्र प्रोसेशन,
गंभीर क्विक मार्च …
कलाबत्तूवाली काली ज़रीदार ड्रेस पहने
चमकदार बैंड-दल-
अस्थि-रूप, यकृत-स्वरूप,उदर-आकृति
आँतों के जालों-से उलझे हुए, बाजे वे दमकते हैं भयंकर
गंभीर गीत-स्वन-तरंगें
ध्वनियों के आवर्त मँडराते पथ पर.
बैंड के लोगों के चेहरे
मिलते हैं मेरे देखे हुओं से,
लगता है उनमें कई प्रतिष्ठित पत्रकार
इसी नगर के ! !
बड़े-बड़े नाम अरे, कैसे शामिल हो गए इस बैंड-दल में ! !
उनके पीछे चल रहा
संगीन-नोकों का चमकता जंगल,
चल रही पदचाप, तालबद्ध दीर्घ पाँत
टैंक-दल, मोर्टार, आर्टिलरी, सन्नद्ध,
धीरे-धीरे बढ़ रहा जुलूस भयावना,
सैनिकों के पथराये चेहरे
चिढ़े हुए, झुलसे हुए, बिगड़े हुए गहरे !
शायद, मैंने उन्हें पहले कहीं तो भी देखा था.
शायद, उनमें मेरे कई परिचित ! !
उनके पीछे यह क्या ! !
कैवेलरी ! !
काले-काले घोड़ों पर खाकी मिलिट्री ड्रेस,
चेहरे का आधा भाग सिंदूरी गेरुआ
आधा भाग कोलतारी भैरव,
भयानक ! !
हाथों में चमचमाती सीधी खड़ी तलवार
आबदार ! !
कंधे से कमर तक कारतूसी बैल्ट है तिरछा.
कमर में, चमड़े के कवर में पिस्तौल,
रोषभरी एकाग्र दृष्टि में धार है,
कर्नल, ब्रिगेडियर, जनरल, मार्शल
कई और सेनापति सेनाध्यक्ष
चेहरे वे मेरे जाने-बूझे-से लगते,
उनके चित्र समाचार-पत्रों में छपे थे,
उनके लेख देखे थे,
यहाँ तक कि कवितायेँ पढ़ी थीं
भई वाह !
उनमें कई प्रकांड आलोचक, विचारक, जगमगाते कविगण
मंत्री भी, उद्योगपति भी और विद्वान्
यहाँ तक कि शहर का हत्यारा कुख्यात
डोमाजी उस्ताद
बनता है बलबन
हाय, हाय ! !
यहाँ ये दीखते हैं भूत-पिशाच-काय.
भीतर का राक्षसी स्वार्थ अब
साफ़ उभर आया है,
छुपे हुए उद्देश्य
यहाँ निखर आए हैं,

यह शोभा-यात्रा है किसी मृत्यु-दल की.

गजानन माधव मुक्तिबोध की कविता ‘अंधेरे में’ का अंश.

मैं सिरीफोर्ट जाते हुए संसद के बाहर से गुज़रता हूँ. आज देखा वहाँ बड़ा जमावड़ा लगा है. चैनल बाहर से लाइव ख़बरें दे रहे हैं.
हिंदुस्तान के प्रजातंत्र की सबसे बड़ी मंडी आजकल सजी है. मोलभाव जारी हैं. खरीद-फ़रोख्त चल रही है. भाव तय हो रहे हैं. रात न्यूज़ देखते हुए उबकाई सी आती है. मुझे संसद भवन को देखकर हरिशंकर परसाई का ‘अकाल उत्सव’ याद आता है,

“अब ये भूखे क्या खाएं? भाग्य विधाताओं और जीवन के थोक ठेकेदारों की नाक खा गए. वे सब भाग गए. अब क्या खाएं? आख़िर वे विधानसभा और संसद की इमारतों के पत्थर और इंटें काट-काटकर खाने लगे.”

मोहनदास को लगता है. जो जितना ऊपर बैठा है लगता है वो उतना ही बड़ा बेईमान है. क्या सब नकली हैं? डुप्लीकेट? सारी व्यवस्था ही ढह गई है. जीता जागता हाड़-मांस का इंसान किसी काम का नहीं. इस दुनिया में कागज़ की लड़ाई लड़ी जाती है. न्याय व्यवस्था की आंखों पर पट्टी बंधी है. उसके हाथ बंधे हैं. मोहनदास के पास पैसा नहीं, पहुँच नहीं. वो मोहनदास नहीं, कोई और अब मोहनदास है. कुछ समझ नहीं आ रहा है. डर सा लगता है. क्या कोई रास्ता है? मुक्तिबोध ने जब अंधेरे में लिखी तब आपातकाल सालों दूर था. लेकिन उन्होनें आनेवाले समय की डरावनी पदचाप सुन ली थी. ब्रह्मराक्षस साक्षात् उनके सामने था. यूँ ही तकरीबन चार साल पुरानी कहानी मोहनदास को आज 17 जुलाई 2008 को पहली बार देखते हुए मुझे ऐसा लगा कि आज ही वो दिन था जो तय किया गया था इस मुलाक़ात के लिए. आज जब पहली बार मुझे संसद भवन के बाहर से निकलते हुए एक अजीब सी गंध आई. सत्ता की तीखी दुर्गन्ध. गूंजते से शब्द, 20 करोड़, 25 करोड़, 30 करोड़… आज जब मुझे संसद भवन के बाहर से निकलते हुए पहली बार उबकाई सी आई.

एक ईमानदार पाठक ही नहीं एक ईमानदार दर्शक की हैसियत से भी यह तो कहना होगा कि फ़िल्म कुछ कमज़ोर थी. ईमानदार राय यह है कि कहानी से जो सहूलियतें ली गयीं दरअसल वो ही फ़िल्म को कमज़ोर बनाती हैं. शुरुआत में मीडिया दर्शन के नामपर बहुत सारे स्टीरियोटाइप किरदार गढे गए. एक बड़ी राय यह भी थी कि कलाकारों का चयन ठीक नहीं हुआ है. खासकर कबूतर जैसी अपने परिवेश में इतनी रची बसी फ़िल्म देखने के बाद दर्शकों की यह राय लाज़मी थी. फ़िर भी एक बार मोहनदास की कहानी शुरू होने के बाद फ़िल्म अपना तनाव बनाकर रखती है. साफ़ है कि कहानी की अपनी ताक़त इतनी है कि वो फ़िल्म को अपने पैरों पर खड़ा रखती है. अनिल यादव जैसे किरदार कमाल की कास्टिंग और काम का उदाहरण हैं लेकिन ऐसे उदाहरण फ़िल्म में कुछ एक ही हैं. मोहनदास के रोल के लिए ही मैं अभी हाथों-हाथ 2-3 ज़्यादा अच्छे नाम सुझा सकता हूँ. फ़िल्म कस्बे के चित्रण में जहाँ खरी उतरी है वहीँ उसका गाँव कुछ ‘बनाया-बनाया’ सा लगता है. बोली अभी-अभी सीखी सी. कस्बे के बीच से बार-बार गुज़रती कोयले की गाडियाँ याद रहती हैं, कुछ कहती हैं. फ़िल्म कहानी के मुख्य संकेत नहीं छोड़ती है. बार बार यश मालवीय और वी. के. सोनकिया  की कवितायें बात को आगे बढाती हैं. ब्रेख्त आते हैं. मुक्तिबोध आते हैं. मोहनदास के माँ-बाप पुतलीबाई और काबादास सतगुरु कबीर को याद करते हैं. कबीर जो एक ऐसी भाषा में कविता कहते थे जिसमें लिखता हुआ हर ईमानदार कवि पागल हो जाता है. हो सकता है कि मैं कहानी के प्रति कुछ पक्षपाती हो जाऊं. उदय प्रकाश को सहेजने वालों के साथ ऐसा हो जाता है. लेकिन फ़िल्म के शुरूआती आधे घंटे से मेरे वो दोस्त भी असंतुष्ट थे जिन्होनें कहानी नहीं पढ़ी है. शायद सोनाली कुलकर्णी के साथ थोड़ा कम वक्त और उससे मिली थोड़ी कम लम्बाई ज़्यादा कारगर रहे.

कहानी की बड़ी बात यह थी कि उसमें आप एक विलेन को नहीं पकड़ पाते. अँधेरा है. डर है. पूरी व्यवस्था का पतन है. कहानी के बीच-बीच कोष्ठकों में पूरी दुनिया में घट रही घटनाएँ हैं. बुश हैं, लादेन हैं, गिरते ट्विन टावर हैं. मेरा यह कहना नहीं है कि यह सब फ़िल्म में होता. मुझे बस यह लगता है कि काश कहानी की तरह फ़िल्म भी कुछ व्यक्तियों को विलेन बनाकर पेश करने की बजाए सिस्टम के ध्वंसावशेष दिखा पाती. सुशांत सिंह और उसके पिता के रोल में अखिलेन्द्र मिश्रा अपनी पुरानी फिल्मी इमेज ढो रहे हैं. यह फ़िल्म को कमज़ोर बनाता है. लेकिन इस सबके बावजूद मैं फ़िल्म से इसलिए खुश हूँ कि वो कहानी का काफ़ी कुछ बचा लेती है. अंत में,

क्या सिनेमा के लिए यह ज़रूरी है कि तमाम अंधेरों के बावजूद भी आख़िर में वह एक उम्मीद की किरण के साथ ख़त्म हो? क्या एक कला माध्यम को सकारात्मक होने के लिए आशावादी होना ज़रूरी है? क्या हर मोहनदास के अंत में एक पत्थर उछाले जाने से ही समाज बदलेगा? क्या एक बंद दरवाज़े के साथ हुआ मोहनदास का अंत ज़्यादा बड़ी शुरुआत नहीं है? फ़िल्म जिन सफ़दरों, मंजुनाथों और सत्येंद्रों को याद करती है शायद उनका नाम ही था जो तमाम दबावों के बावजूद फ़िल्म का अंत नहीं बदला गया. और ब्रेख्त को दोहराती फ़िल्म से हमें यही उम्मीद करनी चाहिए कि वह सिनेमा के भीतर क्रांति की बात करने के बजाए उन अंधेरों की बात करे जो हमारे समय को घेर रहे हैं.

मज़हर कामरान से बार-बार यह पूछा गया कि आख़िर क्यों उनका मोहनदास अपनी लड़ाई लड़ना छोड़ देता है? आख़िर क्यों फ़िल्म इतने निराशाजनक नोट पर ख़त्म हो जाती है? क्या उन्हें फ़िल्म की माँग को समझते हुए उदय प्रकाश की कहानी का अंत बदल देने का ख्याल नहीं आया? बहुत से दर्शक जो उदय की कहानी से अनजान थे वो निर्देशक से फ़िल्म के अंत में एक उम्मीद की किरण चाहते थे. एक उछाला जाता पत्थर शायद अंकुर की तरह या एक रोपा जाता पौधा शायद रंग दे बसंती की तरह. पता नहीं उदय प्रकाश इस सब में कहाँ थे? वो होते तो बहुत से दर्शक उनसे भी यही सवाल करते. और मुझे मालूम है कि उनका जवाब क्या होता… मैं यही चाहता था कि आप सब मुझे इस अंत के लिए कोसें. कहें कि यह अंत गलत है. मोहनदास को एक आखिरी पत्थर उछालना चाहिए. अब भी इस सत्ता तंत्र के पार एक सवेरा है जो उसका इंतज़ार करता है. आप सब ये कहें और मेरी कहानी शायद तब पूरी हो. एक-एक मोहनदास आप सबको इस हॉल से बाहर निकलने के बाद मिलेगा. आप उसे यही बात कहें. मेरी कहानी में तो उसने दरवाज़ा बंद कर लिया लेकिन हो सकता है कि आपकी कहानी में ऐसा ना हो. अगर हम एक भी कहानी ऐसी रच पाये जहाँ मोहनदास को उसकी पहचान वापिस मिल जाती है और वो आख़िर में दरवाज़ा बंद नहीं करता तो मेरा कहानी कहना पूरा हुआ. आप इस कहानी पर अविश्वास करें क्योंकि अगर सिनेमा में बंद हुआ दरवाज़ा असल जिंदगी में ऐसा एक भी दरवाज़ा खोल पाये तो मैं उस बंद दरवाज़े के साथ हूँ.

रणवीर शौरी का होना या ना होना.

Finally… इतने इंतज़ार के बाद कल आख़िरकार Osian’s में रणवीर शौरी के दर्शन हो ही गये! उसके बिना Osian’s कुछ अधूरा-अधूरा सा लगता है. पिछली बार वो अपनी नई फ़िल्म मिथ्या के साथ यहाँ था. मिथ्या जो इस साल की सबसे उल्लेखनीय और जटिल फिल्मों में से एक बनकर उभरी है. मिथ्या जो मुझे उदय प्रकाश की ‘तिरिछ’ की याद दिलाती है. मिथ्या जिसे किसी एक श्रेणी में डालना मुश्किल है. रणवीर शौरी हमारे दौर के सबसे बेहतरीन कलाकारों में से एक है. इतना अपना लगता है कि उसके लिए ‘उनके’ लिखने का मन नहीं होता. मैं उसे हमारी पीढ़ी का प्रतिनिधि चरित्र मानता आया हूँ. जैसे मेले में खोया हुआ बच्चा. Lost Child. क्या कहें, अपना भूत भूल चुकी मेरी पीढ़ी का प्रतिनिधि चरित्र. कल सिरीफोर्ट की सीढियों पर बैठा वो फिर से उसी Lost Child जैसा लग रहा था. मीनाक्षी उसे देखकर बोली, “देखो मिहिर वो जो लड़का वहाँ सीढियों पर बैठा है वो तो…” और मैंने कहा, “हाँ रणवीर शौरी है.” और फ़िर हम दोनों ने एकसाथ कहा… Finally.

यहाँ मैं रणवीर का एक मिनी साक्षात्कार प्रस्तुत कर रहा हूँ. साभार Osian’s.

Q. क्या आपको ऐसा महसूस होता है कि Osian’s एक ख़ास तरह के सिनेमा को बढ़ावा देकर और फ़िल्म समारोहों से कुछ अलहदा भूमिका निभा रहा है?
रणवीर. Osian’s हमारे मुल्क़ में होने वाला सबसे जीवंत समारोह है. यहाँ दिखाई जाने वाली फिल्में और आने वाले दर्शकों का समूह मिलकर इसे एक बेहतर माहौल देते हैं.

Q. नई फ़िल्म जो आपको पसंद आई हो?
रणवीर. मुझे Orphanage पसंद आई. वैसे आजकल मुझे ज़्यादा फिल्में देखने का समय नहीं मिल पाता है.

Q. पुरानी हिन्दी फिल्मों में आपकी पसंद क्या है?
रणवीर. मैंने अपने कॉलेज के दिनों में ही गुरु दत्त, राज कपूर और अशोक कुमार को खोज लिया था.

Q. मिथ्या में आपके किरदार को दुनिया भर में वाहवाही मिली है. इस रोल के लिए आपकी तैयारी के बारे में कुछ बतायें.
रणवीर. मुझे रजत के साथ काम करने में मज़ा आता है. मेरे लिए यह एक ख़ास मौका होता है. उनके लिए काम सबसे पहले है. पैसा और वक्त उसके बाद आते हैं. मिथ्या की योजना रजत के पास पिछले दस सालों से थी. मैंने यह कहानी उस वक्त पढ़ी थी जब मैं मिक्स डबल्स की शूटिंग कर रहा था. क्योंकि यह इतने लंबे समय तक चलने वाली फ़िल्म थी इसलिए रजत इसे और ज़्यादा गहराई दे पाये. मिथ्या का किरदार एक डबल रोल नहीं था बल्कि यह तो एक ट्रिपल रोल था. एक बार किरदार की याददाश्त जाने के बाद किरदार का तीसरा हिस्सा शुरू हो जाता है. इसीलिए मुझे हर किरदार को अलग पहचान देनी ज़रूरी थी. एकबार याददाश्त जाने के बाद नया किरदार दो हिस्सों में विभाजित हो जाता है. एक है उसका दिमाग और दूसरा उसका शरीर जो दो अलग-अलग व्यक्तियों की स्मृतियाँ ढो रहे हैं.

Q. आपने My Blueberry Nights देखी. कैसी लगी?
रणवीर. मुझे यह पसंद आई. विंटेज वोंग कार वाई का जादू है. लेकिन उन्हें हॉलीवुड के अभिनेताओं के साथ काम करते देखना मज़ेदार था.

हम काले हैं तो क्या हुआ दिलवाले हैं!

सीरीफोर्ट में एशियाई और अरब फिल्मों का एक बार फ़िर जमावड़ा. दसवें ओसियन सिनेफैन फ़िल्म फेस्टिवल की शुरुआत. पहले दिन ही कुछ महत्त्वपूर्ण सबक मिले जो आपके काम आ सकते हैं.

अपनी सीट पर बैठते वक़्त सावधान रहें. और कोशिश करें कि फेस्टिवल में अगले दो-तीन दिन कोई नया कपड़ा पहनकर ना जाएँ. मेरे जैसे नया कुरता तो बिल्कुल नहीं. वजह? सीरीफोर्ट सभागार की सभी सीटों के हत्थों पर किया गया नया काला रंग अभी भी ताज़ा है. आपके हाथ रखते ही वो अपना असर दिखा देगा. शायद फ़िल्म फेस्टिवल के लिए सीरीफोर्ट के रंग रोगन का काम कुछ देर से शुरू हुआ हो. वैसे भी आजकल दिल्ली सरकार को आनेवाले राष्ट्रमंडल खेलों के अलावा और कुछ कहाँ दिखता है! इस काले रंग से बचने के उपाय कुछ ऐसे हो सकते हैं.. कागज़ का उपयोग करें. बैठने से पहले हत्थों पर ये कागज़ बिछा लें. आज इस कागज़ के रूप में बाहर बुकिंग काउंटर पर मिलने वाले डेली न्यूज़ बुलेटिन का सबसे ज़्यादा इस्तेमाल किया गया.

इसबार एक प्रतिभागी को एक ही टिकट लेने की इजाज़त है. याने अपने डेलिगेट पास को दिखाकर आप हर शो का सिर्फ़ एक ही टिकट ले सकते हैं. शायद ऐसा टिकटों की ब्लैक मार्केटिंग रोकने के लिहाज से किया गया हो. तो अगर आप एक साथ सभी दोस्तों के लिए फ़िल्म के टिकट लेने की योजना बनाकर सीरीफोर्ट जा रहे हैं तो  दोस्तों को कहिये कि उन्हें ख़ुद ही आना होगा. हाँ ये हो सकता है कि आप जितने टिकट चाहियें उतने ही डेलिगेट पास खरीद लें क्योंकि डेलिगेट पास बनवाने के लिए हस्ताक्षर की ज़रूरत नहीं है.

पिछली बार से उलट मोबाइल और बैग हॉल में ले जाना मान्य है. वैसे हो सकता है आने वाले दिनों में इसमें कुछ परिवर्तन आ जाए. खाने की चीज़ें हमेशा की तरह बहुत महँगी हैं. चाय भी 10रु. की मिल रही है. टिकट की दर भी 20 से बढ़ाकर 30 कर दी गई है. डेलिगेट फीस 50 है. फ़िर भी बड़े सिनेमाघरों से तो फेस्टिवल में फ़िल्म देखना कहीं सस्ता है.

11 तारीख़ को समारोह का विधिवत उदघाटन प्रस्तावित है. हाँग-काँग की फ़िल्म ‘स्पैरो’ से समारोह का आगाज़ होगा. अगले दिनों में आप यहाँ उदय प्रकाश की कहानी पर बनी फ़िल्म ‘मोहनदास’, मृणाल सेन की ‘खंडहर’, समीरा मक्मल्बफ़ की बहुचर्चित फ़िल्म ‘ब्लैकबोर्ड’, मार्टिन स्कोर्सेसी की पुरानी क्लासिक ‘टैक्सी ड्राईवर’, मणि कौल की बिज्जी की कहानी पर निर्मित ‘दुविधा’ और फेलिनी की ‘एट एंड अ हाफ’ जैसी फिल्में देख सकते हैं. यह समारोह आपको गोविन्द निहलाणी, पॉल श्रेडर, अब्बास टायरवाला, चेतन भगत और कुणाल बासु जैसे लेखकों और फिल्मकारों से मुलाकात का मौका भी दे रहा है. समारोह में इन सभी हस्तियों के साथ बातचीत के सत्र प्रस्तावित हैं. समारोह 20 जुलाई तक चलेगा.