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“शंकर शैलेन्द्र को हिन्दी सिनेमा का सबसे बड़ा गीतकार कहा जा सकता है.” -गुलज़ार.

poet-gulzarइस बार के ओशियंस में प्रस्तुत गुलज़ार साहब का पर्चा “हिन्दी सिनेमा में गीत लेखन (1930-1960)” बहुत ही डीटेल्ड था और उसमें तीस और चालीस के दशक में सिनेमा के गीतों से जुड़े एक-एक व्यक्ति का उल्लेख था. वे बार-बार गीतों की पंक्तियाँ उदाहरण के रूप में पेश करते थे और जैसे उस दौर का चमत्कार फिर से जीवित कर देते थे. पेश हैं गुलज़ार साहब के व्यख्यान की कुछ झलकियाँ :-

  • एक पुराना किस्सा है. एक बार ओम शिवपुरी साहब ने अपने साहबज़ादे को एक चपत रसीद कर दी. अब कर दी तो कर दी. साहबज़ादे ने जवाब में अपने पिता से पूछा कि क्या आपके वालिद ने भी आपको बचपन में चपत रसीद की थी? तो उन्होंने जवाब में बताया हाँ. और उनके पिता ने भी.. फिर जवाब मिला हाँ. और उनके पिता ने भी? शिवपुरी साहब ने झल्लाकर पूछा आखिर तुम जानना क्या चाहते हो? तो जवाब में उनके साहबज़ादे ने कहा, “मैं जानना चाहता हूँ कि आख़िर यह गुंडागर्दी शुरु कहाँ से हुई!” तो इसी तरह मैं भी अपनी रोज़ी-रोटी के लिए जो काम आजकल करता हूँ इसकी असल शुरुआत कहाँ से हुई इसे जानने के लिए मैं सिनेमा के सबसे शुरुआती दौर की यात्रा पर निकल पड़ा…
  • आप शायद विश्वास न करें लेकिन सच यह है कि हिन्दी सिनेमा में गीतों की शुरुआत और उनका गीतों से अटूट रिश्ता बोलती फ़िल्मों के आने से बहुत पहले ही शुरु हो गया था. साइलेंट सिनेमा के ज़माने में ही सिनेमा के पर्दे के आगे एक बॉक्स में एक उस्ताद साहब अपने शागिर्दों के साथ बैठे रहते थे और पूरे सिनेमा के दौरान मूड के मुताबिक अलग-अलग धुनें और गीत-भजन बजाया-गाया करते थे. इसकी दो ख़ास वजहें भी थीं. एक तो पीछे चलते प्रोजैक्टर का शोर और दूसरा सिनेमा के आगे दर्शकों में ’पान-बीड़ी-सिगरेट’ बेचने वालों की ऊँची हाँक. लाज़मी था कि गीत-संगीत इतने ऊँचे स्वर का हो कि ये ’डिस्टरबिंग एलीमेंट’ उसके पीछे दब जाएं. इतनी सारी अलग-अलग आवाज़ें सिनेमा हाल में एक साथ, वास्तव में यह साइलेंट सिनेमा ही असल में सबसे ज़्यादा शोरोगुल वाला सिनेमा रहा है.
  • इन्हीं साज़ बजाने वालों में एक हुआ करते थे मि. ए.आर. कुरैशी जिन्हें आज आप और हम उस्ताद अल्लाह रक्खा के नाम से और ज़ाकिर हुसैन के पिता की हैसियत से जानते हैं. उन्होंने मुझे कहा था कि मैंने तो कलकत्ता में सिनेमा के आगे चवन्नी में तबला बजाया है. यूँ ही जब ये सिनेमा के आगे बजने वाले गीत लोकप्रिय होने लगे तो आगे से आगे और गीतों की फरमाइश आने लगीं. सिनेमा दिखाने वालों को भी समझ आने लगा कि भई उस सिचुएशन में वहाँ पर तो ये गीत बहुत जमता है. इस तरह गीत सिचुएशन के साथ सैट होने लगे. इसी बीच किसी फरमाइश के वशीभूत मुंशी जी को किसी लोकप्रिय मुखड़े का सिचुएशन के मुताबिक आगे अंतरा लिख देने को कहा गया होगा, बस वहीं से मेरी इस रोज़ी-रोटी की शुरुआत होती है.
  • साल उन्नीस सौ सैंतालीस वो सुनहरा साल था जिस साल आधा दर्जन से ज़्यादा सिनेमा के गीतकार खुद निर्देशक के रूप में सामने आए. इनमें केदार शर्मा और मि. मधोक जैसे बड़े नाम शामिल थे.
  • केदार शर्मा जितने बेहतरीन निर्देशक थे उतने ही बेहतरीन शायर-गीतकार भी थे. अफ़सोस है कि उनके इस रूप की चर्चा बहुत ही कम हुई है. उनकी इन पंक्तियों, “सुन सुन नीलकमल मुसकाए, भँवरा झूठी कसमें खाए.” जैसा भाव मुझे आज तक कहीं और ढूँढने से भी नहीं मिला. उस कवि में एक तेवर था जो उनके लिखे तमाम गीतों में नज़र आता है.
  • कवि प्रदीप चालीस के दशक का मील स्तंभ हैं. उनके गीतों में हमेशा नेशनलिज़्म का अंडरटोन घुला देखा जा सकता है. इसका सबसे बेहतर उदाहरण है आज़ादी से पहले आया उनका गीत “दूर हटो ए दुनियावालों हिन्दुस्तान हमारा है.” और इसके अलावा उनके लिखे गीत “ए मेरे वतन के लोगों, ज़रा आँख में भर लो पानी” से जुड़ा किस्सा तो सभी को याद ही होगा. जिस गीत को सुनकर पंडित जी की आँखों में आँसू आ गए हों उसके बारे में और क्या कहा जाये.
  • ग़ालिब के कलाम का हिन्दी सिनेमा में सर्वप्रथम आगमन होता है सन 1940 में और नज़्म थी, “आह को चाहिए एक उम्र असर होने तक”. चालीस के दशक में ही हिन्दी सिनेमा फ़ैज़ की नज़्म को और टैगोर की कविता को गीत के रूप में इस्तेमाल कर चुका था.
  • बिना शक शंकर शैलेन्द्र को हिन्दी सिनेमा का आज तक का सबसे बड़ा लिरिसिस्ट कहा जा सकता है.  उनके गीतों को खुरच कर देखें और आपको सतह के नीचे दबे नए अर्थ प्राप्त होंगे. उनके एक ही गीत में न जाने कितने गहरे अर्थ छिपे होते थे.
  • जैसे सलीम-जावेद को इस बात का श्रेय जाता है कि वो कहानी लेखक का नाम सिनेमा के मुख्य पोस्टर पर लेकर आये वैसे ही गीत लेखन के लिए यह श्रेय साहिर लुधियानवी को दिया जाएगा.
  • gulzarसाहिर भी अपने विचार को लेकर बड़े कमिटेड थे. वो विचार से वामपंथी थे और वो उनके गीतों में झलकता है. गुरुदत्त की “प्यासा” उनके लेखन का शिखर थी.
  • एक गीत प्रदीप ने लिखा था “देख तेरे इंसान की हालत क्या हो गई भगवान” और इसके बाद इसी गाने की पैरोडी साहिर ने लिखी जो थी, “देख तेरे भगवान की हालत क्या हो गई इंसान”!
  • इस पूरे दौर में राजेन्द्र कृष्ण को नज़र अंदाज़ नहीं किया जा सकता. तक़रीबन तीन दशक तक दक्षिण भारत के स्टूडियोज़ से आने वाली हर दूसरी फ़िल्म में उनके गीत होते थे. उनके गीत सीधा अर्थ देने वाले होते थे, जैसे संवादों को ही गीतों में ढाल दिया हो.
  • मेरा प्रस्ताव यह है कि जहाँ हम पचास के दशक को हिन्दी सिनेमा के गीतों का सुनहरा समय मानते हैं तो वहाँ हमें इस सुनहरे दौर में तीस के दशक और चालीस के दशक को भी शामिल करना चाहिए. यही वह दौर है जब इस सुनहरे दौर की नींव रखी जा रही थी. तेज़ी से नए-नए बदलाव गीत-संगीत में हो रहे थे और तमाम नए उभरते गीतकार-संगीतकार-गायक अपने पाँव जमा रहे थे. लता आ रहीं थीं, बर्मन आ रहे थे, साहिर आ रहे थे. यह पूरा चालीस का दशक एक बहुत ही समृद्ध परम्परा है जिसे हमारे हाथ से छूटना नहीं चाहिए.
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तभी तो कहते है काबिल लोग बड़ी गन्दी मौत मरते है .ओर मरने के बाद अमर हो जाते है ..

@ ’मशाल’ साहब. जी आपने बिलकुल सही पकड़ा. गलती मेरी ही है. माफ़ी इस भूल के लिए. कैसा मूरख हूँ, बार-बार ’संसार’ को भूल जाता हूँ. यथार्थ से जी चुराने की आदत पड़ गई है शायद.

जय भीम

@ तूती जी.

आप ठीक कहती हैं. किसी भी वक़्त में मुख्यधारा तो यथास्थितिवादी होती ही है. और आमतौर पर उसकी गति सत्ता की ओर ही होती है. लेकिन मेरी अपनी समझ यह है कि केवल इस कारण हम लोकप्रिय मुख्यधारा का अध्ययन भी न करें, यह तो ठीक बात नहीं. आप जो भी आलोचनाएं कर रहीं हैं वो बहुत हद तक ठीक हैं और ज़रूरी भी हैं. और मैं भी अपनी बनते पूरी कोशिश करता हूँ कि इस ’आम आदमी’ पर चलते विमर्श के बीच असलियत मेरी आँखों से ओझल न होने पाए.

और शैलेंद्र के बाद के सबसे बड़े गीतकार गुलज़ार ! जिन्होंने हाल ही में नेशनल सेक्यूरिटी गार्ड (NSG) की सिल्वर-जुबली की शान में शानदार कसीदा लिखा, और गाया शंकर महादेवन ने. फर्जी मुठभेड़ों और सेना के बल पर आदिवासियों की बेदखली के इस दौर में । वैसे गुलज़ार पूर्वप्रधानमंत्री वाजपेयी की घटिया और घड़ियाली कविताओं के एलबम से भी जुड़े थे ।

हिंदी वाले अब्राहम साहब ठीक कहते हैं । यह औसत को ही अच्छा मान लेने का वक्त है ।

इससे आगे, जैसे हिंदी इसलिए महान नहीं हो जाएगी कि उसमें कोकाकोला वाले अपना काला पेय बेचने लगेंगे, वैसे ही इस दौर के सिनेमा/संगीत से इसलिये नहीं अभिभूत हो जाना चहिए कि इसमें ’आम आदमी’ दिखने लगे हैं । वास्तव में इस सिनेमाई आम आदमी का एजेंडा, उसकी दिशा क्या है और ये कितना आम है, यह सब कहीं छुप जाता है । लोगों को मल्टीप्लेक्स तक लाने के लिये आम आदमी टाइप जुमले गढ़ना बाजारू मजबूरी के तहत हो जरूर रहा है, लेकिन आम आदमी के गले से निकलने वाली आवाज़ असल में क्या कह रही है इस पर भी ध्यान होना चाहिए । अरूंधती रॉय कहती ही हैं कि हमारे नारे और हमारे झंडे तक हमसे छीने जा रहे हैं । कॉरपोरेट कब्जा अब डेमोक्रेसी के नाम से होता है और हम अपने घरों में कॉफ़ी की घूँटों के साथ आम-आदमी की सेंसिबिलिटी वाला काव्य सुनते/देखते रहते हैं । क्रूर है यह सब मिहिर !

pata nahin ye galti Gulzar sahab ke parche me hi hai ya yaha hui, lekin sach me Pandit Pradeep ji ka geet ”dekh tere ‘insaan’ ki halat kya ho gayee bhagwan…” nahin balki ”dekh tere ‘sansar’ ki halat kya ho gayi bhagwan, kitna badal gaya insaan” tha.
parcha padhane ke liye bahut abhar…
main kamiyan nahin nikalna chahta tha lekin Pradeep ji mere pasandeeda kavi the isliye unke geet ko galat nahin padh saka….

Jai Hind

sach hai bhi agar 69 ke baad se gulzar ne lyrics ki duniya mein raaz kiya hai, to isse pahle shailendra hi sabse bade geetkar kahe ja sakte hain.

कॉमरेड शैलेन्द्र और साहिर दोनो ही अपने ज़माने के वामपंथी शायर थे उस ज़माने मे प्रगतिशील सोच के बहुत से शायर व लेखक थे प्रेमचन्द से लेकर और भी । और कलाकार भी हंगल.. और जो इप्ता से जुडे थे ।

bahut badhiya post…lekin jin shailendra sahab ko gulzar sahab ne pasand kiya hai ve bhi 50 ke dashak ki shaan hain.

“शंकर शैलेन्द्र को हिन्दी सिनेमा का सबसे बड़ा गीतकार कहा जा सकता है.”

जब गुलज़ार जी यह कह रहे हैं तो वह सच है।