‘ख़रगोश’ एक अद्भुत चाक्षुक अनुभव है. मुख्यधारा के सिनेमा से अलग, बहुत दिनों बाद इस फ़िल्म को देखते हुए आप परदे पर निर्मित होते वातावरण का रूप, रंग, गंध महसूस करते हैं. इसकी वजह है फ़िल्म बेहतरीन कैमरावर्क और पाश्वसंगीत. निर्देशक परेश कामदार की बनाई फ़िल्म ’ख़रगोश’ कथाकार प्रियंवद की एक हिन्दी कहानी पर आधारित है. काम इच्छाओं की किशोर जीवन में पहली आमद का एक व्यक्तिगत दस्तावेज़. जैसा परेश कामदार अपने निर्देशकीय वक्तव्य में लिखते हैं,
“ख़रगोश एक दस साला लड़के के साथ ऐसा सफ़र है जिसमें वह इंद्रियबोध के नए बियाबान में कदम रख रहा है. कहीं यह कथा कामना के भंवर से उपजे तनावों की भी बात करती है. सिनेमाई भाषा के संदर्भ में यह एक ’सादा कविता’ जैसी है. कथा के भौतिक वातावरण में से उठाए चित्र और ध्वनियाँ एक ऐसा अनुभव संसार रचते हैं जो लड़के के अनुभव की जटिलता और आवेग हमारे सामने खोलता है.”
कहानी के केन्द्र में है बंटू, एक दल साल का लड़का, याने हमारा कथानायक. उसकी दुनिया घर, स्कूल, माँ के चूल्हे की रोटियों, कटपुतली वाले के तमाशे के बीच फैली है. उस फ़ीके से कस्बाई माहौल में, बंटू के घर और स्कूल के बीच के अनमने चक्करों के बीच उसके सबसे अच्छे साथी हैं अवनीश भैया. वो उनके साथ पतंग उड़ाता है. एक दिन बंटू भैया उसे अपने साथ बाज़ार ले जाते हैं. बंटू उनकी आवेगभरी प्रेम-कहानी का अकेला गवाह है. उनके संदेसे लाना, चिठ्ठियाँ पहुँचाना, मिलने के अवसरों को सुलभ बनाना बंटू को उत्सुक्ता से भर देता है.
लेकिन बंटू भी उमर के नाज़ुक दौर में है. केवल संदेसेवाला बने रह जाना उसे अख़रने लगता है. किशोरमन अब अवनीश में दोस्त और बड़े भाई की जगह प्रतिद्वंद्वी देखने लगा है. वो इस प्रेम-कहानी का एक सहायक किरदार नहीं, कथानायक होना चाहता है. एक विचारोत्तेजक अंत में परेश हमें किशोरमन के अनछुए पहलुओं से परिचित कराते हैं. ये ऐसे अंधेरे कोने हैं जिन्हें हिन्दी सिनेमा ने कम ही छुआ है. ’ख़रगोश’ चाक्षुक बिम्बों और रेखांकित करने योग्य घ्वनि संकेतों द्वारा किशोर मन के नितांत व्यक्तिगत अनुभवों से तैयार हुआ एक विहंगम कोलाज रचती है.
— ’नैनीताल फ़िल्म उत्सव’ की स्मारिका के लिए लिखा गया ’ख़रगोश’ फ़िल्म का परिचय.
It’ s very untouched subject, & kind of love & obsession, it must watchable film.
Yeah, the concept is really unique and should be worth waiting… is it released ?
अनछुआ विषय है, फिल्मों के लिये और लेखन के लिये भी। रोचक लग रही है।