नैनीताल फ़िल्मोत्सव (29 से 31 अक्टूबर, 2010) के ठीक पिछले हफ़्ते मैं बम्बई में था, मुम्बई अंतरराष्ट्रीय फ़िल्म समारोह (मामी) में. हम वहाँ युद्ध स्तर पर फ़िल्में देख रहे थे. कई दोस्त बन गए थे जिनमें से बहुत सिनेमा बनाने के पेशे से ही किसी न किसी रूप में जुड़े हुए थे. जिसे भी बताता कि “यहाँ से निकलकर सीधा नैनीताल जाना है.” सवाल आता… क्यों? “क्योंकि वहाँ भी एक फ़िल्म फ़ेस्टिवल है.” ..सुनने वाला भौंचक. नैनीताल में फ़िल्म समारोह.. ये कैसे? पूरी बात बताओ. और जान लिया तो फिर एक इत्मिनान की साँस.. बढ़िया. और फिर हर पुराने आदमी के पास एक कहानी होती सुनाने को. कहानी जिसमें भारत के हृदयस्थल में बसा कोई धूल-गुबार से सना कस्बा होता. कुछ जिगरी टाइप दोस्त होते, कस्बे का एक सिनेमाहाल होता और पिताजी की छड़ी होती. “भई हमारे ज़माने में ये ’क्वालिटी सिनेमा-विनेमा’ था तो लेकिन बड़े शहरों में. हमें तो अमिताभ की फ़िलम भी लड़-झगड़कर नसीब होती थी. पिताजी जब हमारी हरकतें देखते तो कहते लड़का हाथ से निकल गया..”
तब समझ आता है कि गोरखपुर से शुरु हुए फ़िल्मोत्सवों के इस क्रमबद्ध और प्रतिबद्ध आयोजन का कितना दूरगामी महत्व होनेवाला है. जन संस्कृति मंच के ’द ग्रुप’ के बैनर तले ’प्रतिरोध का सिनेमा’ की थीम के साथ साल-दर-साल उत्तर भारत के विभिन्न छोटे-बड़े शहरों में आयोजित होते यह फ़िल्म समारोह सार्थक सिनेमा दिखाने के साथ-साथ उन शहरों के सांस्कृतिक परिदृश्य का भी महत्वपूर्ण हिस्सा बनते जा रहे हैं. बिना किसी कॉर्पोरेट मदद के आयोजित होने वाला यह अपनी तरह का अनूठा आयोजन है. इस मॉडल की सफ़लता से कला और संस्कृति के क्षेत्र में भी हावी होती जा रही बाज़ार की ताक़तों से इतर एक विकल्प तैयार करने की कई नई राहें खुल रही हैं. इसीलिए कहना न होगा कि पिछले साल के सफ़ल आयोजन के बाद इस साल नैनीताल के लोग ’युगमंच’ तथा ’जसम’ द्वारा सम्मिलित रूप से आयोजित ’दूसरे नैनीताल फ़िल्म समारोह’ के इंतज़ार में थे. लोगों में सिनेमा को लेकर इस उत्सुकता को फिर से जगा देने के लिए ’द ग्रुप’ के संयोजक संजय जोशी और ’युगमंच’ के अध्यक्ष ज़हूर आलम विशेष बधाई के पात्र हैं. इन्हीं दोनों प्रतिबद्ध समूहों द्वारा आयोजित नैनीताल फ़िल्म समारोह सिर्फ़ फ़िल्मोत्सव न होकर अनेक प्रदर्शन-कलाओं से मिलकर बनता एक सांस्कृतिक कोलाज है. गिर्दा और निर्मल पांडे की याद को संजोये इस बार के आयोजन में भी कई विचारोत्तेजक वृत्तचित्रों और कुछ दुर्लभ फ़ीचर फ़िल्मों के साथ उत्तराखंड में आई प्राकृतिक आपदा पर जयमित्र बिष्ट के फ़ोटो-व्याख्यान ’त्रासदी की तस्वीरें’, ’युगमंच’ द्वारा जनगीतों की प्रस्तुति और बच्चों द्वारा खेला गया नाटक ’अक़्ल बड़ी या शेर’ भी शामिल थे.
इस बार नैनीताल आए डॉक्यूमेंट्री सिनेमा के गुल्दस्ते में शामिल कुछ महत्वपूर्ण फ़िल्में थीं सूर्य शंकर दाश की ’नियमराजा का विलाप’, अजय टी. जी. की ’अंधेरे से पहले’, देवरंजन सारंगी की ’फ़्राम हिन्दू टू हिन्दुत्व’, अजय भारद्वाज की ’कित्ते मिल वे माही’, अनुपमा श्रीनिवासन की ’आई वंडर’ तथा संजय काक की ’जश्न-ए-आज़ादी’. इसके अलावा वृत्तचित्र निर्देशक वसुधा जोशी पर विशेष फ़ोकस के तहत उनकी तीन फ़िल्मों, ’अल्मोड़ियाना’, ’फ़ॉर माया’ तथा ’वायसेस फ़्रॉम बलियापाल’ का प्रदर्शन समारोह में किया गया. शानदार बात यह रही कि ज़्यादातर फ़िल्मों के साथ उनके निर्देशक खुद समारोह में उपस्थित थे. फ़िल्मकारों के बीच का आपसी संवाद और दर्शकों से उनकी बातचीत फ़िल्म को कहीं आगे ले जाती हैं. इससे देखनेवाला खुद उन फ़िल्मों में, उनमें कही बातों में, उसके तमाम किरदारों के साथ एक पक्ष की तरह से शामिल होता है और उन परिस्थितियों से संवाद करता है. बीते सालों में यही ख़ासियत इन फ़िल्मोत्सवों की सबसे बड़ी उपलब्धि बनकर उभर रही है.
मुख्यधारा सिनेमा द्वारा बेदखल की गई दो दुर्लभ फ़ीचर फ़िल्मों का यहाँ प्रदर्शन हुआ. परेश कामदार की ’खरगोश’ तथा बेला नेगी की ’दाएं या बाएं’. इनमें बेला नेगी की ’दाएं या बाएं’ पर यहाँ लिखना ज़रूरी है. क्योंकि एक अनचाहे संयोग के तहत जिस दिन फ़िल्म को नैनीताल में दिखाया और पसंद किया जा रहा था ठीक उसी दिन यह फ़िल्म सिर्फ़ दो महानगरों के कुछ गिने हुए सिनेमाघरों में रिलीज़ हो ’बॉक्स ऑफ़िस’ पर अकाल मृत्यु के गर्भ में समा गई. कई बार फ़िल्म उसकी मुख्य कथा में नहीं होती. उसे आप उन अन्तरालों में पाते हैं जिनके सर मुख्य कथा को ’दाएं या बाएं’ भटकाने का इल्ज़ाम है. ठीक ऐसे ही बेला नेगी की फ़िल्म में बस की खिड़की पर बैठी एक विवाहिता आती है. दो बार. पहली बार सपने की शुरुआत है तो दूसरी बार इस प्रसंग के साथ मुख्य कथा वापिस अपनी ज़मीन पकड़ती है. परदे पर इस पूरे प्रसंग की कुल लम्बाई शायद डेढ़-दो मिनट की होगी. इन्हीं दो मिनट में निर्देशक ऐसा अद्भुत कथा कोलाज रचती हैं कि उसके आगे हिन्दी सिनेमा की तमाम पारंपरिक लम्बाइयाँ ध्वस्त हैं. खांटी उत्तराखंडी आबो-हवा अपने भीतर समेटे इस फ़िल्म को नैनीताल फ़िल्मोत्सव के मार्फ़त उसके घर में दर्शकों ने देखा, मानो फ़िल्म अपनी सही जगह पहुँच गई.
मल्लीताल के मुख्य बाज़ार से थोड़ा सा ऊपर बनी शाही इमारत ’नैनीताल क्लब’ की तलहटी में कुर्सियाँ फ़ैलाकर बैठे, बतियाते संजय काक ने मुझे बताया कि संजय जोशी अपने साथ विदेशी फ़िल्मों की साठ से ज़्यादा कॉपी लाए थे, ज़्यादातर ईरानी सिनेमा. सब की सब पहले ही दिन बिक गईं. शायद यह सुबह दिखाई ईरानी फ़िल्म ’टर्टल्स कैन फ़्लाई’ का असर था. संजय ने खुद कहा कि लोग न सिर्फ़ फ़िल्में देख रहे हैं बल्कि पसन्द आने पर उन्हें खरीदकर भी ले जा रहे हैं. इसबार फ़ेस्टिवल में वृत्तचित्रों की बिक्री भी दुगुनी हो गई है. उस रात पहाड़ से उतरते हुए मेरे मन में बहुत अच्छे अच्छे ख्याल आते हैं. नैनीताल से पहाड़ शुरु होता है. नैनीताल फ़िल्मोत्सव के साथी सार्थक सिनेमा को पहाड़ के दरवाज़े तक ले आए हैं. और अब नैनीताल से सिनेमा को और ऊपर, कुछ और ऊँचाई पर इसके नए-नए दर्शक ले जा रहे हैं. पहाड़ की तेज़ और तीख़ी ढलानों पर जहाँ कुछ भी नहीं ठहरता सिनेमा न सिर्फ़ ठहर रहा है बल्कि अपनी जड़ें भी जमा रहा है, गहरे.
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इस आलेख का संशोधित संस्करण आज के ’जनसत्ता’ रविवारीय में प्रकाशित हुआ.
आपने दोनों ही बातें बिलकुल ठीक कहीं बेला जी. ’दाएं या बाएं’ के साथ वही हुआ जो इससे पहले मेरी कुछ और पसंदीदा फ़िल्मों (जैसे ’हल्ला’ या ’मनोरमा सिक्स फ़ीट अन्डर’) के साथ हुआ है. इसे इसके असल दर्शकों (जो कि बहुत सारे हैं, हम जानते हैं.) तक पहुँचने ही नहीं दिया गया. और यह हम सबके लिए बड़े शर्म की बात है. मैंने भी एक और निबंध में इसका उल्लेख किया है. देखें –
http://mohallalive.com/2010/12/13/mami-film-festival-report-by-mihir-pandya/
आपकी दूसरी बात भी. मैं खुद साहित्य का विद्यार्थी हूँ. ’कहानी जितना अपने परिवेश से जुड़ी हो, उतनी ही वैश्विक होती है’ यह मुझसे अच्छा कौन जानता है. यही तो वजह है कि हम अनुराग कश्यप और दिबाकर बनर्जी की फ़िल्में पसंद करते हैं. और इस साल तो सिनेमा की यह खासियत रही. आपकी फ़िल्म हो चाहे ’उड़ान’ हो. यहाँ तक कि LSD जैसी फ़िल्म भी अपने तमाम संदर्भों में कितनी ज़्यादा ’नॉर्थ इंडियन सिटी’ थी. यही उनकी पहचान थी. देखें –
http://mihirpandya.com/2011/01/cinema-2010/
अब ’दाएं या बाएं’ की DVD का इंतज़ार है. और आपसे एक और अच्छी फ़िल्म का
Mihir, you have written so beautifully. Also the bit about DYB is very well put. However I would like to say that the film did dismally at thebox office not because the audience rejected it – but because it never got ot them. Even those who could have watched it didnt get to know about it. I get a constant stream of mails from people who have watched it on tata sky or in pirated dvds who have responded very well to the film, and they are not necessarily paharis.
I think the thing to understand is that regional cinema is that it is not meant only for the region – but that the more firmly you peg a story to a context with all its social, spacial and specific detailing the more universal the story becomes. That is paradoxical but true.
जब सिनेमा का पर्दा सिकुड़ रहा हो उसे तन्ने के लिए पहाड़ जैसी उन्चाहियों कि जरुरत होती ही है…द ग्रुप को धन्यवाद….शानदार संस्मरण.;….शुक्रिया……..
पहाड़ो के ढलानों पर सिनेमा गति पकड़ रहा है, रुकेगा कैसे….