एक और सोमवार सुबह का जागना, एक और ऑस्कर की रात का इंतज़ार. उस सितारों भरी रात से पहले उन फ़िल्मों की बातें जिनका नाम उस जगमगाती रात बार-बार आपकी ज़बान पर आना है. पेश हैं इस साल ऑस्कर की सरताज पाँच ख़ास फ़िल्में मेरी नज़र से.
इस साल ऑस्कर की सबसे तगड़ी दावेदार बन उभरी, टॉम हूपर द्वारा निर्देशित ’दि किंग्स स्पीच’ ब्रिटेन के बाफ़्टा में बड़े पुरस्कार जीत चुकी है. मेरी नज़र में यह साल की सबसे प्रभावशाली ’फ़ीलगुड’ कहानी कहती है. पारंपरिक कथा सांचे में बंधी यह फ़िल्म ब्रिटेन के राजा किंग जॉर्ज VI के जीवन पर आधारित है जिन्हें बचपन से हकलाने की आदत थी. यह व्यक्तिगत संघर्ष और जीत की कथा है. फ़िल्म का सबसे खूबसूरत हिस्सा वह दोस्ती का रिश्ता है जो राजा और उनके स्पीच थैरेपिस्ट (ज्यौफ्री रश) के बीच इलाज के दौरान बनता है. किंग जॉर्ज VI की भूमिका में कॉलिन फ़िर्थ का ’बेस्ट एक्टर’ पुरस्कार जीतना लगभग तय माना जा रहा है.
विश्व भर में आलोचकों की पहली पसंद बनी डेविड फ़िंचर की ’दि सोशल नेटवर्क’ हमारे दौर की सबसे समकालीन फ़िल्म है. सोशल नेटवर्किंग साइट ’फेसबुक’ के जन्मदाता मार्क जुकरबर्ग की कहानी पर बनी ’दि सोशल नेटवर्क’ ऑस्कर की रेस में बेस्ट फ़िल्म और बेस्ट डाइरेक्टर के गोल्डन ग्लोब जीत चुकी है. यह युवा दोस्तियों के बारे में है, महत्वाकांक्षाओं के बारे में है, प्रेम के बारे में है, विश्वासघात के बारे में है. यह उस लड़के के बारे में है जो दुनिया का सबसे कम उम्र अरबपति होकर भी अंत में अकेला है. इस फ़िल्म की कमाल की स्क्रिप्ट/ एडिटिंग/ संवादों की मिसाल अभी से दी जाने लगी है.
मेरे लिए यह इस साल ऑस्कर में आई सर्वश्रेष्ठ अंग्रेजी फ़िल्म है. निर्देशक डैरेन अरोनोफ़्सकी ज़िन्दगी के अंधेरे कोनों के चितेरे हैं. यह कलाकार के अंदरूनी संघर्ष की कथा है. उस ’आत्महंता आस्था’ की कथा जिसके चलते कला की अदम्य ऊंचाई को चाहता कलाकार अपने जीवन को स्वयं भस्म करता जाता है. यह कहानी नृत्य नाटिका ’स्वॉन लेक’ में मुख्य भूमिका पाने वाली ’नीना सायर्स’ की है जिसे नाटक के अच्छे और बुरे दोनों किरदार ’व्हाईट स्वॉन’ और ’ब्लैक स्वॉन’ साथ निभाने हैं. बैले डांसर ’नीना सायर्स’ की मुख्य भूमिका में नटाली पोर्टमैन विस्मयकारी हैं और उनमें मुक्तिबोध की कविताओं सा अँधेरा है, अकेलापन है, ऊँचाई है. इस साल ’बेस्ट एक्ट्रेस’ का पुरस्कार वह अपने नाम लिखाकर लाई हैं.
वह निर्देशक जिसके हर नए काम का दुनिया साँसे रोके इंतज़ार करती है. लेकिन क्रिस्टोफ़र नोलान का एकेडेमी से छत्तीस का आंकड़ा रहा है. इस साल भी ज़्यादा बड़ी खबर एक बार फिर उनका ’बेस्ट डाइरेक्टर’ की लिस्ट से बाहर किया जाना रहा. ’इंसेप्शन’ इस साल की सबसे बहसतलब फ़िल्मों में से एक रही है. इसमें सपनों की कई परते हैं और उनके भीतर सच्चाई पहचान पाना लगातार मुश्किल हुआ जाता है. लेकिन अंतत: ’इंसेप्शन’ का मूलभाव एक अपराधबोध और उससे निरंतर जलता कथानायक (लियोनार्डो डि कैप्रियो) है. खेल-खेल में दुनिया पलट देने की बाज़ीगरी है और फिर भी कुछ न बदल पाने की कसमसाहट है जो जाती नहीं.
इस फ़िल्म को सिर्फ़ क्रिश्चियन बेल की अदाकारी के लिए देखा जाना चाहिए. सर्वश्रेष सहायक अभिनेता का गोल्डन ग्लोब जीत चुके बेल यहाँ अपनी पुरानी सुपरहीरो इमेज को धोते हुए एक हारे हुए इंसान का किरदार जीवंत बनाते हैं. कथा दो मुक्केबाज़ भाइयों की है. बड़ा भाई जिसका जीवन ड्रग्स और अपराध में उलझकर रह गया है. और छोटा भाई जिसके सामने अभी मौका है कुछ बनने का, कुछ कर दिखाने का. लेकिन बड़ा भाई के बिना छोटा भाई अधूरा है. डिस्फ़ंक्शनल फ़ैमिली ड्रामा होते हुए भी यहाँ रिश्तों की गर्माहट अभी बाकी है.
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रविवार 26 फ़रवरी के नव भारत टाइम्स में प्रकाशित हुआ.
पिछला साल खत्म हुआ था ’थ्री ईडियट्स’ के साथ, जिसे इस साल भी लगातार हिन्दी सिनेमा की सबसे ’कमाऊ पूत’ के रूप में याद किया जाता रहा. इस साल आई ’दबंग’ से लेकर ’राजनीति’ तक हर बड़ी हिट की तुलना ’थ्री ईडियट्स’ के कमाई के आंकड़ों से की जाती रही. मेरे लिए साल 2010 के सिनेमा पर बात करते हुए इनमें से कोई फ़िल्म संदर्भ बिंदु नहीं है. होनी भी नहीं चाहिए. आमिर ख़ान के ज़िक्र से शुरुआत इसलिए क्योंकि इन्हीं आमिर ख़ान ने साल 2010 में ’पीपली लाइव’ जैसी फ़िल्म का होना संभव बनाया. इसलिए भी कि इस फ़िल्म के प्रमोशन से जुड़ा एक किस्सा ही हमारी इस चर्चा का शुरुआती संदर्भ बिंदु है. सिनेमाघरों और टीवी पर आए ’पीपली लाइव’ के एक शुरुआती प्रोमो में एक टीवी पत्रकार कुमार दीपक को गांव पीपली से लाइव रिपोर्ट करते दिखाया गया है. दिखाया गया है कि आमिर के असर से अब गांव पीपली में उसके ही नाम के चिप्स और बिस्किट बिक रहे हैं. मज़ेदार बात तब होती है जब ’कट’ होने के बाद भी कैमरा चालू रहता है और हम पत्रकार कुमार दीपक को कहते हुए सुनते हैं कि आमिर ख़ान पगला गया है और पागलपन में कुछ भी बना रहा है. कुमार दीपक का कहना है कि ’लगान’ जैसी फ़िल्में बार-बार नहीं बनतीं और आमिर ख़ान ’पीपली लाइव’ बनाने के चक्कर में मुँह के बल गिरेगा.
चाहे यह आमिर का उसके पिछले प्रयोगों के प्रति कुछ कठोर रहे मुख्यधारा मीडिया पर पलटवार हो, इसमें अनजाने ही हिन्दी सिनेमा की मान्य संरचना दरकती दिखाई देती है. फ़िल्म का एक किरदार अपनी ही फ़िल्म के निर्माता के असल फ़िल्मी जीवन पर कमेंट पास करता है. जैसे कथा कहने की पारंपरिक संरचना में छेद करता है. जैसे किरदार के लिए निर्धारित दायरे को तोड़ता है. न जाने तारीफ़ में कहते थे कि उसके काम की खोट दिखाने के लिए, लेकिन हमारे दौर के महानायक शाहरुख़ के लिए उसके सुनहरे वर्षों में बार-बार यह दोहराया जाता रहा कि वह भूमिका चाहे होई भी निभाएं, लगते हर भूमिका में ’शाहरुख़ ख़ान’ ही हैं. चोपड़ाओं और उन जैसे कई और सिनेमाई घरानों की मार्फ़त बरसों से हम सुनते आए हैं कि हिन्दुस्तानी सिनेमा दर्शक के लिए उसके सपनों का संसार रचता है और इसी तर्क की आड़ लेकर बहुत बार उस सिनेमा का रिश्ता दर्शक की असल ज़िन्दगी से बिलकुल काट दिया जाता है. हिन्दी सिनेमा हमेशा ’साधारणीकरण’ सिद्धांत का कायल रहा है और ब्रेख़्त उसे मौके-बमौके बड़ी मुश्किल से याद आते हैं. उसे यह बिलकुल पसंद नहीं कि फ़िक्शन और नॉन-फ़िक्शन के तय दायरे टूटें और परदे पर चलती कथा में दर्शक की अपनी सच्चाई का ज़रा भी घालमेल हो.
लेकिन यह होता है. बीते साल में विभिन्न स्तर पर इनमें से कई प्रवृत्तियां बदलती दिखाई देती हैं, पलटती दिखाई देती हैं. हमारे शहराती जीवनानुभव की कलई खोलती दिबाकर बनर्जी की क्रम से तीसरी फ़ीचर फ़िल्म ’लव, सेक्स और धोखा’ फ़िक्शन सिनेमा में वृत्तचित्र का सा असर पैदा करती है. सबसे पहले ’डार्लिंग-ऑफ़-दि-क्राउड’ ’खोसला का घोंसला’, फिर विलक्षण ’ओए लक्की, लक्की ओए’ और अब आईने में दिखती कुरूप हक़ीक़त सी ’लव, सेक्स और धोखा’. दोस्तों का कहना है कि विरले बल्लेबाज़ मोहम्मद अज़रुद्दीन की तरह दिबाकर के नाम भी अब पहले तीन मौकों पर तीन शतकों सा विरला कीर्तिमान है. फ़िल्म से पहले आई अपनी एक ब्लॉग पोस्ट में दिबाकर उस दिन का किस्सा सुनाते हैं जब फ़िल्म की निर्माता एकता कपूर फ़िल्म का रफ़ कट पहली बार देख रही थीं. ज्ञात हो कि ये वही एकता कपूर हैं जिनके नाम अपने अतिनाटकीय ’के’ धारावाहिकों की बदौलत हिन्दुस्तानी टेलीविज़न की मलिका होने का ख़िताब दर्ज है. एकता के लिए फ़िल्म की प्रामाणिकता इस हद तक कटु हो जाती है कि नाकाबिलेबर्दाश्त है. एकता चलती फ़िल्म के बीच से उठ जाती हैं, दिबाकर अपने प्रयोग में कामयाब हुए हैं.
इन्हीं एकता कपूर द्वारा निर्मित अतिनाटकीय ’के’ धारावाहिकों से निकले दो कलाकारों को मुख्य भूमिकाओं में लेकर विक्रमादित्य मोटवाने ’उड़ान’ बनाते हैं. साल की एक और महत्वपूर्ण फ़िल्म और मज़ेदार बात है कि इसे लेकर भी कई ’पारिवारिक स्रोतों’ से वैसी ही विपरीत प्रतिक्रियाएं आईं जैसी कुछ महीने पहले ’लव, सेक्स और धोखा’ को लेकर मिली थीं. ’उड़ान’ भी हिन्दुस्तानी समाज के लिए बड़ा असहज करने वाला अनुभव था, क्योंकि वह हमारे समाज की सबसे महत्वपूर्ण ’पवित्र गाय’ में से एक मानी गई संस्था – ’परिवार’, के ध्वंसावशेष अपने भीतर समेटे थी. यह लोकप्रिय हिन्दी सिनेमा के सबसे प्रचलित मॉडल जैसी नहीं थी, याने यह एक ’पारिवारिक फ़िल्म’ नहीं थी. उन दो छोटे परदे के अदाकारों के अलावा ’उड़ान’ की मुख्य भूमिकाओं में दो बिलकुल नए चेहरे थे. लेकिन ’उड़ान’ की प्रामाणिकता सिर्फ़ उसकी कास्टिंग में ही नहीं थी. इस कहानी की स्वाभाविकता उसकी जान थी. बार-बार आती कविताओं से रची-बसी यह फ़िल्म दिल और ज़बान पर कड़वाहट भर देने की हद तक सच्ची थी. इतनी सच्ची की उसकी असलियत पर ही शक होने लगे. ’ऐसा ज़ालिम पिता भला कहीं होता है’, अभी-अभी उड़ान देखकर निकले किसी परिवार के मुखिया के मुँह से यह सुनना बड़ा आसान रहा होगा. लेकिन यह कड़वाहट से भरा अस्वीकार इस बात का सबूत है कि ’भैरव सिंह’ ऐसा आईना है जिसे हमारा हिन्दुस्तानी मर्द आज भी आसानी से देखने को तैयार नहीं.
’लव, सेक्स और धोखा’ को सार्वजनिक पटल पर सिर्फ़ अतिवादी प्रतिक्रियाएं ही मिलीं. आलोचकों और दर्शकवर्ग के एक हिस्से के लिए यह साल की सबसे बेहतरीन फ़िल्म थी तो एक बड़ा दर्शकवर्ग इसे सिरे से खारिज कर देना चाहता था. बहुत से दर्शकों की परिभाषा में यह ’फ़िल्म’ होने के आधारभूत नियम ही पूरे नहीं करती. हमारे दर्शकवर्ग का एक बड़ा हिस्सा आज भी सिनेमा की तय परंपरा में बंधा है और वह सिनेमा को बदलता तो देखना चाहता है लेकिन मौजूदा सिनेमाई चारदीवारी के भीतर ही. और ऐसे में ’लव, सेक्स और धोखा’ की पहली कहानी ’मोहब्बत बॉलीवुड श्टाइल’ आपके सामने है. फ़िल्म का नायक सिनेमा में और उसकी सच्चाई में दिलो-जान से यकीन करता है लेकिन कम्बख़्त सिनेमा के भीतर होते हुए भी उसकी नियति हमारे सिनेमा जैसी नहीं होती. जैसे ब्रेख़्तियन थियेटर में चलते नाटक के बीच अचानक दर्शकों में से उठकर कोई आदमी नाटक के मुख्य नायक को गोली मार देता है, ठीक वैसा ही ’अ-फ़िल्मी’ अंत राहुल और श्रुति की प्रेम-कहानी का होता है.
दिबाकर के यहाँ प्रामाणिकता और समाज की ’मिरर इमेज’ दिखाने की यह ज़िद ही अभिनेता के अवसान का कारण बनती है. इसका अर्थ यह न समझा जाए कि ’लव, सेक्स और धोखा’ में काम कर रहे कलाकार अभिनेता नहीं हैं. बेशक वे अभिनेता हैं और उनमें से कुछ तो क्या कमाल के अभिनेता हैं. हिन्दी सिनेमा में इनके काम की धमक मैं आनेवाले सालों में बारम्बार सुनने की तमन्ना रखता हूँ. इसे इस अर्थ में समझा जाए कि यहाँ अभिनेता फ़िल्म की कथा को सही और सच्चे अर्थों में आप तक पहुँचाने का माध्यम भर हैं. और शायद सच्चे सिनेमा में एक अभिनेता की सबसे महत्वपूर्ण भूमिका यही हो सकती है. यहाँ अभिनेता पटकथा के आगे, उस विचार के आगे, जिसे वो अपने कांधे पर रख आगे बढ़ा रहा है, गौण हो जाता है. ’लव, सेक्स और धोखा’ ऐसा अनुभव है जिसे देख लगता है कि जैसे इन कलाकारों ने इस फ़िल्म में काम करना नहीं चुना, इस फ़िल्म की तीनों कहानियों ने मोहल्ले में निकल अपने नायक-नायिका खुद चुन लिए हैं. बरसों से ’स्टार सिस्टम’ की गुलामी करते आए हिन्दी सिनेमा के लिए यह मौका देखना बड़ा विलक्षण अनुभव है. यह फ़िल्म के मूल विचार – उसकी कहानी, के माध्यम – अभिनेता पर जीत का क्षण है. एक ऐसी कहानी, ऐसा विचार जिसके आगे अभिनेता गौण हो जाता है.
बेला नेगी की फ़िल्म ’दायें या बायें’ भी इसी श्रंखला में आती है जहाँ कथा की प्रामाणिकता न सिर्फ़ असल पहाड़ी कलाकार बढ़ाते हैं बल्कि वही असल उत्तराखंडी परिवेश फ़िल्म की कथा संरचना को पूरा करता चलता है. यह अभिनेता के ह्वास का एक और आयाम है जहाँ अभिनेताओं के साथ जैसे मुख्य कथा का भी ह्वास हो जाता है. बार-बार वह उन हाशिए की कहानियों को सुनाने लगती है जिन्हें हम मुख्य कथा के साथ बंधे-बंधे भूले ही जा रहे थे. फ़िल्म वहाँ से शुरु नहीं होती जहाँ से हम चाहते थे कि वो हो और ठीक वैसे ही फ़िल्म वहाँ ख़त्म नहीं होती जहाँ हमने सोचा था कि वो होगी. समस्या कहाँ है? हम चाहते हैं कि हमारी थाली में मुख्य कथा को कढ़ाई में छौंककर, सजा-धजा कर, मेवा-इलायची डालकर बाकायदा परोसा जाए जबकि फ़िल्म हमें अपनी पसंद का फूल चुनने बगीचे में खुला छोड़ देती है. हम सिनेमा में इस मनमानी के आदी नहीं और चिड़ियाघर के जानवर की तरह तुरन्त अपने पिंजरे में वापस घुस जाना चाहते हैं. अपनी हर भूमिका में ’शाहरुख़ ख़ान’ दिखते महानायक को धता बताते हुए हमारे दौर के सबसे प्रामाणिक अभिनेता दीपक डोबरियाल ’रमेश मजीला’ को साक्षात हमारे सामने जीवित कर देते हैं. एक अभिनेता कहानी की तरफ़ से खड़ा होकर लड़ता है और उसका साथ पाकर फ़िल्म की कथा ’नायकत्व’ के विचार को क्या ख़ूब पटखनी देती है.
और ऐसा ही कुछ ओंकारदास माणिकपुरी और रघुबीर यादव नया थियेटर से आए दर्जन भर दुर्लभ अभिनेताओं के साथ जुगलबंदी कर ’पीपली लाइव’ में कर दिखाते हैं. यहाँ फ़िल्म की निर्देशक अनुषा रिज़वी के साथ आमिर का भी शुक्रिया. शुक्रिया इसलिए कि उन्होंने अनुषा और महमूद को उनके मनमाफ़िक सिनेमा रचने के लिए पूरा स्पेस दिया. शुक्रिया इसलिए कि उन्होंने खुद ’नत्था’ की भूमिका निभाने का लालच नहीं किया. जी हाँ, यह होना संभव था. हिन्दी सिनेमा में ऐसा बिना किसी रोक-टोक होता आया है. अगर आमिर बेखटके ’लगान’ के ’भुवन’ हो सकते हैं और चालीस पार की उमर में एक कॉलेज जाते लड़के की भूमिका निभा सकते हैं तो क्या वे ’पीपली लाइव’ के ’नत्था’ नहीं हो सकते थे? लेकिन हमारी खुशकिस्मती कि ऐसा कुछ नहीं हुआ और नतीजा यह कि उनकी फ़िल्म साल 2010 में आई ’कथ्य की जीत’ वाली फ़िल्मों की श्रंखला में एक दमकती कड़ी साबित हुई. अद्वितीय रचनात्मकता के धनी ’इंडियन ओशियन’ ने इस फ़िल्म के लिए विलक्षण संगीत रचा और रघुबीर यादव का गाया छत्तीसगढ़ी जनगीत ’महंगाई डायन’ हर नई व्याख्या के साथ फ़िल्म के दायरे से बाहर निकलता गया. हर नई व्याख्या के साथ यह वर्तमान समाज और राजनीतिक व्यवस्था पर मारक टिप्पणी करता प्रतीत हुआ.
और इन्हीं ’इंडियन ओशियन’ के ज़िक्र के साथ इस बात का रुख़ ’लीविंग होम’ की तरफ़ मुड़ता है. यह ऐसी संगीतमय डॉक्यूमेंट्री थी जिसने साल 2010 में सिनेमा के कई पूर्वलिखित नियमों को बदला. न केवल यह बाकायदा देशभर के सिनेमाघरों में रिलीज़ हुई बल्कि हाल ही में संपन्न हुए भारत के इकतालीसवें अंतरराष्ट्रीय फ़िल्म समारोह (गोआ) में इसे हिन्दुस्तानी पैनोरमा की उद्घाटन फ़िल्म होने का सम्मान भी दिया गया. जैसे साल भर कथा फ़िल्में प्रामाणिकता की तलाश में नित नए प्रयोग करती रहीं वैसे ही इस वृत्तचित्र के निर्देशक ने कथातत्व की तलाश में अपनी फ़िल्म से स्वयं को सदा अनुपस्थित रखा. निर्देशक जयदीप वर्मा इस प्रयोग को लेकर इतना सचेत थे कि फ़िल्म के चार किरदारों से चलती किसी आपसी बातचीत में आप कहीं उनका सवाली स्वर तक नहीं पकड़ पाते. इसके चलते यह वृत्तचित्र चार मुख्य किरदारों की ऐसी कथा-यात्रा बन जाता है जो अपने समकालीन किसी और फ़िक्शन से ज़्यादा रोचक और उतसुक्ता से भरा है. चार मुख्य किरदार जो यूँ अकेले खड़े हों तो बस इस महादेश की भीड़ का हिस्सा भर हैं, लेकिन जब मिल जाएं तो इस महादेश का सबसे सच्चा और प्रतिनिधि संगीत रचते हैं. नायकों की तलाश में निरंतर भटकते समाज को जयदीप कुछ सच्चे नायक देते हैं, और वो भी उस साल में जिसे हम सिनेमाई महानायक के अवसान का एक और अध्याय गिन रहे हैं.
एक और ख़ासियत है जो इन तमाम फ़िल्मों को एक सूत्र में बांधती है. न केवल यह फ़िल्में कहानी को अभिनेता से ऊपर रखती हैं, बल्कि इनके लिए परिवेश की प्रामाणिकता भी व्यावसायिक लाभ से कहीं आगे की चीज़ है. पिछले दो-ढाई दशक से, ठीक-ठीक जब से यह ’स्विट्ज़रलैंड’ नाम की बीमारी चोपड़ा साहब हिन्दी सिनेमा में लाए हैं, लगता है जैसे हिन्दी सिनेमा ’विदेशी लोकेशनों’ का गुलाम हो गया है. हमारे फ़िल्मकार बिना संदर्भ विदेश भागते दिखते हैं.
फिर ऐसे ही दौर में ये फ़िल्में आती हैं. ’उड़ान’ का जमशेदपुर और शिमला किसी मज़बूत किरदार सरीख़ा है. ’पीपली लाइव’ का ’पीपली’ प्रियदर्शन की फ़िल्मों के गांवों की तरह वर्तमान संदर्भों से कटा गांव नहीं है. उसमें ’लालबहाद्दुर’ टाइप मृगतृष्णा सरकारी परियोजनाएं हैं तो ’सोंमेंटो’ टाइप विदेशी बीज बेचकर हिन्दुस्तानी किसान को आत्महत्या के लिए मज़बूर करती बहुराष्ट्रीय कम्पनियों के संदर्भ भी. ’दायें या बायें’ में आया प्रामाणिक बागेश्वर का पहाड़ी इलाका है जो शहर में रहते हर पहाड़ी को उसके ’रटी हुई सीढ़ियों में बंटे’ गांव की याद दिला जाता है. दिल्ली शहर में रहता मैं रोज़ सुबह अखबार खोलता हूँ और रोज़ अपने शहर को और ज़्यादा ’लव, सेक्स और धोखा’ में मौजूद शहर में बदलता पाता हूँ.
इन फ़िल्मों में आई परिवेश की प्रामाणिकता मुख्यधारा सिनेमा के लिए भी चुनौती है. तभी तो ’दबंग’ जैसी साल की सबसे बड़ी व्यावसायिक सफ़ल फ़िल्म भी कोशिश करती दिखती है कि इस प्रामाणिकता को किसी हद तक तो बचाया जाए. करण जौहर महानायक को लेकर ’माई नेम इज़ ख़ान’ बनाते हैं जो हैं तो अब भी विदेश में लेकिन फ़िल्म में कम से कम उनके इस ’होने’ के उचित संदर्भ मिलते हैं. एक हबीब फ़ैज़ल आते हैं जो पहले तो अद्भुत प्रामाणिकता से भरी ’दो दुनी चार’ बनाते हैं और फिर अपने ’खांटी दिल्लीवाला’ संवादों से यशराज की ’बैंड, बाजा, बारात’ में असलियत के रंग भरते हैं. बेशक यशराज अब भी वही पंजाबी शादी देख, दिखा रहा है. लेकिन सिनेमा में ये हाशिए की आवाज़ें अब उनका भी जीना मुहाल करने लगी हैं. इन फ़िल्मों की नज़र से देखें तो दिखता है, हमारा सिनेमा अपनी ’सिनेमाई’ छोड़ रहा है, असलियत की संगत पाने के लिए.
जवान होती शीलाओं और बदनाम होती मुन्नियों के समय में हो सकता है कि आप विद्या बालन की ठीक-ठीक जगह न पहचान पाएं. लेकिन बीस-तीस साल बाद जब इतिहास के पन्नों में यह धुंध छंट चुकी होगी, उनका नाम उसी क्रम में होगा जहाँ ऊपर मधुबाला, वहीदा रहमान और नूतन का नाम लिखा है. हिन्दी सिनेमा की वर्तमान नायिका के लिए यह एक असल ’गैर-परंपरागत’ रोल था. और जैसा काम उन्होंने कर दिखाया है, सुंदरता/ मादकता/ यौवन/ आकर्षण के तमाम मापदंड उलट-पलट जाते हैं. इश्किया की ‘कृष्णा’ इंसान के भीतर बसे भगवान और शैतान दोनों को एक साथ जगा देती है.
रोनित रॉय – उड़ान
यह आकाशवाणी जयपुर है. अब आप सुनेंगे प्रायोजित कार्यक्रम ’युववाणी’. तक़रीबन पन्द्रह साल हुए उस बात को जब ’जान तेरे नाम’ का वो गाना दादा ने मेरी विशेष फ़रमाइश पर रेडियो पर सुनवाया था. और इसीलिए आज यहाँ ‘भैरव सिंह’ का नाम लिखते हुए मुझे बखूबी मालूम है कि रोनित रॉय के लिए यह कितना लम्बा फ़ासला है. हम जैसे नास्तिकों के लिए शायद यही ’पुनर्जन्म’ है. यह साल का सबसे उल्लेखनीय पुरुष किरदार है, और सबसे ज़्यादा कोसा गया भी.
रघुबीर यादव – पीपली लाइव
वजह वही जो दिबाकर की “ओये लक्की लक्की ओये” में ‘लक्की सिंह’ से ज़्यादा ‘बंगाली’ की तरफ़दारी करने की है. आपके पास कोई तय दिशा-निर्देश नहीं होता ऐसा किरदार निभाते वक़्त. यह करतब/कलाबाज़ी है. धार पर चलने बराबर. न आप उतने भोले हैं कि दुनिया के झमेले न समझें, न आप उतने चालाक/ताक़तवर हैं कि उन्हें धता बताते हुए बचकर निकल जाएं. आप ऐसे शिकार हैं जो अपने शिकारी की सूरत तो पहचानता है, लेकिन उससे बचने का कोई रास्ता उसके पास नहीं. और ‘बुधिया’ के किरदार में रघुबीर इस मुश्किल को ऐसे निकाल ले जाते हैं जैसे इसमें और बीड़ी सुलगाने में कोई अंतर ही न हो.
दीपक डोबरियाल – दायें या बाएं
मक़बूल, ओमकारा, 1971, शौर्य, दिल्ली6, 13B, गुलाल.. दीपक डोबरियाल हमारे दौर के सबसे प्रामाणिक अभिनेता हैं. और ’रमेश मजीला’ की भूमिका निभाते हुए उनकी उलझनों में गज़ब की सच्चाई है. ’नायक’ होने की तमाम मान्य परिभाषाओं को झुठलाते दीपक इस छोटी मगर खूबसूरत फ़िल्म के सबसे बड़े सितारे हैं. सहेजने के किए झोली भर के चमत्कारी क्षण दे जाते हैं.
राजकुमार यादव – लव, सेक्स और धोखा
इनमें से चुनाव कठिन है. लेकिन श्रुति, राहुल या रश्मि होने के मुकाबले ’आदर्श’ होना मुझे ज़्यादा मुश्किल लगता है. इस किरदार के लिए रचा गया घटनाचक्र पूरी तरह नकारात्मक था. लेकिन इसे ’नकारात्मक’ नहीं होना था. इस किरदार को निभाना इसलिए मुश्किल था क्योंकि इसे व्यवस्था का ’शिकार’ दिखाना सबसे मुश्किल था. ज़रा सी चूक और ’आदर्श’ हिन्दी सिनेमा का आदर्श विलेन होता और हमारी नज़रों के सामने से वो आईना ओझल हो जाता जो उस किरदार ने हमें दिखाया. राज कुमार यादव साल के इस सबसे मुश्किल इम्तिहान में पूरे खरे उतरते हैं.