‘बॉलीवुड’ कहा जाने वाला मुख्यधारा हिन्दी सिनेमा हमेशा से मेरे लिए एक बहुवचन रहा है. कई नितांत भिन्न, आपस में टकराती पहचानों को साथ संभालने की कोशिश करता माध्यम. आैर फिर सिनेमा तो ठहरा भी सामुदायिक कला. इसलिए कोई फिल्म अकेली नहीं होती. दरअसल वह कितने ही भिन्न समुच्चयों का सामंजस्य होती है. सदा बहुवचन होती है. ऐसे में, मेरे लिए हमेशा ही साल के अन्त में ‘पसन्दीदा फिल्म’ छांटने से ज़्यादा दिलचस्प ‘पसन्दीदा प्रसंग’ छांटना रहा है. ऐसे मौके, जहां मेरी नज़र में हमारे सिनेमा ने कुछ भिन्न किया, या कुछ निडरता दिखाई. मुझे डूबने का मौका दिया, या मुझे चौंकाया.
तो सदी के इस सोलहवें बसंत में, ऐसे ही पांच मौके मेरी पसन्द के, जहां हमारा सिनेमा कुछ ‘बड़ा’ होता है.
“मुद्दतां वाद मेरे काणा विच एक्क धुन्न वज रई है.”
‘उड़ता पंजाब’ इसलिए ख़ास है, क्योंकि यह जितने असंभव वृत्त खींचती है, उन्हें पूरा करती है. कहानी की सबसे त्याज्य किरदार अन्त में तर जाती है, आैर फ़िल्म का सबसे पतित किरदार आखिर में पवित्रता के सबसे स्वर्गिक मुकाम तक पहुंचता है. मुश्किल चयन होते हुए भी स्वाभाविक है मेरे लिए. ‘उड़ता पंजाब’ का चमत्कारिक दृश्य वह है जहां टॉमी सिंह अस्पताल में ड्रग डीलर से टकराता है. ड्रग डीलर के घायल है, डरा हुआ है. लेकिन उसके पास उस ‘बिहारन कुड़ी’ का पता है, जिसके हिस्से इस पॉप स्टार टॉमी सिंह की मासूमियत गिरवी है. टॉमी के हाथ में ‘हॉकी’ है, लेकिन वो मारता नहीं. आखिर ये किसी गुंडे की नहीं, एक हॉकी प्लेयर की हॉकी है.
वो विनती करता है, “तू मेरी गल सुन यारा. इक्क कुड़ी है. बिहारन है. अो जो हेरोइन दे चक्कर विच फंस गी सी.. मेरा उससे मिलना भोत जरूरी है यार. अो यार मैंने आज तक कभी किसी के लिए कुच्छ नहीं किया. एक्क वार कर लेण दे यार. मुक्ति मिल जाणी है मुझे. अो मेरी गल सुण. मुद्दतां वाद मेरे काणा विच एक्क धुन्न वज रई है. अो कुड़ी दी मेहरबानी है.”
आैर अचानक ड्रग डीलर टॉमी को पहचान जाता है. उसका फैन अपने हीरो को पहचान जाता है. आैर पहचानकर कहता क्या है? आखिर कह ही क्या सकता है इसके सिवा, “एक्क गाणा गा दे यार टॉमी. मेरे शरीर विच्च जान आ जाएगी.”
टॉमी बौखलाया है, बाहर पुलिस है. दरजाज़े की सांकल टूटने ही वाली है. आैर यहीं, अपने फैन लोगों की फ़रमाइश के जवाब में उन पर पेशाब करनेवाला पॉप स्टार टॉमी सिंह, इस पल जीवन मृत्यु के बीच खड़ा, एक अनजान ड्रग डीलर की फ़रमाइश पर गाना गाता है. गाता है, क्योंकि यही है उसके हाथ. यही है उसकी किस्मत. उसकी डेस्टिनी. संगीत ने डुबोया. संगीत ही उबारेगा. वो अंतिम सिरा, जो उसे अपनी खोई हुई मासूमियत से जोड़ता है. वो अंतिम सिरा, जो उस ‘इक्क कुड़ी’ से जोड़ता है.
आैर वो शिव कुमार बटालवी की कविता ‘इक्क कुड़ी’ के सिवा आैर कुछ गा नहीं पाता. इससे पवित्र कुछ नहीं. इससे मासूम कुछ नहीं.
“धागा खोल दिया एकदम!”
शायद यह संयोग नहीं है, कि मेरी नज़र में ‘एम एस धोनी : दि अनटोल्ड स्टोरी’ का सबसे पावरफुल सीन माही के अपने खेल से जुड़ा होने की बजाए उसकी नज़र से देखी एक दूसरे समकालीन प्रतिद्वंद्वी बल्लेबाज़ की अद्वितीयता के बारे में है.
पिछला सीन खुलता है जमशेदपुर के कीनन स्टेडियम में अंडर नाइंटीन की ‘कूच बेहार ट्रॉफी’ के फाइनल से. बिहार वर्सेस पंजाब. माही के जीवन का सबसे बड़ा मैच. नेशनल टीम में सेलेक्शन का मौका. पहले दिन माही ने नॉट आउट सत्तर रन मार दिए हैं. दूसरे दिन सुबह वो शतक से पहले आउट. लेकिन यह क्या! पटकथा सीन यहीं रोक कर, बैक टू पॉवेलियन. हुआ क्या आखिर?
कट टू अगला सीन: दोस्त दरवाज़ा पीट रहे हैं, “जल्दी खोलो.” माही उनींदी आँखों से दरवाज़े की कुंडी खोलता है, “क्या यार तुम लोग ठीक से सोने भी नहीं देगा.” पर सीन तो अटका हुआ है. दोस्त का भी वही सवाल है, “माही, हुआ क्या?” माही बाखबर, “कहाँ क्या हो गया?” फिर सवाल, “फाइनल में क्या हुआ?” आैर माही वही, अपनी दुनिया की सबसे प्यारी हंसी हँसता है. उसके पास सुनाने को आज एक कमाल की कहानी है. पर तसल्ली से, “बैठो, बताते हैं..”
फिल्म की पटकथा असल मैच को कट कर बाक़ी हिस्से को हमें माही की ज़ुबानी सुनाती है. यही चमत्कार है. आैर जिस स्वाभाविकता से सुशांत सिंह राजपूत ने पूरी फ़िल्म में महेन्द्र सिंह धोनी की मेहनत आैर खुद्दारी भरी ईमानदारी को अपने भीतर जिया है, वो इसमें काफ़ी मददगार है. देखिए, कैसे माही की किस्सागोई में प्रतिद्वंद्वी बल्लेबाज़ युवराज की बल्लेबाज़ी का ज़िक्र किसी सस्पेंस फिल्म के क्लाइमैक्स की तरह केन्द्रीय स्थान लिए है, आैर खुद दूसरी पारी ना मिलने की वजह से चयन की दौड़ से बाहर हो जाने की खबर किसी अप्रासंगिक पुछल्ले की तरह.
“पंजाब बैंटिंग करने आता है. उनका पहला विकेट गिरता है साठ पे. फिर बैटिंग करने आता है युवराज सिंह. डे टू के एंड का स्कोर 108 पे 1.. पूरे डे थ्री में उनका एक्के विकेट गिरता है. डे थ्री के एंड का स्कोर 431 पे 2. युवराज सिंह, डबल सेंचुरी. बहोत मारा. धागा खोल दिया एकदम..”
यहीं हम पहली बार उस युवराज सिंह नामक बीज को अंकुरित होते देखते हैं, जिसके अकल्पनीय खेल के बिना भारत का दो विश्वकप जीतना असंभव था.
लेकिन ठीक यहीं, यह मेरे लिए ‘माही दि बल्लेबाज़’ के भीतर ‘माही दि कैप्टन’ के जन्म का पल है. ‘कैप्टन कूल’ माही, जिसका कद खिलाड़ी माही से कहीं बड़ा है. भारत का सबसे महान कप्तान. अपने दौर का विश्व में सबसे महान कप्तान. भारत को दो विश्वकप जिताने वाला कप्तान. यहां हम माही की नज़रों से अठ्ठारह साल के युवराज सिंह को देख रहे हैं. माही ठीक पहचान गया है, अपने सितारा बल्लेबाज़ को. उसकी किस्सागोई में जलन नहीं, अद्भुत सम्मान भरी प्रतिद्वंद्विता छिपी है. जीत के लिए ‘क्या’ चाहिए, वो समझ गया है.
किस्से के अन्त में दोस्तों को बताता है, “पता है हम लोग मैच कहां हारे? क्रिकेट ग्राउंड पर नहीं, रात को बास्केटबॉल कोर्ट में” वहां, जहां बिहार के किशोरवय खिलाड़ी बेपरवाह जाते युवराज को, उस अद्वितीय प्रतिभा के विस्फोट को उम्मीद भरी प्यासी नज़रों से देख रहे थे. आैर महेन्द्र सिंह धोनी देख रहा था इन्हें, जीतने से पहले ही विजेता की चाल में चले जाते युवराज को देखते हुए.
आैर देखने की, अॉब्ज़रवेशन की यह सघन प्रक्रिया, जो हमारे एमएसडी की कप्तानी का सबसे केन्द्रीय अंग है (‘प्रोसेस महत्वपूर्ण है, रिज़ल्ट नहीं’) उसे हम दर्शक अपने सबसे प्राथमिक रूप में यहां अंकुरित होते देख रहे थे.
“लिए हैं हमने पैसे..”
‘पिंक’ मेरी पसन्दीदा फ़िल्म नहीं है. ये कहना होगा कि पुरुष संरक्षक किरदार की छत्रछाया में रची गई यह ‘स्त्री अधिकार’ की कहानी अपनी कथा संरचना में 90s की ‘दामिनी’ से आगे नहीं. पग पग सीख देती, संदेश देती इसकी अोवर-दि-टॉप बच्चनभाषा बॉलीवुड में किसी नई सिनेमाई ज़मीन को नहीं तोड़ती. लेकिन एक निडर बिन्दु ऐसा है पटकथा में, जहां ‘पिंक’ अपनी तमाम सावधानियों को पीछे छोड़ते हुए पार निकल जाती है.
कीर्ति कुलहरि की बात कम हुई है. मेरे लिए वही इस फिल्म की असली धड़कती जान हैं. ‘फ़लक अली’ का किरदार ही सबसे ख़ास है. वही अकेला किरदार है, जिसके चारों आेर ‘नैतिक’ की लक्ष्मणरेखा खीचने की कोशिश यह नागरिक शास्त्र का स्कूली पाठ लगती फिल्म नहीं करती. फ़िल्म के मध्य से थोड़ा आगे, एक सीन है जहां कीर्ति कुलहरि अदालत में खड़ी जवाब देती अचानक फट पड़ती हैं. लकड़ी के कटघरे पर हाथ पटकती हैं आैर चीखती हैं,
“हाँ, ठीक है, ठीक है, ठीक है.. लिए हैं हमने पैसे. Yes, we took the money sir. हमने पैसे मांगे भी आैर लिए भी. लेकिन फिर भी पैसे लेने के बाद मीनल का मन बदल गया सर. She withdrew her consent sir. उसने उसे ना बोला, लगातार ना बोला. उसके बावजूद ये आदमी उसे छूता रहा. Now you tell me sir, by law.. by law sir.. वो सही था या ये.”
अनंत संभावनाएं हैं, जो यह अकेला दृश्य खोल देता है. एक अद्भुत किस्म की ईमानदारी, ऐसी vulnerability जो सही आैर गलत के दायरों में बात करती इस फ़िल्म के लिए दुर्लभ है. पहली बार यहां, बिना डरे फिल्म कहती है कि यह न्याय की लड़ाई है. आैर न्याय की लड़ाई में विक्टिम के चरित्र पर बात अप्रासंगिक होती है, हमेशा. पहली बार यहां, बिना डरे फिल्म कहती है कि भले उसकी लड़कियां समाज की परिभाषा में, आपकी परिभाषा में, कितनी ही ‘अनैतिक’ हों.. वो उनके साथ खड़ी है. यही बेखौफ़ निडरता सिनेमा की जीत है.
बस यही बुरा है, कि यह चमत्कार पल भर का है. फौरन उसके दूसरे ही सीन में फिल्म ‘जस्टिफाई’ करती है. बच्चन से कहलवाकर कि “लड़कियों ने पैसे नहीं लिए फिर भी मान लिया. आर्ग्यूमेंट ही खत्म कर दिया.” साबित करवाया जाता है कि लड़कियां ‘पवित्र’ हैं आैर ‘पैसे लेने’ वाली बात मानना बस एक टैक्टिक थी. पर फिर, हमारा लोकप्रिय सिनेमा क्या इतना बड़ा हुआ है कि वो स्त्री आज़ादी पर फिल्म भी बनाए आैर उसमें लड़की के किरदार को अकेला ‘ग्रे एरिया’ में छोड़ दे?
शायद यह बड़प्पन वाला सवाल हमारे सिनेमा से नहीं, नागरिक समाज से होना चाहिए.
“ले कर ले..”
यह अनुराग कश्यप की आैसत से कुछ बेहतर फिल्म का सबसे अद्वितीय हिस्सा है. ‘दि सिस्टर’ शीर्षक वाले इस चैप्टर में हमारे समय का स्याह अंधेरा समाज द्वारा प्रदान सबसे सुरक्षित पनाहगाह ‘परिवार’ के भीतर घुसता है. यहां मारक हिंसा को कश्यप ने रोज़मर्रा के साथ पिरोया है. हत्यारा रमन्ना प्याज़ के साथ चिकन पका रहा है अपनी बहन के परिवार के लिए. ठीक उनकी संभावित हत्याअों के मध्य. नवाज़ यहां अकल्पनीय हिंसा को अपनी आंखों में भरे हैं. हिंसा, जो कभी उसके भीतर ऐसे ही किसी अौर घटनाक्रम ने भरी होगी. इसी पवित्र परिवार की चारदीवारी के भीतर.
‘जान से मारने’ से भी ज़्यादा हृदयविदारक है ‘जान के मारना’. “वो करना है तुझे, बहुत दिन से किया नहीं है.. ले कर ले..”. उम्दा मराठी अभिनेत्री अमृता सुभाष यहां चमत्कार करती हैं. उनके इस एक पलटवार से इस पवित्र परिवार संस्था के धुर्रे बिखर जाते हैं. हमारे मन-मस्तिष्क के भी. आैर जिस क्षण वो अपने भाई को घर से बाहर कर रोती हैं, जैसे फट पड़ती हैं, देखनेवाले के रौंगटे खड़े हो जाते हैं. आैसत से बेहतर ‘रमन राघव 2.0’ के मध्य यह कश्यप का अपना ‘एनिमल किंगडम’ है. सिनेमाई उजास भरा. निर्दयी. निर्भीक. निर्लज्ज.
“आपकी नज़रों ने समझा, प्यार के काबिल मुझे”
हंसल मेहता की ‘अलीगढ़’ का यह प्रसंग हमें प्रोफेसर श्रीनिवासन रामचन्द्र सिरस की बेहद अकेली लेकिन निहायत ही कोमल दुनिया के भीतर लेकर जाता है. दीवार पर लगे शीशे पर अक्स उभरता है. पीछे एक गीत है, रेडियो से आती आवाज़. लता मंगेशकर का अछूता स्वर. “आपकी नज़रों ने समझा, प्यार के काबिल मुझे”. अभिनय में यह निष्कपट पवित्रता का चरम है. जैसे मनोज बाजपेयी ने इन सिनेमाई दो सौ सेकंड में अपनी तमाम अकेली रातों की पूंजी उंडेल दी है. जिस तरलता से वे एक मराठी भाषी अधेड़ की भाव-भंगिमाअों को, उसके गुस्से को, उसके मैनरिज़्म को, उसकी बेबसी को अपने भीतर उतारते हैं, देखना विस्मयकारी है.
लगता है जैसे इस निपट अकेली दुनिया में बस यही एक आवाज़ है, जिसके सहारे सिरस ज़िन्दगी का सिरा पकड़े हुए हैं. वो मायावी प्रेम, जिसे शब्दों में बयान करना संभव नहीं, उसकी बस स्मृतियां बची हैं अब. आैर सिरस ने किसी नीलकंठ की तरह उसे पी लिया है. धारण कर लिया है. जैसे किसी समाधि में हैं आैर साक्षात ईश्वर समक्ष है. गुणी कैमरामैन सत्य राय नागपॉल का तन्मय कैमरा इस ट्रांस को टूटने नहीं देता. काबिल लेखक आैर संपादक अपूर्व असरानी दृश्य को जैसे किसी पतंग सा तरल खुला छोड़ देते हैं. आप बस डूब जाते हैं.
लिख लीजिए, साल 2016 में इससे बेहतर आपने आैर कुछ नहीं देखा होगा.
इसी नोट के साथ. इति. शुभ मंगल 2017.