पहले जुम्मे की टिप्पणी है. इसलिए अपनी बनते पूरी कोशिश है कि बात इशारों में हो और spoilers न हों. फिर भी अगर आपने फ़िल्म नहीं देखी है तो मेरी सलाह यही है कि इसे ना पढ़ें. किसी बाह्य आश्वासन की दरकार लगती है तो एक पंक्ति में बताया जा सकता है कि फ़िल्म बेशक एक बार देखे जाने लायक है, देख आएं. फिर साथ मिल चर्चा-ए-आम होगी.
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बीस के सालों में जब अंग्रेज़ी रियासत द्वारा स्थापित ’नई दिल्ली योजना समिति’ के सदस्य जॉन निकोल्स ने पहली बार एक सर्पिलाकार कुंडली मारे बैठे शॉपिंग प्लाज़ा ’कनॉट प्लेस’ का प्रस्ताव सरकार के समक्ष रखा था, उस वक़्त वह पूरा इलाका कीकर के पेड़ों से भरा बियाबान जंगल था. ’कनॉट सर्कस’ के वास्तुकार रॉबर्ट रसैल ने इन्हीं विलायती बबूल के पेड़ों की समाधि पर अपना भड़कीला शाहकार गढ़ा.
इम्तियाज़ अली की ’रॉकस्टार’ में इसी कनॉट प्लेस के हृदयस्थल पर खड़े होकर जनार्दन जाखड़ उर्फ़ ’जॉर्डन’ जब कहता है,
“जहाँ तुम आज खड़े हो, कभी वहाँ एक जंगल था. फिर एक दिन वहाँ शहर घुस आया. सब कुछ करीने से, सलीके से. कुछ पंछी थे जो उस जंगल के उजड़ने के साथ ही उड़ गए. वो फिर कभी वापस लौटकर नहीं आए. मैं उन्हीं पंछियों को पुकारता हूँ. बोलो, तुमने देखा है उन्हें कहीं?”
तो मेरे लिए वो फ़िल्म का सबसे खूबसूरत पल है. एक संवाद जिसके सिरहाने न जाने कितनी कहानियाँ अधलेटी सी दिखाई देती हैं. तारीख़ को लेकर वो सलाहियत जिसकी जिसके बिना न कोई युद्ध पूरा हुआ है, न प्यार. लेकिन ऐसे पल फिर फ़िल्म में कम हैं. क्यों, क्योंकि फ़िल्म दिक-काल से परे जाकर कविता हो जाना चाहती है. जब आप सिनेमा में कहानी कहना छोड़कर कोलाज बनाने लगते हैं तो कई बार सिनेमा का दामन आपके हाथ से छूट जाता है. यही वो अंधेरा मोड़ है, मेरा पसन्दीदा निर्देशक शायद यहीं मात खाता है.
आगे की कथा आने से पहले ही उसके अंश दिखाई देते हैं, किरदार दिखाई देते हैं. और जहाँ से फ़िल्म शुरु होती है वापस लौटकर उस पल को समझाने की कभी कोशिश नहीं करती. रॉकस्टार में ऐसे कई घेरे हैं जो अपना वृत्त पूरा नहीं करते. मैं इन्हें संपादन की गलतियाँ नहीं मानता. ख़ासकर तब जब शम्मी कपूर जैसी हस्ती अपने किरदार के विधिवत आगमन से मीलों पहले ही एक गाने में भीड़ के साथ खड़े ऑडियो सीडी का विमोचन करती दिखाई दे, यह अनायास नहीं हो सकता. ’रॉकस्टार’ यह तय ही नहीं कर पाई है कि उसे क्या होना है. वह एक कलाकार का आत्मसाक्षात्कार है, लेकिन बाहर इतना शोर है कि आवाज़ कभी रूह तक पहुँच ही नहीं पाती. वह एक साथ एक कलाकृति और एक सफ़ल बॉलीवुड फ़िल्म होने की चाह करती है और दोनों जहाँ से जाती है.
ऐसा नहीं है कि फ़िल्म में ईमानदारी नहीं दिखाई देती. कैंटीन वाले खटाना भाई के रोल में कुमुद मिश्रा ने जैसे एक पूरे समय को जीवित कर दिया है. जब वो इंटरव्यू के लिए कैमरे के सामने खड़े होते हैं तो उस मासूमियत की याद दिलाते हैं जिसे हम अपने बीए पास के दिनों में जिया करते थे और वहीं अपने कॉलेज की कैंटीन में छोड़ आए हैं. अदिति राव हैदरी कहानी में आती हैं और ठीक वहीं लगता है कि इस बिखरी हुई, असंबद्ध कोलाजनुमा कहानी को एक सही पटरी मिल गई है. लेकिन अफ़सोस कि वो सिर्फ़ हाशिए पर खड़ी एक अदाकारा हैं, और जिसे इस कहानी की मुख्य नायिका के तौर चुना गया है उन्हें जितनी बार देखिए यह अफ़सोस बढ़ता ही जाता है.
ढाई-ढाई इंच लम्बे तीन संवादों के सहारे लव आजकल की ’हरलीन कौर’ फ़िल्म किसी तरह निकाल ले गई थीं, लेकिन फ़िल्म की मुख्य नायिका के तौर गैर हिन्दीभाषी नर्गिस फ़ाखरी का चयन ऐसा फ़ैसला है जो इम्तियाज़ पर बूमरैंग हो गया है. शायद उन्होंने अपनी खोज ’हरलीन कौर’ को मुख्य भूमिका में लेकर बनी ’आलवेज़ कभी कभी’ का हश्र नहीं देखा. फिर ऊपर से उनकी डबिंग इतनी लाउड है कि फ़िल्म जिस एकांत और शांति की तलाश में है वो उसे कभी नहीं मिल पाती. बेशक उनके मुकाबले रणबीर मीलों आगे हैं लेकिन फिर अचानक आता, अचानक जाता उनका हरियाणवी अंदाज़ खटकता है. फिर भी, ऐसे कितने ही दृश्य हैं फ़िल्म में जहाँ उनका भोलापन और ईमानदारी उनके चेहरे से छलकते हैं. ठीक उस पल जहाँ जनार्दन हीर को बताता है कि उसने कभी दारू नहीं पी और दोस्तों के सामने बस वो दिखाने के लिए अपने मुंह और कपड़ों पर लगाकर चला जाता है, ठीक वहीं रणबीर के भीतर बैठा बच्चा फ़िल्म को कुछ और ऊपर उठा देता है. ’वेक अप सिड’ और ’रॉकेट सिंह’ के बाद यह एक और मोती है जिसे समुद्र मंथन से बहुत सारे विषवमन के बीच रनबीर अपने लिए सलामत निकाल लाए हैं.
फ़िल्म के कुछ सबसे खूबसूरत हिस्से इम्तियाज़ ने नहीं बल्कि ए आर रहमान, मोहित चौहान और इरशाद कामिल ने रचे हैं. तुलसी के मानस की तरह जहाँ चार चौपाइयों की आभा को समेटता पीछे-पीछे आप में सम्पूर्ण एक दोहा चला आता है, यहाँ रहमान के रूहानी संगीत में इरशाद की लिखी मानस के हंस सी चौपाइयाँ आती हैं.
’कुन फ़ाया कुन’ में…
“सजरा सवेरा मेरे तन बरसे, कजरा अँधेरा तेरी जलती लौ,
क़तरा मिला जो तेरे दर बरसे … ओ मौला.”
’नादान परिंदे’ में…
कागा रे कागा रे, मोरी इतनी अरज़ तोसे, चुन चुन खाइयो मांस,
खाइयो न तू नैना मोरे, खाइयो न तू नैना मोरे, पिया के मिलन की आस.”
यही वो क्षण हैं जहाँ रणबीर सीधे मुझसे संवाद स्थापित करते हैं, यही वो क्षण हैं जहाँ फ़िल्म जादुई होती है. लेकिन कोई फ़िल्म सिर्फ़ गानों के दम पर खड़ी नहीं रह सकती. अचानक लगता है कि मेरे पसन्दीदा निर्देशक ने अपनी सबसे बड़ी नेमत खो दी है और जैसे उनके संवादों का जावेद अख़्तरीकरण हो गया है. और इस ’प्रेम कहानी’ में से प्रेम जाने कब उड़ जाता है पता ही नहीं चलता.
सच कहूँ, इम्तियाज़ की सारी गलतियाँ माफ़ होतीं अगर वे अपने सिनेमा की सबसे बड़ी ख़ासियत को बचा पाए होते. मेरी नज़र में इम्तियाज़ की फ़िल्में उसके महिला किरदारों की वजह से बड़ी फ़िल्में बनती हैं. नायिकाएं जिनकी अपनी सोच है, अपनी मर्ज़ी और अपनी गलतियाँ. और गलतियाँ हैं तो उन पर अफ़सोस नहीं है. उन्हें लेकर ’जिन्दगी भर जलने’ वाला भाव नहीं है, और एक पल को ’जब वी मेट’ में वो दिखता भी है तो उस विचार का वाहियातपना फ़िल्म खुद बखूबी स्थापित करती है. उनकी प्रेम कहानियाँ देखकर मैं कहता था कि देखो, यह है समकालीन प्यार. जैसी लड़कियाँ मैं अपने दोस्तों में पाता हूँ. हाँ, वे दोस्त पहले हैं लड़कियाँ बाद में, और प्रेमिकाएं तो उसके भी कहीं बाद. और यही वो बिन्दु था जहाँ इम्तियाज़ अपने समकालीनों से मीलों आगे निकल जाते थे. लेकिन रॉकस्टार के पास न कोई अदिति है न मीरा. कोई ऐसी लड़की नहीं जिसके पास उसकी अपनी आवाज़ हो. अपने बोल हों. और यहाँ बात केवल तकनीकी नहीं, किरदार की है.
इम्तियाज़ की फ़िल्मों ने हमें ऐसी नायिकाएं दी हैं जो सच्चे प्रेम के लिए सिर्फ़ नायक पर निर्भर नहीं हैं. किसी भी और स्वतंत्र किरदार की तरह उनकी अपनी स्वतंत्र ज़िन्दगियाँ हैं जिन्हें नायक के न मिलने पर बरबाद नहीं हो जाना है. बेशक इन दुनियाओं में हमारे हमेशा कुछ कमअक़्ल नायक आते हैं और प्रेम कहानियाँ पूरी होती हैं, लेकिन फ़िल्म कभी दावे से यह नहीं कहती कि अगर यह नायक न आया होता तो इस नायिका की ज़िन्दगी अधूरी थी. इम्तियाज़ ने नायिकायों को सिर्फ़ नायक के लिए आलम्बन और उद्दीपन होने से बचाया और उन्हें खुद आगे बढ़कर अपनी दुनिया बनाने की, गलतियाँ करने की इजाज़त दी. इस संदर्भ को ध्यान रखते हुए ’रॉकस्टार’ में एक ऐसी नायिका को देखना जिसका जीवन सिर्फ़ हमारे नायक के इर्द गिर्द संचालित होने लगे, निराश करता है. और जैसे जैसे फ़िल्म अपने अंत की ओर बढ़ती है नायिका अपना समूचा व्यक्तित्व खोती चली जाती है, मेरी निराशा बढ़ती चली जाती है.
मैंने इम्तियाज़ की फ़िल्मों में हमेशा ऐसी लड़कियों को पाया है जिनकी ज़िन्दगी ’सच्चे प्यार’ के इंतज़ार में तमाम नहीं होती. वे सदा सक्रिय अपनी पेशेवर ज़िन्दगियाँ जीती हैं. कभी दुखी हैं, लेकिन हारी नहीं हैं और ज़्यादा महत्वपूर्ण ये कि अपनी लड़ाई फिर से लड़ने के लिए किसी नायक का इंतज़ार नहीं करतीं.
और हाँ, पहला मौका मिलते ही भाग जाती हैं.
मैं खुश होता अगर इस फ़िल्म में भी नायिका ऐसा ही करती. तब यह फ़िल्म सच्चे अर्थों में उस रास्ते जाती जिस रास्ते को इम्तियाज़ की पूर्ववर्ती फ़िल्मों ने बड़े करीने से बनाया है.
@RockStar I love the way you wrote ‘naali’ in bold capital letters. Koi shaq naa rah jaaye ki tareef hai yaa gaali.. isliye naali nahin, NAALI
Bhaiyaa .. Mihir Pandya-G , ek toh aap ko yeh filim samaz main nahi aaye haie.. ya fir ..aap shbdon k pravah main bahte chale gaye ho, aur aisa lagta hai ki yeh pravah aage jaa ki kisi NAALI se jud gaya ho ..
Dhanyavaad.
aapki lekhni padh kar main yeh bhi kah sakta hu ki jai arjun english ke ‘mihir pandya’ hai aajkal office se resign kiya hua hai to waqt ki koi kami nahi hai…ek ek karke aapke lekh padh raha hu
baaki accha lagta hai jab koi gaaliya dene ki jagah baith ke movie ka vishleshan karta hai aur apne vichar sabhya bhahsa me prakat karta hai.
main bhi manta hu ki yadi yeh nayika ke gun hote to shayad main bhi is movie ko jyada enjoy karta…par jab imtiaz is one track role ke liye nagis ko dhoondh paaye to ranbir ke mushkil kirdar ko nibhane ke liye adakara kaha se dhoondhte
प्रखर :- जो बात हम फ़ेसबुक पर कर चुके हैं वही यहाँ फिर दोहरा रहा हूँ। वह फ़िल्म पर मेरा नज़रिया है और मैंने ऐसा कभी नहीं कहा कि फ़िल्म की कोई सार्वभौमिक परिभाषा बन चुकी है। इस फ़िल्म के संदर्भ में मुझे ऐसा लगता है कि उसके ’कोलाज’ हो जाने की कोशिश सफ़ल नहीं होती। शायद वो अधूरी है इसलिये, शायद वो विषय के साथ नहीं जाती इसलिये। मुझे वही समस्या है। और भी कुछ हैं जो मैंने अपने निबंध में लिखी हैं।
गौरव :- जय अर्जुन मेरे प्रिय लेखक हैं। और आज भी मेरे लिये सबसे बड़ा कॉम्प्लिमेंट यही है कि मैं हिन्दी का ’जय अर्जुन’ हूँ 😉 मुझे नहीं लगता कि मुझे आपकी बात से कोई विरोध है। मेरा कहना सिर्फ़ यही है कि नायक को कर्ता और नायिका को सिर्फ़ उद्दीपन बना देने वाली फ़िल्म की उम्मीद मुझे इम्तियाज़ अली से नहीं थी। उन्होंने अपनी पूर्ववर्ती फ़िल्मों में मेरे लिये हिन्दी सिनेमा की नायिका को पुन:परिभाषित किया है। और यह भी कि हिन्दी सिनेमा के लिये ऐसा विद्रोही नायक कोई नया नहीं। हाँ अगर यही नायिका के गुण होते तो वो स्टीरियोटाइप तोड़ने वाला होता। बाकी इसमें और ’कुछ कुछ होता है’ की नायिकाओं में अन्तर ही क्या।
Came across your blog via jai arjun singh and frankly have not read anything better in hindi since a long time.
you are a great critic…and this is an amazing piece on the movie.
I loved the movie and found it to be an amazing experience. maine yeh kahani poori tarah se Ranbir kapoor ke drishtikone se dekhi. kahani me jo adhoorapan aur shor tha…woh main janardan ke ird gird ke shor ki tarah hi mehsoos kar raha tha. kahani me jo sukoon aur shanti thi woh main janardan ke andar ki shanti ki tarah mehsoon kar raha tha. yeh kirdaar aisa tha jiske charo taraf shor hi shor tha aur woh us shor se pare apni duniya me khush tha. nagis fakhri ki adakari behad kharaab thi. par maine us character ko sirf ek pratibimb ki tarahy dekha. Ek obsession jo ranbir ke andar tha kyonki sacche pyaar se hi kavitha nikalti hai. Shayad isliye hi nagis fakhri ka kirdar here ke ird gird ghoomta hai kyonki woh kirdaar border line surrealism hai. ek aisa kirdaar jo ki ranbir ki kavitha ke liye prerna strot bhar hai….baaki uski ahemiyat kuch bhi nahi
मिहिर भईया , अच्छी समीक्षा…रोकस्टार देखते हुए मुझे Dali की Persistence of Memory याद आ रही थी ,अधूरे व्रत्त, असामान्य ब्रश पुसेज , ऐसी लड़की जिसकी प्रेजेंस नगण्य सी है ….घटक साहब की बात भी की ”कथ्य शशक्त हो तो अपना शिल्प खुद गढ़ लेते हैं” … मूवी के ज्यादातर हिस्सों में शिल्प तो जेनुइन ही लगा ,.समीक्षा पढते हुए एक बात पर आकर अटक रहा हूँ , सिनेमा की सार्वभौमिक परिभाषा स्थापित हो चुकी है क्या ? हाँ तो मुझे अवगत कराएँ ,नहीं तो कोलाज होने पर नेगटिव टैग क्यों ?
Bahut sahi. Exactly jo main soch raha tha is film ke baare mein.
Isko kehte hain sahi sameeksha. Bhartiya cinema ki ek main problem ye bhi hai ki jo critic ban ke baithe hain unko criticism ka ‘c’ bhi nahi aata.
Yeh bhi sahi hai ki film ke sabse achhe pal gaano mein hain. Aur maine film ke gaane film dekhne se pehle sune nahi the – aur gaano ka placement itna bura tha ya phir mere cinema hall ka music system ki mujhe film dekhte samay gaane bhi sahi nahi lage the. ‘nadan parindey’ jaise gaane ki itni durdasha ki thi.
Finally, ek cheez jo aapne nahi kahi hai – woh thi kahani. Jis tarah se second-half mein kahani ko mod-tod ke zabardasti passion khusane ki koshish ki thi usse film ki soul hi kho gayi thi.
I hope you make it big as a film critic some day!
Good Luck
मिहिर भाई,
नमस्कार,
फिल्म देखे हफ़्तों हो गया है, पर भूल नहीं पा रहा हूँ, आज आपकी वेबसाईट का पाता चला, आकर देखा और फिल्म फिर याद हो गयी…कुछ पहलू जो अनछुए रह गए थे इस फिल्म के वो यहाँ पता लगे..एक बहुत ही सम्यक समीक्षा…
इम्तियाज़ अली की पहली फिल्म “सोचा ना था” से लेकर “लव आज कल ” सारी फिल्मों में नायिका कहानी का हिस्सा रही हैं ना कि उसे पूरा करने का मात्र जरिया, जो “रॉकस्टार” में कहीं खो गया है, और यही “हिस्सा” कहानी के खतम होने पर उसके अधूरा रह जाने पे अखरता है|
फिल्म की एक समस्या इसका बहुत फिल्मी होना भी लगी। अपने आप को खोजते… अपने में डूबते, फिर उबरते, फिर डूबते इन किरदारों में दूसरों के प्रति जागनेवाला प्यार मुझे पचा नहीं।
क्योंकि ऐसा पहले से कह दिया गया था, तो मैंने फिल्म देखने के बाद ही यह पोस्ट पढ़ी. सब कुछ बहुत ही सटीक लिखा है.
फिल्म में हर जगह पर मैं इम्तिआज़ की उस ही कहानी को ढूंढ रहा था. बहुत ठीक लिखा कि वे अपने सिनेमा की उस खासियत को बचा नहीं पाए. शायद इसी वजह से में अंत के बाद भी कुछ उम्मीद कर रहा था. रूमी की पंक्तियाँ हालाँकि इसे जस्टिफाई करने की कोशिश कर रही थी जो शायद इसीलिए दो बार कही जाती हैं.
फिल्म का सार मेरे लिए नायक और नायिका की रेंडमनेस में था.
शुक्रिया संदीप. मैं तो यहीं था. इसी कोने में बैठकर लिखा करता हूँ. खुश रहता हूँ. और फ़ॉलो करने का तो क्या है, अपने बुकमार्क में इस सिनेमाई बहीखाते का आभासी पता सुरक्षित कर लीजिए. बाक़ी दोस्तियाँ तो बातों से बनती हैं. बातें चलती रहेंगीं, दोस्तियाँ चलती रहेंगीं.
भाई पढकर लगा कि लगभग एक चाताक्रित भाषा के संसार में घुस गया हूँ और बस बाहर निकालने का मन ही नहीं था …………..एक के बाद एक सारे पढ़ डाले और लगा कि भाषा का जो मुहावरा तुम्हारे पास है वो अप्रतिम है और शायद किसी और के पास कभी नहीं होगा और सिर्फ जादू नहीं बाजीगरी नहीं बल्कि एक व्यवस्थित अकादमिक अनुशासन के साथ आया ज्ञान और विश्लेषण अदभुत है………..कहा थे अभी तक ……………ये बताओ भाई तुम्हारे ब्लॉग को फालो कैसे किया जाए और दोस्त बनाना हो या भाई तो क्या करना होगा…………………….अंगरेजी में कहते है ना you made my day…………
Love & Blessings
Sandip Naik
Dewas, MP
बढ़िया समीक्षा, देखी जायेगी फिल्म।