“हम चीज़ों को भूलने लगते हैं, अगर हमारे पास कोई होता नहीं उन्हें बताने के लिए”
स्थापत्यकार राहुल महरोत्रा समकालीन मुम्बई शहर की विरोधाभासी संरचना को केन्द्र बनाकर लिखे गए अपने चर्चित निबंध में शहर की संरचना को दो हिस्सों में विभाजित कर उन्हें ‘स्टेटिक सिटी’ तथा ‘काइनैटिक सिटी’ का नाम देते हैं। वे लिखते हैं, “आज के भारतीय शहर दो हिस्सों से मिलकर बनते हैं, जो एक ही भौतिक स्पेस के भीतर मौजूद हैं। इनमें पहली औपचारिक नगरी है जिसे हम ‘स्टेटिक सिटी’ कह सकते हैं। ज़्यादा स्थायी सामग्री जैसे कंक्रीट, स्टील और ईंटों द्वारा निर्मित यह शहर का हिस्सा शहर के पारम्परिक नक्शों पर द्विआयामी जगह घेरता है और अपनी स्मारकीय उपस्थिति दर्ज करवाता है। दूसरा शहर, शहर का अनधिकृत या कहें अनौपचारिक हिस्सा है जिसे हम ‘काइनैटिक सिटी’ कह सकते हैं। इसे द्विआयामी सांचे में बाँधकर समझना असंभव है। यह सदा गतिमान शहर है – जिसका निर्माण शहर में बढ़ती हुई वैकासिक त्रिआयामी गतिविधियों द्वारा होता है।”[1] काइनैटिक सिटी अपने स्वभाव में ज़्यादा अस्थायी और गतिमान होती है और यह निरंतर खुद में सुधार करती रहती है और खुद को बदलती रहती है। काइनैटिक सिटी शहर के स्थापत्य में नहीं है। यह तो निरंतर बदलती शहरी ज़िन्दगियों की आर्थिक, साँस्कृतिक और सामाजिक गतिविधियों में निवास करती है।
इस काइनैटिक सिटी का उदाहरण गिनाते हुए महरोत्रा मुम्बई की मशहूर डब्बावाला संस्कृति को शहर के इन दो हिस्सों − स्टेटिक सिटी और काइनैटिक सिटी के मध्य संबंध के सबसे प्रतिनिधि उदाहरण के रूप में याद करते हैं। वे लिखते हैं कि मुम्बई के डिब्बावाले शहर के इन दो हिस्सों, स्टेटिक सिटी और काइनैटिक सिटी के मध्य, औपचारिक और अनौपचारिक शहर के मध्य संबंध का सबसे बेहतर उदाहरण हैं। यह टिफिन सेवा शहर के मध्य यातायात के लिए मुम्बई की लोकल ट्रेन सेवा पर निर्भर रहती है और अपने ग्राहक को औसतन महीने का 200 रुपया खर्चे की पड़ती है। इसके महीने का टर्नओवर तक़रीबन पाँच करोड़ रुपये तक का हो जाता है। एक अनुमान के अनुसार तक़रीबन 4,500 डिब्बेवाले शहर में रोज़ 2 लाख से ज़्यादा खाने के डिब्बों को एक जगह से दूसरी जगह पहुँचाने का काम करते हैं।[2]
एक डिब्बावाला शहर में कहीं से भी घर से भोजन का डिब्बा उठाता है और फिर शहर भर में फैले एक जटिल संजाल के ज़रिए होते हुए मध्यान्ह में उस टिफिन को नियत दफ्तर में पहुँचाता है, अौर फिर शाम को वापस उसे नियत घर में पहुँचाता है। इस संजाल में खाने का डिब्बा शामिल है, जो घर से निकलने से वापस घर पहुँचने तक कम से कम चार-पाँच बार विभिन्न हाथों में बदला जाता है, और औसतन हर डिब्बा रोज़ तक़रीबन तीस किलोमीटर की दूरी तय करता है। इस एकरेखीय शहर की रीढ़ की हड्डी, शहर की लोकल ट्रेन सेवा की चुस्त रफ़्तार और कुशलता ही इस जटिल तथा अनौपचारिक संजाल को सही से कार्य अंजाम देने की क्षमता देती है। इस तरह शहर के डिब्बेवाले ही अपने इस नवीन प्रयोग द्वारा ऐसा अनौपचारिक संजाल खड़ा करते हैं, जो शहर की आधारभूत संरचना का फायदा उठा पाता है।[3]
रितेश बत्रा की फिल्म ‘दि लंचबॉक्स’ (2013) की कथा की मूल संरचना मुम्बई शहर की इन्हीं दोनों औपचारिक तथा अनौपचारिक संरचनाओं के इर्द-गिर्द बुनी गई है। इस कथा की मूल संरचना को स्थापित करनेवाले तत्व, जिनमें पहला डिब्बावाला सर्विस और दूसरा है मुम्बई का लोकल ट्रेन नेटवर्क, मुम्बई शहर की दो समांतर चलती दुनियाओं की प्रतिनिधि संरचनाएं हैं। कथा के केन्द्र में हैं दो किरदार, जो अपनी-अपनी दुनिया मेंं अकेले हैं और जिन्हें मुम्बई की यही कुशल डिब्बावाला सर्विस की एक भूल अचानक करीब ले आती है। इनमें पहला किरदार है इला (निम्रत कौर) का जो एक गृहिणी है और जिसकी ज़िन्दगी उसके नौकरीपेशा पति का ध्यान अपनी ओर आकर्षित करने के प्रयासों के इर्द-गिर्द घूमती रहती है। दूसरा किरदार है मिस्टर साजन फर्नांडिस (इरफ़ान ख़ान) का, जो नौकरी से रिटायर होने की कगार पर खड़े विदुर हैं, और जो एक सरकारी दफ्तर में नौ से पाँच की नौकरी करते हैं। फिल्म में एक तीसरा किरदार भी है, शेख़ (नवाज़ुद्दीन सिद्दीकी) का किरदार। शेख़ वो नौजवान इंसान है जो साजन फर्नांडिस के दफ्तर में उनके रिटायर होने के बाद उनकी जगह लेने के लिए नियुक्त हुआ है। उसे निर्देश है कि वो फर्नांडिस के रहते (जो दफ्तर के सबसे बेहतर कार्यकर्ताओं में से रहे हैं) उनसे बाकायदे काम सीख ले, जिससे उनके जाने के बाद उनकी जगह लेने में उसे कोई दिक्कत न हो। शेख़ मुम्बई के निम्न मध्यमवर्गीय मुस्लिम समाज से आता है। इस तरह शेख़ इस हिन्दू मध्यमवर्गीय परिवार के भीतर की घरेलू मुम्बई और कामकाजी मध्यमवर्गीय पारसी मुम्बई के समीकरण में एक तीसरा आयाम जोड़ता है, निम्न मध्यमवर्गीय मुस्लिम मुम्बई का आयाम।
इन तीन किरदारों की दुनियाएं भौगोलिक और सांस्कृतिक रूप से भी मुम्बई के तीन भिन्न चेहरों का प्रतिनिधित्व करती हैं। इला मध्य मुम्बई के किसी चालनुमा फ्लैट की निवासी है, जिसमें उसकी सबसे अच्छी साथी ऊपरवाले फ्लैट में रहनेवाली वो देशपाण्डे आंटी हैं, जो पूरी फिल्म में दर्शक के लिए सिर्फ आवाज़ हैं और कभी सामने नहीं आतीं। साजन फर्नांडिस बान्द्रा में अपने पुश्तैनी मकान में रहते हैं। मकान, जो कभी उनके परिवार का घर था लेकिन आज उनकी पत्नी के जाने के बाद सिर्फ एक मकान भर रह गया है और जिसे बेचकर वो नासिक में बस जाने की योजना बना रहे हैं। इन दोनों किरदारों की दुनियाएं जैसे सालों से अपनी जगह स्थित हैं, और उनके चारों ओर की दुनिया तेज़ी से बदल रही है। ऐसे में यह दोनों किरदार अपने अकेलेपन में मुम्बई की ‘स्टेटिक सिटी’ के प्रतीक किरदार से लगते हैं।
दूसरी तरफ़ शेख़ शायद उस ‘काइनैटिक सिटी’ का सबसे बेहतर प्रतिनिधि है, जिसका ज़िक्र विस्तार से ऊपर राहुल महरोत्रा ने किया है। वो अनाथ है, लेकिन बात-बात में ‘मेरी अम्मी कहती हैं’ से बात शुरु करता है। एक दिन जब साजन उसे टोकते हैं तो वजह बताता है कि ऐसा बोलने से बात का ‘वज़न बढ़ता है’। वो शहर के निम्नवर्गीय मुस्लिम इलाके डोँगरी का निवासी है। दुबई और साउदी अरब में काम कर आया शेख़ मुम्बई की उस निम्नवर्गीय कामकाजी मुस्लिम आबादी का प्रतिनिधि है जिसे शहर का संभ्रांत नकारता रहता है लेकिन जिसके बारे में कहीं ना कहीं भीतर से वो यह जानता है कि इसके बिना शहर का चक्का चलना असंभव है। फिल्म के निर्देशक रितेश बत्रा एक जगह साक्षात्कार में कहते हैं, “जब मैं बड़ा हो रहा था, तो बम्बई बहुत अलग थी। और बहुत सारी चीज़ों में से एक चीज़ यह भी है जिसके बारे में ‘दि लंचबॉक्स’ बात करती है। फिल्म में नवाज़ का किरदार, शेख़, एक तरह से बम्बई का प्रतीक है। जिस तरह का आशावाद उसके भीतर है और जिस तरह वो वहाँ मौजूद है। वो जहाँ कहीं भी जाता है, वो सबसे हँस के मिलता है। उसमें वो सब है जो बाक़ी दो किरदारों में नहीं है। और इस तरह से देखें तो वो फिल्म में बम्बई का प्रतिनिधित्व करता है।”[4]
कथा वहाँ से शुरु होती है जहाँ इला अपने पति को खुश करने के लिए अपने ऊपर के मकान में रहनेवाली आंटी की सलाह पर अमल कर बढ़िया खाना बनाती है, और डिब्बेवाले के साथ अपने पति के दफ्तर भेजती है। लेकिन गलती से, ऐसी गलती जिसकी संभावना मुम्बई की डिब्बावाला सेवा की कुशलता को देखते हुए तक़रीबन न के बराबर है, वो लंच का डिब्बा उसके पति की जगह किसी अंजान व्यक्ति की दफ्तर की मेज पर पहुँच जाता है। यह अंजान व्यक्ति ही साजन फर्नांडिस हैं। साजन फर्नांडिस रोज़ की तरह दोपहर में अपना खाने का टिफिन खोलने हैं, लेकिन उस खाने की महक उन्हें चौंका देती है। वे धीरे-धीरे उस खाने को खाना शुरु करते हैं। उनके चेहरे के हाव-भाव हमें यह बताने के लिए काफ़ी हैं कि आज का खाना उनके रोज़ के खाने के मुकाबले बहुत ही अलग स्वाद का और बहुत ही स्वादिष्ट है। इसी दृश्य के अगले हिस्से में मुम्बई की लोकल ट्रेन का सफ़र करता और एक हाथ से दूसरे हाथ बदलता जब डिब्बा वापस इला के घर पहुँचता है तो वो भी डिब्बे को देख चौंक जाती है। डिब्बा एकदम खाली है। उसकी प्रतिक्रिया से यहाँ हम यह जानते हैं कि यह भी उसके रोज़ के अनुभव से काफ़ी अलग है।
इस पूरे प्रसंग में संवाद ना के बराबर हैं। बल्कि फिल्म यहाँ अभिव्यक्ति के लिए माहौल तथा अपने अदाकारों की अदाकारी पर निर्भर है। आलोचक जय अर्जुन सिंह फिल्म के इस शुरुआती दृश्य पर टिप्पणी करते हुए लिखते हैं “इन दो दृश्यों में एक शब्द भी नहीं बोला जाता, यहाँ तक कि किरदारों के हाव-भाव भी उतने मुखर नहीं हैं। फिर भी ज़रा भी सचेत दर्शक यह समझ लेता है कि क्या हुआ है। लंचबॉक्स की सुपुर्दगी में गड़बड़ हो गई है। मिस्टर फर्नांडिस ने वो खाना खा लिया है जो इला ने अपने पति के लिए पकाया था। लेकिन इला, जो रोज़ डिब्बे में बचा हुआ खाना पाने की आदी है, शाम को इसलिए खुश है कि उसकी पाककला को सराहा गया। यह प्रसंग इतने तरल हैं, और इतने बेहतर तरीके से रचे और अभिनीत किए गए हैं कि हमें आगे आने वाली कथा की मूल संरचना (जबकि हमारे सामने बहुप्रचलित आँकड़े भी हैं जो डिब्बासेवा की कुशलता बताते हैं) को स्वीकार करने में ज़रा भी परेशानी नहीं होती। इला को गड़बड़ समझ में आ जाती है, लेकिन वो फिर से फर्नांडिस को लंच भेजती है। लेकिन एक चिठ्ठी के साथ (‘थैंक यू तो बनता है ना’ वो अपनी पड़ोसन आंटी से कहती है) अौर फिर इस ई-मेल के ज़माने में यह दो व्यक्ति, जो एक दूसरे के बारे में कुछ नहीं जानते, इसी डिब्बे के ज़रिए एक असंभाव्य सी लगती चिठ्ठी-पत्री शुरू करते हैं।”[5]
इला और साजन फर्नांडिस दो बिल्कुल भिन्न दुनियाओंं के निवासी हैं। इला मुम्बई के पारंपरिक मध्यमवर्गीय एकल परिवार की गृहिणी है, जिसका सारा समय उसके पति और उसकी बच्ची के लिए आरक्षित है। उसका अकेलापन कामकाजी पति की उपेक्षा से उपजा अकेलापन है। पति, जिसके बारे में उसे शक है कि शायद उसका कहीं और संबंध है। और यह शक उसे और ज़्यादा अकेला बना देता है। दूसरी ओर फर्नांडिस हैं, मुम्बई के उस पुराने पारसी समुदाय के सदस्य जिनकी ज़िन्दगियाँ रोज़ अपना रँग बदलते और तेज़ी से वैश्विक विकास की सीढ़ियाँ चढ़ते शहर में स्वयं के होने की प्रासंगिकता तलाश रही हैं। फर्नांडिस का यथार्थ उनके दफ्तर की इकसार और यंत्रवत सी नौकरी और घर में सिगरेट के धुएं के साथ बालकनी में खड़े पड़ौसियों की खिड़कियों में ताकते अकेलेपन से मिलकर बनता है। दोनों की ज़िन्दगी के अनुभव भिन्न किस्म के हैं। लेकिन यह भी सच है कि दोनों अपनी-अपनी दुनियाओंं में अकेले हैं। फिल्म का चमत्कार यहाँ यह है कि वो मुम्बई की इन दो भिन्न दुनियाओंं के रोज़ाना के अकेलेपन के बीच एक समताभाव खोज लाती है, और यही समताभाव साजन और इला को एक-दूसरे के, एक-दूसरे की भावनाओंं को समझने के, पास ले आता है।
उनके बीच का संवाद, जो लंचबॉक्स के बीच में रखी चिठ्ठियों के ज़रिए आगे बढ़ता है, दर्शक के सामने बड़े महानगर में इंसान के अकेलेपन के भिन्न आयाम खोलता है। इला और साजन एक-दूसरे की ज़िन्दगियों में चिठ्ठियों के इस झरोखे से झांकते हैं और इन रोज़मर्रा के अनुभवों अौर घटनाओं का आदान-प्रदान उन्हें खुद की ज़िन्दगियों को और उसके अकेलेपन को विशिष्ठता के खांचे से निकल एक वृहत परिप्रेक्ष्य में देखने का अवसर देता हैं। इला जब एक शुरुआती चिठ्ठी में अपने अकेलेपन को शब्द देते हुए लिखती हैं कि उसके पति उससे बात करने के बजाए फोन को ही घूरते रहते हैं, फर्नांडिस जवाब में उसे समकालीन मुम्बई में किसी भी कामकाजी व्यक्ति की ज़िन्दगी के निरंतर प्रतिस्पर्धात्मक और कठिन होते जा रहे अनुभव के बारे में लिखते हैं। शायद एक ऐसा अनुभव जो एक गृहिणी के लिए प्रथम दृष्टया जानना सुलभ नहीं। इसी तरह इला की एक चिठ्ठी में, जिसमें वो उस दिन समाचारों में आई एक घरेलू औरत की आत्महत्या का ज़िक्र करती है, फर्नांडिस उस घरेलू स्त्री के अकेलेपन से परिचित होते हैं, जो उनके जैसे कर्मठ नौकरीपेशा व्यक्ति के लिए अपरिचित अनुभव है। इस परिचय का महत्व हम तब ठीक से समझ पाते हैं जब फर्नांडिस अपनी मृत पत्नी के साथ बिताए दिनों को एक टीस के साथ याद करते हैं और बताते हैं कि कैसे वो अपनी पत्नी को कमरे में अकेला छोड़ सिगरेट पीने बालकनी में निकल जाया करते थे। शायद वो अपनी मृत पत्नी के अकेलेपन से पहली बार इस ज़रिए परिचित होते हैं।
फिल्म की पटकथा और संपादन भी इसमें महत्वपूर्ण भूमिका निभाते हैं। पटकथा की संरचना ऐसी है कि जब आप एक किरदार को देखते हैं, तो दरअसल आप दूसरे किरदार की बात सुन रहे होते हैं। क्योंकि एक किरदार जब दूसरे की लिखी चिठ्ठी खोलकर पढ़ने लगता है तो वो आपको पढ़नेवाले की आवाज़ में नहीं, बल्कि उसी किरदार की आवाज़ में सुनाई देती है जिसने उसे लिखा है। इस तरह जब इला लिखती हैं कि उसके पिता को फेंफड़े का कैंसर है और हर सिगरेट आपसे ज़िन्दगी के पाँच मिनट छीन लेती है, तो आप साजन को इसे पढ़ते हुए और फिर अगले दृश्य में अपनी घर की बालकनी में बिना सिगरेट हाथ में लिए बेचैन खड़े देखते हैं। जब साजन इला को लिखते हैं कि शायद कोई और सुननेवाला न होने से हम चीज़ें भूलने लगते हैं, तो हम इला को अपनी बेटी को अपने बचपन के किस्से बताते हुए देखते हैं।
जैस फिल्म के निर्देशक रितेश बत्रा एक साक्षात्कार में कहते हैं, “लंचबॉक्स दरअसल बड़े महानगरों मे महसूस होनेवाले अकेलेपन के बारे में है − मुम्बई और न्यू यॉर्क जैसे महानगरों के बारे में। और यही है जो इसे सभी द्वारा पहचानी जा सकने वाली फिल्म बनाता है। न्यू यॉर्क में रहने का अनुभव मुम्बई में रहने के अनुभव से कितनी ही बातों में बिल्कुल अलग हो सकता है, लेकिन इस एक बात में यह दोनों ही अनुभव बहुत ज़्यादा समान हैं। न्यू यॉर्क बहुत ही कॉस्मोपॉलिटन शहर है, मुम्बई शायद उतना ज़्यादा कॉस्मोपॉलिटन शहर न हो, लेकिन यह भी बिल्कुल उसी तरह खांचों में विभक्त है जैसा न्यू यॉर्क। अगर आप किसी एक ख़ास सर्किल में संचरण करते हैं, अगर आप मुम्बई के किसी ख़ास इलाके में रहते हैं, तो बहुत संभव है कि आप मुम्बई का दूसरा चेहरा देखें ही नहीं। एक ही मुम्बई के भीतर बहुत सारी मुम्बई हैं और यही बात न्यू यॉर्क के लिए सच है। इस फिल्म की कहानी इन्हीं बहुत सारी मुम्बईयों के बीच में उछलती रहती है। इरफ़ान के किरदार की मुम्बई, इला के किरदार की मुम्बई और वो मुम्बई जिससे शेख़ आता है, इन तीनों स्थानों को, दुनियाओंं को सिनेमा के अलावा और कहीं एक साथ नहीं लाया जा सकता या साथ नहीं गूंथा जा सकता।”[6]
‘दि लंचबॉक्स’ में ऐसे एक से ज़्यादा प्रसंग हैं जहाँ समकालीन शहर में जगह की तंगी (lack of space) का भाव, भौतिक रूप से भी तथा आपसी संबंधों में भी, बहुत ही प्रतीकात्मक तरीके से अभिव्यक्त होता है। फिल्म की बहुत सारी कथा मुम्बई की लोकल ट्रेन के डिब्बों के भीतर फिल्माई गई है, जिसमें रोज़ अपने दफ्तर जाने के लिए फर्नांडिस और शेख़ दोनों यात्रा करते हैं। एक दिन शेख़, जो फर्नांडिस से अपना परिचय और संबंध बढ़ाने के लिए निरंतर प्रयासरत है, दफ्तर से वापस लौटते हुए ट्रेन का सफ़र उनके साथ करने के लिए साथ आता है। वो अपने पिछले जीवन के बारे में बता रहा है, जहाँ उसने काम किया, जहाँ वो रहा। मुम्बई की वो सभी जगहें जिनका वो नाम लेता है जैसे मोहमम्द अली रोड, डोंगरी सब ऐसी निम्नवर्गीय बस्तियाँ हैं जहाँ तंग गलियों में बने छोटे मकानों में अनगिनत ज़िन्दगियाँ बसर करती हैं। यहीं अचानक लोकल ट्रेन में शेख़ अपने बस्ते से निकाल सब्ज़ियाँ काटने लगता है। बताता है, कि वो सारी सब्ज़ियाँ काटकर यहीं रेडी कर लेता है, जिससे घर जाकर सिर्फ उन्हें छौंकना पड़े। यह एक ऐसे शहर का यथार्थ है जहाँ जगह और समय दोनों की तंगी है, और जिस शहर का हर निम्नवर्गीय इंसान वक्त के खिलाफ़ रोज़ जंग लड़ता है।
दूसरा उदाहरण साजन का है जो वो इला को चिठ्ठी में लिखते हैं, यह जगह की तंगी को भौतिक अर्थों में तो बताता ही है, साथ ही समकालीन शहर के बदलते अनुभव पर भी टिप्पणी है। वे इला को लिखते हैं कि शहरी ज़िन्दगी का समकालीन अनुभव कितना व्यस्त हो गया है। यहाँ हर इंसान वही चाहता है जो दूसरे के पास है। वो अपने ट्रेन के सफ़र के बारे में बताते हैं कि कैसे कुछ सालों पहले तक उन्हें ट्रेन में कभी न कभी बैठने की सीट मिल ही जाया करती थी, जो आजकल बिल्कुल नहीं मिलती। इस चिठ्ठी में सबसे मार्मिक उनका अपने कब्र खरीदने के अनुभव के बारे में बताना है। वे लिखते हैं कि जब उनकी पत्नी की मृत्यु हुई तो उन्हें क्षैतिज कब्र में दफ़नाया गया था। लेकिन जब कुछ दिन पहले उन्होंने अपने लिए कब्र की ज़मीन खरीदने की कोशिश की तो उन्हें सिर्फ उर्ध्वाधर दफ़नाए जाने जितनी जगह ही मिल पाई। वे अन्त में लिखते हैं कि मैंने अपनी सारी ज़िन्दगी लोकल ट्रेन और बसों में खड़े खड़े बिता दी, और अब मुझे मृत्यु के बाद भी हमेशा के लिए खड़ा ही रहना पड़ेगा। यह एक ऐसे एकरेखीय शहर का यथार्थ है जिसमें शहरीकरण एक ख़ास दिशा में होता है और विकास की इमारतें दूसरी दिशा में बनती हैं। यह मुम्बई की उस हक़ीक़त से परिचय जैसा है जिसमें शहर की सारी कामकाजी जनता अपने जीवन का बहुत सारा हिस्सा सिर्फ ट्रेनों और बसों में यात्राएं करते हुए ही बिता देती है। सत्ता और सत्ताशील पार्टियों के राजनेताओं और उद्योगपतियों के गठजोड़ ने मुम्बई की इस एकरेखीय संरचना को कभी टूटने नहीं दिया। शहर की सम्पत्ति जहाँ दक्षिणी सिरे पर एकत्र होती रही, शहर के आर्थिक गतिशीलता के प्रमुख पहिए निम्नवर्गीय कामकाजी आबादी को अपने लिए वहन करने योग्य रिहइशों की तलाश में निरंतर उत्तर और उत्तर में जाना पड़ा।
लेकिन सबसे आगे बढ़कर यह फिल्म इसलिए महत्वपूर्ण है क्योंकि यह वर्तमान समय की फिल्म होते हुए भी भारतीय शहरी मध्यवर्ग के लिए किसी स्मृति फिल्म सी बन जाती है, ऐसी कथा जो उनके भीतर नॉस्टेल्जिया जगाती है उन पुराने दिनों के बारे में जहाँ शायद शहरी जीवन कम जटिल, तुलनात्मक रूप से कम प्रतिस्पर्धात्मक और इसीलिए ज़्यादा मासूम था। फिल्म के दोनों मुख्य किरदारों में से किसी के पास भी हमारे समय की सबसे सामान्य उपस्थिति बना − मोबाइल फोन नहीं है। उनके बीच होता काग़ज की पर्चियों पर लिखी चिठ्ठियों में होता भावनाओंं का आदान प्रदान आज के इस कम्प्यूटर और इमेल के ज़माने में किसी हाथ से छूटे हुए समय की याद दिलाता है। यहाँ तक कि फर्नांडिस के दफ्तर की संरचना भी यहाँ एकदम पुराने सरकारी दफ्तर की तरह है, जहाँ नई पुरानी फाइलों के ढेर तो दिखाई देते हैं लेकिन कहीं किसी भी टेबल पर कोई कंप्यूटर नहीं दिखाई देता। इनके ऊपर अस्सी के दशक के दूरदर्शन के मशहूर हास्य धारावाहिक ‘ये जो है ज़िन्दगी’ का संदर्भ फिल्म को एक ख़ास समयावधि में ले जाता है। साजन फर्नांडिस अपनी पत्नी को याद करते हुए एक दिन इस धारावाहिक की पुरानी कड़ियाँ वीडियो कैसेट पर देखने लगते हैं।
दरअसल इस फिल्म के तमाम संदर्भ जैसे वीडियो कैसेट, ऑडियो कैसेट के संदर्भ, मुम्बई के पुराने फोर्ट इलाके की इमारतें, मोबाइल फोन और कम्प्यूटर जैसी आधुनिक संचार साधनों की अनुपस्थिति सभी मिलकर इसे एक ख़ास समयावधि में ले जाते हैं जो अस्सी के दशक के अन्त और नब्बे के दशक की शुरुआत पर कहीं ठहरती है। खुद साजन फर्नांडिस का नाम, जो नब्बे के दशक की शुरुआत में आई संजय दत्त, सलमान ख़ान और माधुरी दीक्षित अभिनीत एक हिट संगीतमय हिन्दी फिल्म का शीर्षक है और जिस नाम को जानकर इला अपनी पड़ोसन आंटी को ‘साजन’ फिल्म का कैसेट चलाने को कहती है, इस स्थिर कालावधि की ओर एक और इशारा है। और इन सबके ऊपर संदर्भ है इला की अनदेखी पड़ोसन देशपाण्डे आंटी, जो पूरी फिल्म में कहीं दिखाई नहीं देतीं लेकिन उनकी आवाज़ के लिए जिनको चुना गया है वे भारती अचरेकर हिन्दुस्तानी मध्यवर्गीय जनमानस की स्मृति में स्वयं अस्सी के दशक के एक सफलतम दूरदर्शन धारावाहिक ‘वागले की दुनिया’ की गृहिणी के रूप में ही सबसे अच्छी तरह पहचानी जाती हैं।
स्पष्ट रूप से फिल्म भारतीय जनमानस के पुराने समयों से जुड़े इस स्मृति की शक्ल वाले नॉस्टेल्जिया को जगाती है। जैसा आलोचक तृषा गुप्ता लिखती हैं, “हाँ, यह फिल्म जानकर अब वैश्विक स्तर पर जाने जा रहे मुम्बई के डिब्बावालों के संदर्भ का इस्तेमाल करती है। लेकिन साथ ही यह हिन्दुस्तानी मध्यवर्ग की स्मृति को भी बहुत ही आत्मीयता से कुरेदती है। इसमें समय का उल्लेख नहीं है, लेकिन लगता ऐसा है जैसे हम 1990 के दशक में हैं।”[7] दरअसल यह फिल्म मुम्बई की उस संकट में पड़ी ‘कॉस्मोपॉलिटन’ पहचान की स्मृति है जिसको अस्सी के दशक में आए कपड़ा मिलों के अन्त तथा राजनीति में पुनरुत्थानवादी विचार के वापस लौटने जैसे परिवर्तनों से गहरा झटका लगा है। यह फिल्म अपनी सरलताओं में दंगों से पहले की उस मुम्बई को याद करती है जिसके भीतर मौजूद विभिन्न पहचानों के बीच दोस्ती भले न हो, शक और संदेह का रिश्ता नहीं था।
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संदर्भ:—
- “Today Indian cities comprise two components that occupy the same physical space. The first is the formal or the Static City. Built of more permanent materials such as concrete, steel and brick, it is comprehended as a two dimensional entity on conventional city maps and is monumental in its presence. The second is the informal or Kinetic city. Incomprehensible as a two dimentional entity, it is perceived as a city in motion − a three dimensional construct of incremental development.” − राहुल महरोत्रा, नेगोशिएटिंग स्टेटिक एंड काइनेटिक सिटीज्, अदर सिटीज़् अदर वर्ल्ड्स, संपादक – एंड्रेस हुसेन, ड्यूक युनिवर्सिटी प्रेस, डर्हम अौर लंदन, 2008, पृष्ठ − 205
- राहुल महरोत्रा, वही, पृष्ठ − 213
- राहुल महरोत्रा, वही
- “Bombay was very different when I was growing up. And, that’s one of the things The Lunchbox is about. Nawaz’s character in the movie, Sheikh, is a stand-in for Bombay in a way. The sort of optimism he has and the way in which he is out there. Everywhere he goes, he smiles. He is everything the other two characters are not. And in that sense he represents Bombay.” − रितेश बत्रा, ‘दि बिग इंडियन पिक्चर’ वेब जर्नल में, देखें (06/02/2014) − http://thebigindianpicture.com/2013/09/big-city-boy/
- “Not a word has been spoken in these two scenes, even the gestures aren’t especially pronounced, yet the attentive viewer can easily figure out what has happened. There has been a mistake in the delivery of a lunch box; Mr Fernandes has eaten the food meant for Ila’s husband; Ila, who is used to leftovers being sent back and noncommittal grunts of acknowledgement later in the evening, is happy that her cooking has been appreciated. These sequences are so fluid, so well constructed and performed, that we have no trouble accepting the basic premise (even given the widely circulated statistics about the efficiency of the dabba-wallahs) or what follows: Ila discovers the mix-up but sends Fernandes lunch again, along with a letter (“Thank you bannta hai na,” she tells her confidante, an old neighbour) – and then, in the email age, these two people who know nothing about each other begin an unlikely correspondence by dabba.” − जय अर्जुन सिंह, विजुअल स्टोरीटेलिंग इन दि लंचबॉक्स, देखें (17/03/2014) − http://jaiarjun.blogspot.in/2013/09/visual-storytelling-in-lunchbox.html
- “The Lunchbox is about loneliness in big cities— cities like Bombay and New York, which is what makes it so identifiable. The experience of living in New York is completely different from the experience of living in Bombay in most ways, but in that one regard both experiences are very similar. New York is very cosmopolitan, Bombay might not be as cosmopolitan but it’s segregated like New York is. If you move around in a certain circle, if you live in a certain part of Bombay, it’s possible that you may never see another part of Bombay. There are many Bombays in one and that is how New York is as well. The story of the film bounces between all these different Bombays. The Bombay of Irrfan’s character, the Bombay of Ila and the Bombay of Sheikh; and these three different places could never be woven together or mix with one other, except in cinema.” − रितेश बत्रा, ‘दि बिग इंडियन पिक्चर’ वेब जर्नल में, देखें (06/02/2014) − http://thebigindianpicture.com/2013/09/big-city-boy
- “Yes, it knowingly manipulates the now-global cachet of Bombay dabbawallas. But it is also an affectionate caressing of Indian middle class memory. The time is not mentioned, but it feels like the 1990s.” − तृषा गुप्ता, अनपैकिंग दि लंचबॉक्स, दि संडे गार्जियन, 28 सितंबर, 2013
यह निबंध फ़िल्म एवं टेलिविज़न संस्थान, पुणे के रिसर्च जर्नल ‘लेंससाइट’ में प्रकाशित हुआ, जनवरी-मार्च 2015