मूलत: तहलका समाचार के फ़िल्म समीक्षा खंड ’पिक्चर हॉल’ में प्रकाशित
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दीपा मेहता की ’विदेश’ परेशान करती है, बेचैन करती है. यह देखने वाले के लिए एक मुश्किल अनुभव है. कई जगहों पर यंत्रणादायक. इतना असहनीय कि आसान रास्ता है इसे एक ’बे-सिर-पैर’ की कहानी कहकर नकार देना. यह ज़िन्दगी की तमाम खूबसूरतियाँ अपने में समेटे एक तितली सी चंचल, झरने सी कलकल लड़की चांद (प्रीति ज़िन्टा) के भोले, नादान, खूबसूरत सपने की असल ज़िन्दगी में मौजूद कुरूप यथार्थ से सीधी मुठभेड़ है. चांद के लिए यथार्थ इतना असहनीय और अप्रत्याशित है कि वो उसे सम्भाल नहीं पाती. सपना कुछ यूँ टूटता है कि चांद हक़ीक़त और फ़साने के बीच का फ़र्क खो बैठती है. आगे पूरी फ़िल्म में इस टूटे सपने की बिखरी किरचें हैं जिन्हें प्यार से रुककर समेटने वाला भी कोई नहीं. वो निपट अकेली जितना इन्हें समेटने की कोशिश करती है उतने ही अपने हाथ लहूलुहान करती है. इस फ़िल्म की मिथकीय कथा को तर्क की कसौटी पर कसकर नकार देना आसान रास्ता है लेकिन यान मारटेल का बहुचर्चित ’लाइफ़ ऑफ़ पाई’ पढ़ने वाले जानते हैं कि असहनीय यथार्थ का सामना करने के लिए कथा में एक शेर ’रिचर्ड पारकर’ गढ़ लेना इंसानी मजबूरी है.
चांद को उसका पति बेरहमी से मारता है. अपने देश, अपनी पहचान से दूर दड़बेनुमा घर में कैद चांद की लड़ाई अपनी पहचान की लड़ाई है. पति से प्यार और अपनेपन की अथक चाह उसे एक ऐसी मिथक कथा पर विश्वास करने के लिए मजबूर कर देती है जिसमें एक शेषनाग उसके पति का रूप धरकर आता है और उसे दुलारता है. गिरीश कर्नाड के नाटक ’नागमंडलम’ से लिए गए फ़िल्म के इस दूसरे हिस्से को ’जादुई यथार्थ’ का बेजा इस्तेमाल कहकर टाला नहीं जा सकता. यह आपको असहज कर देता है. और फ़िल्म के मर्म तक पहुँचने के लिए आपको इस एहसास से जूझना होगा. चांद की कहानी कोरी घरेलू हिंसा की कहानी भर नहीं. दरअसल यह उस मनोस्थिति के बारे में है जिससे अपने ही पति द्वारा जानवरों की तरह मारी-पीटी जा रही चांद गुज़र रही है. उसका ’पगला जाना’ ऐसी त्रासदी है जिसे दीपा मेहता सिनेमा के पर्दे को बार-बार स्याह-सफ़ेद रँगकर और तीखेपन से उभारती हैं. प्रीति यहाँ अपनी मुखर सार्वजनिक छवि के उलट दूर देस में फँसी एक अकेली और अपनी पहचान पाने की जद्दोज़हद में जुटी लड़की चांद के किरदार में जान फ़ूँक देती हैं और बाकी तमाम अनजान चेहरे इस फ़िल्म को अपनी नैसर्गिक अदायगी से वत्तचित्र का सा तेवर देते हैं.
कनाडा में रहने वाले अप्रवासी भारतीय परिवार में ब्याही गई चांद की कहानी ’विदेश’ अप्रत्यक्ष रूप से उस बदहाल हो रहे सूबे पंजाब की कहानी भी है जिसके सपने भी अब विदेशों से आती स्पॉन्सरशिप और किसी दूर देस में मौजूद अनदेखे सुनहरे भविष्य से लगाई झूठी उम्मीद के मोहताज हैं. आमतौर से स्त्री पर होती घरेलू हिंसा पर आधारित कहानियों में मुख्य खलनायक पति या घरवाले होते हैं लेकिन दीपा की ’विदेश’ यह साफ़ करती है कि व्यख्याएं हमेशा इतनी सरल नहीं होती. यहाँ बहु की पिटाई में संतुष्टि पाने वाली सास (तारीफ़ कीजिए बलिन्दर जोहल के बेहतरीन काम की) में एक असुरक्षित माँ छिपी है जिसे डर है कि उसके बेटे को यह नई आई रूपवती बहु हड़प लेगी. और अपनी ही पत्नी को मारने वाला रॉकी (वंश भारद्वाज) उन एन.आर.आई. सपनों को ढोती जीती-जागती लाश है जिसे ’फ़ीलगुड सिनेमा’ के नाम पर हिन्दुस्तानी सिनेमा ने सालों से बुना है. समझ आता है कि उसे हिन्दी सिनेमा के उल्लेख भर से क्यों चिढ़ है. विदेश एक त्रासद अनुभव है. यह दीवार की ओट से आती उन बेआवाज़ सिसकियों की तरह है जिन्हें सुनने के लिए कानों की नहीं दिल की ज़रूरत होती है.