ख़ामोशी के उस पार : विदेश

मूलत: तहलका समाचार के फ़िल्म समीक्षा खंड ’पिक्चर हॉल’ में प्रकाशित

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दीपा मेहता की ’विदेश’ परेशान करती है, बेचैन करती है. यह देखने वाले के लिए एक मुश्किल अनुभव है. कई जगहों पर यंत्रणादायक. इतना असहनीय कि आसान रास्ता है इसे एक ’बे-सिर-पैर’ की कहानी कहकर नकार देना. यह ज़िन्दगी की तमाम खूबसूरतियाँ अपने में समेटे एक तितली सी चंचल, झरने सी कलकल लड़की चांद (प्रीति ज़िन्टा) के भोले, नादान, खूबसूरत सपने की असल ज़िन्दगी में मौजूद कुरूप यथार्थ से सीधी मुठभेड़ है. चांद के लिए यथार्थ इतना असहनीय और अप्रत्याशित है कि वो उसे सम्भाल नहीं पाती. सपना कुछ यूँ टूटता है कि चांद हक़ीक़त और फ़साने के बीच का फ़र्क खो बैठती है. आगे पूरी फ़िल्म में इस टूटे सपने की बिखरी किरचें हैं जिन्हें प्यार से रुककर समेटने वाला भी कोई नहीं. वो निपट अकेली जितना इन्हें समेटने की कोशिश करती है उतने ही अपने हाथ लहूलुहान करती है. इस फ़िल्म की मिथकीय कथा को तर्क की कसौटी पर कसकर नकार देना आसान रास्ता है लेकिन यान मारटेल का बहुचर्चित ’लाइफ़ ऑफ़ पाई’ पढ़ने वाले जानते हैं कि असहनीय यथार्थ का सामना करने के लिए कथा में एक शेर ’रिचर्ड पारकर’ गढ़ लेना इंसानी मजबूरी है.

चांद को उसका पति बेरहमी से मारता है. अपने देश, अपनी पहचान से दूर दड़बेनुमा घर में कैद चांद की लड़ाई अपनी पहचान की लड़ाई है. पति से प्यार और अपनेपन की अथक चाह उसे एक ऐसी मिथक कथा पर विश्वास करने के लिए मजबूर कर देती है जिसमें एक शेषनाग उसके पति का रूप धरकर आता है और उसे दुलारता है. गिरीश कर्नाड के नाटक ’नागमंडलम’ से लिए गए फ़िल्म के इस दूसरे हिस्से को ’जादुई यथार्थ’ का बेजा इस्तेमाल कहकर टाला नहीं जा सकता. यह आपको असहज कर देता है. और फ़िल्म के मर्म तक पहुँचने के लिए आपको इस एहसास से जूझना होगा. चांद की कहानी कोरी घरेलू हिंसा की कहानी भर नहीं. दरअसल यह उस मनोस्थिति के बारे में है जिससे अपने ही पति द्वारा जानवरों की तरह मारी-पीटी जा रही चांद गुज़र रही है. उसका ’पगला जाना’ ऐसी त्रासदी है जिसे दीपा मेहता सिनेमा के पर्दे को बार-बार स्याह-सफ़ेद रँगकर और तीखेपन से उभारती हैं. प्रीति यहाँ अपनी मुखर सार्वजनिक छवि के उलट दूर देस में फँसी एक अकेली और अपनी पहचान पाने की जद्दोज़हद में जुटी लड़की चांद के किरदार में जान फ़ूँक देती हैं और बाकी तमाम अनजान चेहरे इस फ़िल्म को अपनी नैसर्गिक अदायगी से वत्तचित्र का सा तेवर देते हैं.

कनाडा में रहने वाले अप्रवासी भारतीय परिवार में ब्याही गई चांद की कहानी ’विदेश’ अप्रत्यक्ष रूप से उस बदहाल हो रहे सूबे पंजाब की कहानी भी है जिसके सपने भी अब विदेशों से आती स्पॉन्सरशिप और किसी दूर देस में मौजूद अनदेखे सुनहरे भविष्य से लगाई झूठी उम्मीद के मोहताज हैं. आमतौर से स्त्री पर होती घरेलू हिंसा पर आधारित कहानियों में मुख्य खलनायक पति या घरवाले होते हैं लेकिन दीपा की ’विदेश’ यह साफ़ करती है कि व्यख्याएं हमेशा इतनी सरल नहीं होती. यहाँ बहु की पिटाई में संतुष्टि पाने वाली सास (तारीफ़ कीजिए बलिन्दर जोहल के बेहतरीन काम की) में एक असुरक्षित माँ छिपी है जिसे डर है कि उसके बेटे को यह नई आई रूपवती बहु हड़प लेगी. और अपनी ही पत्नी को मारने वाला रॉकी (वंश भारद्वाज) उन एन.आर.आई. सपनों को ढोती जीती-जागती लाश है जिसे ’फ़ीलगुड सिनेमा’ के नाम पर हिन्दुस्तानी सिनेमा ने सालों से बुना है. समझ आता है कि उसे हिन्दी सिनेमा के उल्लेख भर से क्यों चिढ़ है. विदेश एक त्रासद अनुभव है. यह दीवार की ओट से आती उन बेआवाज़ सिसकियों की तरह है जिन्हें सुनने के लिए कानों की नहीं दिल की ज़रूरत होती है.

आधी दुनिया का कच्चा-’चिट्ठा’

तात्कालिक आग्रह पर लिखा गया समसामयिक चर्चा से रचा आलेख. अप्रकाशित रह जाने की वजह से अपने चिट्ठे पर लगा रहा हूँ. महिला दिवस पर कहीं गहरे बनस्थली को याद करते हुए जहाँ आज भी मुझे मेरा पीछे छूटा हुआ माइक्रोकॉस्म दीखता है.

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“मैं दरवाज़ा थी,
मुझे जितना पीटा गया,
मैं उतना ही खुलती गई.” -अनामिका.

मरजेन सतरापी की ’परसेपोलीस’ देखते हुए मुझे कहीं गहरे ये अहसास हुआ था, ईरान की स्त्री के लिए शायद वो सिनेमा था. चारों तरफ़ से बंद दरवाज़ों वाले समाज की स्त्रियाँ इन चौहद्दियों से बाहर निकलने के लिए हमेशा नए-नए और रचनात्मक माध्यमों की तलाश करती रही हैं. हिन्दुस्तान की स्त्री जो संसद के गलियारों से सिनेमा परदे तक अभी भी हाशिए पर ही खड़ी है उसके लिए वो कौनसे रास्ते हैं जिनपर चलकर वो अपनी बात कह सकती है? गौर से देखने पर पता चलता है कि पिछले कुछ सालों में अंतर्जाल की आभासी दुनिया एक ऐसा ही माध्यम बनकर उभरी है. और इसीलिए यह आश्चर्य नहीं था जब मंगलोर में ’संस्कृति के रक्षकों’ द्वारा लड़कियों पर अमानवीय कृत्य किये गये तो उनके खिलाफ़ सबसे मुखर आवाज़ इसी अंतर्जाल की आभासी दुनिया से उठाई गई. तहलका की पत्रकार निशा सुसेन और उनकी कुछ बहादुर साथियों द्वारा शुरु किया गया ’पिंक चड्डी कैम्पैन’ हो सकता है आपमें से बहुत को विरोध का अश्लील तरीका लगे लेकिन एक ऐसे समाज में जहाँ स्त्री का अपने शरीर पर हक़ जताना भी ’संस्कृति का अपमान’ मान लिया जाता हो, विरोध के तरीकों की बात करना क्या बेमानी नहीं.

हिंदी का ब्लॉगिंग जगत भी इस ’पिंक चड्डी कैम्पेन’ की बयार से अछूता नहीं रहा है. इस अभियान में हिंदी ब्लॉगिंग जगत की महिलाओं का हस्तक्षेप क्या और कितना है यह देखना हमें ब्लॉगिंग की इस अराजक लेकिन मारक तीखी दुनिया में प्रवेश का रास्ता भी देता है और आगे बढ़ने की दिशा भी. हिंदी जगत की जानी-मानी ब्लॉगर घुघुतीबसूती इस प्रसंग पर अपनी धारधार लेकिन संतुलित टिप्पणी में लिखती हैं,

“चलिए हम पिंक चड्ढी वालों के विरोध के तरीके का विरोध करें। क्योंकि उनका तरीका संस्कृति के रक्षकों से अधिक खतरनाक है। हम यह ना देखें कि वे अपने वस्त्र उतारकर देने को नहीं कह रहीं, बाजार से नई या फिर अपनी अलमारी से पुरानी भेजने को कह रही हैं।(अब यदि उस ही ब्लॉग में कोई कुछ अधिक कह रहा है तो क्या किया जा सकता है? यदि वे ऐसी टिप्पणियों को नहीं छापती तो कहा जाएगा कि विरोध के स्वर वे सह नहीं सकतीं।) हमें बाध्य भी नहीं कर रहीं ऐसा करने को। वे जो कर रही हैं उसका अर्थ हम नहीं समझेंगे। वे इसे क्यों कर रही हैं यह समझने में सोचना पड़ता है, उन्हें समझना पड़ता है, उनके स्थान पर स्वयं को रखकर देखना पड़ता है। यह सोचना पड़ता है कि यदि मैं युवा होती, स्त्री होती तो ये सब परिस्थितियाँ मुझे कैसी लगतीं। वे केवल और केवल एक काम कर रही हैं, इस हास्यास्पद तरीके से कट्टरपंथियों को हास्यास्पद बना रही हैं। हाँ, शायद उन्होंने जानबूझकर इसे ऐसा बनाया ताकि लोगों का ध्यान आकर्शित कर सकें। (बहुत से लोगों ने कट्टरता के विरोध में लिखा, शायद शालीनता से ही लिखा था, मैंने भी लिखा था, परन्तु उसका कितना प्रभाव पड़ा। यह तरीका जैसा भी था ना हिंसक था ना जबर्दस्ती थी। हमें सही लगे तो ठीक न लगे तो ठीक। ) परन्तु नहीं, वे अधिक खतरनाक हैं।

आओ, अपनी बेटियों की उनसे रक्षा करें, न कि उनसे जो उन्हें किसी भी क्षण पकड़कर पीट सकते हैं, चोटी से पकड़कर घुमा सकते हैं। वह तो एक बहुत ही मामूली सा अपराध होगा। पब में जाना आवश्यक तो नहीं है, किसी विशेषकर अन्य जाति धर्म के पुरुष से प्रेम करना आवश्यक तो नहीं है, किसी सहपाठी से पुस्तक लेने (या हो सकता है कि वह बतियाने गई हो या प्रेम की पींग चढ़ाने)आवश्यक तो नहीं है। शराब पीने को कोई भी बहुत अच्छा तो नहीं कहेगा, बहुत सी अन्य वस्तुएँ, काम, व्यवहार, यहाँ तक कि परम्पराएँ भी गलत होती हैं। हमें ना भी लगें तो किसी अन्य को लग सकती हैं। हमें जो गलत लगता है वह अपने बच्चों को बाल्यावस्था में ठीक से समझा सकते हैं। अपने मूल्य उन्हें सिखा सकते हैं। जब वे वयस्क हो जाएँगे तो वे इतने समझदार हो चुके होंगे कि अपने निर्णय स्वयं ले सकेंगे। या हम यह मानकर चल रहे हैं कि भारतीय युवा कभी वयस्क माने जाने लायक बुद्धि विकसित नहीं कर पाते? देखते जाइए कल कोई बहुत से अन्य कामों को गलत करार कर देगा। किसी को लड़कियों का लड़कों के साथ चाय पीना भी गलत लग सकता है किसी को लड़कियों का लड़कियों के साथ या अकेले भी चाय पीना गलत लग सकता है। शायद बोतल बंद पानी पीना गलत लग सकता है। शायद उनका पैदा होना ही गलत लग सकता है। हम कहाँ सीमा रेखा खींचेंगे और हम होते कौन हैं किसी का जीवन नियन्त्रित करने वाले? देखते जाइए कल आपको अपने टखने भी दिखाने होंगे जबर्दस्ती दिखाने होंगे।”घुघुतीबासुती के ब्लॉग से.

घुघुतीबासूती के शब्दों में एक करारा व्यंग्य है. शायद यह बहस मंगलोर में हुई एक घटना से शुरु हुई है लेकिन हिंदी की ’चोखेरबालियाँ’ इसमें मौजूद सदियों की बेड़ियों की जकड़न महसूस कर पाती हैं. यही चर्चा सुजाता अपने ब्लॉग नोटपैड में इन शब्दों के साथ आगे बढ़ाती हैं,

“जो समाज जितना बन्द होगा और जिस समाज मे जितनी ज़्यादा विसंगतियाँ पाई जाएंगी वहाँ विरोध के तरीके और रूप भी उतने ही अतिवादी रूप मे सामने आएंगे।सूसन के यहाँ अश्लील कुछ नही, लेकिन टिप्पणियों मे जो भद्र जन सूसन पर व्यक्तिगत आक्षेप कर रहे हैं वे निश्चित ही अश्लील हैं।मुझे लगता है यह तय कर लेना चाहिये कि इस बहस का फोकस क्या है , सूसन या रामसेना या पिंक चड्डी या स्त्री के विरुद्ध बढती हुई पुलिसिंग और हिंसा।”सुजाता के ब्लॉग ’नोटपैड’ से.

ऊपर उद्धृत अंश में सुजाता ने निशा सुसन की बनाई फ़ेसबुक कम्यूनिटी पर आ रही अश्लील टिप्पणियों का ज़िक्र किया. जिस तरह कुछ ही दिनों में चालीस हज़ार से ऊपर पहुँची सदस्य संख्या इस अभियान का एक चेहरा है उसी तरह ’भद्र पुरुषों’ द्वारा लगातार की गईं अभद्र टिप्प्णियाँ भी इसका एक विकृत लेकिन उतना ही महत्वपूर्ण दूसरा चेहरा हैं. स्त्रियों का आभासी अंतर्जाल में कोई भी अभियान या गतिविधि इसी तरह कुछ ’भद्र पुरुषों’ की अभद्र प्रतिक्रियाओं का शिकार बनती रही है और इससे निरंतर संघर्ष और विरोध से ही हिंदी ब्लॉगिंग में महिलाओं के लेखन ने अपना अपना स्वरूप ग्रहण किया है. क्योंकि ब्लॉगिंग में हिंसा भी भाषा का चोला ओढ़कर ही आती है इसलिए भाषा, उससे जुड़ी संवेदनशीलता और उससे संबंधित तमाम बहसें महिलाओं के ब्लॉग्स पर हमेशा से एक प्रमुख चर्चा का मुद्दा रही हैं. हिंदी जगत के जाने-माने ब्लॉगर रवीश कुमार जब अपने ब्लॉग ’कस्बा’ में मीडिया में प्रयोग में आती भाषा में बढ़ती हिंसक शैली का रिश्ता स्त्री के निर्णय लेने वाली भूमिकाओं में न होने से जोड़ते हैं तो यह तुरंत ही ’चोखेर बाली’ जैसे महिलाओं के सामुदायिक ब्लॉग में चर्चा का मुख्य मुद्दा बन जाता है. महिला ब्लॉगर इसपर सीधी प्रतिक्रिया देती हैं. और हमेशा की तरह इन ब्लॉगरों की टिप्पणियों में व्यक्तिगत अनुभव मिले हुए हैं. दिप्ति टिप्प्णी करती हैं,

“ये तो नहीं कहा जा सकता है कि महिलाओं की लेखनी उग्र नहीं होती है या नहीं हो सकती है। लेकिन, ये सच है कि महिलाओं को लिखने लायक बहुत कम लोग मानते हैं। मेरी पहली नौकरी में ही मुझे इस बात का सामना करना पड़ था। मुझे न तो राजनीति की ख़बर लिखने दी जाता थी और न ही क्राइम की। हां कही कोई भजन कीर्तन हुआ तो वो मेरी झोली में ज़रूर गिर जाता था।”

और नीलिमा सुखेजा अरोड़ा का कहना है,

“एंकर तो आपको बड़ी संख्या में महिलाएं या लड़कियां मिल जाएंगी लेकिन जब बात का‍पी लिखने की आती है या रिपोर्टिंग की आती है तब लड़कियां कहां खो जाती हैं।
बात बहुत सही भी है, ज्यादातर एंकर लड़कियां होंगी, इस बात पर हम सब का बस चलता भी तो कितना है, यह तो मालिक या मैनेजमेंट तय कर देता है कि एंकरों में कितनी स्त्रियां रहेंगी और कितने पुरुष।
रही कापी लिखने की बात,शायद लड़कियां कापी लिखतीं तो वो अलग ही तरह की होती। मेरा ख्याल है कि यह भाषा किसी सभ्य आदमी की हो ही नहीं सकती है कि घर में घुसकर मारो पाकिस्तान को। जब कोई सभ्य लड़का ही ऐसा भाषा को प्रयोग नहीं करता है तो लड़कियां से ऐसी आशा करना ही बेमानी है।
मैं भी प्रिंटर डेस्क पर ही काम करती हूं, वो भी अखबार में । जहां मैं लगभग हर रोज पाकिस्तान, अफगानिस्तान, तालिबान, ओसामा बिन लादेन और अमेरिका पर स्टोरीज लिखती या रीराइट करती हूं। पर मुझे याद नहीं आता कि मैंने या मेरे साथियों ने कभी भी इतनी ओछी भाषा का प्रयोग किया हो। मेरा मानना है टीवी में भी यदि ज्यादातर लड़कियां स्क्रिप्ट्स लिखने लगें तो इतनी हल्की भाषा का प्रयोग तो नहीं ही होगा।”

इस भाषाई हिंसा के अनेक रूप हैं. भाषा की इस बहस को चोखेरबाली की पहली वर्षगाँठ पर आयोजित परिचर्चा में हिंदी की कवि अनामिका इस विश्लेषण द्वारा आगे बढ़ाती हैं.

“अभिव्यक्ति के गर्भ में ही व्यक्ति है। जहां अभिव्यक्ति नहीं है, वहां व्यक्ति औऱ व्यक्तित्व का होना संभव नहीं है। पुरुष ने वो भाषा ही नहीं सीखी कि किसी के कंधे पर हाथ रखकर बात कर सके। उसकी भाषा मुच्छड़ भाषा है, किसी मैजेस्ट्रेट की तरह की रैबदार। जबकि स्त्रियों की भाषा बतरस में प्राण पाती है। आप बसों में जाइए- देखिए कि एक स्त्री की आंख से अभी पहली ही बूंद टपकी है कि दूसरी स्त्री उसके कंधे पर हाथ रखकर कारण जानने के लिए बेचैन हो उठती है। इस बात से कोई फर्क नहीं पड़ता कि वो मजदूरिन है और पूछनेवाली टीचर या और कुछ। बिना किसी कॉन्टक्सटुलाइजेशन के बात शुरु हो जाती है। ब्यूटी पार्लर औऱ दुनिया भर के इसी तरह के जो नए स्पेस बन रहे हैं, वहां ये सवाल नहीं किए जाते कि तुम्हारी पीठ पर ये नीले निशान क्यों है, उसे बर्फ से सेंक भर देते हैं। लेकिन भाषा एक उष्मा देती है, जीने का एक नया अर्थ देती है।”अनामिका ’चोखेरबाली’ पर.

यूँ भी ब्लॉग जगत का लेखन हमेशा से ही बहुत व्यक्तिगत संदर्भों से युक्त रहा है. और स्त्रियों के ब्लॉग भी इस ख़ासियत से भरे हुए हैं. स्त्री के लिए समाज बदलने की लड़ाई दरअसल स्वयं के हक़ के लिए लड़ाई से शुरु होती है. उनका व्यक्तिगत लेखन कहीं न कहीं उस वृहत्तर समाज में अपनी उपस्थिति के लिए जगह बनाने की लड़ाई है जो उनकी आवाज़ को हर गैर-आभासी मंच पर कुचलता रहा है. आबादी के हर दबाए गए हिस्से की पहली अभिव्यक्ति आपबीती ही होती है. मराठी और हिंदी में दलित आत्मकथाओं की बड़ी गिनती इसका सबसे हालिया उदाहरण है. ये आत्मकथाएँ कोई व्यक्तिगत कहानियाँ नहीं, सदियों से होते अत्याचार के दस्तावेज हैं. ठीक इसी तरह स्त्रियों के ब्लॉग्स पर मिलती व्यक्तिगत कहानियों के अर्थ भी सिर्फ़ व्यक्तिगत संदर्भों तक सीमित नहीं. चोखेरबाली जैसे ब्लॉग पर सपना चमड़िया की लिखी ’सपना की डायरी’ सिर्फ़ एक महिला की डायरी भर नहीं, पूरी ’आधी दुनिया’ की आपबीती का बयान हैं.

हम बड़े हुए, शहर बदल गए…

तुम अपने अकेलेपन की कहानियाँ कहो. तुम अपने डर को बयान करो. तुम अपने दुःख को किस्सों में गढ़ कर पेश करो. दुनिया यूँ सुनेगी जैसे ये उनकी ही कहानी है. हर लेखक हरबार अपनी ही कहानी कहता है. कथा और इतर-कथा तो बस बात कहने के अलग अलग रूप हैं. कहानी तो इस रूप के भीतर कहीं छुपी है. अपना microcosm खोजो और फिर देखो इस भरमाती दुनिया को. ये बातें करती है.

वरुण और मेरे लिए बहुत से मामलों में ‘एक-सा संगीत’ है. हम दुनिया को देखने के लिए एक चश्मे का इस्तेमाल करते हैं शायद. क्रिकेट, सिनेमा और राजनीति.. हमारे लिए एक complex society को समझने का जरिया बनते हैं.  एक दूसरे की scrapbook में लिखकर अपनी उलझनें सुलझाना हमारा पुराना शगल है! वैसे भी Orkut  हमारे लिए ख़ास है क्योंकि हमारी मुलाकात यहीं हुई थी. वरुण के लेखन का मैं तब से फैन रहा हूँ जब वो ‘ग्रेट इंडियन कॉमेडी शो’ लिखा करता था. हाल ही में उसमे अपनी पहली हिन्दी कहानी के प्रकाशन के साथ हिन्दी साहित्य जगत में भी धमाकेदार एंट्री ली है. आप ‘डेन्यूब के पत्थर’ में ना जाने कितनी समकालीन परिस्थितियों की गूँज सुन सकते हैं.

अनिल कुंबले के जाने से शायद हम दोनों अनमने से थे और ऐसे में ये Orkut की skrapbook वार्ता आई. आज पढ़ा तो मुझे लगा कि एक लेख लिखने से ज़्यादा खूबसूरत ख़याल इसे blog पर डाल देना होगा. कुंबले हमारे जीवन में क्या जगह रखता था इसे देखना ज़रूरी है.

मिहिर:~ अरे यार.. मेरे हीरो ने आज यूँ अचानक अलविदा कह दिया. कुछ अच्छा नहीं लग रहा है…
मालूम था कि एक दिन ये होगा लेकिन क्या करुँ यार.. मैं कुंबले के बिना जिंदगी की कल्पना नहीं कर सकता…
He is my childhood hero. my first cricket memory coincides with his first coming-of-age performance. 1993 Hero cup final where he took 6-12… is there a life after kumble…?

वरुण:~ यार…सच में… दोपहर से बड़ा ख़ाली-ख़ाली लग रहा है. कुंबले को जाना था, यह कब से मालूम था… लेकिन फिर भी, एक्सेप्ट करना मुश्किल ही होता है. मुझे भी हीरो कप का वो फाइनल हमेशा याद रहेगा. शायद दिवाली के एक-दो दिन बाद ही था… हमारे पास बहुत सारे पटाखे बचे हुए थे और हमने जम के फोड़े थे. कुंबले उस दिन ख़ुदा लग रहा था… और हमेशा ही लगा है जब उसकी फ्लिपर्स लोअर-आर्डर बल्लेबाजों को खड़े-खड़े उड़ा देती हैं.

एक बार साउथ अफ्रीका में शायद 89 रन भी बनाए थे और उस दिन मुझे बड़ा बुरा लगा था कि सेंचुरी नहीं हुई.

आज अचानक से यह ख़याल आया कि जब सचिन भी चला जायेगा और राहुल भी… तब हम क्रिकेट क्यूँ देखेंगे? शायद उनके साथ साथ हमें भी रिटायर हो जाना चाहिए. हम भी बूढे हो चले हैं शायद. ऐसा ही होता है – एक आइकन के गुज़र जाने से साथ में वो era, उस era की values/memories/motivations सब गुज़र जाती हैं. अपनी गुज़रती उम्र का एहसास करा जाती हैं.

यह बात वैसे हर दौर के लोग बोलते होंगे… (और बोलते हैं, यह जानते हुए भी, मैं कहूँगा) कि क्रिकेट अब वैसा नहीं रहा. और कुछ दिन बाद इस बात का भरम भी खत्म हो जायेगा – जब हम सचिन, राहुल, लक्ष्मण को भी अलविदा कह देंगे.

एक मज़ेदार बात याद आई. जब दुनिया में शायद किसी ने भी कुंबले का नाम ‘जम्बो’ नहीं रखा था, तब भी मैं और मेरा छोटा भाई उसे ‘हाथी’ ही बोलते थे. उसके बड़े पैरों की वजह से नहीं (जो कि शायद उसके निकनेम की असली वजह है) बल्कि इसलिए कि बॉलिंग एक्शन के वक्त उसके हाथ किसी हाथी की सूंड जैसे लहराते थे… मानो हाथी नारियल उठा के नमस्कार कर रहा हो.

फिर बाद में जब हमें पता चला कि टीम ने उसका नाम जम्बो रख दिया है तो हमें बड़ी खुशी हुई…

मिहिर:~ अगर मुझे सही याद है तो 88.. उसी पारी में अज़हर ने सेंचुरी बनायी थी और कुंबले ने उसके साथ एक लम्बी पार्टनरशिप की थी. अज़हर के आउट होते ही मुझे डर लगा था कि देखना अब कुंबले की सेंचुरी रह जायेगी और वही हुआ था. 90s की क्रिकेट तो मुझे (हमें!) ज़बानी रटी हुई है!

एक दौर था जब मैं कुंबले के एक-एक विकेट को गिना करता था. मैं उसकी ही वजह से स्पिनर बना (अपनी गली क्रिकेट का ऑफ़ कोर्स!) और उसके होने से मुझे दुनिया कुछ ज्यादा आसान लगती थी. क्लास में बिना होमवर्क किए जाने के डर से कुंबले की बॉलिंग निजात दिलाती थी. संजय जी की डांट से कुंबले बचाता था (मुझे ऐसा लगता था). एक self-confidence आता था मेरे भीतर जो ये अनिल कुंबले नाम का शक़्स देता था. चाहे कुछ हो जाए.. चाहे मैच में स्कोर 200-1 हो लेकिन इसकी बॉलिंग में फर्क नहीं देखा कभी…

कभी कभी लगता है कि ये दौर आज नही ख़त्म हुआ है, ये दौर तो बहुत पहले जा चुका. लेकिन एक भरम हम बनाकर रखते हैं जैसा तुमने कहा. आज वो टूट गया…

टाईटन कप.. सहारा कप.. Independence cup.. टाईटन कप में कुंबले और श्रीनाथ की वो लास्ट पार्टनरशिप याद है! उस मैच में सचिन को मैन-ऑफ़-दी-मैच मिला था लेकिन बाद में सचिन ने कहा था कि मैं तो मैच को बिना जिताए आउट होकर आ गया था, मैच तो इन दोनों ने जिताया है. मैन-ऑफ़-दी-मैच तो इन्हें मिलना चाहिए. और सबने कहा था, मैच बंगलौर में था ना.. आख़िर शहर के लड़के ही स्टार बने हैं! और फिर वो फाइनल.. क्या दिन थे यार!

आज लगता है मैं बड़ा हो गया यार. बचपन ख़त्म हुआ…

वरुण:~ हाँ…मैं बचपन में बहुत मोटा था और तेज़ बॉलिंग तो कर ही नहीं सकता था. ऐसे वक्त में मुझे मेरा हीरो मिल गया था – कुंबले. दो लम्बी डींगें भरो, हाथ को हवा में ऊँचा ले जाओ, और गेंद छोड़ते समय ऊँगली से हल्का सा झटका या ट्विस्ट दो…लेग-स्पिन नहीं तो ऑफ़-स्पिन तो हो ही जाती थी.

और गेंद करने से पहले, हाथ में गेंद को घुमाते हुए उछालना… उस वक्त लगता था हम भी कुंबले हैं. लगता था बैट्समैन अब हमसे भी डर रहा होगा. मुझे आज तक हाथ में वैसे गेंद घुमाने का शौक है… और एक अजीब सा confidence आता है अपने अन्दर.

और सही कहते हो- वो वाला दौर कब का जा चुका. हम बस उसके illusion में जी रहे हैं… और वो भी टूटता जाता है.

ऊधो मोहि ब्रज बिसरत नाहीं

मेरे दोस्त समझ जायेंगे कि मैं आजकल ‘घर’ को इतना क्यों याद करता हूँ. ‘घर’ के छूटने का अहसास बहुत तीखा है. दोस्त मेरे भीतर कुछ अजीब से संशय देखते हैं. ठीक ठीक वजह तो मुझे भी नहीं मालूम लेकिन बहुत दिनों बाद यह एक ऐसा दौर है कि मेरे डर अचानक सामने बैठे दोस्त को दिख जाते हैं. मेरी चिट्ठियाँ राह भटक जाती हैं. लेकिन मुझे भरोसा है कि इस वक्त वो आयेंगे और मुझे संभाल लेंगे. वो जहाँ कहीं भी हैं, सोचेंगे और उनका सोचना ही काफ़ी है. डर हैं, और डर किस मन में नहीं होते लेकिन मैं सपने देखना नहीं छोडूंगा. सपनों में उन्हें देखना नहीं छोडूंगा. एक कुतुबनुमा मेरे पास भी है…

“हम सबका एक ‘घर’ होता है. बहुत प्यारा, संपूर्ण, सुरक्षित और स्वस्तिदायक… फिर हम ‘बड़े’ होते हैं और घर ‘छोटा’ होता जाता है, छूट जाता है. ज़िंदगीभर हम उसी की तलाश में भटकते रहते हैं. कभी सोच में, कभी सपनों में, कभी रचनाओं में, भौतिक उपलब्धियों में, प्रशस्तियों में, विद्रोह और समझौतों में, कभी निष्क्रियाताओं में तो कभी कर्म की दुनिया में… मगर उम्र का, स्थान का, विश्वासों का, मूल्य और मान्यताओं का, भावनाओं और सुरक्षाओं का वह घर हमें कभी नहीं मिलता. लौटकर जाएँ तो भी पीछे छूटा हुआ न तो घर वही रह जाता है, न हम… जो कुछ मिलता है वह ‘अपना घर’ नहीं होता और हम सोचते हैं : कहीं कोई घर होता भी है? इस सच्चाई का सामना करने से भी हम डरते हैं कि कहीं ऐसा तो नहीं है कि सचमुच कोई घर हो ही नहीं और हम एक भ्रम को जीते रहे हों… क्या है यह ‘घर’ का भ्रम जो हमेशा खींचता रहता है? यह भी तो तय करना मुश्किल है कि घर की तलाश आगे की ओर है या पीछे की ओर? यह स्मृति है या स्वप्न? विज़न या नास्टेल्जिया? या फैलकर बेहतर दुनिया के लिए आस्था? कभी भी अधूरी छूट जाने के लिए अभिशप्त एक अंतहीन यात्रा ही क्या हमारी नियति है? उपलब्धियों के नाम पर कुछ पड़ाव, कुछ नखलिस्तान… चंद तसवीरें… अनेक पात्रों के नाम से की जानेवाली कुछ आत्म-स्वीकृतियां.

कभी कभी मैं सोचता हूँ कि क्या दुनिया की सारी सभ्यताएँ और संस्कृतियाँ उन्हीं लोगों ने तो नहीं रचीं जो विस्थापित थे और पीछे छूटे घर की याद में निरंतर वर्तमान और भविष्य की रचना करते रहे? हमें ऐसे वर्तमान में फेंक दिया गया है जो लगातार हमें भविष्य में धकेल रहा है ओर हर ‘है’ को अनुक्षण अतीत बना रहा है. इस प्रक्रिया में हम अपने ‘अब’ को सिर्फ़ ‘था’ में बदलते जाने के निमित्तभर नहीं हैं? जो ‘था’ वो कभी नहीं ‘होगा’, मगर हम उसे ही याद करेंगे, यानी उस स्मृति के किसी न किसी अंश को अपना सपना बनाते रहेंगे… वर्तमान और भविष्य चाहे जितने समृद्ध, संपन्न और महान बन जाएँ, मगर हमें हमेशा लगेगा कि जो बात पीछे थी वो आज नहीं है. होगी भी नहीं. शव पर चढ़े या सिंहासन पर, गले में हों या शीश पर, फूल तो हम पीछे छूटे हुए किसी पेड़ के ही हैं. हम आज जहाँ हैं वहाँ के हैं नहीं, बिलोंग कहीं और करते हैं. -कहाँ, यह भी हमें पता नहीं. एक भटका हुआ बच्चा जिसे अपने घर-बार, माँ-बाप किसी का नाम पता मालूम नहीं. मगर रोता उन्हीं के लिए है और हम समझाते हैं कि जहाँ हम उसे ले जा रहे हैं वहीं उसके घर-बार, माँ-बाप सभी हैं. इस झूठ की रचना या पीछे छूटे हुए को वापस दे देने के आश्वासन का नाम ही सभ्यता-संस्कृति नहीं है? तब फ़िर हम क्या ऐसे शाश्वत-शिशु ही हैं जो हर कहीं, हर किसी में अपना घर देखता है. बहुत कुछ बनाता और तोड़ता है और हर समय जानता रहता है कि यह उसका घर नहीं है.

कहते हैं आदमी हर क्षण अपने पीछे छूटे हुए किसी ‘स्वर्ग’ में लौटना चाहता है जहाँ वह सुरक्षित और सुखी था. व्यक्तिगत स्तर पर माँ के गर्भ में लौटने की ललक है. छूटा हुआ असली ‘घर’ तो वही था. मगर वह यह भी जानता है कि वहाँ या किसी भी स्वर्ग में वह कभी नहीं लौटेगा. उसे अपना स्वर्ग ख़ुद बनाना पड़ता है. इकबाल की तरह या स्वर्ग से निष्कासित नहुष की तरह; किसी विश्वामित्र के मंत्रों पर सवार होकर… हमारी उस बैचनी को समझकर न जाने कितने विश्वमित्रों ने हमें ‘घर’ या स्वर्ग देने के आश्वासन दिए हैं, सपने दिखाए हैं और वहाँ जाकर हमने पाया है कि न तो वह हमारा घर है, न वायदे का स्वर्ग. इस विश्वासघात से क्षुब्ध हम स्वयं उस घर और स्वर्ग को तोड़ते हैं. फ़िर से नए सपने के निर्माण के लिए. कितना थका देनेवाला, लेकिन कितना अनिवार्य है यह सिलसिला. हर बार किसी पैगम्बर, किसी गुरु या अवतार के दिए हुए सपनों का हिस्सा बनने की छलना, वहाँ पहुँचकर फ़िर एक नए नरक में पहुँचने का अहसास और फ़िर एक नए अवतार की प्रतीक्षा. फ़िर इस दुष्चक्र में धर्म, राजनीति या विज्ञान, तकनीक के नए-नए सम्प्रदायों को बनाते चले जाना, जो इसमें बाधक हैं उन्हें हटाते या समाप्त करते चले जाना ताकि अपने सपने को साकार किया जा सके. यानि सब मिलाकर हमेशा एक उम्मीद, संक्रमण, और यात्रा में बने रहने की नियति… युग-युग धावित यात्री. किंतु पहुँचना उस सीमा तक जिसके आगे राह नहीं… चरैवेति… चरैवेति…”

राजेंद्र यादव. “अभी दिल्ली दूर है” की भूमिका से.

मैं दिन भर रहमान के गाने सुनता था और वो रात भर.

यह कहानी उन लड़कों की है जो ‘शहर’ नामक किसी विचार से दूर बड़े हुए. इसमें संगीत है, घरों में आते नए टेप रिकॉर्डर हैं, बारिश का पानी है, डब्ड फिल्में हैं, नब्बे के दशक में बड़े होते बच्चों की टोली है. कुछ हमारे डर हैं और कुछ आशाएं हैं. कुछ है जो हम सबमें एकसा है. मुझमें और विशाल में एकसा है. आज जब मैं लौटकर अपने बचपन को देखता हूँ तो मुझे एक ‘रहस्यमयी-सा’ अहसास होता है. जैसे बाबू देवकीनंदन खत्री की ‘चंद्रकांता’ पढ़नी शुरू कर दी हो. हमारे बचपन और शहर के इस अलगाव का हमारे व्यक्तित्वों पर असर है. बाद में हर दोस्त इस विचार से अपनी तरह से जूझा है. बचपन किसी ‘राबिन्सन क्रूसो’ की तरह टापू पर बिताया गया समय है. और अब हम उस टापू को साथ लेकर अपने-अपने ‘शहरों’ में घूमते हैं. कुछ परिचित से, कुछ बेमतलब.

सुशील ने मुझे ‘चकमक’ के लिए ए. आर. रहमान पर कुछ लिखने को कहा था. और मैं रहमान पर जो लिख पाया वो ये है. यह सुशील की तारीफ ही है कि चकमक में आकर अब मेरी यह अनसुलझी कहानी हजारों बच्चों के पास पहुँचेगी. शुक्रिया सुशील.

ए. आर. रहमान हमारे दौर के आर. डी. बर्मन हैं. जब हिन्दी सिनेमा ने पंचम को खोया तो लगा था कि एक दौर ख़त्म हो गया है. उनकी आखिरी फ़िल्म का गीत ‘एक लड़की को देखा तो ऐसा लगा’ अपने भीतर उस दौर की तमाम खूबसूरती समेटे था तो एक दूसरे गीत ‘रूठ न जाना’ में वही शरारत थी जो आर. डी. के संगीत की ख़ास पहचान थी. लगा पंचम के संगीत की अठखेलियाँ और शरारत अब लौटकर नहीं आयेंगे. लेकिन तभी दक्षिण भारत से आई एक डब्ड फ़िल्म ‘रोज़ा’ के गीत ‘छोटी सी आशा’ ने हमें चमत्कृत कर दिया. इस गीत में वही बदमाशी और भोलापन एकसाथ मौजूद था जो हम अबतक पंचम के संगीत में सुनते आए थे. ए. आर. रहमान के साथ हमें हमारा खोया हुआ पंचम वापिस मिल गया.

मैं अपने बचपन के दिनों में रहमान के संगीत वाली हर फ़िल्म की ऑडियो कैसेट ज़िद करके ख़रीदा करता था. यह वो समय था जब हमारे घर में नया-नया टेप रिकॉर्डर आया था. हम उसमें अपनी आवाज़ें रिकॉर्ड कर सुनते थे और वो हमें किसी और की आवाज़ें लगती थीं. हम कभी भी अपनी आवाज़ नहीं पहचान पाते थे. और हम उसमें रहमान के गाने सुनते थे. मेरा दोस्त विशाल सांगा बहुत अच्छा डाँस करता था और रहमान की धुनों पर वो एक ख़ास तरह का ब्रेक डाँस करता था जो सिर्फ़ उसे ही आता था. हम दोस्त एक दूसरे के जन्मदिन का बेसब्री से इंतज़ार करते और हर जन्मदिन की पार्टी का सबसे ख़ास आइटम होता विशाल का ब्रेक डाँस. हर बार हम विशाल से कहते कि वो हमें अपना डाँस दिखाए. पहले तो वो आनाकानी करता लेकिन हमारे मनाने पर मान जाता. हम कमरे के सारे खिड़की/दरवाज़े बंद कर लेते. हमें ये बिल्कुल पसंद नहीं था कि कोई और हमें देखे. मैं टेप रिकॉर्डर ऑन करता और कमरे में रहमान का ‘हम्मा-हम्मा’ गूंजने लगता. विशाल अपना ब्रेक डाँस शुरू करता और हम बैठकर उसे निहारते. हमें लगता कि वो एकदम ‘प्रभुदेवा स्टाइल’ में डाँस करता है. हम भी उसके जैसा डाँस करना चाहते थे. कभी-कभी वो हमें भी उस ब्रेक डाँस का कोई ख़ास स्टेप सिखा देता और हम उसे सीखकर एकदम खुश हो जाते. थोड़ी ही देर में हम सारे दोस्त खड़े हो जाते और सब एकसाथ नाचने लगते. विशाल भी कहता कि जब सब एकसाथ डाँस करते हैं तो उसे सबसे ज़्यादा मज़ा आता है.

विशाल को भी गानों का बहुत शौक था. खासकर रहमान के गानों का. उसके पास एक वाकमैन था जिसे कान में लगाकर वो रात-रात भर गाने सुना करता था. मैं जब भी कोई नई कैसेट लेकर आता तो वो रातभर के लिए उसे मुझसे माँगकर ले जाता था. और रहमान की कैसेट तो छोड़ता ही नहीं. दिन में मैं रहमान के गाने सुनता और रात में विशाल. उसे हिन्दी ठीक से बोलनी नहीं आती थी. वो अटक अटक कर हिन्दी बोलता और बीच बीच में शब्द भूल जाता था. मेरे नए जूते देखकर कहता, “छुटकू तेरे ये तो दूसरों के ये से बहुत अच्छे हैं!” मुझे ‘ये’ सुनकर बहुत मज़ा आता था और मैं अपने घर आकर सबको ये बात बताता. लेकिन वो संगीत में जीनियस था. मेरी और उसकी पसंद कितनी मिलती थी. ‘दिल से’ के एक-एक गीत को वो हजारों बार सुनता था. मुझे कहता था, “पता है छुटकू, ये रहमान की आदत ही ख़राब है. जाने क्या-क्या करता है. अब बताओ, गाने की शूटिंग ट्रेन पर होनी है तो पूरे गाने में ताल की जगह ट्रेन की आवाज़ को ही पिरो दिया. पूरे गाने में ऐसी बीट जैसे कोई लम्बी ट्रेन किसी ऊंचे पुल पर से गुज़र रही हो! कमाल है इसका भी हाँ.” हम दोनों रहमान के दीवाने थे. याद है ना.. मैं दिन भर रहमान के गाने सुनता था और वो रात भर. मैं घर पर माँ से कहता. “पता है माँ, मेरे तीनों दोस्त इंजिनियर बनेंगे. गौरव और रोहित तो सादा इंजिनियर बनेंगे और विशाल बनेगा म्युज़िक इंजिनियर!”

अब तो कई साल हुए विशाल से मुलाकर हुए. मैं दिल्ली आगे की पढ़ाई के लिए आ गया हूँ और विशाल ने कर्नाटक में अपनी हेंडलूम फैक्ट्री शुरू कर दी है. लेकिन आज भी जब मैं कहीं रेडियो पर ‘हम्मा-हम्मा’ सुनता हूँ तो मेरे पाँव में थिरकन होने लगती है और उस वक़्त मुझे विशाल की बहुत याद आती है. और इसीलिए रहमान हमारे दौर के आर. डी. हैं. सबका चहेता. सबसे चहेता.

रहमान को मालूम है कि हम आधे से ज़्यादा पानी के बने हैं. पानी की आवाज़ सबसे मधुर आवाज़ होती है. इसीलिए वो बार-बार अपने गीतों में इस आवाज़ को पिरो देते हैं. ‘साथिया’ में उछालते पानी का अंदाज़ हो या ‘लगान’ में गरजते बादलों की आवाज़. ‘ताल’ में बूँद-बूँद टपकते पानी की थिरकन हो या ‘रोजा’ में बहते झरने की कलकल. रहमान की सबसे पसंदीदा धुनें सीधा प्रकृति से निकलकर आती हैं. वो नए वाद्ययंत्रों के इस्तेमाल में माहिर हैं और नए गायकों को मौका देने में सबसे आगे. ‘दिल से’ के लिए उन्होंने Dobro गिटार का उपयोग किया तो ‘मुस्तफा-मुस्तफा’ गीत के लिए Blues गिटार का. अपने गीत ‘टेलीफोन-टेलीफोन’ के लिए उन्होंने अरबी वाद्य Ooud का प्रयोग किया.  चित्रा, हेमा सरदेसाई, मुर्तजा, मधुश्री से लेकर नरेश aiyer और मोहित चौहान तक रहमान ने हमेशा नए और उभरते गायकों को मौका दिया है. उनका संगीत लातिन अमेरिका के संगीत को हिन्दुस्तानी संगीत से और पाश्चात्य संगीत को दक्षिण भारतीय संगीत से जोड़ता है. और उनके बहुत से गीतों पर सूफि़याना प्रभाव साफ़  नज़र आता है. ‘दिल से’ के गीतों में ये सूफि़याना प्रभाव ही था जिसने उसे रहमान का और हमारे दौर का सबसे खूबसूरत अल्बम बनाया है. ये प्रेम की तड़प को उस हद तक ले जाना है कि वो प्रार्थना में उठा हाथ बन जाए. ‘लगान’ में वे लोकसंगीत को अपनी प्रेरणा बनाते हैं और ‘घनन घनन’ तथा ‘मितवा’ में ढोल का खूब उपयोग मिलता है. ‘राधा कैसे न जले’ में लोकजीवन से जुड़ी मितकथाओं का और धुन में बांसुरी का बहुत अच्छा उपयोग है. ‘स्वदेस’ की धुन में स्वागत में बजने वाली धुनों का इस्तेमाल एकदम मौके के माफ़िक है. रहमान के लिए धुनों में नयापन कभी समस्या नहीं रहा. पूरी दुनिया सामने पड़ी है. हर फूल-पत्ती में आवाज़ छुपी है. बस दिल से सुननेवाला चाहिए.

एकलव्य की बाल-विज्ञान पत्रिका ‘चकमक’ के अगस्त 2008 अंक में प्रकाशित.

मोहनदास

विचित्र प्रोसेशन,
गंभीर क्विक मार्च …
कलाबत्तूवाली काली ज़रीदार ड्रेस पहने
चमकदार बैंड-दल-
अस्थि-रूप, यकृत-स्वरूप,उदर-आकृति
आँतों के जालों-से उलझे हुए, बाजे वे दमकते हैं भयंकर
गंभीर गीत-स्वन-तरंगें
ध्वनियों के आवर्त मँडराते पथ पर.
बैंड के लोगों के चेहरे
मिलते हैं मेरे देखे हुओं से,
लगता है उनमें कई प्रतिष्ठित पत्रकार
इसी नगर के ! !
बड़े-बड़े नाम अरे, कैसे शामिल हो गए इस बैंड-दल में ! !
उनके पीछे चल रहा
संगीन-नोकों का चमकता जंगल,
चल रही पदचाप, तालबद्ध दीर्घ पाँत
टैंक-दल, मोर्टार, आर्टिलरी, सन्नद्ध,
धीरे-धीरे बढ़ रहा जुलूस भयावना,
सैनिकों के पथराये चेहरे
चिढ़े हुए, झुलसे हुए, बिगड़े हुए गहरे !
शायद, मैंने उन्हें पहले कहीं तो भी देखा था.
शायद, उनमें मेरे कई परिचित ! !
उनके पीछे यह क्या ! !
कैवेलरी ! !
काले-काले घोड़ों पर खाकी मिलिट्री ड्रेस,
चेहरे का आधा भाग सिंदूरी गेरुआ
आधा भाग कोलतारी भैरव,
भयानक ! !
हाथों में चमचमाती सीधी खड़ी तलवार
आबदार ! !
कंधे से कमर तक कारतूसी बैल्ट है तिरछा.
कमर में, चमड़े के कवर में पिस्तौल,
रोषभरी एकाग्र दृष्टि में धार है,
कर्नल, ब्रिगेडियर, जनरल, मार्शल
कई और सेनापति सेनाध्यक्ष
चेहरे वे मेरे जाने-बूझे-से लगते,
उनके चित्र समाचार-पत्रों में छपे थे,
उनके लेख देखे थे,
यहाँ तक कि कवितायेँ पढ़ी थीं
भई वाह !
उनमें कई प्रकांड आलोचक, विचारक, जगमगाते कविगण
मंत्री भी, उद्योगपति भी और विद्वान्
यहाँ तक कि शहर का हत्यारा कुख्यात
डोमाजी उस्ताद
बनता है बलबन
हाय, हाय ! !
यहाँ ये दीखते हैं भूत-पिशाच-काय.
भीतर का राक्षसी स्वार्थ अब
साफ़ उभर आया है,
छुपे हुए उद्देश्य
यहाँ निखर आए हैं,

यह शोभा-यात्रा है किसी मृत्यु-दल की.

गजानन माधव मुक्तिबोध की कविता ‘अंधेरे में’ का अंश.

मैं सिरीफोर्ट जाते हुए संसद के बाहर से गुज़रता हूँ. आज देखा वहाँ बड़ा जमावड़ा लगा है. चैनल बाहर से लाइव ख़बरें दे रहे हैं.
हिंदुस्तान के प्रजातंत्र की सबसे बड़ी मंडी आजकल सजी है. मोलभाव जारी हैं. खरीद-फ़रोख्त चल रही है. भाव तय हो रहे हैं. रात न्यूज़ देखते हुए उबकाई सी आती है. मुझे संसद भवन को देखकर हरिशंकर परसाई का ‘अकाल उत्सव’ याद आता है,

“अब ये भूखे क्या खाएं? भाग्य विधाताओं और जीवन के थोक ठेकेदारों की नाक खा गए. वे सब भाग गए. अब क्या खाएं? आख़िर वे विधानसभा और संसद की इमारतों के पत्थर और इंटें काट-काटकर खाने लगे.”

मोहनदास को लगता है. जो जितना ऊपर बैठा है लगता है वो उतना ही बड़ा बेईमान है. क्या सब नकली हैं? डुप्लीकेट? सारी व्यवस्था ही ढह गई है. जीता जागता हाड़-मांस का इंसान किसी काम का नहीं. इस दुनिया में कागज़ की लड़ाई लड़ी जाती है. न्याय व्यवस्था की आंखों पर पट्टी बंधी है. उसके हाथ बंधे हैं. मोहनदास के पास पैसा नहीं, पहुँच नहीं. वो मोहनदास नहीं, कोई और अब मोहनदास है. कुछ समझ नहीं आ रहा है. डर सा लगता है. क्या कोई रास्ता है? मुक्तिबोध ने जब अंधेरे में लिखी तब आपातकाल सालों दूर था. लेकिन उन्होनें आनेवाले समय की डरावनी पदचाप सुन ली थी. ब्रह्मराक्षस साक्षात् उनके सामने था. यूँ ही तकरीबन चार साल पुरानी कहानी मोहनदास को आज 17 जुलाई 2008 को पहली बार देखते हुए मुझे ऐसा लगा कि आज ही वो दिन था जो तय किया गया था इस मुलाक़ात के लिए. आज जब पहली बार मुझे संसद भवन के बाहर से निकलते हुए एक अजीब सी गंध आई. सत्ता की तीखी दुर्गन्ध. गूंजते से शब्द, 20 करोड़, 25 करोड़, 30 करोड़… आज जब मुझे संसद भवन के बाहर से निकलते हुए पहली बार उबकाई सी आई.

एक ईमानदार पाठक ही नहीं एक ईमानदार दर्शक की हैसियत से भी यह तो कहना होगा कि फ़िल्म कुछ कमज़ोर थी. ईमानदार राय यह है कि कहानी से जो सहूलियतें ली गयीं दरअसल वो ही फ़िल्म को कमज़ोर बनाती हैं. शुरुआत में मीडिया दर्शन के नामपर बहुत सारे स्टीरियोटाइप किरदार गढे गए. एक बड़ी राय यह भी थी कि कलाकारों का चयन ठीक नहीं हुआ है. खासकर कबूतर जैसी अपने परिवेश में इतनी रची बसी फ़िल्म देखने के बाद दर्शकों की यह राय लाज़मी थी. फ़िर भी एक बार मोहनदास की कहानी शुरू होने के बाद फ़िल्म अपना तनाव बनाकर रखती है. साफ़ है कि कहानी की अपनी ताक़त इतनी है कि वो फ़िल्म को अपने पैरों पर खड़ा रखती है. अनिल यादव जैसे किरदार कमाल की कास्टिंग और काम का उदाहरण हैं लेकिन ऐसे उदाहरण फ़िल्म में कुछ एक ही हैं. मोहनदास के रोल के लिए ही मैं अभी हाथों-हाथ 2-3 ज़्यादा अच्छे नाम सुझा सकता हूँ. फ़िल्म कस्बे के चित्रण में जहाँ खरी उतरी है वहीँ उसका गाँव कुछ ‘बनाया-बनाया’ सा लगता है. बोली अभी-अभी सीखी सी. कस्बे के बीच से बार-बार गुज़रती कोयले की गाडियाँ याद रहती हैं, कुछ कहती हैं. फ़िल्म कहानी के मुख्य संकेत नहीं छोड़ती है. बार बार यश मालवीय और वी. के. सोनकिया  की कवितायें बात को आगे बढाती हैं. ब्रेख्त आते हैं. मुक्तिबोध आते हैं. मोहनदास के माँ-बाप पुतलीबाई और काबादास सतगुरु कबीर को याद करते हैं. कबीर जो एक ऐसी भाषा में कविता कहते थे जिसमें लिखता हुआ हर ईमानदार कवि पागल हो जाता है. हो सकता है कि मैं कहानी के प्रति कुछ पक्षपाती हो जाऊं. उदय प्रकाश को सहेजने वालों के साथ ऐसा हो जाता है. लेकिन फ़िल्म के शुरूआती आधे घंटे से मेरे वो दोस्त भी असंतुष्ट थे जिन्होनें कहानी नहीं पढ़ी है. शायद सोनाली कुलकर्णी के साथ थोड़ा कम वक्त और उससे मिली थोड़ी कम लम्बाई ज़्यादा कारगर रहे.

कहानी की बड़ी बात यह थी कि उसमें आप एक विलेन को नहीं पकड़ पाते. अँधेरा है. डर है. पूरी व्यवस्था का पतन है. कहानी के बीच-बीच कोष्ठकों में पूरी दुनिया में घट रही घटनाएँ हैं. बुश हैं, लादेन हैं, गिरते ट्विन टावर हैं. मेरा यह कहना नहीं है कि यह सब फ़िल्म में होता. मुझे बस यह लगता है कि काश कहानी की तरह फ़िल्म भी कुछ व्यक्तियों को विलेन बनाकर पेश करने की बजाए सिस्टम के ध्वंसावशेष दिखा पाती. सुशांत सिंह और उसके पिता के रोल में अखिलेन्द्र मिश्रा अपनी पुरानी फिल्मी इमेज ढो रहे हैं. यह फ़िल्म को कमज़ोर बनाता है. लेकिन इस सबके बावजूद मैं फ़िल्म से इसलिए खुश हूँ कि वो कहानी का काफ़ी कुछ बचा लेती है. अंत में,

क्या सिनेमा के लिए यह ज़रूरी है कि तमाम अंधेरों के बावजूद भी आख़िर में वह एक उम्मीद की किरण के साथ ख़त्म हो? क्या एक कला माध्यम को सकारात्मक होने के लिए आशावादी होना ज़रूरी है? क्या हर मोहनदास के अंत में एक पत्थर उछाले जाने से ही समाज बदलेगा? क्या एक बंद दरवाज़े के साथ हुआ मोहनदास का अंत ज़्यादा बड़ी शुरुआत नहीं है? फ़िल्म जिन सफ़दरों, मंजुनाथों और सत्येंद्रों को याद करती है शायद उनका नाम ही था जो तमाम दबावों के बावजूद फ़िल्म का अंत नहीं बदला गया. और ब्रेख्त को दोहराती फ़िल्म से हमें यही उम्मीद करनी चाहिए कि वह सिनेमा के भीतर क्रांति की बात करने के बजाए उन अंधेरों की बात करे जो हमारे समय को घेर रहे हैं.

मज़हर कामरान से बार-बार यह पूछा गया कि आख़िर क्यों उनका मोहनदास अपनी लड़ाई लड़ना छोड़ देता है? आख़िर क्यों फ़िल्म इतने निराशाजनक नोट पर ख़त्म हो जाती है? क्या उन्हें फ़िल्म की माँग को समझते हुए उदय प्रकाश की कहानी का अंत बदल देने का ख्याल नहीं आया? बहुत से दर्शक जो उदय की कहानी से अनजान थे वो निर्देशक से फ़िल्म के अंत में एक उम्मीद की किरण चाहते थे. एक उछाला जाता पत्थर शायद अंकुर की तरह या एक रोपा जाता पौधा शायद रंग दे बसंती की तरह. पता नहीं उदय प्रकाश इस सब में कहाँ थे? वो होते तो बहुत से दर्शक उनसे भी यही सवाल करते. और मुझे मालूम है कि उनका जवाब क्या होता… मैं यही चाहता था कि आप सब मुझे इस अंत के लिए कोसें. कहें कि यह अंत गलत है. मोहनदास को एक आखिरी पत्थर उछालना चाहिए. अब भी इस सत्ता तंत्र के पार एक सवेरा है जो उसका इंतज़ार करता है. आप सब ये कहें और मेरी कहानी शायद तब पूरी हो. एक-एक मोहनदास आप सबको इस हॉल से बाहर निकलने के बाद मिलेगा. आप उसे यही बात कहें. मेरी कहानी में तो उसने दरवाज़ा बंद कर लिया लेकिन हो सकता है कि आपकी कहानी में ऐसा ना हो. अगर हम एक भी कहानी ऐसी रच पाये जहाँ मोहनदास को उसकी पहचान वापिस मिल जाती है और वो आख़िर में दरवाज़ा बंद नहीं करता तो मेरा कहानी कहना पूरा हुआ. आप इस कहानी पर अविश्वास करें क्योंकि अगर सिनेमा में बंद हुआ दरवाज़ा असल जिंदगी में ऐसा एक भी दरवाज़ा खोल पाये तो मैं उस बंद दरवाज़े के साथ हूँ.

मिथ्या: खोई हुई पहचान की तलाश में

मैं जान जाता कि यह एक सपना है. लेकिन यह पता चल जाने के बावजूद मैं अच्छी तरह से जानता कि तब भी मैं अपनी इस मृत्यु से बच नहीं सकता. मृत्यु नहीं -तिरिछ द्वारा अपनी हत्या से- और ऐसे में मैं सपने में ही कोशिश करता कि किसी तरह मैं जाग जाऊं. मैं पूरी ताक़त लगाता, सपने के भीतर आँखें फाड़ता, रौशनी को देखने की कोशिश करता और ज़ोर से कुछ बोलता. कई बार बिलकुल ऐन मौके पर मैं जागने में सफल भी हो जाता.

माँ बतलाती कि मुझे सपने में बोलने और चीखने की आदत है. कई बार उन्होंने मुझे नींद में रोते हुए भी देखा था. ऐसे में उन्हें मुझे जगा डालना चाहिए, लेकिन वे मेरे माथे को सहला कर मुझे रजाई से ढक देती थीं और मैं उसी खौफ़नाक दुनिया में अकेला छोड़ दिया जाता था. अपनी मृत्यु -बल्कि अपनी हत्या से बचने की कमज़ोर कोशिश में भागता, दौड़ता, चीखता.”

उदय प्रकाश की कहानी तिरिछ का अंश.


दुनिया का सबसे बड़ा डर क्या है?
…सपने आपके भीतर के डर और इच्छाओं को जानने का सबसे बेहतर ज़रिया हैं. मुझे सबसे डरावना सपना वह लगता है जहाँ मैं अकेला रह जाता हूँ. मेरे दोस्त
, मेरा परिवार, मेरी दुनिया मुझसे बिछुड़ जाते हैं. मैं अनजान भीड़ के बीच होता हूँ या अपनी जानी-पहचानी जगहों पर अकेला होता हूँ. मुझे पहचानने वाला कोई नहीं होता. ऐसे में अक्सर मैं जागने की कोशिश करता हूँ. लेकिन कभी-कभी सपने के भीतर अचानक ऐसा लगता है कि यह सपना नहीं हकीक़त है और वह अहसास खौफ़नाक होता है. हाँ, दुनिया का सबसे बड़ा डर अकेलेपन का डर होता है. अपनी पहचान के खो जाने का डर होता है. अपनी दुनिया से बिछुड़ने का डर होता है.
इस नज़रिये से देखने पर
मिथ्या का दूसरा हिस्सा एक डरावना अनुभव है. वी.के. (रणवीर) बारबार इसे सपना समझकर जागने की कोशिश करता है. लेकिन वह सपना नहीं है. उसे समझ नहीं आता कि क्या सपना है और क्या सच? वह चिल्लाता हैतुमने कहा था कि कुछ नहीं बदलेगा.” और आख़िर में वह अपनी एकमात्र याद रही पहचान से भी ठुकराया जा चुका है. वी.के. एक ऐसा शख्स है जिसका सबसे डरावना सपना सच हो गया है.
दोस्तों को नायक की मौत पर कहानी का अंत एक त्रासद अंत लग सकता है लेकिन मैं इससे असहमत हूँ. वी.के. का अंत दरअसल उसके सपने का भी अंत है. उसकी ‘जागने’ की निरंतर कोशिश एक बंदूक की गोली उसके भेजे में जाने के साथ ही सफल हो जाती है. गोली लगने के साथ ही उसका खौफ़नाक सपना टूट जाता है और उसे एक फ्लैश में सब याद आ जाता है. उसकी आखिरी पुकार
सोनल में एक चैन, एक संतुष्टि, एक सुकून सुनाई देता है. यह त्रासद अंत नहीं. वी.के. एक कमाल का दोहराव रचते हुए एक परफैक्ट मौतमरता है जो फ़िल्म के पहले दृश्य से उसकी तमन्ना थी. मौत उसे अपनी खोई हुई पहचान, खोई हुई जिंदगी से जोड़ देती है.
मैं यह कहने में हिचकूंगा नहीं कि फ़िल्म पर रजत कपूर से ज्यादा सौरभ शुक्ला की छाप नज़र आती है. यह मिक्स डबल्स जैसी नहीं है और भेजा फ्राई जैसी तो बिलकुल नहीं है. हाँ रघु रोमियो के कुछ अंश यहाँ-वहां दिख जाते हैं. मरीन ड्राइव (नेकलेस) के फुटपाथ पर बैठे अथाह/अनंत समंदर की तरफ़ देखते और दारु पीते वी.के. की छवि सत्या के भीखू की याद दिलाती है. जैसा मदनगोपाल सिंह कहते हैं यह उत्तर भारत के छोटे शहरों से वाया दिल्ली (
NSD) होते मुम्बई आए लड़कों की पौध का दक्षिण भारत के उन्नत तकनीशियन निर्देशकों से लेखक के तौर पर मिलन से उपजा सिनेमा है. मिथ्या मुझे अनेक पूर्ववर्ती फिल्मों की याद दिलाती रही जिनमें से कुछ की चर्चा मैं यहाँ करना चाहूँगा.

सत्या– फ़िल्म पर RGV स्कूल की छाप साफ नज़र आती है. इसका सीधा कारण फ़िल्म से लेखक के रूप में सौरभ शुक्ला का जुड़ा होना है. यह मुम्बई के अंडरवर्ल्ड को देखने की नई यथार्थवादी दृष्टि थी जो सत्या में उभरकर सामने आई थी. यह मुम्बई के अंडरवर्ल्ड को देखने की नई यथार्थवादी दृष्टि थी जो सत्या में उभरकर सामने आई थी. विनय पाठक ने ओशियंस सिने फेस्ट में मिथ्या के प्रीमियर में कहा भी था कि डॉन लोग कोई चाँद से नहीं आए हैं. वे भी हमारे-आपके जैसे इंसान हैं. यह दृष्टि सौरभ शुक्ला, अनुराग कश्यप, जयदीप सहनी जैसे लेखकों की बदौलत आई थी और आज फैक्टरीकी बुरी हालत के पीछे इन लेखकों का अलगाव एक बड़ा कारण माना जा रहा है. मिथ्या में यह दृष्टि इंस्पेक्टर श्याम (ब्रिजेन्द्र काला) के किरदार में बखूबी उभरकर आई है. एक बेहतरीन अदाकार जिसके काम की पूरी तारीफ ज़रूरी है बिना किसी हकलाहट के!

डिपार्टेड– मार्टिन स्कोर्सेसी की यह थ्रिलर दो परस्पर विरोधी योजनाओं के उलझाव से निकली कहानी है. मुझे वी.के. की दुविधा में लिओनार्दो की दुविधा का अक्स दिख रहा था. lost identities की कहानी के रूप में और अपनी खोई पहचान वापस पाने की लड़ाई के तौर पर यह दोनों फिल्में साथ रखी जा सकती हैं. कुछ और नाम भी याद आ रहे हैं नेट और बरमूडा ट्राएंगल जैसे. कभी विस्तृत चर्चा में बात करेंगे.

दिल पे मत ले यार– यह मिथ्या की नेगेटिव है. इसमें सपना खौफनाक नहीं है, सपने के टूटने के बाद की असल तस्वीर खौफनाक है. हिन्दी सिनेमा का सबसे त्रासद अंत. मिथ्या का अंत मौत के बावजूद सुकून देता है. दिल पे मत ले यार का अंत कड़वाहट से भर देता है. असल जिंदगी अपनी तमाम ऐयाशियों के साथ किसी भी खौफनाक सपने से ज़्यादा भयावह है. मिथ्या के अंत में नायक की मौत सुकून देने वाली है. सुकून इस बात का कि आखिरकार वह अपने भयावह सपने की कैद से आजाद हो गया है. इसके विपरीत दिल पे मत ले यार के अंत में दुबई में बैठे अरबपति डान रामसरन और गायतोंडे सफलता के नहीं, मौत के प्रतीक हैं. मासूमियत की मौत, भरोसे की मौत, इंसानियत की मौत. मुम्बई शहर को आधार बनाती दो बेहतरीन फिल्में जो उत्तर भारत से आए दो युवकों के भोले सपनों और महत्वाकांक्षाओं की किरचें बिखरने की कथा को मायानगरी के वृहत लैंडस्कैप में चित्रित करती है. मुम्बई शहर पर चर्चित और प्रशंसित फिल्में कम नहीं लेकिन यह दोनों अपेक्षाकृत रूप से कम चर्चित फिल्में 90 के बाद बदलते महानगर और उसके जायज़- नाजायज़ हिस्सों पर तीखा कटाक्ष हैं. इन्हें उल्लेखनीय हस्तक्षेप के तौर पर दर्ज किया जाना चाहिए.

अंत में रणवीर शौरी. मेरी पसंद. उसमें मेरे जैसा कुछहै. मिथ्या में पहले आप उसके लिए डरते हैं, फ़िर उसके साथ डरते हैं और अंत में उसकी जगह आप होते हैं और आपका ही डर आपके सामने खड़ा होता है. यह साधारणीकरण ही रणवीर के काम की सबसे बड़ी बात है. कुछ दृश्यों में उसका काम आपपर हॉंटिंग इफेक्ट छोड़ जाता है. जब भानू (हर्ष छाया) उसे अपने भाई का कातिल समझ कर मार रहा है वहां उसकी पुकार “भानू, मैं तेरा भाई हूँ.” एक ना मिटने वाला निशान छोड़ जाती है. एक ही फ़िल्म में हास्य और त्रासदी के दो चरम को साधकर उसने काफी कुछ साबित कर दिया है.

मिथ्या देखा जाना चाहती है. उसकी यह चाहत पूरी करें.