यह कहानी उन लड़कों की है जो ‘शहर’ नामक किसी विचार से दूर बड़े हुए. इसमें संगीत है, घरों में आते नए टेप रिकॉर्डर हैं, बारिश का पानी है, डब्ड फिल्में हैं, नब्बे के दशक में बड़े होते बच्चों की टोली है. कुछ हमारे डर हैं और कुछ आशाएं हैं. कुछ है जो हम सबमें एकसा है. मुझमें और विशाल में एकसा है. आज जब मैं लौटकर अपने बचपन को देखता हूँ तो मुझे एक ‘रहस्यमयी-सा’ अहसास होता है. जैसे बाबू देवकीनंदन खत्री की ‘चंद्रकांता’ पढ़नी शुरू कर दी हो. हमारे बचपन और शहर के इस अलगाव का हमारे व्यक्तित्वों पर असर है. बाद में हर दोस्त इस विचार से अपनी तरह से जूझा है. बचपन किसी ‘राबिन्सन क्रूसो’ की तरह टापू पर बिताया गया समय है. और अब हम उस टापू को साथ लेकर अपने-अपने ‘शहरों’ में घूमते हैं. कुछ परिचित से, कुछ बेमतलब.
सुशील ने मुझे ‘चकमक’ के लिए ए. आर. रहमान पर कुछ लिखने को कहा था. और मैं रहमान पर जो लिख पाया वो ये है. यह सुशील की तारीफ ही है कि चकमक में आकर अब मेरी यह अनसुलझी कहानी हजारों बच्चों के पास पहुँचेगी. शुक्रिया सुशील.
ए. आर. रहमान हमारे दौर के आर. डी. बर्मन हैं. जब हिन्दी सिनेमा ने पंचम को खोया तो लगा था कि एक दौर ख़त्म हो गया है. उनकी आखिरी फ़िल्म का गीत ‘एक लड़की को देखा तो ऐसा लगा’ अपने भीतर उस दौर की तमाम खूबसूरती समेटे था तो एक दूसरे गीत ‘रूठ न जाना’ में वही शरारत थी जो आर. डी. के संगीत की ख़ास पहचान थी. लगा पंचम के संगीत की अठखेलियाँ और शरारत अब लौटकर नहीं आयेंगे. लेकिन तभी दक्षिण भारत से आई एक डब्ड फ़िल्म ‘रोज़ा’ के गीत ‘छोटी सी आशा’ ने हमें चमत्कृत कर दिया. इस गीत में वही बदमाशी और भोलापन एकसाथ मौजूद था जो हम अबतक पंचम के संगीत में सुनते आए थे. ए. आर. रहमान के साथ हमें हमारा खोया हुआ पंचम वापिस मिल गया.
मैं अपने बचपन के दिनों में रहमान के संगीत वाली हर फ़िल्म की ऑडियो कैसेट ज़िद करके ख़रीदा करता था. यह वो समय था जब हमारे घर में नया-नया टेप रिकॉर्डर आया था. हम उसमें अपनी आवाज़ें रिकॉर्ड कर सुनते थे और वो हमें किसी और की आवाज़ें लगती थीं. हम कभी भी अपनी आवाज़ नहीं पहचान पाते थे. और हम उसमें रहमान के गाने सुनते थे. मेरा दोस्त विशाल सांगा बहुत अच्छा डाँस करता था और रहमान की धुनों पर वो एक ख़ास तरह का ब्रेक डाँस करता था जो सिर्फ़ उसे ही आता था. हम दोस्त एक दूसरे के जन्मदिन का बेसब्री से इंतज़ार करते और हर जन्मदिन की पार्टी का सबसे ख़ास आइटम होता विशाल का ब्रेक डाँस. हर बार हम विशाल से कहते कि वो हमें अपना डाँस दिखाए. पहले तो वो आनाकानी करता लेकिन हमारे मनाने पर मान जाता. हम कमरे के सारे खिड़की/दरवाज़े बंद कर लेते. हमें ये बिल्कुल पसंद नहीं था कि कोई और हमें देखे. मैं टेप रिकॉर्डर ऑन करता और कमरे में रहमान का ‘हम्मा-हम्मा’ गूंजने लगता. विशाल अपना ब्रेक डाँस शुरू करता और हम बैठकर उसे निहारते. हमें लगता कि वो एकदम ‘प्रभुदेवा स्टाइल’ में डाँस करता है. हम भी उसके जैसा डाँस करना चाहते थे. कभी-कभी वो हमें भी उस ब्रेक डाँस का कोई ख़ास स्टेप सिखा देता और हम उसे सीखकर एकदम खुश हो जाते. थोड़ी ही देर में हम सारे दोस्त खड़े हो जाते और सब एकसाथ नाचने लगते. विशाल भी कहता कि जब सब एकसाथ डाँस करते हैं तो उसे सबसे ज़्यादा मज़ा आता है.
विशाल को भी गानों का बहुत शौक था. खासकर रहमान के गानों का. उसके पास एक वाकमैन था जिसे कान में लगाकर वो रात-रात भर गाने सुना करता था. मैं जब भी कोई नई कैसेट लेकर आता तो वो रातभर के लिए उसे मुझसे माँगकर ले जाता था. और रहमान की कैसेट तो छोड़ता ही नहीं. दिन में मैं रहमान के गाने सुनता और रात में विशाल. उसे हिन्दी ठीक से बोलनी नहीं आती थी. वो अटक अटक कर हिन्दी बोलता और बीच बीच में शब्द भूल जाता था. मेरे नए जूते देखकर कहता, “छुटकू तेरे ये तो दूसरों के ये से बहुत अच्छे हैं!” मुझे ‘ये’ सुनकर बहुत मज़ा आता था और मैं अपने घर आकर सबको ये बात बताता. लेकिन वो संगीत में जीनियस था. मेरी और उसकी पसंद कितनी मिलती थी. ‘दिल से’ के एक-एक गीत को वो हजारों बार सुनता था. मुझे कहता था, “पता है छुटकू, ये रहमान की आदत ही ख़राब है. जाने क्या-क्या करता है. अब बताओ, गाने की शूटिंग ट्रेन पर होनी है तो पूरे गाने में ताल की जगह ट्रेन की आवाज़ को ही पिरो दिया. पूरे गाने में ऐसी बीट जैसे कोई लम्बी ट्रेन किसी ऊंचे पुल पर से गुज़र रही हो! कमाल है इसका भी हाँ.” हम दोनों रहमान के दीवाने थे. याद है ना.. मैं दिन भर रहमान के गाने सुनता था और वो रात भर. मैं घर पर माँ से कहता. “पता है माँ, मेरे तीनों दोस्त इंजिनियर बनेंगे. गौरव और रोहित तो सादा इंजिनियर बनेंगे और विशाल बनेगा म्युज़िक इंजिनियर!”
अब तो कई साल हुए विशाल से मुलाकर हुए. मैं दिल्ली आगे की पढ़ाई के लिए आ गया हूँ और विशाल ने कर्नाटक में अपनी हेंडलूम फैक्ट्री शुरू कर दी है. लेकिन आज भी जब मैं कहीं रेडियो पर ‘हम्मा-हम्मा’ सुनता हूँ तो मेरे पाँव में थिरकन होने लगती है और उस वक़्त मुझे विशाल की बहुत याद आती है. और इसीलिए रहमान हमारे दौर के आर. डी. हैं. सबका चहेता. सबसे चहेता.
रहमान को मालूम है कि हम आधे से ज़्यादा पानी के बने हैं. पानी की आवाज़ सबसे मधुर आवाज़ होती है. इसीलिए वो बार-बार अपने गीतों में इस आवाज़ को पिरो देते हैं. ‘साथिया’ में उछालते पानी का अंदाज़ हो या ‘लगान’ में गरजते बादलों की आवाज़. ‘ताल’ में बूँद-बूँद टपकते पानी की थिरकन हो या ‘रोजा’ में बहते झरने की कलकल. रहमान की सबसे पसंदीदा धुनें सीधा प्रकृति से निकलकर आती हैं. वो नए वाद्ययंत्रों के इस्तेमाल में माहिर हैं और नए गायकों को मौका देने में सबसे आगे. ‘दिल से’ के लिए उन्होंने Dobro गिटार का उपयोग किया तो ‘मुस्तफा-मुस्तफा’ गीत के लिए Blues गिटार का. अपने गीत ‘टेलीफोन-टेलीफोन’ के लिए उन्होंने अरबी वाद्य Ooud का प्रयोग किया. चित्रा, हेमा सरदेसाई, मुर्तजा, मधुश्री से लेकर नरेश aiyer और मोहित चौहान तक रहमान ने हमेशा नए और उभरते गायकों को मौका दिया है. उनका संगीत लातिन अमेरिका के संगीत को हिन्दुस्तानी संगीत से और पाश्चात्य संगीत को दक्षिण भारतीय संगीत से जोड़ता है. और उनके बहुत से गीतों पर सूफि़याना प्रभाव साफ़ नज़र आता है. ‘दिल से’ के गीतों में ये सूफि़याना प्रभाव ही था जिसने उसे रहमान का और हमारे दौर का सबसे खूबसूरत अल्बम बनाया है. ये प्रेम की तड़प को उस हद तक ले जाना है कि वो प्रार्थना में उठा हाथ बन जाए. ‘लगान’ में वे लोकसंगीत को अपनी प्रेरणा बनाते हैं और ‘घनन घनन’ तथा ‘मितवा’ में ढोल का खूब उपयोग मिलता है. ‘राधा कैसे न जले’ में लोकजीवन से जुड़ी मितकथाओं का और धुन में बांसुरी का बहुत अच्छा उपयोग है. ‘स्वदेस’ की धुन में स्वागत में बजने वाली धुनों का इस्तेमाल एकदम मौके के माफ़िक है. रहमान के लिए धुनों में नयापन कभी समस्या नहीं रहा. पूरी दुनिया सामने पड़ी है. हर फूल-पत्ती में आवाज़ छुपी है. बस दिल से सुननेवाला चाहिए.
एकलव्य की बाल-विज्ञान पत्रिका ‘चकमक’ के अगस्त 2008 अंक में प्रकाशित.
Vishal Sanga ka break dance! kya din the vo. mujhe bahut kam mauka milta tha vo dance dekhne ka kyuki sare ladke room band kar lete the. Aapke janmdin me dekha tha shayad. ek aur birthday me chalan tha vo light off karke maarne wala.
ekdum mast likha hai nostalgic.
khoobsoorat post…
बचपन किसी ‘राबिन्सन क्रूसो’ की तरह टापू पर बिताया गया समय है. और अब हम उस टापू को साथ लेकर अपने-अपने ‘शहरों’ में घूमते हैं. कुछ परिचित से, कुछ बेमतलब.
kamal ki line hai mihir ye…
~deepak
p.s: naresh ayer aur mohit chahuan aaj hi jode aapne? purane article me?
wakai yr bahut umda likha h. rahman ka hi sangeet aisa h k usme prakriti ki mithas h to mitti ki mehak bhi unka sangeet kuch hatkar h sunte hi pta chalta h k ha ye music rehman ne diya h. like ur thoughts…
आखिर कौन डरता है भेड़िये से भेड़िये से भेड़िये से…. रहमान तो रहमान है… पुरे देश को उसपर गुमान है… हिंदी फिल्म इंडस्ट्री का ही नहीं वो पूरे देश का स्वाभिमान हैं…
din.mly@gmail.com
Rahman kabhi-kabhi apne sangeet mein aise elements ka chunaav karte hain jiski kalpana shayad koi shrota nahi karta hai.
Unka har sangeet hamesha ek nayapan aur freshness liye rahta hai. Maine kuch logon ko kahte suna hain ki Rahman hamesha apne diye gaye har composition mein bass ka adhik use karte hain jisase sunte samay pet ke bheetar ek dhamak ka ehsaas hota hai… lekin nahi…… aisa kuch bhi nahi hai….. we creative aur technological dono hain….
Rahman ke geeton se jo aapki yaaden judi hain wo kafi shaandar hain…
Bhavishya ke liye Shubhkaamnaayen.
Ssiddhant Mohan Tiwary
Varanasi.
Vishal Saanga ki kahaani bhi utni hi interesting lagi jitni Rehman ki. Aur iss lekh ki saralta sach mein kamaal ki hai.
Main khud-ba-khud bachha bankar padhne laga…jaise main kuchh jaanta hi nahin Rehman ke baare mein aur sab naya naya lagne laga. Uske rahasya, uske geet, uski udaan…sab mere andar padhte padhte phir se khuli.
Aisa hi kuchh kabhi Sonu Nigam ka bhi likho na…
Sahi me Rehman ki tulna R.d burman se kar sakte hain.
Sir, We are waiting for your new post…….
मुन्ना और प्रतीक, (दो अलग-अलग कालखंडों में बंटी जिंदगी के प्यारे साथी!) बहुत शुक्रिया तुम्हारा पोस्ट पढ़ने के लिए. वैसे अगर किसी दिन तुम यूं ही मिल जाओ तो एक तार होगा जो तुम दोनों को आपस में जोड़ देगा. मुझे ख़ुशी है कि वो ‘एक ही तार’ मैं हूँ…
maja aa gaya padh kar …….. great work…
badhiya post ….wakai rahman bas rahman hi hi hai………………
शुक्रिया नितिन. विकी के अनुसार जेंटलमैन रहमान की 6th फ़िल्म थी जो जुलाई 1993 को प्रर्दशित हुई. इसका एक गीत ‘रूप सुहाना लगता है’ मुझे आज तक याद है. उस दौर में इलैया राजा भी साउथ के बड़े सफल संगीतकार थे और इन दोनों का संगीत हमतक अक़्सर डब होकर पहुँचा करता था.
जी हाँ यह चकमक पत्रिका वही है जो एकलव्य से निकलती है. आप शिक्षा के क्षेत्र में सक्रिय हैं तो आप तो जानते ही होंगे. आपका ब्लॉग भी देखा मैंने. मज़ा आया. पढूँगा और बात करूँगा.
बहुत बढिया लिखा है। रहमान से हमारा परिचय सर्वप्रथम जेण्टलमेन(तमिल) के गानों से हुआ था।
यह चकमक पत्रिका वही है जो एकलव्य से निकलती है?