मैं झमाझम बारिश से भीगती बस में था. यह शाम का वही वक़्त था जिसके लिये एक गीतों भरी प्रेम कहानी में कभी गुलज़ार ने लिखा था कि सूरज डूबते डूबते गरम कोयले की तरह डूब गया… और बुझ गया! गुड़गांव से थोड़ा पहले महिपालपुर क्रॉसिंग पर जहाँ मेट्रो की नई बनी लाइन घुमावदार उलझे फ्लाईओवरों के ऊपर से पच्चीस डिग्री के कोण पर उन्हें नीचा दिखाती हुई सीधा चाँद की ओर निकल जाती है वहीं, बस वहीं. दूर बादलों के बीच से निकलता एक हवाईजहाज़ था जिसकी बत्ती किसी डूबते सितारे की तरह दूर जाती लग रही थी. खिड़की के शीशे पर अटकी बारिश की बूंदें थीं जिन्हें सामने से आती ट्रक की हेडलाइट रह-रहकर सुनहरे मोती में बदल देती थी. रह-रहकर पानी, रह-रहकर मोती. चमकता सा पानी, बहते से मोती. खिड़की से दीखते सामने टंगे चाँद को देखकर ये ख्याल आया था कि क्या हमारी तरह चांद भी बारिश में भीग जाता होगा? क्या घुटने जोड़कर, दोनों हाथों के बीच सर छिपाकर वो भी इस ठिठुरन भरे मौसम में अपनी जान बचाता होगा? मैंने खिड़की से ऐसा ही एक भीगा हुआ चाँद देखा. तेज़ बौछार में उसके कपड़े जब टपकते होंगे तो क्या वो उन्हें सुखाने के लिए दो उजले तारों के बीच फैलाकर लटका देता होगा? वहीं, बस वहीं मुझे अधूरेपन का अहसास हुआ. वहीं, बस वहीं मैंने एक कहानी लिखने का फ़ैसला किया. वहीं, बस वहीं मैंने भाग जाने की सोची. वहीं, बस वहीं मैंने ’कमीने’ के गीत सुने. जैसे पहली बार सुने, जैसे आखिरी बार सुने.
“ढैन टे णे टेणे नेणे” 4:45 (सुखविंदर सिंह, विशाल डडलानी, रॉबर्ट बॉब)
“आजा आजा दिल निचोड़े,
रात की मटकी तोड़े.
कोई गुडलक निकालें,
आज गुल्लक तो फोड़े.”
विशाल को शायद शेक्सपियर के साथ लम्बी संगत का यह गुण मिला है कि वे आदिम मनोभावों को सबसे बेहतर पहचानने लगे हैं. इसी संगत का असर है कि विशाल मुम्बइया सिनेमा की सबसे आदिम धुन खोज लाए हैं. ढैन टै णे टेणे टेणे ….. हमेशा से मौजूद हमारे बॉलीवुडीय मसाला सिनेमाई मनोभावों को अभिव्यक्त करने वाली सबसे आदिम धुन. इस धुन का बॉलीवुड के लिए वही महत्व है जो हॉलीवुड के लिए ’द गुड, द बैड एंड द अगली’ की शीर्षक धुन का था. मुझे लगता है मैं इस धुन को सालों से जानता हूँ. इस धुन के साथ सत्तर के दशक के अमिताभीय सिनेमा से अस्सी के दशक के मिथुन चक्रवर्तीय सिनेमा तक सिनेमा की एक पूरी किस्म अपने सारे फॉर्मूलों के साथ जी उठती है. यह महा (खल) नायक के दौर से आई आदिम धुन है. मारक असर वाली. सुखविंदर की हमलावर आवाज़ के साथ. हमेशा की तरह गुलज़ार बेहतर प्रयोग करते हैं. हालांकि इस गीत में कोई चमत्कारिक प्रयोग नहीं है लेकिन संगीत की बुलन्दी उसे ढक लेती है.
कहते हैं मुम्बई शहर कभी सोता नहीं. कहते हैं मुम्बई शहर रात का शहर है. यह गीत मुम्बई में ही होना था. यह सड़क का गाना है. रात में जागती सड़क का गाना. इसमें बहुत साल पहले जावेद अख़्तर के लिखे ’सो गया ये जहाँ’ का आवारापन घुला है. विनोद कुमार शुक्ल ने ’नौकर की कमीज़’ में लिखा था, “घर बाहर जाने के लिए उतना नहीं होता जितना लौटने के लिए होता है. लौटने के लिए खुद का घर ज़रूरी होता है.” ओये लक्की लक्की ओये से कमीने तक, क्या हम नष्ट/छूटे घर की तलाश में अनवरत भटकते नायकों की कथायें रच रहे हैं.
“रात आई तो वो जिनके घर थे
वो घर को गए सो गए
रात आई तो हम जैसे आवारा
फिर निकले राहों में और खो गए
इस गली, उस गली
इस नगर उस नगर
जाएँ भी तो कहाँ
जाना चाहें अगर
सो गई हैं सारी मंज़िलें
सो गया है रस्ता”
“पहली बार मोहब्बत” 5:24 (मोहित चौहान)
“याद है पीपल के जिसके घने साये थे,
हमने गिलहरी के झूठे मटर खाये थे.
ये बरक़त उन हज़रत की है,
पहली बार मोहब्बत की है.
आखिरी बार मोहब्बत की है.”
यह दूर पहाड़ों का गीत है. यह गाना पानी वाला गाना है. ठंडे पानी वाला गाना. रसोई के पीछे अलावघर से बुलाती उसकी आवाज़. बर्फीले पानी वाला गाना. कुड़कुड़ी वाले सर्द मौसम के बीच मिट्टी के कुल्हड़ में गरमागरम धुआँ उड़ाती चाय. कुछ है जो बहता हुआ है. नम. जैसे सुनो और भीग जाओ. देवदार. इस गाने की फ़ितरत में ठिठुरन है. कोयले की सिगड़ी जिसमें फूँक मारते ही कोयले का रँग स्याह से बदल कर सुनहरा हो जाता है. ऊना, चोप्ता, लद्दाख, दार्जिलिंग. कहते हैं कि अगर दार्जिलिंग में एड़ी के बल उचककर ऊपर को देखो तो दूर कंचनजघा दीख पड़ता है. मैं बस इस गाने को सुनने के लिये पहली बार पहाड़ों पर जाऊँ, आखिरी बार पहाड़ों पर जाऊँ.
मोहित चौहान को मैंने ’गुँचा कोई मेरे नाम कर दिया’ के साथ खोजा था, दुनिया ने ’तुमसे ही दिन होता है’ के साथ पाया. अब उन्हीं के लिये गीत रचे जा रहे हैं. सुनियेगा, जब ’पहली बार… मोहब्बत की है’ के साथ गीत ऊपर जाता है तो किसी चीड़ या देवदार की सी ऊँचाई का अहसास होता है. गुलज़ार फिर एकबार ’सोये वोये भी तो कम हैं’ जैसे प्रयोगों से साथ दिल जीत लेते हैं. एक सच्चे प्रेम-गीत की तरह यह भी ढेर सारी पुरानी यादों से गुँथा हुआ गीत है. घने साये वाले पीपल के नीचे खाये गिलहरी के झूठे मटर वाला किस्सा इस गीत की जान है. इस गीत का नशा धीरे धीरे चढ़ता है. ’रात के ढाई बजे’ से उलट यह गीत पहली नज़र का प्यार नहीं, साहचर्य का प्रेम है. आप पर आता ही जाता है, आता ही जाता है, आता ही जाता है.
“रात के ढाई बजे” 4:31 (सुरेश वाडकर, रेखा भारद्वाज, सुनिधि चौहान, कुणाल गाँजावाला, अर्ल इ.डी.)
“एक ही लट सुलझाने में
सारी रात गुज़ारी है
चाँद की गठरी सर पे ले ली
आपने कैसी ज़हमत की है”
यह पहली नज़र का प्यार है.
शुरु में ही शहनाई की बदमाश आवाज़ नोटिस करें. रैप का प्रयोग इतना उम्दा है कि हम यह भूल ही जाते हैं कि विशाल के लिये यह बिलकुल नया प्रयोग है. हमारे समय के कुछ सबसे बेहतरीन गायकों की गायकी के बीच रैप कुछ इस तरह पिरोया गया है कि अटखेली को एक और रूप तो मिलता है लेकिन गीत की तन्मयता टूटने नहीं पाती है. यह विशाल की वैरायटी है ’सपने में मिलती है’ की मासूम बदमाशी से ’कल्लू मामा’ के उज्जड्पन तक और ’छोड़ आए हम वो गलियाँ’ के नॉस्टेल्जिया से ’तुम गए सब गया’ के मृत्युबोध तक.
इस गीत की गायकी के बारे में कुछ बात विस्तार से. रेखा भारद्वाज और सुनिधि चैहान इस वक़्त हमारी सबसे वर्सटाइल गायिकाओं में से हैं. दोनों की आवाज़ की बदमाशी अब तो जगज़ाहिर है. अगर आप आवाज़ों की मूल प्रकृति पहचानते हैं तो जान जायेंगे कि इस गीत में सुरेश वाडकर की आवाज़ का क्या महत्व है. इस सांसारिक मोह माया में फंसे साधारण इच्छाओं के गीत को सुरेश वाडकर की आवाज़ अचानक एक ’पवित्रताबोध’ देती है, जैसे उसे कुछ ऊँचा उठा देती है. गौर करें कैसे कुणाल गाँजावाला अपनी चार लाइनों में कुछ अटखेलियाँ करते हैं और आखिर में टाऊ णाऊ भी लेकिन उन्हीं पंक्तियों को गाते हुए सुरेश वाडकर कितने सटीक हैं. सुरेश की आवाज़ चीनी घुली आवाज़ों के बीच गुड़ की मिठास है. और विशाल इसे बखूबी पहचानते हैं. तभी तो दूसरे अंतरे में पहली तीन लाइनें तो कुणाल की आवाज़ में हैं लेकिन ’भोले भाले बन्दे’ में अचानक सुरेश वाडकर की आवाज़ आती हैं और उसे कितना, कितना विश्वसनीय बनाती है. मैं कुणाल और सुनिधि का भी बड़ा पंखा हूँ लेकिन मुझे कहीं गहरे यह लगता है कि इस गीत पर पूरा हक रेखा भारद्वाज और सुरेश वाडकर का ही होना था. मैं पूरे गीत में उनकी आवाज़ का इंतज़ार करता हूँ. शायद उनके हिस्से का असल गीत अभी बाकी है. विशाल सुन रहे हैं न?
“फटक” 5:03 (सुखविंदर सिंह, कैलाश खेर)
“ये इश्क नहीं आसाँ,
अजी एड्स का खतरा है.
पतवार पहन जाना,
ये आग का दरिया है.”
आक्रामक गाना है. हमला करता हुआ. वैसे भी सुखविंदर और कैलाश हमारी सबसे बुलन्द आवाज़ें हैं. थीम बैकग्राउंड बीट है ’फटाक’, किसी वाद्ययंत्र से नहीं कोरस आवाज़ में. टिपिकल विशाल का अंदाज़. सत्या के ’कल्लू मामा’ में भी ’ढिशक्याऊँ’ की धुन इसी अन्दाज़ में आती थी. यह यथार्थवाद का विशाल का अपना तर्जुमा है. बीच में ढोल का प्रयोग एम एम करीम से रहमान तक बहुत से और लोगों के काम की याद दिला जाता है. बहुत ही लिरिकल है, सीधे ज़बान और दिमाग़ पर चढ़ने वाला. इंस्टैंट असर के लिए. गुलज़ार के प्रयोग भी अपनी पूरी बुलन्दी पर हैं. इस बार तो सामाजिक संदेश भी साथ है. ’रात का जाया रे’ जैसे प्रयोग फिर गीत को सतह से थोड़ा गहरे ले जाते हैं.
“कमीने” 5:57 (विशाल भारद्वाज)
“जिसका भी चेहरा छीला, अन्दर से और निकला.
मासूम सा कबूतर, नाचा तो मोर निकला.
कभी हम कमीने निकले, कभी दूसरे कमीने.”
सोल ऑफ़ द एलबम. पूरी तरह विशाल छाप गाना जिसमें इस बार आवाज़ भी खुद विशाल की है. इस गीत में कुल बीस बार कमीने शब्द आता है फिर भी मैं कहना चाहूँगा कि यह इस दशक का सबसे मासूम गीत है. सबसे ईमानदार गीत. ऐसी ईमानदारी जो शायद आपके भीतर की उस सच्चाई को जगा दे जिसका सामना करने से आप खुद भी डरते हैं. इस गीत की प्रकृति कुछ-कुछ ’सच का सामना’ की कुर्सी पर बैठने जैसी है. यह गीत डायरी लिखने जैसा ईमानदार काम है. यह अपने ही भीतर के स्याह हिस्से की उजली तलाश है. यह गीत न्यू वेव हिन्दी सिनेमा का थीम साँग हो सकता है. यह वो सारे भाव अपने भीतर समेटे है जिसकी तलाश दिबाकर बनर्जी से अनुराग कश्यप तक अपने सिनेमा में करते रहे हैं. यह सही समय है कि एक ’पल्प फिक्शन’ हमारे यहाँ भी आए, कोई टैरेन्टीनो हमारे यहाँ भी जिन्दगी के उन स्याह हिस्सों की तलाश में निकले जिन्हें शेक्सपियर के ओथेलो से ओमकारा तक और मैकबैथ से मक़बूल तक खोजा ही जाता रहा है. विशाल, अब हम आपके इंतज़ार में है.
Zabardust, Aaj tak aisa fijm sameeksha nahi padhi.
hum to appke A.C. ho gaye hain.
aaj fir se padhaaaaaaaaaaaaa! mazaaaa aayaaaaaa!
आज अभी नजर पड़ी और ठहर गई। बहुत सुंदर लिखा आपने। और यह मुझे समीक्षा से ज्यादा एक गीत-संगीत युवा प्रेमी के इम्प्रेशंस लगे। बहुत बारीक और गहरे। लहराते-गुनगुनाते। अपने में ही मगन और उड़ते हुए। उस छोटी सी चोटी पर जो धुंध में लिपटी चुपचाप अपने में ही बैठी हुई है…
उम्दा विश्लेषण! और जानने की चाहत थी पर आपने ख़ुद इसे संगीत समीक्षा मानकर साझा किया है, लिहाज़ा इत्ते भर से ही संतोष करने के अलावा चारा ही क्या है अपने पास.
बढिया पोस्ट के लिए शुक्रिया.
@ गिरिजेश राव
आपकी बेटी का आभार मैं भी मानूँगा. आपके इस किस्से ने मुझे ये बताया कि इस संगीत समीक्षा की एक और माकूल जगह मेरी प्यारी पत्रिका ’चकमक’ भी हो सकती है. बच्चों से ज़्यादा गहराई से और कौन पास है संगीत के. क्या पता वो ऐसा कुछ सुन पाएं जो मुझसे भी इस आपाधापी में छूट गया.
@ वरुण
क्या कहूँ. सच मानो मैं वो सब नहीं पकड़ पाता जो तुम देख लेते हो. मैंने चचा ग़ालिब वाले इस चमत्कार पर गौर ही नहीं किया था. हाँ जब मैंने कुछ दिन पहले टीवी पर इस गीत का वीडियो देखा तो मैंने पहली बार यह बात नोट की. मुझे तो अब भी लगता है कि मैं, तुम और हम जैसे कई अपनी पूरी उमर भी जोड़ दें न तो गुलज़ार के सारे अर्थ नहीं खोल पायेंगे. और हाँ, बरदवाज रंगन की बात पर मेरी तरफ़ से भी… “सत्य वचन!”
@ गौरव
क्या तुम्हें नहीं लगता कि काश ये गीत सुरेश वाडकर की आवाज़ में होता…
वाकई बहुत कमाल की समीक्षा। ‘भोले भाले बन्दे’ की मासूमियत मैंने भी नोटिस की थी और उस गाने में मैं भी बार बार सुरेश वाडेकर की आवाज़ का इंतज़ार करता हूँ। मैं भी लिखता तो यह लाइन ज़रूर लिखता कि ‘कमीने’ टाइटल गाना सबसे मासूम और पवित्र गीतों में से है। इसमें भी वही नश्वरता और मृत्यु बोध है, जो ‘तुम गए सब गया’ में है। हर सुबह उठने के बाद यही गीत सुनने का मन होता है मेरा। यह हमारा भजन है, अपने सब आध्यात्मिक अर्थों में।
शानदार, शानादार, शानादारा…!
अगर मात्रा लगाने से शब्दों में वज़न आता हो तो इसे ऐसे ही कहा जा सकता है.
बहुत जगह लगा कि खुद गुलज़ार आकर अपनी तारीफ कर गए. (तुम्हारे चमत्कारी प्रयोगों की तरफ इशारा है भई!) वैसे मैंने सचमुच आजतक इतना विस्तृत और परतों वाला music review नहीं पढा…पर कुछ जगहों पर, जहाँ मैं चाहता था कि तुम संगीत पर और बात करो (जैसे कि ‘फटाक’ में जब ग़ालिब चाचा की लाइन आती है तो संगीत कैसे सम्मान में धीमा सा हो जाता है), बातें उपमाओं की खोज में निकल गईं.
(वैसे कल ही बरदवाज रंगन ने लिखा है कि आप review इसलिए ना पढें कि आपको फिल्म कैसी लगेगी बल्कि इसलिय पढें कि review लिखने वाले को कैसी लगी! सत्य-वचन.)
और एक बात – ढैन-टे-डेन प्रयोग अभी पिछ्ले ही साल स्नेहा खान्विलकर (‘ओये लक्की..’ वाली मेमसाब) ने ‘गो’ नाम की फिल्म में किया था और मुझे वो गीत भी खासा पसंद है उसी प्रयोग की वजह से. हाँ गुलज़ार साब ने उसमें बहुत सारा गाढापन भर दिया, और सुखविंदर की आवाज़ को क्या कहूँ. (मुझे तो ये भी लगता है कि रहमान के पहले Oscar पर सुखविंदर का बराबर हक़ है – जय हो में जान तो उसी ने डाली है. कसम से हज़ार बार सुनने के बाद भी नाच उठता हूँ!)
एक बेहतरीन चिट्ठा, बहुत दिनों बाद इस तरह का आलेख पढ़ने को मिला है।
बहुत बढिया पोस्ट।
उम्दा लिखा, देर आये दुरस्त आये.
लगे हाथ इस गीत की भी समीक्षा लिख दें:
“टेलिफोन धुन में हँसने वाली
मेलबोर्न बिजली मचलने वाली
डिजिटल में धुन है तराशा
मैडोना है या नताशा
ज़ाकिर का तबला. . “
हम तो आप के ‘पंखे’ हो गए! फिल्मी गीतों में छिपे साहित्य और सौन्दर्य को परत दर परत उजागर कर दिया आप ने। जैसे की कपड़े की दुकान पर सेल्समैन थान दर थान दिखा रहा हो !
” ढैन टै णे टेणे टेणे ….” के प्रयोग को मेरे घर में सबसे पहले मेरी बेटी ने पकड़ा था। नवीं में पढ़ती किशोरी ! ‘पापा ये खलनायकी धुन का कैसा प्रयोग किया है !’..तब मैंने सुनी अनसुनी कर दी थी। बड़ी होती बेटियाँ शंकालु बनाती हैं।….
लेकिन उसने तो सौन्दर्य को पहचाना था।
आभार, इसलिए और कि अब मैं अपनी बेटी को गम्भीरता से सुनूँगा।