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सल्मडॉग मिलेनियर: बॉलीवुड मसाले का फ़िरंगी तड़का. बोले तो ’जय हो!’

स्ल्मडॉग मिलिनेयर देखते हुए मुझे दो उपन्यास बार-बार याद आते रहे. एक सुकेतु मेहता का गल्पेतर गल्प ’मैक्सिमम सिटी: बाँबे लॉस्ट एंड फ़ाउन्ड’ और दूसरा ग्रेगरी डेविड रॉबर्टस का बेस्टसेलर ’शान्ताराम’. हाल-फ़िलहाल इस बहस में ना पड़ते हुए कि स्लमडॉग क्या भारत की वैसी ही औपनिवेशिक व्याख्या है जैसी अंग्रेज़ हमेशा से करते आए हैं, मैं इन उपन्यासों के ज़िक्र के माध्यम से यह देखना चाहता हूँ कि इस फ़िल्म की ’परम्परा’ की रेखाएँ कहाँ जाती हैं. इन कहानियों में मुम्बई ऐसे धड़कते शहर के रूप में हमारे सामने आता है जिसके मुख़्तलिफ़ चेहरे एक-दूसरे से उलट होते हुए भी मिलकर एक पहचान, एक व्यवस्था बनाते है. सुकेतु अलग-अलग अध्यायों में मुम्बई अन्डरवर्ल्ड, बार-डांसर्स की दुनिया, फ़िल्मी दुनिया की मायानगरी और मुम्बई पुलिस की कहानी बहुत ही व्यक्तिगत लहजे के साथ कहते हैं लेकिन साथ ही मैक्सिमम सिटी इन सब व्यवस्थाओं को आपस में उलझी हुई और जगह-जगह पर एक दूसरे को काटती हुई पहचानों का रूप देती है. उम्मीद है कि मीरा नायर जब जॉनी डेप के साथ शान्ताराम बनायेंगीं तो वो भी इसी परम्परा को समृद्ध करेंगी.

स्लमडॉग देखने के बाद सबसे महत्वपूर्ण किरदार जो आपको याद रह जाता है वो है शहर मुम्बई. एक परफ़ैक्ट नैरेटिव स्ट्रक्चर में जमाल के हर जवाब के साथ मुम्बई का एक चेहरा, एक पहचान सामने आती है. जगमगाते सिनेमाई दुनिया के सपने, धर्म के नाम पर हो रही हिंसा में बचकर भागते तीन बच्चे, झोपड़पट्टियों में चलते तमाम अवैध खेल और उनके बीच से ही पनपता जीवन. क्रिकेट और सट्टेबाज़ी, जीने की ज़द्दोजहद और प्यार…

पिछले हफ़्ते सी.एन.एन. आई.बी.एन. को दिए साक्षात्कार में डैनी बॉयल ने मुम्बई के लिए कहा है, “और इस फ़िल्म में एक किरदार मुम्बई शहर भी है. ऐसा किरदार जिसके भीतर से अन्य सभी किरदार निकलते हैं. मैं इस शहर को इसकी सम्पूर्णता में पेश करना चाहता था, लेकिन वस्तविकता यह है कि आप इसका एक हिस्सा ही पकड़ पाते हैं. इसे पूरा पकड़ पाना असंभव है क्योंकि यह बहुत जटिल है और हर रोज़ बदलता है. ये समन्दर की तरह है, हमेशा अपना रूप बदलने वाला समन्दर. लेकिन इस समन्दर का स्वाद चख़ना भी स्लमडॉग की कहानी का एक हिस्सा था. यह वैश्विक अपील रखने वाली कहानी है.”

स्लमडॉग में कोई स्टैन्डआउट एक्टिंग परफ़ॉरमेंस नहीं है. अगर याद रखे जायेंगे तो वो दो बच्चे जिन्होंने कहानी के पहले हिस्से में जमाल (आयुष महेश खेड़ेकर) और सलीम (अज़रुद्दीन मौहम्मद इस्माइल) की भूमिका निभाई है. स्लमडॉग को स्टैन्डआउट बनाती हैं उसकी तीन ख़ासियतें:-

1.पटकथा 2.सिनेमैटोग्राफ़ी 3.संगीत

साइमन बुफ़ॉय की पटकथा ’परफ़ैक्ट’ पटकथा का उदाहरण है. एन्थोनी डॉड मेन्टल की सिनेमैटोग्राफ़ी ने मुम्बई में नए रँग भरे हैं. और साथ ही यह फ़िल्म की गतिशीलता के मुताबिक है. और रहमान का संगीत फ़िल्म की जान है. कहानी का मुख्य हिस्सा. रहमान का संगीत उस तनाव के निर्माण में सबसे ज़्यादा सहायक बनता है जिस तनाव की ऐसी थ्रिलर को सबसे ज़्यादा ज़रूरत होती है.

पटकथा- क्योंकि मैंने विकास स्वरूप का उपन्यास Q&A नहीं पढ़ा है इसलिये मैं कह नहीं सकता कि इस नैरेटिव स्ट्रक्चर का क्या और कितना उपन्यास से लिया गया है लेकिन फ़िल्म में ’कौन बनेगा करोड़पति’ के सवालों का यह सिलसिला मुम्बई की कहानी कहने के लिए ’परफ़ैक्ट’ नैरेटिव स्ट्रक्चर बन जाता है. यह पटकथा अलग-अलग बिखरी मुम्बई की कहानी को एक सूत्र में पिरो देती है. आपको कहानी में एक पूर्णता का अहसास होता है और फ़िल्म भव्यता को प्राप्त होती है. मुझे व्यक्तिगत रूप से इस तरह की ’संपूर्ण’ कहानियाँ कम ही पसन्द आती हैं. मुझे अधूरी, बिखरी, खंडित कहानियाँ (और वैसा ही नैरेटिव स्ट्रक्चर उसे पूरी तरह संप्रेषित करने के लिए) ज़्यादा प्रतिनिधि लगती हैं इस अधूरे, बिखरे, खंडित जीवन की. लेकिन शायद मेनस्ट्रीम (उधर का भी और इधर का भी) पूर्णता ज़्यादा पसन्द करता है. और इस मामले में स्लमडॉग की पटकथा पूरी तरह ’मेनस्ट्रीम’ की पटकथा है. सबकुछ एकदम अपनी जगह पर, सही-सही. विलेन वहीं जहाँ उसे होना चाहिए, नयिका वहीं जहाँ उसे मिलना चाहिए, मौत भी वहीं जहाँ उसे आना चाहिए. सभी कुछ एकदम परफ़ैक्ट टाइमिंग के साथ. इसपर बहस करने की बजाए कि यह फ़िल्म कितनी बॉलीवुड की है और कितनी हॉलीवुड की समझना यह चाहिए कि यह फ़िल्म अपने तमाम प्रयोगों के बावजूद एक शुद्ध मुख्यधारा की फ़िल्म है. और मुझे लगता है कि हॉलीवुड और बॉलीवुड के मेनस्ट्रीम में स्तर का अन्तर ज़रूर है, दिशा और ट्रीटमेंट के तरीके का नहीं. खुद डैनी बॉयल ने इस बात को माना है कि सिनेमा भारत और अमेरिका दोनों देशों में उनके सार्वजनिक जीवन के ’मेनस्ट्रीम’ में शामिल है. वे कहते हैं, “सौभाग्यवश हिन्दुस्तान में सिनेमा और उसमें काम करना लोगों की ज़िन्दगी का सामान्य हिस्सा है. यह बिलकुल अमेरिका की तरह है. लोग यहाँ सिनेमा को प्यार करते हैं.” तो यहाँ हम एक जैसे हैं. और स्लमडॉग इसी ’एक-जैसे’ तार को आपस में जोड़ रही है.

हमेशा सही जगह पर आने वाले ’कम शॉट’ और एक बेहद तनावपूर्ण क्लाइमैक्स के साथ स्लमडॉग ईस्ट और वेस्ट दोनों में लोकप्रिय और व्यावसायिक रूप से सफ़ल फ़िल्म साबित हो रही है (और होगी). और इसलिए ही यह हिन्दुस्तान की जनता के लिए कोई नई कहानी नहीं लेकर आ रही है. हिन्दुस्तानी दर्शकों ने यह ’रैग्स-गो-रिच’ वाली कहानी ही तो देखी है बार-बार. हर तीसरी बॉलीवुड फ़िल्म इसी ढर्रे की फ़िल्म है. बस इसबार उन्हें ये कहानी एक बेहतरीन पटकथा और उन्नत तकनीक के साथ देखने को मिलेगी.

फ़िल्म की शुरुआत पुलिस स्टेशन से होती है. अपने हवालदार कल्लू मामा (सौरभ शुक्ला) और इंसपेक्टर (इररफ़ान ख़ान) एक लड़के जमाल (देव पटेल) को बिजली के शॉक दे रहे हैं. इस झोपड़पट्टी के लड़के ने गई रात गेम शो ’के.बी.सी.’ में सारे सवालों के सही जवाब दिए हैं और अब वह दो करोड़ रुपयों से सिर्फ़ एक सवाल पीछे है. शक है कि उसने बेईमानी की है क्योंकि एक झोपड़पट्टी के लड़के को ये सारे जवाब मालूम हों इसका विश्वास किसी को नहीं है, खुद गेम शो के होस्ट (अनिल कपूर) को भी नहीं. पुलिस की पूछताछ में जमाल एक-एक कर हर जवाब से जुड़ा स्पष्टीकरण देता है. हर स्पष्टीकरण के साथ एक कहानी है. उसे जवाब मालूम होने की वजह. कहानी बार-बार फ़्लैशबैक में जाती है. जितनी विविधता सवालों में है उतनी ही मुम्बई की परतें खुलती हैं. आखिर में कहानी वर्तमान में आती है और जमाल आखिरी सवाल का जवाब देने वापिस लौटता है. वो कौन बनेगा करोड़पति में पैसा जीतने नहीं आया है, उसे अपनी खोयी प्रेमिका लतिका (फ़्राइडा पिन्टो) की तलाश है. उसे मालूम है कि लतिका ये शो देखती है. शायद वो उसे देख ले और उसे मिल जाये. आखिर में एक शुद्ध मुम्बईया क्लाईमैक्स है और एक ठेठ मुम्बईया आइटम नम्बर.

फ़िल्म की पटकथा सवालों के क्रम में एक के बाद एक जमाल के जीवन के अलग-अलग एपीसोड्स पिरो देती है. इससे आप मुम्बई की बहुरँगी तसवीर भी देख पाते हैं और फ़िल्म की मुख्य कथा का तनाव भी बना रहता है. यह कहानी व्यक्तिगत होते हुए भी सार्वभौमिक बन जाती है और ठेठ मुम्बईया फ़िल्मों की तरह इस फ़िल्म में भी प्यार ही कथा के ’होने की’ मुख्य वजह बनकर सामने आता है. एक कहानी जो एलेक्ज़ेंडर ड्यूमा के ’तीन तिलंगों’ के ज़िक्र से शुरु होती है पूरा चक्र घूमकर वहीं आकर एक ’परफ़ैक्ट एंडिग’ पाती है. फ़िल्म की टैगलाइन सही है शायद, “सब लिखा हुआ है”. सल्मडॉग की सबसे बड़ी ताक़त उसका लेखन (कहानी, पटकथा, संवाद) ही है!

छायांकन- फ़िल्म मुम्बई की झोपड़पट्टी को फ़िल्माती है लेकिन ये भी सच है कि फ़िल्म उसकी गरीबी से कोई करुणा नहीं पैदा करती है. शुरुआती सीन में जहाँ पहली बार मुम्बई के सल्म से आपका सामना होता है एक कमाल की सिहरन आपमें दौड़ जाती है. कैमरा जिस गति से भागते बच्चों की टोली का पीछा करता है वो पूरे सल्म को एक निहायत गतिशील पहचान देता है. यह फ़िल्म यथार्थवाद के पीछे नहीं, भव्यता और रोमांच के पीछे भागती है और इस मामले में ये हिन्दुस्तानी समांतर सिनेमा की नहीं, मुख्यधारा सिनेमा की बहन है. रेलगाड़ी के तमाम प्रसंग भी इसी भव्यता की बानगी हैं. रेगिस्तान हो या पहाड़, रेल हिन्दुस्तान को एक सूत्र में पिरोती है. वैसी ही सम्पूर्णता प्रदान करती है जो फ़िल्म का नैरेटिव स्ट्रक्चर कहानी के साथ कर रहा है. इसलिए रेलगाड़ी इस फ़िल्म के लिए एकदम ठीक प्रतीक है.

संगीत- संगीत इस फ़िल्म की जान है. रहमान ने बैकग्राउंड स्कोर में रेलगाड़ी की धड़क-धड़क को कुछ ऐसे पिरो दिया है कि पूरी फ़िल्म में एक स्वाभाविक गति पैठ गई है. यह मुझे बार-बार ’छैयाँ छैयाँ’ की याद दिलाता है. रहमान के पास हर मौके के लिए धुन है. नायक-नायिका के मिलन के अवसर पर वे ठेठ देसी ’चोली के पीछे क्या है’ और ’मुझको राणा जी माफ़ करना’ से प्रभावित गीत लेकर आते हैं. आवाज़ें भी वही दोनों इला अरुण और अलका याग्निक. शुरुआती धुन सिनेमा हॉल में डॉल्बी डिज़िटल में क्या समाँ बाँधेगी मुझे इसका इंतज़ार है. रहमान पहले भी इतना ही कमाल का संगीत देते रहे हैं लेकिन यहाँ फ़िल्म के उदेश्य में उनका संगीत जिस तरह से इस्तेमाल हुआ है वो अद्भुत है. ऐसे में फ़िल्म में संगीत एक ’एडड एट्रेक्शन’ ना होकर कहानी का हिस्सा, एक किरदार बन जाता है. ऐसा किरदार जिसके ना रहने पर कहानी ही अधूरी रह जाये. आख़िर में आया ’जय हो!’ तो जैसे एक बड़ा समापन समारोह है जो इस उत्सवनुमा फ़िल्म को एक आश्वस्तिदायक अन्त देता है. वही अपने गुलज़ार, रहमान और सुखविन्दर की तिकड़ी. जादू है जादू.. हमने तो सालों से सुना है. अब दुनिया सुने! पेपर प्लेन उड़ाये और लिक्विड डांस करा करे!

ख़ास प्रसंगों में अन्धे लड़के अरविन्द का वापिस मिलना याद रह जाता है, “तू बच गया यार, मैं नहीं बच सका. बस इतना ही फ़र्क है.” और हमारा हीरो एक सच्चा हिन्दुस्तानी नायक है. एकदम उसके फ़ेवरिट अमिताभ बच्चन की माफ़िक! बचपन के प्यार को वो भूलता नहीं और करोड़ों की भीड़ में भी आख़िर लतिका को तलाश कर ही लेता है (याद कीजिए बेताब). नायिका भी हीरो की एक पुकार पर सातों ताले तोड़कर भागी आती है. (मुझे एक पुरानी फ़िल्म ’बरसात की रात’ की मशहूर कव्वाली ’ये इश्क इश्क है इश्क इश्क’ याद आ गई. मधुबाला नायक भारत भूषण की एक पुकार पर यूँ ही भागी आई थी. बस फ़र्क इतना था कि वो रेडियो वाला दौर था.) और विलेन ऐसा कि उसके बारे में मशहूर है कि वो भूलता नहीं, ख़ासकर अपने दुश्मनों को. जिनका उसपर ’कर्ज़ है’. (मुझे बड़ी शिद्द्त से ’काइट रनर’ का खलनायक आसिफ़ याद आ रहा है. वैसे आप ’शोले’ से लेकर ’कर्मा’ तक के खलनायकों को याद कर सकते हैं. हिन्दुस्तानी विलेन लोगों की ये ख़ासियत रही है हमेशा से. वो भूलते नहीं. और इसलिए ’गज़नी’ का खलनायक एक पिद्दी विलेन ही रह जाता है, साले को कुछ याद ही नहीं रहता! क्या उसको भी ’शॉर्ट टर्म मैमोरी लॉस’ की बीमारी थी!) अब इतनी सब बातों से ये तो साफ़ है कि इस फ़िल्म में किसी भी ’बॉलीवुड फ़िल्म’ जैसा ख़ूब मसाला है. देखना है कि तेईस तारीख़ को हिन्दुस्तान में प्रदर्शन के साथ ही इस फ़िल्म की चर्चा कहाँ जाती है. उम्मीद है कि सल्मडॉग मुझसे अभी और कलम घिसवाएगी.. आला रे आला ऑस्कर आला! जय हो!

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@ सजीव.
स्ल्मडॉग भारत पर बनी सर्वश्रेष्ठ फ़िल्मों में से एक है ऐसा मेरा मानना नहीं. यह अन्य किसी सामान्य मसाला बॉलीवुड फ़िल्म से अलग नहीं लगी मुझे तो. हाँ बॉलीवुड की मसाला फ़िल्मों के सारे गुण इसमें खूब उभरकर आये हैं.

@ निधि.
नायाब जानकारी लाई हो तुम भी. नकली उपन्यास में ही नहीं, फ़िल्म में भी बहुत कुछ लगता है. गति फ़िल्म की ख़ासियत है और जैसा तुमने बताया पता चलता है कि यह खूबी उपन्यास से आई है. उत्तेजना पैदा करना सिनेमा या उपन्यास के लिए एक अच्छा गुण है ऐसा मुझे लगता तो नहीं लेकिन आज भी सफ़ल है यह जरूर पता चल गया इस फ़िल्म से.

@ नितिन
शायद यह लेखन की स्टाइल का चक्कर फ़िल्म से भी तय होता हो. चाहूँगा कि आप ’मिथ्या’ की समीक्षा ज़रूर पढ़ें.

मिहिर,
मैं भी अमिताभ बच्चन का का प्रशंसक हूं, उपन्यास और फ़िल्म के नायक की तरह पर इस बार दुआ ये है कि बिग बी के ब्लॉग पर स्लमडॉग को लेकर की गई टिप्पणी को ऑस्कर के निर्णायक गंभीरता से न लें और फ़िल्म को बड़ा ईनाम मिले. अच्छा लिखते हो यार, मस्त और स्मृतियों के पन्नों में बुकमार्क लगाने का तरीक़ा भी ढूंढ़ लिया है तुमने, तभी तो जो चाहा, याद कर लिया और लेख में पिरो दिया…बेहतरीन…ऐसे ही लिखते रहो, आगे बढ़ते रहो. बहुत-बहुत शुभकामनाएं. कभी चौराहे (www.chauraha1.blogspot.com) पर भी आना. मज़ा आएगा.

film nhi dekhi ab tk!jis raat golden globe mila uske agle hi din upanyaas pdh dala.raftaar hai.saaaraaaaaa masala hai sara kuch nhi baaki rhne diya hai isliye aksar nakli lagta hai lekin majedaar kyunki kahani khne ka tarika balki upaaye ek dum nya hai.uttejna paida krne vala sb hai upanyaas me kon bnega arabpati tk!recall karna or yaado tk pahuchna kamal ka hai.

waiting to watch an unreleased film with dvd at your bed top is frustrating…waiting for himanshu to finish his article… so ‘ll comment in detail tomorrow as he promises to finish it tonight

मुझे इस बात का पूरा हक़ है कि मैं कहूं – शाबास! मिहिर. बहुत अच्छा लिखा तुमने. फिल्म की तमाम बारीकियों को तुमने पकड़ा है और बिना भावुक्ता में बहे इसका सटीक मूल्यांकन किया है.फिल्म समीक्षा के लिए उपयुक्त भाषा भी तुम्हारे पास है. एक बार फिर, शाबास!

ठीक लिखा है मिहिर!
लेकिन ऐसा लगता है यह पढ़कर कि आपकी आलोचना पापुलर मुहावरों वाले फिल्मी आलोचना इतिहास से आगे नहीं सोच पाती!!
शुभकामनाऎं!

बहुत बढ़िया लिखा है आपने…..फ़िल्म देखने के बाद इसके दृश्य जेहन से निकलते ही नही यही शायद इसकी सबसे बड़ी खासियत है……भारत पर बनी सर्वश्रेष्ठ फिल्मों में से एक है ये…कभी समपर्क कीजियेगा….आपसे बात करना अच्छा लगेगा

Its in Hindi so obviously i didn’t understand a word of it. But I’ve watched the movie, IMO, Nice theme Short story.

नयी पोस्ट के लिए बधाई, जितनी गंभीरता से तुमने लिखा है उसे उसी की श्क्ल में पढूं तो बेहतर होगा, थोड़ा सा वक्त दो और फिर एक टिप्पणी ले जाओ ऑफर के तहत जल्द ही टिपियाता हूं