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सारे शहर की जगमग के भीतर है अँधेरा

बहुत दिनों बाद थियेटर में अकेले कोई फ़िल्म देखी. बहुत दिनों बाद थियेटर में रोया. बहुत दिनों बाद यूँ अकेले घूमने का मन हुआ. बहुत दिनों बाद लगा कि जिन्हें प्यार करता हूँ उन्हें जाकर यह कह दूँ कि मैं उनके बिना नहीं रह पाता. माँ की बहुत याद आयी. रिवोली से निकलकर सेन्ट्रल पार्क में साथ घूमते जोड़ों को निहारता रहा और प्यार के उस भोलेपन/अल्हड़पन का एक बार फ़िर कायल हुआ. निधि कुशवाहा याद आयी. मेट्रो में उतरती सीढ़ियों पर बैठकर चाय की चुस्कियां लेते हुए किसी लड़की के बालों की क्लिप सामने पड़ी मिली और मैं उसे अपना बचपन याद करता हुआ जेब में रख साथ ले आया. दसविदानिया आपके साथ बहुत कुछ करती है. ये उनमें से कुछ की झलक है.

दसविदानिया हास्य फ़िल्म नहीं है. इसकी एक बड़ी ख़ासियत मेरी नज़र में यह है कि इसमें ज़्यादातर मुख्य किरदार अन्य हास्य फ़िल्मों की तरह कैरीकैचर नहीं हैं. आजकल यह फ़िल्म में हास्य पैदा करने का सबसे आसान तरीका मान लिया गया है. अमर कौल, विवेक कौल, राजीव जुल्का, नेहा भानोट, गिटारिस्ट अंकल, सेल्सवुमन पूरबी जोशी सभी सामान्य जीते-जागते हमें अपनी रोज़मर्रा की ज़िन्दगी में मिलते रहने वाले इंसान हैं जिनमें ना देखकर हँसने लायक कुछ है और ना ये बात-बात पर कोई जोक या पंच मारते हैं. हां कुछ कैरीकैचर हैं जैसे अमर का बॉस (सौरभ शुक्ला) जो हर वक्त कुछ ना कुछ खाता रहता है लेकिन यह उसी तरह का छौंक है जो सादा दाल को ‘दाल मखनी’ बना देता है. यह फ़िल्म तमाम प्रलोभनों के बावजूद अपनी ईमानदारी बनाकर रखती है और चारों तरफ़ एक ही दिशा में बहती हवा के बाद भी कोई गैरज़रूरी कॉमेडी का तड़का अपनी कहानी में नहीं लगाती. कहानी के साथ ईमानदारी और बॉक्स ऑफिस पर सफ़लता में शशांत शाह ने ईमानदारी को चुना है और इस ईमानदारी को फ़िल्म ही नहीं फ़िल्म के प्रोमोस में भी बनाकर रखा है. यह बात तब और भी ख़ास हो जाती है जब यह पता चले कि अपनी पहली फ़िल्म बना रहे शशांत शाह स्टार वन के मशहूर कॉमेडी शो ’दी ग्रेट इंडियन कॉमेडी शो’ और ’रणवीर, विनय और कौन’ के निर्देशक हैं. दरअसल यह वहीं से निकली टीम है और फ़िल्म के कहानीकार अरशद सैयद इन दोनों धारावहिकों के भी प्रमुख पटकथा लेखक थे. और आप दसविदानिया में ’दि ग्रेट इंडियन कॉमेडी शो’ के अनेक चेहरों विनय पाठक, रणवीर शौरी, गौरव गेरा, पूरबी जोशी को पहचान सकते हैं. यह साफ़ करता है कि यह नई पीढ़ी बात को गंभीरता से कहना भी उतना ही अच्छे से जानती है जितना हँसाना. खोसला का घोंसला, मिथ्या, रघु रोमियो, मनोरमा सिक्स फ़ीट अन्डर जैसी फ़िल्में इस बात को पुख़्ता करती हैं कि इस हँसी के पीछे एक गहरा छिपा दर्द है जो सालता रहता है. एक उदासी है जो पसरी दिखायी देती है मनोरमा सिक्स फ़ीट अन्डर के बीहड़/पीले/प्यासे कस्बों से दसविदानिया में बालकनी से दिखायी देती ऊंची-ऊंची इमारतों तक. आप अमर कौल को बरिश में भीगते हुए/ डमशिराज़ में आई लव यू कहते हुए देखें और आप समझ जायेंगे कि ऐसे मौकों पर कुछ कहने की भी ज़रूरत नहीं होती. न जाने इस बारिश में क्या चमत्कार था कि मैंनें देखा मैं भी अपनी आँखें पोंछ रहा था. मैज़िकल चार्ली चैप्लिन ने कहा था कि उन्हें बारिश इसलिये भाती है कि उसमें कोई उनके आंसू नहीं देख पाता. दसविदानिया में अमर कौल को भी यूँ रोने की ज़रूरत नहीं पड़ती और मुंबई की मशहूर ‘बिन-मौसम-बरसात’ आती है.

किसी भी किरदार को उसकी तयशुदा स्पेस से ज़्यादा जगह नहीं दी गयी है और रणवीर जैसे कलाकार भी दस मिनट के रोल में आते हैं. ऐसे में शीर्षक भूमिका निभाते विनय के लिये यह वन-मैन-शो है. विनय की ख़ास बात यहाँ यह है कि एक बहुत ही ’आम’ इंसान का रोल निभाते हुए भी उनकी स्क्रीन प्रेसेंस बहुत भारी है. लेकिन यह भारी स्क्रीन प्रेसेंस कहीं भी ’आम’ इंसान वाली भूमिका की तय सीमा नहीं लांघती. वो एक मरते हुए आदमी का रोल करते हुए भी आकर्षक बने रहते हैं. लेकिन यह आकर्षण सिर्फ़ दर्शकों को बांधे रखने तक जाता है, रोल के साथ नाइंसाफ़ी तक नहीं. गौरव गेरा (विवेक कौल की भूमिका में) मुझे विशेष पसंद आये. उनके गुस्से में एक सच्चाई थी. उनकी अदाकारी में एक सच्चाई थी. शायद उनके किरदार में एक सच्चाई थी. और वहीं विवेक के साथ बातचीत में शायद अमर का किरदार सबसे अच्छी तरह खुलता है. एक छोटा भाई शिकायती लहजे में कहता है कि अगर माँ को मेरी शादी से परेशानी थी तो आप तो जानते थे कि मैं ठीक कर रहा हूं. फ़िर आपने मेरा साथ क्यों नहीं दिया? क्यों मुझे घर से निकाल दिया? और जवाब में अमर कहता है कि तू बता विवेक मैं क्या करता, तुझे घर से ना निकालता तो क्या माँ को घर से निकाल देता? शुक्रिया अरशद इतनी जटिलताओं और तनावों को इतने सरल शब्दों में (एक ही वाक्य में) व्यक्त कर देने के लिये.

गौर से देखिये, अमर ज़िन्दगी से हारा हुआ इंसान नहीं है, उसने अपनी मर्जी से यह ’हार’ चुनी है अगर आप उसे हार कहें तो. अगर उसे अपने ’सही’ कहलाये जाने और किसी अपने की खुशी में से एक को चुनना हो तो वह बिना सोचे अपनों की खुशी चुनता है. ’गलत’ कहलाया जाना चुनता है. एक ’हारा हुआ आदमी’ कहलाया जाना चुनता है. यह एक ऐसे इंसान की कथा है जो अपनी मर्जी से एक ’आम’ ज़िन्दगी चुनता है. और दसविदानिया देखने के बाद मैं इस आम/ प्रिडिक्टिबल/ औसत सी ज़िन्दगी (और वैसी ही आम/ प्रिडिक्टिबल/ औसत सी मौत) को ’हार’ नहीं ’जीत’ कहूंगा.

विशेष तारीफ़ सरिता जोशी (माँ) के लिये. माँ जिन्हें यह परेशानी है कि टी.वी. के रिमोट (टाटा स्काई रिमोट!) में इतने सारे बटन क्यों होते हैं! माँ के लिये उनके बेटों का कहना है कि उन्हें आजतक कमीज़ के बटन के सिवा और कोई बटन समझ नहीं आया चाहे वो लिफ़्ट का बटन हो या घंटी का बटन. और यही माँ अपने बेटे की मौत की खबर सुनने के बाद पहली बार खुद लिफ़्ट से जाने की इच्छा प्रगट करती है. माँ कभी यह विश्वास नहीं करती कि उसका बेटा मरने वाला है (बेटे को भी यह विश्वास नहीं करने देती, जैसे उसका विश्वास ही मौत को जीत लेगा) लेकिन उनका खुद लिफ़्ट से नीचे जाने का फ़ैसला करना सच्चाई आपके सामने रख ही देता है. यह एक सीन इशारा कर देता है कि तमाम तांत्रिकों के चक्करों के बावजूद आख़िर में तो माँ भी जानती है कि क्या होने वाला है. जब अमर अपनी नयी कार में माँ को बैठाता है तो उनकी खुशी देखने लायक है. मैं यहाँ सरिता जोशी की ’ओवर-द-टॉप’ खुशी को फ़िल्म के सबसे अच्छे सीन के तौर पर याद रखूँगा.

फ़िल्म अपने कालक्रम को लेकर भी काफ़ी सजग है. अमर के दफ़्तर में चर्चा गरम है कि जब सभी टीम में अपने खिलाड़ी हैं (आया आई.पी.एल. का ज़माना!) तो सपोर्ट किसे करें? लेट 80s में बड़े होने वाले अमर और राजीव एक दूसरे के लिये ’गनमास्टर जी-नाइन’ और ’गनमास्टर जी-टेन’ हैं (जय हो ‘गरीबों के अमिताभ’ मिथुन की!) और नेहा-अमर की फ़्लैशबैक मुलाकात में पीछे ’मैनें प्यार किया’ का पोस्टर विशेष उल्लेख की मांग करता है. फ़िल्म में कुछ ख़ामियां भी हैं जैसे राजीव जुल्का (चटनी और फ़ुलका!) की पत्नी के रोल में सुचित्रा पिल्लई का नकारात्मक किरदार गैरज़रूरी था. जहाँ मौत जैसा नकारात्मक तथ्य आपके पास पहले से हो वहाँ फ़िल्म में बाकी सब सकारात्मक ही होना चाहिये. ’खोसला का घोंसला’ की तरह ही एक बार फ़िर पुरानी तस्वीरों ने (तस्वीर ने) फ़िल्म में एक अहम भूमिका निभायी है. मैं दसविदानिया देखकर अपनी बचपन की तस्वीरों को फ़िर याद करता हूं. इस बार बनस्थली जाउँगा तो ज़रूर कुछ साथ ले आऊँगा. पुरानी तस्वीरें फ़्रेम में बंद यादों की तरह होती हैं. फ़ोर बाय सिक्स/ पोस्टकार्ड साइज़/ पासपोर्ट साइज़ में कैद सुनहरी यादें.
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फ़िल्म के निर्देशक शशांत शाह और विनय पाठक से एक प्रदर्शन पूर्व की गयी बातचीत आप यहाँ पढ़ सकते हैं. प्रश्नकर्ता अपने ही दोस्त वरुण हैं. जैसा आप जानते हैं वरुण भी इस ’टीम’ का हिस्सा रहे हैं. आप वरुण की समीक्षा यहाँ देख सकते हैं.

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दसविदानिया फिल्म अच्छी है – भेजा फ्राई की तरह। पहले आदमी जिन्दगी भर अपने लिये जाल बुनता है। ऊंची शिक्षा, बड़ा कैरियर, बड़े पैकेज वाली नौकरी। फिर खुद ही सब बातों को – दोस्तों, रिश्तों, अन्य मानवीय और दैवीय लक्ष्यों को भुलाकर पूरी तरह अपने ही जाल में गर्क जो जाता है। ये जाल वो उस आदतवश बनाता है जो उसका परिवार, समाज सिखाता है और वो सीखता है। किसी बीमारी के होने की जरूरत नहीं – नायक की आत्मा की आवाज खुद ही कहती है – सभी मरने वाले हैं – तुम ही नहीं, ये भी, वो भी, वो भी। और वाकई हकीकत तो यही है – बीमारी, एक्सीडेंट, उम्र ये सब तो बहाने हैं। फिल्म देखकर ‘थिन्ग्स टू डू’ लिस्ट बनाने के बजाय सांसों की वजह, सांस लेने-छोड़ने वाले, पहले जाल बुनने वाले बाद में रोने वाले प्राण-इ को जानने की आवश्यकता है।

प्रिय मिहिर, आपने वेबदुनिया का मेरा कॉलम पढ़ा, अच्छा लगा। उसका जवाब दिया यह और भी अच्छा लगा। खूब सारी शुभकामनाएं।

रवीन्द्र जी, आपको मोहल्ला पर पढ़ता रहा हूं. आपकी कवितायें पसंद करता हूं. आपने इतने मन से मेरा लिखा पढ़ा है कि देखकर दिल खुश हो गया! और जितनी तरीफ़ आपने लिखी है उतनी तो मैं ख़ुद भी नहीं लिख पाता. शुक्रिया..

मैं बहुत ही अनियमित ब्लागर हूं जैसा पोस्ट देखकर भी पता चलता है. जब और कोई चारा नहीं रहता तब ही लिखता हूं! ऐसे में आपका इतने मान से मेरे ब्लाग का उल्लेख करना मेरे लिये बड़ी बात है.

बहुत शुक्रिया.

प्रिय मिहिर, आपके ब्लॉग पर उदय प्रकाश के ब्लॉग के जरिए आया। आया तो सब पढ़ गया। सब पढ़ गया तो वेबदुनिया के अपने साप्ताहिक कॉलम ब्लॉग चर्चा में लिख मारा। यह आज ही आनलाइन हुआ है। उसकी लिंक दे रहा हूं।
http://hindi.webdunia.com/samayik/article/article/0812/05/1081205021_1.htm
शुभकामनाएं।

Is movie me kuch aisa hai jo aapke aantrik riday ki bhavnao ko ukerta hai maine jab ye film dekhi to aankhe nam ho gayi tarun ko ye kaha to usne kah diya ki aisa to movie me kuch nahi tha tab aisa laga usko kah du ki tera koi bada bhai nahi hai na isliye….!!bahut accha likha hai film ke baare me chutku dada maja aa gaya..!!!

aaj DASVIDANIA dekne ka muaka mila aur dekh kar bilkul nishabd sa ho gaya hun. usse dekne ke baad bahut saare vichar dimag mein aate rahein aur ye silsila ghanto tak chala. Ye sochta raha ki haam kaise apne kaam hamesha kaal par tal detein hain aur fir ek pal aisa aata hai hi ki hamein vo sab karne ka samay hi nahi milta. a truly touching movie….

aap ka review mujhe film se adhik achchha laga…. maa vale geet me aur bhai ke ye kahane par ki “mai tu kahi nahi jane du.nga” ansu mere bhi aye. us russian lady ke sath bina bhasha ki boli bhi bahut pasand aai. dono geet bahut achchhe lage….! fir mujhe lagta hai ki shayad kuchh aur adhik achchhi film ban sakti thi. khas kar maut ki kalpana aur maut do alag cheej hote hai.n…! maut ki taiyari to bahut achchhi thi lekin us ke marne ke baad jo jo khalipan aaya logo ki jindagi me use kahi.n badi sahajta se beer ke sath pee liya gaya… vo drishya film ka behatarin samvedanshil drishya banaya jaa sakta tha… Aisa mujhe lagta hai

lekin fir se ye baat kahu.ngi. aap ne jis tarah is film ko feel kar ke samiksha ki..that is appreciable…!

@ Varun

भूल सुधार ली गयी है! अभी देव आनन्द की ’तेरे घर के सामने’ देखी और फ़िर एक बार उस दौर के सिनेमा से प्यार करने को मन मचल उठा है. मुझे नहीं पता कि दिबाकर पर KKG बनाने से पहले इस फ़िल्म का कितना असर था लेकिन इतनी सारी बातें जुड़ती हैं ना इनमें. तुम फ़िर देखना एकबार. बहुत ही सरल प्रेम-कहानी है जो अब देखना दुर्लभ होता जा रहा है.

इतना अच्छा review पढ के तो शशांत (सुशांत नहीं!) एक बार फिर यही फिल्म बनाने को ललचाएगा. इतनी गहराई से बहुत ही कम फिल्में छूती हैं कि उनका ‘review’ एक डायरी के पन्ने जैसा हो जाए. और ‘मैंने प्यार किया’ का पोस्टर मैंने भी देखा था…और मुझे ‘पल भर के लिए कोई हमें प्यार कर ले’ गाने का selection भी बहुत अच्छा लगा.

Bahut achcha bhai………. Abhi to exams hai per exams khatam hote hi yahi movie dekhunga sabse pahle……..