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मिथ्या: खोई हुई पहचान की तलाश में

मैं जान जाता कि यह एक सपना है. लेकिन यह पता चल जाने के बावजूद मैं अच्छी तरह से जानता कि तब भी मैं अपनी इस मृत्यु से बच नहीं सकता. मृत्यु नहीं -तिरिछ द्वारा अपनी हत्या से- और ऐसे में मैं सपने में ही कोशिश करता कि किसी तरह मैं जाग जाऊं. मैं पूरी ताक़त लगाता, सपने के भीतर आँखें फाड़ता, रौशनी को देखने की कोशिश करता और ज़ोर से कुछ बोलता. कई बार बिलकुल ऐन मौके पर मैं जागने में सफल भी हो जाता.

माँ बतलाती कि मुझे सपने में बोलने और चीखने की आदत है. कई बार उन्होंने मुझे नींद में रोते हुए भी देखा था. ऐसे में उन्हें मुझे जगा डालना चाहिए, लेकिन वे मेरे माथे को सहला कर मुझे रजाई से ढक देती थीं और मैं उसी खौफ़नाक दुनिया में अकेला छोड़ दिया जाता था. अपनी मृत्यु -बल्कि अपनी हत्या से बचने की कमज़ोर कोशिश में भागता, दौड़ता, चीखता.”

उदय प्रकाश की कहानी तिरिछ का अंश.


दुनिया का सबसे बड़ा डर क्या है?
…सपने आपके भीतर के डर और इच्छाओं को जानने का सबसे बेहतर ज़रिया हैं. मुझे सबसे डरावना सपना वह लगता है जहाँ मैं अकेला रह जाता हूँ. मेरे दोस्त
, मेरा परिवार, मेरी दुनिया मुझसे बिछुड़ जाते हैं. मैं अनजान भीड़ के बीच होता हूँ या अपनी जानी-पहचानी जगहों पर अकेला होता हूँ. मुझे पहचानने वाला कोई नहीं होता. ऐसे में अक्सर मैं जागने की कोशिश करता हूँ. लेकिन कभी-कभी सपने के भीतर अचानक ऐसा लगता है कि यह सपना नहीं हकीक़त है और वह अहसास खौफ़नाक होता है. हाँ, दुनिया का सबसे बड़ा डर अकेलेपन का डर होता है. अपनी पहचान के खो जाने का डर होता है. अपनी दुनिया से बिछुड़ने का डर होता है.
इस नज़रिये से देखने पर
मिथ्या का दूसरा हिस्सा एक डरावना अनुभव है. वी.के. (रणवीर) बारबार इसे सपना समझकर जागने की कोशिश करता है. लेकिन वह सपना नहीं है. उसे समझ नहीं आता कि क्या सपना है और क्या सच? वह चिल्लाता हैतुमने कहा था कि कुछ नहीं बदलेगा.” और आख़िर में वह अपनी एकमात्र याद रही पहचान से भी ठुकराया जा चुका है. वी.के. एक ऐसा शख्स है जिसका सबसे डरावना सपना सच हो गया है.
दोस्तों को नायक की मौत पर कहानी का अंत एक त्रासद अंत लग सकता है लेकिन मैं इससे असहमत हूँ. वी.के. का अंत दरअसल उसके सपने का भी अंत है. उसकी ‘जागने’ की निरंतर कोशिश एक बंदूक की गोली उसके भेजे में जाने के साथ ही सफल हो जाती है. गोली लगने के साथ ही उसका खौफ़नाक सपना टूट जाता है और उसे एक फ्लैश में सब याद आ जाता है. उसकी आखिरी पुकार
सोनल में एक चैन, एक संतुष्टि, एक सुकून सुनाई देता है. यह त्रासद अंत नहीं. वी.के. एक कमाल का दोहराव रचते हुए एक परफैक्ट मौतमरता है जो फ़िल्म के पहले दृश्य से उसकी तमन्ना थी. मौत उसे अपनी खोई हुई पहचान, खोई हुई जिंदगी से जोड़ देती है.
मैं यह कहने में हिचकूंगा नहीं कि फ़िल्म पर रजत कपूर से ज्यादा सौरभ शुक्ला की छाप नज़र आती है. यह मिक्स डबल्स जैसी नहीं है और भेजा फ्राई जैसी तो बिलकुल नहीं है. हाँ रघु रोमियो के कुछ अंश यहाँ-वहां दिख जाते हैं. मरीन ड्राइव (नेकलेस) के फुटपाथ पर बैठे अथाह/अनंत समंदर की तरफ़ देखते और दारु पीते वी.के. की छवि सत्या के भीखू की याद दिलाती है. जैसा मदनगोपाल सिंह कहते हैं यह उत्तर भारत के छोटे शहरों से वाया दिल्ली (
NSD) होते मुम्बई आए लड़कों की पौध का दक्षिण भारत के उन्नत तकनीशियन निर्देशकों से लेखक के तौर पर मिलन से उपजा सिनेमा है. मिथ्या मुझे अनेक पूर्ववर्ती फिल्मों की याद दिलाती रही जिनमें से कुछ की चर्चा मैं यहाँ करना चाहूँगा.

सत्या– फ़िल्म पर RGV स्कूल की छाप साफ नज़र आती है. इसका सीधा कारण फ़िल्म से लेखक के रूप में सौरभ शुक्ला का जुड़ा होना है. यह मुम्बई के अंडरवर्ल्ड को देखने की नई यथार्थवादी दृष्टि थी जो सत्या में उभरकर सामने आई थी. यह मुम्बई के अंडरवर्ल्ड को देखने की नई यथार्थवादी दृष्टि थी जो सत्या में उभरकर सामने आई थी. विनय पाठक ने ओशियंस सिने फेस्ट में मिथ्या के प्रीमियर में कहा भी था कि डॉन लोग कोई चाँद से नहीं आए हैं. वे भी हमारे-आपके जैसे इंसान हैं. यह दृष्टि सौरभ शुक्ला, अनुराग कश्यप, जयदीप सहनी जैसे लेखकों की बदौलत आई थी और आज फैक्टरीकी बुरी हालत के पीछे इन लेखकों का अलगाव एक बड़ा कारण माना जा रहा है. मिथ्या में यह दृष्टि इंस्पेक्टर श्याम (ब्रिजेन्द्र काला) के किरदार में बखूबी उभरकर आई है. एक बेहतरीन अदाकार जिसके काम की पूरी तारीफ ज़रूरी है बिना किसी हकलाहट के!

डिपार्टेड– मार्टिन स्कोर्सेसी की यह थ्रिलर दो परस्पर विरोधी योजनाओं के उलझाव से निकली कहानी है. मुझे वी.के. की दुविधा में लिओनार्दो की दुविधा का अक्स दिख रहा था. lost identities की कहानी के रूप में और अपनी खोई पहचान वापस पाने की लड़ाई के तौर पर यह दोनों फिल्में साथ रखी जा सकती हैं. कुछ और नाम भी याद आ रहे हैं नेट और बरमूडा ट्राएंगल जैसे. कभी विस्तृत चर्चा में बात करेंगे.

दिल पे मत ले यार– यह मिथ्या की नेगेटिव है. इसमें सपना खौफनाक नहीं है, सपने के टूटने के बाद की असल तस्वीर खौफनाक है. हिन्दी सिनेमा का सबसे त्रासद अंत. मिथ्या का अंत मौत के बावजूद सुकून देता है. दिल पे मत ले यार का अंत कड़वाहट से भर देता है. असल जिंदगी अपनी तमाम ऐयाशियों के साथ किसी भी खौफनाक सपने से ज़्यादा भयावह है. मिथ्या के अंत में नायक की मौत सुकून देने वाली है. सुकून इस बात का कि आखिरकार वह अपने भयावह सपने की कैद से आजाद हो गया है. इसके विपरीत दिल पे मत ले यार के अंत में दुबई में बैठे अरबपति डान रामसरन और गायतोंडे सफलता के नहीं, मौत के प्रतीक हैं. मासूमियत की मौत, भरोसे की मौत, इंसानियत की मौत. मुम्बई शहर को आधार बनाती दो बेहतरीन फिल्में जो उत्तर भारत से आए दो युवकों के भोले सपनों और महत्वाकांक्षाओं की किरचें बिखरने की कथा को मायानगरी के वृहत लैंडस्कैप में चित्रित करती है. मुम्बई शहर पर चर्चित और प्रशंसित फिल्में कम नहीं लेकिन यह दोनों अपेक्षाकृत रूप से कम चर्चित फिल्में 90 के बाद बदलते महानगर और उसके जायज़- नाजायज़ हिस्सों पर तीखा कटाक्ष हैं. इन्हें उल्लेखनीय हस्तक्षेप के तौर पर दर्ज किया जाना चाहिए.

अंत में रणवीर शौरी. मेरी पसंद. उसमें मेरे जैसा कुछहै. मिथ्या में पहले आप उसके लिए डरते हैं, फ़िर उसके साथ डरते हैं और अंत में उसकी जगह आप होते हैं और आपका ही डर आपके सामने खड़ा होता है. यह साधारणीकरण ही रणवीर के काम की सबसे बड़ी बात है. कुछ दृश्यों में उसका काम आपपर हॉंटिंग इफेक्ट छोड़ जाता है. जब भानू (हर्ष छाया) उसे अपने भाई का कातिल समझ कर मार रहा है वहां उसकी पुकार “भानू, मैं तेरा भाई हूँ.” एक ना मिटने वाला निशान छोड़ जाती है. एक ही फ़िल्म में हास्य और त्रासदी के दो चरम को साधकर उसने काफी कुछ साबित कर दिया है.

मिथ्या देखा जाना चाहती है. उसकी यह चाहत पूरी करें.

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जब मैने पहली दफ़ा ये फिल्म देखी थी (इसके रिलीस के वक़्त) तब मुझे ये बिल्कुल अजीबो-ग़रीब, alieantating और pseudo intellectual लगी थी. शायद मुंझे फिल्म समझने में तोड़ा वक़्त लगा. जब इसे करीब २ साल बाद फिर से देखी – तब समझ में आया कि ये काफ़ी under-rated under appreciated फिल्म है.

तिरिछ मैने अब तक पढ़ी नही, अब मौका मिलते ही उठा लूँगा. सत्या, डिपार्टेड और दिल पे मत ले यार का ज़िक्र बहुत सही किया है तुमने. Lost identites का एक बहुत ही बढ़िया सा topic उठाया है – गायतोंदे और रामसरण जो अब दुबई बैठे बड़े gangsters बन चुके हैं, और इस हद तक गिर चुके हैं कि रामसरणजी तो बेशार्मों की तरह अपने ही दोस्त को उड़वा देते हैं. क्यूँ ? पता नही? उसको जो उसकी मासूमियत की आख़िरी निशानी है.

ये अंत, या सत्या का अंत definetly sad है, लेकिन मिथ्या का अंत काफ़ी डरावना है. मतलब फिल्मी भाषा में कहूँ तो इन दोनो फिल्मों में सिर्फ़ हीरो की मौत होती है लेकिन मिथ्या में तो हीरो की पहले इज़्ज़त लूटी जाती है, फिर उसकी मौत होती है. और मौत से ज़्यादा ख़तरनाक होता है – अपने सपनों का मार जाना (पाश) – जो वीके के साथ इस फिल्म में होता है.

As usual, एक बहुत फोड़ू लेख. थोड़ा छोटा पर फिर भी बढ़िया. और बदले में चाय – पराठे तो फिलहाल नही पर यह लो –
http://www.youtube.com/watch?v=hKDf9VV2bFg

कल अनुपमा चोपड़ा ने NDTV पर जो लिस्ट दी उसमें भी बाकी सारे नाम थे बस दिल पे मत ले यार का नाम नहीं था. जबकि यह सबसे ज़रूरी फ़िल्म है मिथ्या को समझने में. बिलकुल सही कहा तुमने.. anti-thesis. और तुम नोटिस करो.. मिथ्या में नींद से जागने के कितने scene हैं? बहुत बार यही होता है. खासतौर पर जब वो scene जहाँ वो अपनी माँ के फ़ोन से जाग जाता है. वो बार बार जागने की कोशिश कर रहा है. बेहोशी से, नींद से.. इसका बहुत गहरा अर्थ है.

Bura sapna aana aur uska tootna…aur iss process ko ek sukhad anth bataana! ‘Waah’ phoot pade mooh se, aisa gazab ka analysis kiya hai!!!

Ranvir Shorey toh mera bhi favorite hai ek zamaane se. Jab hum log Comedy show likhte they aur Ranvir ko shooting pe dekhte they…toh lightman se lekar assistant directors tak, sab yahi sochte they ki yeh banda jis din bade parde par nikal gaya, jaane kya kar dega. Aur hum sabka saubhaagya hai ki yeh sach ho raha hai…bhale hi ‘chhoti filmon’ ke zariye.

‘Khosla ka Ghosla’ ka woh scene, jahaan woh apne baap ke saath pehli baar daaru peene ki taiyyaari kar raha hai…uske andar woh bechaini…aur excitement….bahut kam actors uss seema ko laangh paate hain jahaan log unhein ‘interpret’ karne ko majboor ho jaayein aur uss process ko enjoy bhi karein.

Aur aapke saare filmy reference bhi bade gazab hain…Satya aur Departed aasaan tha…lekin isko DPMLY ka anti-thesis kehna bhi bada insight hai! Keep it up…

यह मिथ्या के साथ हुई दुर्घटना है. जनता ‘भेजा फ्राई’ समझकर जा रही है और निराश हो रही है. कल NDTV पर अनुपमा चोपड़ा ने भी मिथ्या की तुलना परिंदा, सत्या, मकबूल, इस रात की सुबह नहीं जैसी फिल्मों से की है. और ख़बर यह है कि फ़िल्म की vcd/dvd बाज़ार में आ गई है. हाँ ‘दिल पे मत ले यार’ एकबार मेरे कहने से देखिये. मज़ा आ जाएगा और फ़िर मुझे यकीन है कि आप मुझे गंगा ढाबा पर चाय के साथ आलू परांठा की दावत देंगे!

मिहिर अब तो मिथ्या देखनी ही पड़ेगी. इस बीच हॉल में जाना हो नहीं पाता, बच्ची सह नहीं पाती इसलिये.

और आपके अंदाज़ से तो दिल पे मत ले यार सरीखी पुरानी फ़िल्में फ़िर से देखने का भी मन हो आया है.

बढ़िया पोस्ट. बधाई. ईनाम में ढाबा की एक चाय बाकी रही.

आपके कहने का मतलब हम जाकर फिल्म देख आएं:) कोशिश रहेगी.

समीक्षा का ये अंदाज़ अच्छा है, शायद ये समीक्षा को और ज़्यादा पुष्ट करता है.

सपना और सच्‍चाई में बहुत कम ही फर्क होता है,यदि आप जागते हो तो सपने को सच कर सकते हो और सोते हो तो फिर सपने देखते रहो

सपनों के टूटने और उसके सच हो जाने के आगे भी एक स्थिति है- आगे सपनों का नहीं पनप पाना। लेकिन फिलहाल ये स्थिति आयी नहीं है। अभी एक के टूटने पर दूसरे के बनने की प्रक्रिया जारी है। वैसे फिल्म समीक्षा को एक बहुआयामी शक्ल की ओर ले जा रहे हो…अच्छा लग रहा है।