सल्मडॉग मिलेनियर: बॉलीवुड मसाले का फ़िरंगी तड़का. बोले तो ’जय हो!’

स्ल्मडॉग मिलिनेयर देखते हुए मुझे दो उपन्यास बार-बार याद आते रहे. एक सुकेतु मेहता का गल्पेतर गल्प ’मैक्सिमम सिटी: बाँबे लॉस्ट एंड फ़ाउन्ड’ और दूसरा ग्रेगरी डेविड रॉबर्टस का बेस्टसेलर ’शान्ताराम’. हाल-फ़िलहाल इस बहस में ना पड़ते हुए कि स्लमडॉग क्या भारत की वैसी ही औपनिवेशिक व्याख्या है जैसी अंग्रेज़ हमेशा से करते आए हैं, मैं इन उपन्यासों के ज़िक्र के माध्यम से यह देखना चाहता हूँ कि इस फ़िल्म की ’परम्परा’ की रेखाएँ कहाँ जाती हैं. इन कहानियों में मुम्बई ऐसे धड़कते शहर के रूप में हमारे सामने आता है जिसके मुख़्तलिफ़ चेहरे एक-दूसरे से उलट होते हुए भी मिलकर एक पहचान, एक व्यवस्था बनाते है. सुकेतु अलग-अलग अध्यायों में मुम्बई अन्डरवर्ल्ड, बार-डांसर्स की दुनिया, फ़िल्मी दुनिया की मायानगरी और मुम्बई पुलिस की कहानी बहुत ही व्यक्तिगत लहजे के साथ कहते हैं लेकिन साथ ही मैक्सिमम सिटी इन सब व्यवस्थाओं को आपस में उलझी हुई और जगह-जगह पर एक दूसरे को काटती हुई पहचानों का रूप देती है. उम्मीद है कि मीरा नायर जब जॉनी डेप के साथ शान्ताराम बनायेंगीं तो वो भी इसी परम्परा को समृद्ध करेंगी.

स्लमडॉग देखने के बाद सबसे महत्वपूर्ण किरदार जो आपको याद रह जाता है वो है शहर मुम्बई. एक परफ़ैक्ट नैरेटिव स्ट्रक्चर में जमाल के हर जवाब के साथ मुम्बई का एक चेहरा, एक पहचान सामने आती है. जगमगाते सिनेमाई दुनिया के सपने, धर्म के नाम पर हो रही हिंसा में बचकर भागते तीन बच्चे, झोपड़पट्टियों में चलते तमाम अवैध खेल और उनके बीच से ही पनपता जीवन. क्रिकेट और सट्टेबाज़ी, जीने की ज़द्दोजहद और प्यार…

पिछले हफ़्ते सी.एन.एन. आई.बी.एन. को दिए साक्षात्कार में डैनी बॉयल ने मुम्बई के लिए कहा है, “और इस फ़िल्म में एक किरदार मुम्बई शहर भी है. ऐसा किरदार जिसके भीतर से अन्य सभी किरदार निकलते हैं. मैं इस शहर को इसकी सम्पूर्णता में पेश करना चाहता था, लेकिन वस्तविकता यह है कि आप इसका एक हिस्सा ही पकड़ पाते हैं. इसे पूरा पकड़ पाना असंभव है क्योंकि यह बहुत जटिल है और हर रोज़ बदलता है. ये समन्दर की तरह है, हमेशा अपना रूप बदलने वाला समन्दर. लेकिन इस समन्दर का स्वाद चख़ना भी स्लमडॉग की कहानी का एक हिस्सा था. यह वैश्विक अपील रखने वाली कहानी है.”

स्लमडॉग में कोई स्टैन्डआउट एक्टिंग परफ़ॉरमेंस नहीं है. अगर याद रखे जायेंगे तो वो दो बच्चे जिन्होंने कहानी के पहले हिस्से में जमाल (आयुष महेश खेड़ेकर) और सलीम (अज़रुद्दीन मौहम्मद इस्माइल) की भूमिका निभाई है. स्लमडॉग को स्टैन्डआउट बनाती हैं उसकी तीन ख़ासियतें:-

1.पटकथा 2.सिनेमैटोग्राफ़ी 3.संगीत

साइमन बुफ़ॉय की पटकथा ’परफ़ैक्ट’ पटकथा का उदाहरण है. एन्थोनी डॉड मेन्टल की सिनेमैटोग्राफ़ी ने मुम्बई में नए रँग भरे हैं. और साथ ही यह फ़िल्म की गतिशीलता के मुताबिक है. और रहमान का संगीत फ़िल्म की जान है. कहानी का मुख्य हिस्सा. रहमान का संगीत उस तनाव के निर्माण में सबसे ज़्यादा सहायक बनता है जिस तनाव की ऐसी थ्रिलर को सबसे ज़्यादा ज़रूरत होती है.

पटकथा- क्योंकि मैंने विकास स्वरूप का उपन्यास Q&A नहीं पढ़ा है इसलिये मैं कह नहीं सकता कि इस नैरेटिव स्ट्रक्चर का क्या और कितना उपन्यास से लिया गया है लेकिन फ़िल्म में ’कौन बनेगा करोड़पति’ के सवालों का यह सिलसिला मुम्बई की कहानी कहने के लिए ’परफ़ैक्ट’ नैरेटिव स्ट्रक्चर बन जाता है. यह पटकथा अलग-अलग बिखरी मुम्बई की कहानी को एक सूत्र में पिरो देती है. आपको कहानी में एक पूर्णता का अहसास होता है और फ़िल्म भव्यता को प्राप्त होती है. मुझे व्यक्तिगत रूप से इस तरह की ’संपूर्ण’ कहानियाँ कम ही पसन्द आती हैं. मुझे अधूरी, बिखरी, खंडित कहानियाँ (और वैसा ही नैरेटिव स्ट्रक्चर उसे पूरी तरह संप्रेषित करने के लिए) ज़्यादा प्रतिनिधि लगती हैं इस अधूरे, बिखरे, खंडित जीवन की. लेकिन शायद मेनस्ट्रीम (उधर का भी और इधर का भी) पूर्णता ज़्यादा पसन्द करता है. और इस मामले में स्लमडॉग की पटकथा पूरी तरह ’मेनस्ट्रीम’ की पटकथा है. सबकुछ एकदम अपनी जगह पर, सही-सही. विलेन वहीं जहाँ उसे होना चाहिए, नयिका वहीं जहाँ उसे मिलना चाहिए, मौत भी वहीं जहाँ उसे आना चाहिए. सभी कुछ एकदम परफ़ैक्ट टाइमिंग के साथ. इसपर बहस करने की बजाए कि यह फ़िल्म कितनी बॉलीवुड की है और कितनी हॉलीवुड की समझना यह चाहिए कि यह फ़िल्म अपने तमाम प्रयोगों के बावजूद एक शुद्ध मुख्यधारा की फ़िल्म है. और मुझे लगता है कि हॉलीवुड और बॉलीवुड के मेनस्ट्रीम में स्तर का अन्तर ज़रूर है, दिशा और ट्रीटमेंट के तरीके का नहीं. खुद डैनी बॉयल ने इस बात को माना है कि सिनेमा भारत और अमेरिका दोनों देशों में उनके सार्वजनिक जीवन के ’मेनस्ट्रीम’ में शामिल है. वे कहते हैं, “सौभाग्यवश हिन्दुस्तान में सिनेमा और उसमें काम करना लोगों की ज़िन्दगी का सामान्य हिस्सा है. यह बिलकुल अमेरिका की तरह है. लोग यहाँ सिनेमा को प्यार करते हैं.” तो यहाँ हम एक जैसे हैं. और स्लमडॉग इसी ’एक-जैसे’ तार को आपस में जोड़ रही है.

हमेशा सही जगह पर आने वाले ’कम शॉट’ और एक बेहद तनावपूर्ण क्लाइमैक्स के साथ स्लमडॉग ईस्ट और वेस्ट दोनों में लोकप्रिय और व्यावसायिक रूप से सफ़ल फ़िल्म साबित हो रही है (और होगी). और इसलिए ही यह हिन्दुस्तान की जनता के लिए कोई नई कहानी नहीं लेकर आ रही है. हिन्दुस्तानी दर्शकों ने यह ’रैग्स-गो-रिच’ वाली कहानी ही तो देखी है बार-बार. हर तीसरी बॉलीवुड फ़िल्म इसी ढर्रे की फ़िल्म है. बस इसबार उन्हें ये कहानी एक बेहतरीन पटकथा और उन्नत तकनीक के साथ देखने को मिलेगी.

फ़िल्म की शुरुआत पुलिस स्टेशन से होती है. अपने हवालदार कल्लू मामा (सौरभ शुक्ला) और इंसपेक्टर (इररफ़ान ख़ान) एक लड़के जमाल (देव पटेल) को बिजली के शॉक दे रहे हैं. इस झोपड़पट्टी के लड़के ने गई रात गेम शो ’के.बी.सी.’ में सारे सवालों के सही जवाब दिए हैं और अब वह दो करोड़ रुपयों से सिर्फ़ एक सवाल पीछे है. शक है कि उसने बेईमानी की है क्योंकि एक झोपड़पट्टी के लड़के को ये सारे जवाब मालूम हों इसका विश्वास किसी को नहीं है, खुद गेम शो के होस्ट (अनिल कपूर) को भी नहीं. पुलिस की पूछताछ में जमाल एक-एक कर हर जवाब से जुड़ा स्पष्टीकरण देता है. हर स्पष्टीकरण के साथ एक कहानी है. उसे जवाब मालूम होने की वजह. कहानी बार-बार फ़्लैशबैक में जाती है. जितनी विविधता सवालों में है उतनी ही मुम्बई की परतें खुलती हैं. आखिर में कहानी वर्तमान में आती है और जमाल आखिरी सवाल का जवाब देने वापिस लौटता है. वो कौन बनेगा करोड़पति में पैसा जीतने नहीं आया है, उसे अपनी खोयी प्रेमिका लतिका (फ़्राइडा पिन्टो) की तलाश है. उसे मालूम है कि लतिका ये शो देखती है. शायद वो उसे देख ले और उसे मिल जाये. आखिर में एक शुद्ध मुम्बईया क्लाईमैक्स है और एक ठेठ मुम्बईया आइटम नम्बर.

फ़िल्म की पटकथा सवालों के क्रम में एक के बाद एक जमाल के जीवन के अलग-अलग एपीसोड्स पिरो देती है. इससे आप मुम्बई की बहुरँगी तसवीर भी देख पाते हैं और फ़िल्म की मुख्य कथा का तनाव भी बना रहता है. यह कहानी व्यक्तिगत होते हुए भी सार्वभौमिक बन जाती है और ठेठ मुम्बईया फ़िल्मों की तरह इस फ़िल्म में भी प्यार ही कथा के ’होने की’ मुख्य वजह बनकर सामने आता है. एक कहानी जो एलेक्ज़ेंडर ड्यूमा के ’तीन तिलंगों’ के ज़िक्र से शुरु होती है पूरा चक्र घूमकर वहीं आकर एक ’परफ़ैक्ट एंडिग’ पाती है. फ़िल्म की टैगलाइन सही है शायद, “सब लिखा हुआ है”. सल्मडॉग की सबसे बड़ी ताक़त उसका लेखन (कहानी, पटकथा, संवाद) ही है!

छायांकन- फ़िल्म मुम्बई की झोपड़पट्टी को फ़िल्माती है लेकिन ये भी सच है कि फ़िल्म उसकी गरीबी से कोई करुणा नहीं पैदा करती है. शुरुआती सीन में जहाँ पहली बार मुम्बई के सल्म से आपका सामना होता है एक कमाल की सिहरन आपमें दौड़ जाती है. कैमरा जिस गति से भागते बच्चों की टोली का पीछा करता है वो पूरे सल्म को एक निहायत गतिशील पहचान देता है. यह फ़िल्म यथार्थवाद के पीछे नहीं, भव्यता और रोमांच के पीछे भागती है और इस मामले में ये हिन्दुस्तानी समांतर सिनेमा की नहीं, मुख्यधारा सिनेमा की बहन है. रेलगाड़ी के तमाम प्रसंग भी इसी भव्यता की बानगी हैं. रेगिस्तान हो या पहाड़, रेल हिन्दुस्तान को एक सूत्र में पिरोती है. वैसी ही सम्पूर्णता प्रदान करती है जो फ़िल्म का नैरेटिव स्ट्रक्चर कहानी के साथ कर रहा है. इसलिए रेलगाड़ी इस फ़िल्म के लिए एकदम ठीक प्रतीक है.

संगीत- संगीत इस फ़िल्म की जान है. रहमान ने बैकग्राउंड स्कोर में रेलगाड़ी की धड़क-धड़क को कुछ ऐसे पिरो दिया है कि पूरी फ़िल्म में एक स्वाभाविक गति पैठ गई है. यह मुझे बार-बार ’छैयाँ छैयाँ’ की याद दिलाता है. रहमान के पास हर मौके के लिए धुन है. नायक-नायिका के मिलन के अवसर पर वे ठेठ देसी ’चोली के पीछे क्या है’ और ’मुझको राणा जी माफ़ करना’ से प्रभावित गीत लेकर आते हैं. आवाज़ें भी वही दोनों इला अरुण और अलका याग्निक. शुरुआती धुन सिनेमा हॉल में डॉल्बी डिज़िटल में क्या समाँ बाँधेगी मुझे इसका इंतज़ार है. रहमान पहले भी इतना ही कमाल का संगीत देते रहे हैं लेकिन यहाँ फ़िल्म के उदेश्य में उनका संगीत जिस तरह से इस्तेमाल हुआ है वो अद्भुत है. ऐसे में फ़िल्म में संगीत एक ’एडड एट्रेक्शन’ ना होकर कहानी का हिस्सा, एक किरदार बन जाता है. ऐसा किरदार जिसके ना रहने पर कहानी ही अधूरी रह जाये. आख़िर में आया ’जय हो!’ तो जैसे एक बड़ा समापन समारोह है जो इस उत्सवनुमा फ़िल्म को एक आश्वस्तिदायक अन्त देता है. वही अपने गुलज़ार, रहमान और सुखविन्दर की तिकड़ी. जादू है जादू.. हमने तो सालों से सुना है. अब दुनिया सुने! पेपर प्लेन उड़ाये और लिक्विड डांस करा करे!

ख़ास प्रसंगों में अन्धे लड़के अरविन्द का वापिस मिलना याद रह जाता है, “तू बच गया यार, मैं नहीं बच सका. बस इतना ही फ़र्क है.” और हमारा हीरो एक सच्चा हिन्दुस्तानी नायक है. एकदम उसके फ़ेवरिट अमिताभ बच्चन की माफ़िक! बचपन के प्यार को वो भूलता नहीं और करोड़ों की भीड़ में भी आख़िर लतिका को तलाश कर ही लेता है (याद कीजिए बेताब). नायिका भी हीरो की एक पुकार पर सातों ताले तोड़कर भागी आती है. (मुझे एक पुरानी फ़िल्म ’बरसात की रात’ की मशहूर कव्वाली ’ये इश्क इश्क है इश्क इश्क’ याद आ गई. मधुबाला नायक भारत भूषण की एक पुकार पर यूँ ही भागी आई थी. बस फ़र्क इतना था कि वो रेडियो वाला दौर था.) और विलेन ऐसा कि उसके बारे में मशहूर है कि वो भूलता नहीं, ख़ासकर अपने दुश्मनों को. जिनका उसपर ’कर्ज़ है’. (मुझे बड़ी शिद्द्त से ’काइट रनर’ का खलनायक आसिफ़ याद आ रहा है. वैसे आप ’शोले’ से लेकर ’कर्मा’ तक के खलनायकों को याद कर सकते हैं. हिन्दुस्तानी विलेन लोगों की ये ख़ासियत रही है हमेशा से. वो भूलते नहीं. और इसलिए ’गज़नी’ का खलनायक एक पिद्दी विलेन ही रह जाता है, साले को कुछ याद ही नहीं रहता! क्या उसको भी ’शॉर्ट टर्म मैमोरी लॉस’ की बीमारी थी!) अब इतनी सब बातों से ये तो साफ़ है कि इस फ़िल्म में किसी भी ’बॉलीवुड फ़िल्म’ जैसा ख़ूब मसाला है. देखना है कि तेईस तारीख़ को हिन्दुस्तान में प्रदर्शन के साथ ही इस फ़िल्म की चर्चा कहाँ जाती है. उम्मीद है कि सल्मडॉग मुझसे अभी और कलम घिसवाएगी.. आला रे आला ऑस्कर आला! जय हो!

मैं दिन भर रहमान के गाने सुनता था और वो रात भर.

यह कहानी उन लड़कों की है जो ‘शहर’ नामक किसी विचार से दूर बड़े हुए. इसमें संगीत है, घरों में आते नए टेप रिकॉर्डर हैं, बारिश का पानी है, डब्ड फिल्में हैं, नब्बे के दशक में बड़े होते बच्चों की टोली है. कुछ हमारे डर हैं और कुछ आशाएं हैं. कुछ है जो हम सबमें एकसा है. मुझमें और विशाल में एकसा है. आज जब मैं लौटकर अपने बचपन को देखता हूँ तो मुझे एक ‘रहस्यमयी-सा’ अहसास होता है. जैसे बाबू देवकीनंदन खत्री की ‘चंद्रकांता’ पढ़नी शुरू कर दी हो. हमारे बचपन और शहर के इस अलगाव का हमारे व्यक्तित्वों पर असर है. बाद में हर दोस्त इस विचार से अपनी तरह से जूझा है. बचपन किसी ‘राबिन्सन क्रूसो’ की तरह टापू पर बिताया गया समय है. और अब हम उस टापू को साथ लेकर अपने-अपने ‘शहरों’ में घूमते हैं. कुछ परिचित से, कुछ बेमतलब.

सुशील ने मुझे ‘चकमक’ के लिए ए. आर. रहमान पर कुछ लिखने को कहा था. और मैं रहमान पर जो लिख पाया वो ये है. यह सुशील की तारीफ ही है कि चकमक में आकर अब मेरी यह अनसुलझी कहानी हजारों बच्चों के पास पहुँचेगी. शुक्रिया सुशील.

ए. आर. रहमान हमारे दौर के आर. डी. बर्मन हैं. जब हिन्दी सिनेमा ने पंचम को खोया तो लगा था कि एक दौर ख़त्म हो गया है. उनकी आखिरी फ़िल्म का गीत ‘एक लड़की को देखा तो ऐसा लगा’ अपने भीतर उस दौर की तमाम खूबसूरती समेटे था तो एक दूसरे गीत ‘रूठ न जाना’ में वही शरारत थी जो आर. डी. के संगीत की ख़ास पहचान थी. लगा पंचम के संगीत की अठखेलियाँ और शरारत अब लौटकर नहीं आयेंगे. लेकिन तभी दक्षिण भारत से आई एक डब्ड फ़िल्म ‘रोज़ा’ के गीत ‘छोटी सी आशा’ ने हमें चमत्कृत कर दिया. इस गीत में वही बदमाशी और भोलापन एकसाथ मौजूद था जो हम अबतक पंचम के संगीत में सुनते आए थे. ए. आर. रहमान के साथ हमें हमारा खोया हुआ पंचम वापिस मिल गया.

मैं अपने बचपन के दिनों में रहमान के संगीत वाली हर फ़िल्म की ऑडियो कैसेट ज़िद करके ख़रीदा करता था. यह वो समय था जब हमारे घर में नया-नया टेप रिकॉर्डर आया था. हम उसमें अपनी आवाज़ें रिकॉर्ड कर सुनते थे और वो हमें किसी और की आवाज़ें लगती थीं. हम कभी भी अपनी आवाज़ नहीं पहचान पाते थे. और हम उसमें रहमान के गाने सुनते थे. मेरा दोस्त विशाल सांगा बहुत अच्छा डाँस करता था और रहमान की धुनों पर वो एक ख़ास तरह का ब्रेक डाँस करता था जो सिर्फ़ उसे ही आता था. हम दोस्त एक दूसरे के जन्मदिन का बेसब्री से इंतज़ार करते और हर जन्मदिन की पार्टी का सबसे ख़ास आइटम होता विशाल का ब्रेक डाँस. हर बार हम विशाल से कहते कि वो हमें अपना डाँस दिखाए. पहले तो वो आनाकानी करता लेकिन हमारे मनाने पर मान जाता. हम कमरे के सारे खिड़की/दरवाज़े बंद कर लेते. हमें ये बिल्कुल पसंद नहीं था कि कोई और हमें देखे. मैं टेप रिकॉर्डर ऑन करता और कमरे में रहमान का ‘हम्मा-हम्मा’ गूंजने लगता. विशाल अपना ब्रेक डाँस शुरू करता और हम बैठकर उसे निहारते. हमें लगता कि वो एकदम ‘प्रभुदेवा स्टाइल’ में डाँस करता है. हम भी उसके जैसा डाँस करना चाहते थे. कभी-कभी वो हमें भी उस ब्रेक डाँस का कोई ख़ास स्टेप सिखा देता और हम उसे सीखकर एकदम खुश हो जाते. थोड़ी ही देर में हम सारे दोस्त खड़े हो जाते और सब एकसाथ नाचने लगते. विशाल भी कहता कि जब सब एकसाथ डाँस करते हैं तो उसे सबसे ज़्यादा मज़ा आता है.

विशाल को भी गानों का बहुत शौक था. खासकर रहमान के गानों का. उसके पास एक वाकमैन था जिसे कान में लगाकर वो रात-रात भर गाने सुना करता था. मैं जब भी कोई नई कैसेट लेकर आता तो वो रातभर के लिए उसे मुझसे माँगकर ले जाता था. और रहमान की कैसेट तो छोड़ता ही नहीं. दिन में मैं रहमान के गाने सुनता और रात में विशाल. उसे हिन्दी ठीक से बोलनी नहीं आती थी. वो अटक अटक कर हिन्दी बोलता और बीच बीच में शब्द भूल जाता था. मेरे नए जूते देखकर कहता, “छुटकू तेरे ये तो दूसरों के ये से बहुत अच्छे हैं!” मुझे ‘ये’ सुनकर बहुत मज़ा आता था और मैं अपने घर आकर सबको ये बात बताता. लेकिन वो संगीत में जीनियस था. मेरी और उसकी पसंद कितनी मिलती थी. ‘दिल से’ के एक-एक गीत को वो हजारों बार सुनता था. मुझे कहता था, “पता है छुटकू, ये रहमान की आदत ही ख़राब है. जाने क्या-क्या करता है. अब बताओ, गाने की शूटिंग ट्रेन पर होनी है तो पूरे गाने में ताल की जगह ट्रेन की आवाज़ को ही पिरो दिया. पूरे गाने में ऐसी बीट जैसे कोई लम्बी ट्रेन किसी ऊंचे पुल पर से गुज़र रही हो! कमाल है इसका भी हाँ.” हम दोनों रहमान के दीवाने थे. याद है ना.. मैं दिन भर रहमान के गाने सुनता था और वो रात भर. मैं घर पर माँ से कहता. “पता है माँ, मेरे तीनों दोस्त इंजिनियर बनेंगे. गौरव और रोहित तो सादा इंजिनियर बनेंगे और विशाल बनेगा म्युज़िक इंजिनियर!”

अब तो कई साल हुए विशाल से मुलाकर हुए. मैं दिल्ली आगे की पढ़ाई के लिए आ गया हूँ और विशाल ने कर्नाटक में अपनी हेंडलूम फैक्ट्री शुरू कर दी है. लेकिन आज भी जब मैं कहीं रेडियो पर ‘हम्मा-हम्मा’ सुनता हूँ तो मेरे पाँव में थिरकन होने लगती है और उस वक़्त मुझे विशाल की बहुत याद आती है. और इसीलिए रहमान हमारे दौर के आर. डी. हैं. सबका चहेता. सबसे चहेता.

रहमान को मालूम है कि हम आधे से ज़्यादा पानी के बने हैं. पानी की आवाज़ सबसे मधुर आवाज़ होती है. इसीलिए वो बार-बार अपने गीतों में इस आवाज़ को पिरो देते हैं. ‘साथिया’ में उछालते पानी का अंदाज़ हो या ‘लगान’ में गरजते बादलों की आवाज़. ‘ताल’ में बूँद-बूँद टपकते पानी की थिरकन हो या ‘रोजा’ में बहते झरने की कलकल. रहमान की सबसे पसंदीदा धुनें सीधा प्रकृति से निकलकर आती हैं. वो नए वाद्ययंत्रों के इस्तेमाल में माहिर हैं और नए गायकों को मौका देने में सबसे आगे. ‘दिल से’ के लिए उन्होंने Dobro गिटार का उपयोग किया तो ‘मुस्तफा-मुस्तफा’ गीत के लिए Blues गिटार का. अपने गीत ‘टेलीफोन-टेलीफोन’ के लिए उन्होंने अरबी वाद्य Ooud का प्रयोग किया.  चित्रा, हेमा सरदेसाई, मुर्तजा, मधुश्री से लेकर नरेश aiyer और मोहित चौहान तक रहमान ने हमेशा नए और उभरते गायकों को मौका दिया है. उनका संगीत लातिन अमेरिका के संगीत को हिन्दुस्तानी संगीत से और पाश्चात्य संगीत को दक्षिण भारतीय संगीत से जोड़ता है. और उनके बहुत से गीतों पर सूफि़याना प्रभाव साफ़  नज़र आता है. ‘दिल से’ के गीतों में ये सूफि़याना प्रभाव ही था जिसने उसे रहमान का और हमारे दौर का सबसे खूबसूरत अल्बम बनाया है. ये प्रेम की तड़प को उस हद तक ले जाना है कि वो प्रार्थना में उठा हाथ बन जाए. ‘लगान’ में वे लोकसंगीत को अपनी प्रेरणा बनाते हैं और ‘घनन घनन’ तथा ‘मितवा’ में ढोल का खूब उपयोग मिलता है. ‘राधा कैसे न जले’ में लोकजीवन से जुड़ी मितकथाओं का और धुन में बांसुरी का बहुत अच्छा उपयोग है. ‘स्वदेस’ की धुन में स्वागत में बजने वाली धुनों का इस्तेमाल एकदम मौके के माफ़िक है. रहमान के लिए धुनों में नयापन कभी समस्या नहीं रहा. पूरी दुनिया सामने पड़ी है. हर फूल-पत्ती में आवाज़ छुपी है. बस दिल से सुननेवाला चाहिए.

एकलव्य की बाल-विज्ञान पत्रिका ‘चकमक’ के अगस्त 2008 अंक में प्रकाशित.