नीले और लाल से मिलकर बनी ‘काला’ की चुनौती

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करण जौहर द्वारा निर्मित ‘धड़क’ ने बहस का नया पिटारा खोल दिया है। नागराज मंजुले की माइलस्टोन मराठी फ़िल्म ‘सैराट’ की ऑफिशियल हिंदी रीमेक। यह तो अच्छा है कि अब हिन्दी सिनेमा बाकायदा दूसरी भाषाओं की फ़िल्मों के राइट्स खरीदकर उन्हें अडॉप्ट कर रहा है, ‘प्रेरणा’ से नहीं। लेकिन ‘धड़क’ उदाहरण भी है समझने के लिए कि जब दलित अस्मिता के स्वघोष को ‘सवर्ण उत्तर भारतीय नज़र’ से दोहराने की कोशिश की जाए तो वो कितनी कृत्रिम हो जाती है।

इस ‘दलित नज़र’ को हमें समझना होगा। यही ‘दलित नज़र’ निर्देशक पा रंजीथ की तमिल फ़िल्म ‘काला’ में है। पिछले हफ़्ते ‘काला’ अमेज़न प्राइम पर तीन भाषाओं में रिलीज़ हुई और उत्तर भारतीय दर्शकों के लिए ‘काला’ देखना, अपने परिचित फॉर्मूला सिनेमा को विपरीत सिरे पर खड़े होकर देखने का अनोखा अनुभव है।

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निर्देशक पा रंजीथ की ‘काला’ ने रामकथा को उलट दिया है। रावण यहाँ नायक है और छली राम खलनायक। यह सिनेमा के पर्दे पर दलित अस्मिता का उद्घोष है, अपनी पूरी गमक के साथ। ऐसा नहीं कि हिन्दी सिनेमा ने दलित उत्पीड़न की कथाएं देखी नहीं। हमारा सत्तर और अस्सी के दशक का समांतर सिनेमा आन्दोलन सदा वंचित की कथा कहता रहा। लेकिन वो सिनेमायी भाषा मुख्यधारा सिनेमा से अलग थी, आम पब्लिक से दूर थी। तमिल सिनेमा से आयी रजनीकांत की ‘काला’ की सबसे खास बात यह है कि यहाँ पा रंजीथ अपनी बात लोकप्रिय सिनेमा की भाषा में कहते हैं। याद हो, कुछ-कुछ यही काम इससे पहले नागराज मंजुले ने बेहतरीन मराठी फ़िल्म ‘सैराट’ में किया था।

यहाँ इंद्रधनुषी रंग भी हैं और रैप भी। गीतों भरी प्रेम कहानियाँ भी हैं और अदम्य नायकीय एक्शन भी। स्लो-मो और स्पेशल इफेक्ट्स, तकनीक का प्रदर्शनकारी इस्तेमाल करते हुए फ़िल्म डिज़ाइनर फाइट सीक्वेंस रचने से लेकर एनिमेशन तक सबका इस्तेमाल करती है। सिनेमायी भाषा के लिहाज से यह फुल-फुल मसाला फ़िल्म है। संयोगों और मेलोड्रामा से भरपूर। बिम्ब वही पर अर्थ उलट, कबीर की उलटबांसियों की तरह।

यह लोकप्रिय हिन्दी सिनेमा के लिए जैसे एंटी-थीसिस है। विस्मयकारी क्लाइमैक्स में एक ओर रामायण की कथा का वाचन जारी है, वहीं धारावी झोपड़पट्टी का बहुजन महानायक काला करिकालन जैसे कथा से ऊपर उठकर उस वैचारिक युद्ध का प्रतीक बन जाता है जो आज के शहरी भारत से लेकर दण्डकारण्य के जंगलों तक जारी है। युद्ध, जो ज़मीन पर कब्जे के लिए सवर्ण राज्यसत्ता और बहुजन समाज के बीच लड़ा जा रहा है। सवर्ण कॉर्पोरेट सत्ता के लिए यह ज़मीन ताक़त है, बहुजन समाज के लिए उसकी ज़िन्दगी। रामायण में आये रावण के दस सर यहाँ बहुजन सामूहिकता के प्रतीक बन जाते हैं। एक काटोगे तो दूसरा उग आएगा।

काला कहता है, बहुजन का अन्तिम हथियार उसका शरीर है। उसकी मेहनत के बल पर ही इस शहर का चक्का रोज़ घूमता है। अन्त में, धारावी का रहनेवाला हर इंसान खुद काला है।
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और भी दिलचस्प है फ़िल्म का ‘स्वच्छता’ और ‘गंदगी’ के विलोम को उसके सर के बल खड़ा कर देना, जो आज के राजनैतिक परिदृश्य में कहीं ज़्यादा मानीखेज़ है। यहाँ विलेन ‘क्लीन कंट्री’ अभियान चलानेवाला और ‘डिजिटल मुम्बई’ का सपना बेचनेवाला एक ऐसा राष्ट्रवादी राजनेता है जिसका चेहरा शहर के हर बिलबोर्ड पर चस्पां है। काला अपने से छोटों से भी आगे बढ़कर हाथ मिलाता है, बराबरी का रिश्ता कायम करता है। वो भगवा पार्टी का नेता चरण स्पर्श की गैरबराबर रूढ़ि में बंधा है। काला का स्याह रंग मेहनत का रंग है, सब पहचानों का सद्भाव है उसमें। धवलवर्णी विलेन ऐसे एकायामी भारत का कांक्षी है जिसमें हर विपक्षी को राष्ट्र की प्रगति में बाधक ‘देशद्रोही’ बताया जाता है। गौर से देखिये, उसे पहचानना ज़रा भी मुश्किल नहीं।

फ़िल्म अम्बेडकरवादी प्रतीकों और पहचानों से भरी है। भीमा चाल के पते से लेकर जय भीम के अभिवादन तक। भीमजी से लेकर लेनिन तक युवा किरदार काला के साथ खड़े नजर आते हैं। काला के छोटे बेटे ‘लेनिन’ का किरदार मुझे फ़िल्म में सबसे दिलचस्प लगा। वो फ़िल्म का युवा नायक है। दलित समाज की शिक्षित चेतनासम्पन्न नई पीढ़ी का प्रतिनिधि। और अब वो अपनी वाजिब हिस्सेदारी को संवैधानिक तरीके से हासिल करना चाहता है।

लेनिन पिता काला का वैचारिक उत्तराधिकारी है। खुद काला करिकालन दलित अस्मिता का ज़िन्दा प्रतीक है, लेकिन मरीन ड्राइव पर फिल्माए गए फ़िल्म के सबसे रोमांचक एक्शन सीक्वेंस में वो काली छतरी को हथियार बना लड़ते हुए अपनी वर्गीय पहचान भी स्पष्ट करता है। यह काली छतरी बम्बई के मजदूर वर्ग का सबसे पुख्ता सिनेमायी प्रतीक है। काला के रंग अगर स्याह और नीले हैं तो लेनिन का प्रतिनिधि रंग लाल है।

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लेनिन अपनी झोपड़पट्टी की हालत को सुधारना चाहता है, उसकी किस्मत बदलना चाहता है। लेकिन सत्ता द्वारा बेचे जा रहे ‘रीडेवलपमेंट’ के प्लान की असल हकीकत नहीं समझ पाता। पर काला और उसके लोगों ने सवर्ण सत्ता के इन सुहावने पर दोगले वादों को नज़दीक से देखा, भुगता है। वो जानता है कि पचहत्तर एकड़ पर गोल्फ़ कोर्स बनवानेवाली ‘मनु बिल्डर्स’ की योजनाओं में उन जैसों के लिए कोई जगह नहीं होगी। राज्यसत्ता, और उसके द्वारा बेचे जा रहे ‘विकास’ के नारों के असलीे सवर्ण चेहरे की ठीक-ठीक पहचान में अंततः काला ही सही ठहरता है।

फ़िल्म एक ओर लेनिन को काला करिकालन के मौलिक वैचारिक उत्तराधिकारी के रूप में प्रस्तुत करती है, वहीं इस गैर-बराबर समाज में उसकी शुद्ध वाम आदर्शों पर खड़ी वर्गीय समझ की सीमाओं को भी चिह्नित कर देती है। अच्छा है कि यह फ़िल्म पुराने हिन्दी सिनेमा की ख्वाजा अहमद अब्बास से लेकर जावेद अख्तर जैसे मार्क्सवादी लेखकों द्वारा रची गयी उस एकायामी समझ से बंधी नहीं है जिसमें जाति की समस्या को क्लास प्रॉब्लम के एक बाई-प्रोडक्ट जैसे ट्रीट किया जाता रहा।

लेकिन यह वैचारिक संपन्नता हासिल किया दलित युवा ही भविष्य है। फ़िल्म के आखिर में एक कमाल के कोरियोग्राफ सीन में जहाँ धवलवर्णी विलेन पर रंगों का हमला होता है तो वो काला भी है, नीला भी और लाल भी। नीला और लाल, यही दोनों रंग उस वैचारिक चुनौती के प्रतीक हैं जिससे सवर्ण-कॉर्पोरेट सत्ता का गठजोड़ पटखनी खाएगा, और काला इनके एका का प्रतीक है। नागराज मंजुले और पा रंजीथ की फ़िल्में प्रस्थान हैं, ‘सहानुभूति’ से ‘स्वानुभूति’ की ओर। यह ‘दलित नज़र’ है, जो लोकप्रिय हिन्दी सिनेमा से अभी तक अनुपस्थित थी।
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इस आलेख का संक्षिप्त संस्करण आज पाँच अगस्त के प्रभात खबर में ‘दलित नज़र को समझाती फ़िल्में’ शीर्षक से प्रकाशित हुआ

‘सहमत’ का इनकार आैर राष्ट्रवाद की किरचें : राज़ी

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मैं ‘राज़ी’ देखते हुए एक अजीब से प्यार से भर गया। प्यार, जो किसी बच्चे के सर पर हाथ रखकर या उसका माथा चूमकर पूरा होता है। फ़िल्म की नायिका में मुझे नायिका नहीं, अपनी बच्ची नज़र आने लगी। कुछ इसका दोष फ़िल्म की कहानी को और गुलज़ार साब की लिखी लाइनों (फसलें जो काटी जाएं… बेटियाँ जो ब्याही जाएं…) को भी जाएगा। पर मेरा मन जानता था, सिर्फ यही वजह नहीं थी।
 
मैं parent होने का अहसास क्या होता है, यह अभी तक नहीं जान पाया हूँ। पता नहीं, वो कभी होगा भी या नहीं। हमारे चयन वो नहीं हैं। जीवन हमें किसी आैर ही चक्की में पीस रहा है। घर में भी मैं सबसे छोटा रहा.. सबसे छोटा लड़का, सबसे छोटा भाई, प्रेम में भी नौसिखिया, शादी के बाद भी। 
 
लेकिन एक जगह रही जहाँ मैंने अपने भीतर parent होने के अंश को धड़कता पाया। बस वही एक जगह। वो अपनी क्लास के बच्चों को लेकर। और पिछले साल मिरांडा हाउस में पढ़ाते हुए यह भाव बहुत उमड़ता रहा। बनस्थली की ट्रेनिंग का असर रहा होगा शायद। लड़कियों का पिता होना इस दुनिया का सबसे पवित्र अहसास है। मुझे उसका अंश मिला ज़रा सा।
 
इसीलिए, जब ‘राज़ी’ में पहले ही सीन में आलिया भट्ट को मिरांडा के गलियारों में देखा, मन किसी और ही रास्ते पर ले गया मुझे। फ़िल्म के कुछ और ही मायने हो गए मेरे लिए। एक पिता का दिल वहाँ धड़क रहा था, और जैसे एक पिता का दिल यहाँ भी धड़कने लगा। ‘राज़ी’ आम से ख़ास बन गई एक ही क्षण में।
 
हम अपने जीवन में एक भी गिलहरी को उसकी लम्बी बेपरवाह ‘कूद’ में ज़रा भी मदद कर पाएं। बस यही। इतना ही।

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पचास के सुनहरे दशक का बम्बईया सिनेमा ज़रा भी बम्बईया नहीं।

यह दरअसल परदे के आगे पंजाब का सिनेमा है, आैर परदे के पीछे बंगाल का सिनेमा। आज़ादी मुल्क़ के इन दोनों सबसे समृद्ध प्रांतों के लिए बंटवारा लायी थी, आैर इन्हीं प्रांतों से आए ‘जड़ों से उजड़े’ लोगों ने बम्बईया सिनेमा को बनाया। हमें हमारे हिस्से की सबसे मानीखेज़ कहानियाँ दीं। पंजाब ने हमें हमारे हिस्से के नायक दिये, बंगाल ने लेखक-निर्देशक। उनकी सुनायी कहानियाँ जैसे हमारी बन गईं, क्योंकि दुख दुख को पहचानता है।

अरुण यह मधुमय ‘देश’ बनाने की कोशिश में जिन्होंने विष पिया, वो इसकी कीमत खूब समझते हैं।

यह संयोग भर नहीं है कि ‘राज़ी’ की निर्देशक मेघना गुलज़ार इसी युगल विरासत की प्रतिनिधि हैं, और वो एक स्त्री हैं। उनके हिस्से बंटवारे में लहूलुहान हुआ पंजाब भी है, बंगाल भी। आैर शायद इसीलिए उनके पास इससे आगे देख पाने की दृष्टि है। एक सुखद आश्चर्य की तरह उनकी फ़िल्म ‘राज़ी’ ने हमारे सिनेमा (और समाज पर भी) पर इस समय हावी देशभक्ति की एकायामी परिभाषा को सिरे से बदल दिया है।

जिस किस्म का राष्ट्रवाद वो प्रस्तुत करती है, उसकी नींव नफ़रत पर नहीं रखी गयी है।

‘राज़ी’ का राष्ट्रवाद नेहरूवियन आधुनिकता और राष्ट्र निर्माण के सपने की याद दिलाता है। पचास के दशक में उस सपने को सिनेमा के पर्दे पर जिलाने वाली राज कपूर की ‘जिस देश में गंगा बहती है’, दिलीप कुमार की ‘नया दौर’, व्ही शांताराम की ‘दो आंखे बारह हाथ’ और महबूब ख़ान की ‘मदर इंडिया’ जैसी क्लासिक फ़िल्मों की याद दिलाता है। ठीक है, वो प्रयोग अधूरा साबित हुआ और वो सपना टूटा।

उस टूटे सपने की किरचें पूरे सत्तर के दशक के ‘एंग्री यंग मैन’ मार्का विद्रोह में बिखरी नज़र आती हैं।

पर ‘राज़ी’ यहीं नहीं रुकती। हाँ, वो हमें भारतीय राष्ट्रवाद का मौलिक चेहरा याद दिलाती है जिसकी बुनियाद आज़ादी के संघर्ष के दौरान रखी गयी, मुल्क़ के बंटवारे के बहुत पहले। राष्ट्रवाद, जिसका चेहरा आज की तरह एकायामी, हिंसा पर टिका आैर बदनुमा नहीं था। लेकिन वो हमें इस पारिवारिक तथा सामुदायिक वफ़ादारियों की नींव पर खड़े भारतीय राष्ट्रवाद का दोमुँहा चरित्र भी दिखाती है। राज्य, जो नागरिक से अनन्य वफ़ादारियाँ तो माँगता है, लेकिन बदले में न्याय के समक्ष आैर संसाधनों में बराबरी का वादा कभी पूरा नहीं करता।

आज़ादी के दशक भर बाद आयी क्लासिक ‘मदर इंडिया’ की राधा अपने जान से प्यारे बेटे बिरजू पर दुनाली तानकर कहती है, “मैं बेटा दे सकती हूँ, लाज नहीं दे सकती”। बिरजू का खून पानी बन ‘आधुनिक भारत के मंदिर’ बहुउद्देश्यीय बांधों से निकली कलकल नहरों में बहने लगता है। लेकिन आज़ादी के सत्तर साल बाद ‘राज़ी’ की सहमत फ़िल्म के अन्त तक आते-आते इस राष्ट्र-राज्य के छल को समझ गयी है। वो राष्ट्रप्रेम की ऐसी किसी भी परिभाषा पर संदेह करती है जो देश को इंसानियत से भी ऊपर रखे।

सहमत सवाल पूछती है, “ये किस वफ़ादारी का सबक़ देते हैं आप लोग? नहीं समझ आती आपकी ये दुनिया.. ना रिश्तों की क़दर है, ना जान की।”

सहमत ‘मदर इंडिया’ की भूमिका को निभाने से इनकार कर देती है। शायद उसे समझ आने लगा है कि राष्ट्र-राज्य यह कुर्बानियाँ हमेशा स्त्रियों से, वंचितों से, दलितों से, अल्पसंख्यकों से आैर हाशिए पर खड़ी पहचानों से ही मांगा करता है। कभी उसका पता हाशिमपुरा है, तो कभी नर्मदा की घाटी। कभी नियमगिरी के पहाड़, तो कभी तूतीकोरिन। सहमत की कोख़ में ‘दुश्मन’ का बच्चा है, आैर मुल्क़ युद्धरत है। पर उसका साफ़ फ़ैसला है, “मैं इक़बाल के बच्चे को गिराऊंगी नहीं। एक आैर क़त्ल नहीं होगा मुझसे।” यही फ़िल्म में उसका अन्तिम संवाद है।

उसे माँ बनना है, ‘मदर इंडिया’ नहीं।

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इस आलेख का मूल संस्करण तीन जून 2018 के ‘प्रभात खबर’ में ‘राज़ी को माँ बनना है, मदर इंडिया नहीं’ शीर्षक से प्रकाशित हुआ।

 

दि गुड, दि बैड एंद दि अग्ली : सिनेमा 2017 पर ‘विशेष टिप्पणी’

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यह आलेख तनिक संशोधित रूप में 31 दिसंबर 2017 के ‘प्रभात खबर’ में यहाँ प्रकाशित हुआ

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मेरे लिए फ़िक्शन में साल की सबसे खूबसूरत फ़िल्म ‘ए डेथ इन दि गंज’ तथा नॉन-फ़िक्शन में ‘एन इनसिग्निफ़िकेंट मैन’ रहीं। पर पता नहीं आलोचक इन्हें हिन्दी फ़िल्में मानेंगे भी या नहीं। लेकिन इन दोनों फ़िल्मों ने आधुनिक भारतीय समाज आैर उसकी दो सबसे आधारभूत संरचनाअों ‘परिवार’ आैर ‘चुनाव’ में छिपी क्षुद्रताअों आैर संभावनाअों, वादों आैर छलनाअों को जिस खूबसूरती से खोला, कोई अन्य हिन्दी फ़िल्म ऐसा नहीं कर पाई।

एक असहज करनेवाले ट्रेंड में इस साल कई ‘रेप रिवेंज ड्रामा’ फ़िल्में देखी गईं। हिन्दी में ‘काबिल’, ‘भूमि’, ‘मॉम’ आैर ‘मातृ’ जैसी फ़िल्में देखी गईं, ‘अज्जी’ पर फ़ेस्टिवल सर्किल्स में जमकर बहस हुई। यह फ़िल्में सकारात्मक संकेत हैं कि दिसम्बर 2012 के बाद स्त्री स्वातंत्र्य आैर सुरक्षा के प्रश्न भारतीय जनमानस की चिन्ताअों के केन्द्र में आए हैं। लेकिन सार्वजनिक जीवन में स्त्री अधिकार आैर बराबरी पर बहस को बदले की अापराधिक कहानियों तक सीमित कर देना अन्तत: कल्पनाशीलता की हार है। इसके बरक्स ‘अनारकली आॅफ़ आरा’ आैर ‘लिपस्टिक अंडर माय बुरका’ जैसी फ़िल्में ‘पिंक’ की खींची उजली लकीर को लम्बा करने वाली साबित हुईं।

पहली बार फ़िल्म निर्देशित कर रहे अविनाश दास आैर अलंकृता श्रीवास्तव ने अपनी फ़िल्मों में गज़ब के आत्मविश्वास के साथ मुखरता से अपनी बात रखी। स्वतंत्र प्रयासों से बनी ‘अनारकली आॅफ़ आरा’ तथा रिलीज़ के लिए सीबीएफ़सी की मध्ययुगीन सोच से लड़नेवाली ‘लिपस्टिक अंडर माय बुरका’ असहज करनेवाली फ़िल्में हैं। वे अपनी भाषा में लाउड लगती हैं, बेशक बहसतलब फ़िल्में हैं। लेकिन दोनों ही बिना किसी अपराधबोध के अपनी कथा नायिकाअों की आकांक्षाअों आैर अधिकारों को सामने रखती हैं। बताती हैं कि स्त्री के लिए हर व्यक्तिगत ‘ना’ भी राजनैतिक लड़ाई है आैर हर निजी ‘हाँ’ भी। पर्सनल इज़ आॅलवेज़ पॉलिटिकल।

इन्हीं दोनों फ़िल्मों से सबसे शानदार अभिनय की सूची में सबसे ऊपर रत्ना पाठक शाह आैर स्वरा भास्कर का नाम चमकता रहेगा। इससे इतर अभिनय में ये साल राजकुमार राव का रहा। संयोग कुछ ऐसा बना कि इस कैलेंडर इयर में आश्चर्यजनक रूप से उनकी सात फ़िल्में रिलीज़ हुईं। इनमें आॅल्ट बालाजी की महत्वाकांक्षी डिज़िटल सीरीज़ ‘बोस – डेड आॅर अलाइव’ को भी जोड़ लें तो राजकुमार छाए रहे हैं। लेकिन इस क्वांटिटी ने उनके काम की क्वालिटी पर ज़रा भी आँच नहीं आने दी।

उन्होंने हिन्दी सिनेमा के सबसे रौबदार हीरो वाला नाम पाया है, ‘राजकुमार’। ‘राजकुमार’ से याद आता है “चिनॉय सेठ, जिनके घर शीशे के होते हैं..” वाला दुस्साहसी अकेला नायक। लेकिन घर में उनके दोस्त उन्हें ‘राजू’ नाम से पुकारना पसन्द करते हैं। राजू, हमारे सिनेमा में हुआ सबसे सच्चा चैप्लिन अवतार। राज कपूर का बनाया ‘आम आदमी’ नायक। इस साल उन्होंने अपनी भूमिकाअों में सिनेमाई नायक के ये दोनों एक्सट्रीम सफ़लतापूर्वक छू लिए हैं।

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‘ट्रैप्ड’ आैर ‘बरेली की बर्फ़ी’ दोनों ही फ़िल्मों में उनके किरदार ने जो सम्पूर्ण कैरेक्टर ग्राफ़ जिया है, उसके लिए नामी अभिनेता सालों तरसते हैं। साल की सबसे उल्लेखनीय फ़िल्म ‘न्यूटन’ में वह नायक रहे आैर परदे पर उनकी पंकज त्रिपाठी के साथ जुगलबन्दी इस साल की सबसे बेहतरीन अभिनय प्रदर्शनी थी। पंकज त्रिपाठी को भी याद रखा जाएगा। स्टारपुत्रों से भरी इस फ़िल्मी नगरी में उन्होंने अनुभवों की घोर तपस्या से हासिल हुई अपनी अभिनय की पूंजी को स्टार बनाया है।

हॉलीवुड की चुनौती लगातार बड़ी होती जा रही है। इस साल भी कई बेसिरपैर की हॉलीवुड ब्लॉकबस्टर्स ने भारतीय बॉक्स आॅफ़िस पर करोड़ों रुपए कमाए। इस साल यह आकर्षण दीपिका पादुकोण आैर प्रियंका चोपड़ा जैसी सेल्फ़मेड मुख्यधारा नायिकाअों को भी ‘रिटर्न आॅफ़ जेंडर केज’ आैर ‘बेवाच’ जैसी वाहियात फ़िल्मों की अोर ले गया। तकनीक आैर पैसे के बल पर इससे जीतना मुश्किल है। यह ऐसी चुनौती है जिसका मुकाबला हिन्दी सिनेमा मौलिक कंटेंट के द्वारा ही कर सकता है, करता आया है। अपनी जड़ों की आैर बेहतर पहचान तथा ज़मीन से निकली मौलिक कहानियाँ ही इस हॉलीवुड के हमले से बचा सकती हैं।

इधर इंडस्ट्री में बहुत से लोग ‘नेटफ़्लिक्स’ आैर ‘अमेज़न’ जैसे डिजिटल प्लेटफॉर्म्स को बहुत उम्मीद की नज़र से देख रहे हैं। प्रचार के लिए बड़े पैसे के खेल में फंसे बॉलीवुड के बरक्स मौलिक कंटेंट के लिए इन्हें सबसे मुफ़ीद माना जा रहा है। साल 2017 में इनकी पहली धमक भारतीय बाज़ार में सुनायी दी। ‘अमेज़न’ ने रिचा चड्ढा आैर विवेक आेबराय अभिनीत ‘इनसाइड ऐज़’ के साथ मौलिक कंटेंट की दुनिया में कदम रखा। अगले साल नवाज़ुद्दीन सिद्दीक़ी, इरफ़ान ख़ान आैर सैफ़ अली ख़ान जैसे सितारा अभिनेता स्पेशली डिज़िटल मीडियम के लिए तैयार सीरीज़ में नज़र आनेवाले हैं। लेकिन यहाँ भी सावधान रहने की ज़रूरत है। भारतीय सिनेमा की ताक़त इसकी विविधता आैर कुछ हद तक अराजक लगती अव्यवस्थित उर्वर ज़मीन है। उस तमाम रचनाशीलता को किसी एक हाथ में दे देना भविष्य में घातक भी साबित हो सकता है। कहीं हमारे सिनेमा का भी वही हश्र ना हो, जो आज नई सदी में हमारे टेलिविज़न का हुआ है।

क्या राष्ट्रवाद की चाशनी में डुबोये बिना स्पोर्ट्स बायोपिक बनाना संभव नहीं?

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नितेश तिवारी की ‘दंगल’ हमारे सिनेमा की वो पहली स्पोर्ट्स बायोपिक नहीं है, जिसका अन्त राष्ट्रगान पर हुआ हो। इससे पहले बॉक्सर मैरी कॉम पर बनी बायोपिक भी इसी रास्ते पर चलकर चैम्पियन मैरी कॉम की कहानी को भारतीय राष्ट्रवाद की प्रतीक यात्रा बना चुकी है। कह सकते हैं कि बॉक्स आॅफिस पर सफ़ल ‘भाग मिल्खा भाग’ ने इस कथा संरचना का आधार तैयार किया आैर बाद में फ़िल्मों ने इसे फॉलो किया।

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सच है कि आज़ादी वाले दशक से ही हिन्दी सिनेमा भारतीय राष्ट्रवाद के विचार को जनता के बीच पहुँचाने का सबसे लोकप्रिय माध्यम रहा है। आज पचास के दशक की फ़िल्मों में नेहरुवियन आधुनिकता को पढ़ा जाना मान्य विचार है। पर अभी का माहौल देखें तो यह भी अद्भुत संयोग है कि जिस दौर में हमारे सिनेमा में खिलाड़ियों के संघर्षों पर बनी बायोपिक खासी लोकप्रिय हो रही हैं, यही दौर लोकप्रिय सिनेमा में उग्र राष्ट्रवाद की वापसी का भी है। हालाँकि नब्बे के दशक के अन्त वाले समय की तरह, जहाँ ‘गदर’, ‘ज़मीन’ आैर ‘एलअोसी कारगिल’ जैसी फ़िल्मों के साथ सिनेमा में इस उग्र राष्ट्रवाद का पहला दौर नज़र आता है, यह सिनेमा उतना फूहड़ नहीं है।

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न्याय के बिना कोई बराबरी संभव नहीं है : अलीगढ़

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निर्देशक ‘हंसल मेहता’ की ‘अलीगढ़’ इस साल का सबसे गहरे पानी में डूबा मोती है. उनींदे से उत्तर भारतीय शहर के हृदय में बसे प्रतिष्ठित विश्वविद्यालय में मराठी पढ़ाने वाले विदुर प्रोफेसर के घर देर रात सनसनीखेज़ स्टिंग होता है. विश्वविद्यालय फौरन क़दम उठाता है. लेकिन स्टिंग करनेवालों की धरपकड़ के बजाए वो खुद प्रोफेसर को बरख़ास्त कर देता है. कारण, प्रोफेसर की समलैंगिक पहचान का उजागर होना.

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‘अलीगढ़’ हमें लड़ाई को अनिच्छुक, लेकिन अद्भुत जीवट वाले इस प्रोफेसर श्रीनिवासन रामचंद्र सिरस की अकेली लेकिन निहायत ही कोमल दुनिया के भीतर लेकर जाती है. साथ ही उस ‘सभ्य समाज’ का असल चेहरा भी हमारे सामने उजागर करती है, जिसे अपने से भिन्न कोई असहज करती पहचान बर्दाश्त तक नहीं. यह बहुमत नहीं, भीड़ है. आतताती भीड़. हत्यारी भीड़. कमाल की संवेदनशीलता के साथ बनाई गई ’अलीगढ़’ की चिंताअों का दायरा बड़ा है. यह फिल्म दरअसल हर उस अल्पसंख्यक पहचान के बारे में है, जिसकी रक्षा के वादे पर ही हमारा संविधान, हमारा लोकतंत्र आैर हमारा देश टिका है.

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