करण जौहर द्वारा निर्मित ‘धड़क’ ने बहस का नया पिटारा खोल दिया है। नागराज मंजुले की माइलस्टोन मराठी फ़िल्म ‘सैराट’ की ऑफिशियल हिंदी रीमेक। यह तो अच्छा है कि अब हिन्दी सिनेमा बाकायदा दूसरी भाषाओं की फ़िल्मों के राइट्स खरीदकर उन्हें अडॉप्ट कर रहा है, ‘प्रेरणा’ से नहीं। लेकिन ‘धड़क’ उदाहरण भी है समझने के लिए कि जब दलित अस्मिता के स्वघोष को ‘सवर्ण उत्तर भारतीय नज़र’ से दोहराने की कोशिश की जाए तो वो कितनी कृत्रिम हो जाती है।
इस ‘दलित नज़र’ को हमें समझना होगा। यही ‘दलित नज़र’ निर्देशक पा रंजीथ की तमिल फ़िल्म ‘काला’ में है। पिछले हफ़्ते ‘काला’ अमेज़न प्राइम पर तीन भाषाओं में रिलीज़ हुई और उत्तर भारतीय दर्शकों के लिए ‘काला’ देखना, अपने परिचित फॉर्मूला सिनेमा को विपरीत सिरे पर खड़े होकर देखने का अनोखा अनुभव है।
***
निर्देशक पा रंजीथ की ‘काला’ ने रामकथा को उलट दिया है। रावण यहाँ नायक है और छली राम खलनायक। यह सिनेमा के पर्दे पर दलित अस्मिता का उद्घोष है, अपनी पूरी गमक के साथ। ऐसा नहीं कि हिन्दी सिनेमा ने दलित उत्पीड़न की कथाएं देखी नहीं। हमारा सत्तर और अस्सी के दशक का समांतर सिनेमा आन्दोलन सदा वंचित की कथा कहता रहा। लेकिन वो सिनेमायी भाषा मुख्यधारा सिनेमा से अलग थी, आम पब्लिक से दूर थी। तमिल सिनेमा से आयी रजनीकांत की ‘काला’ की सबसे खास बात यह है कि यहाँ पा रंजीथ अपनी बात लोकप्रिय सिनेमा की भाषा में कहते हैं। याद हो, कुछ-कुछ यही काम इससे पहले नागराज मंजुले ने बेहतरीन मराठी फ़िल्म ‘सैराट’ में किया था।
यहाँ इंद्रधनुषी रंग भी हैं और रैप भी। गीतों भरी प्रेम कहानियाँ भी हैं और अदम्य नायकीय एक्शन भी। स्लो-मो और स्पेशल इफेक्ट्स, तकनीक का प्रदर्शनकारी इस्तेमाल करते हुए फ़िल्म डिज़ाइनर फाइट सीक्वेंस रचने से लेकर एनिमेशन तक सबका इस्तेमाल करती है। सिनेमायी भाषा के लिहाज से यह फुल-फुल मसाला फ़िल्म है। संयोगों और मेलोड्रामा से भरपूर। बिम्ब वही पर अर्थ उलट, कबीर की उलटबांसियों की तरह।
यह लोकप्रिय हिन्दी सिनेमा के लिए जैसे एंटी-थीसिस है। विस्मयकारी क्लाइमैक्स में एक ओर रामायण की कथा का वाचन जारी है, वहीं धारावी झोपड़पट्टी का बहुजन महानायक काला करिकालन जैसे कथा से ऊपर उठकर उस वैचारिक युद्ध का प्रतीक बन जाता है जो आज के शहरी भारत से लेकर दण्डकारण्य के जंगलों तक जारी है। युद्ध, जो ज़मीन पर कब्जे के लिए सवर्ण राज्यसत्ता और बहुजन समाज के बीच लड़ा जा रहा है। सवर्ण कॉर्पोरेट सत्ता के लिए यह ज़मीन ताक़त है, बहुजन समाज के लिए उसकी ज़िन्दगी। रामायण में आये रावण के दस सर यहाँ बहुजन सामूहिकता के प्रतीक बन जाते हैं। एक काटोगे तो दूसरा उग आएगा।
और भी दिलचस्प है फ़िल्म का ‘स्वच्छता’ और ‘गंदगी’ के विलोम को उसके सर के बल खड़ा कर देना, जो आज के राजनैतिक परिदृश्य में कहीं ज़्यादा मानीखेज़ है। यहाँ विलेन ‘क्लीन कंट्री’ अभियान चलानेवाला और ‘डिजिटल मुम्बई’ का सपना बेचनेवाला एक ऐसा राष्ट्रवादी राजनेता है जिसका चेहरा शहर के हर बिलबोर्ड पर चस्पां है। काला अपने से छोटों से भी आगे बढ़कर हाथ मिलाता है, बराबरी का रिश्ता कायम करता है। वो भगवा पार्टी का नेता चरण स्पर्श की गैरबराबर रूढ़ि में बंधा है। काला का स्याह रंग मेहनत का रंग है, सब पहचानों का सद्भाव है उसमें। धवलवर्णी विलेन ऐसे एकायामी भारत का कांक्षी है जिसमें हर विपक्षी को राष्ट्र की प्रगति में बाधक ‘देशद्रोही’ बताया जाता है। गौर से देखिये, उसे पहचानना ज़रा भी मुश्किल नहीं।
फ़िल्म अम्बेडकरवादी प्रतीकों और पहचानों से भरी है। भीमा चाल के पते से लेकर जय भीम के अभिवादन तक। भीमजी से लेकर लेनिन तक युवा किरदार काला के साथ खड़े नजर आते हैं। काला के छोटे बेटे ‘लेनिन’ का किरदार मुझे फ़िल्म में सबसे दिलचस्प लगा। वो फ़िल्म का युवा नायक है। दलित समाज की शिक्षित चेतनासम्पन्न नई पीढ़ी का प्रतिनिधि। और अब वो अपनी वाजिब हिस्सेदारी को संवैधानिक तरीके से हासिल करना चाहता है।
लेनिन अपनी झोपड़पट्टी की हालत को सुधारना चाहता है, उसकी किस्मत बदलना चाहता है। लेकिन सत्ता द्वारा बेचे जा रहे ‘रीडेवलपमेंट’ के प्लान की असल हकीकत नहीं समझ पाता। पर काला और उसके लोगों ने सवर्ण सत्ता के इन सुहावने पर दोगले वादों को नज़दीक से देखा, भुगता है। वो जानता है कि पचहत्तर एकड़ पर गोल्फ़ कोर्स बनवानेवाली ‘मनु बिल्डर्स’ की योजनाओं में उन जैसों के लिए कोई जगह नहीं होगी। राज्यसत्ता, और उसके द्वारा बेचे जा रहे ‘विकास’ के नारों के असलीे सवर्ण चेहरे की ठीक-ठीक पहचान में अंततः काला ही सही ठहरता है।
फ़िल्म एक ओर लेनिन को काला करिकालन के मौलिक वैचारिक उत्तराधिकारी के रूप में प्रस्तुत करती है, वहीं इस गैर-बराबर समाज में उसकी शुद्ध वाम आदर्शों पर खड़ी वर्गीय समझ की सीमाओं को भी चिह्नित कर देती है। अच्छा है कि यह फ़िल्म पुराने हिन्दी सिनेमा की ख्वाजा अहमद अब्बास से लेकर जावेद अख्तर जैसे मार्क्सवादी लेखकों द्वारा रची गयी उस एकायामी समझ से बंधी नहीं है जिसमें जाति की समस्या को क्लास प्रॉब्लम के एक बाई-प्रोडक्ट जैसे ट्रीट किया जाता रहा।