नितेश तिवारी की ‘दंगल’ हमारे सिनेमा की वो पहली स्पोर्ट्स बायोपिक नहीं है, जिसका अन्त राष्ट्रगान पर हुआ हो। इससे पहले बॉक्सर मैरी कॉम पर बनी बायोपिक भी इसी रास्ते पर चलकर चैम्पियन मैरी कॉम की कहानी को भारतीय राष्ट्रवाद की प्रतीक यात्रा बना चुकी है। कह सकते हैं कि बॉक्स आॅफिस पर सफ़ल ‘भाग मिल्खा भाग’ ने इस कथा संरचना का आधार तैयार किया आैर बाद में फ़िल्मों ने इसे फॉलो किया।
सच है कि आज़ादी वाले दशक से ही हिन्दी सिनेमा भारतीय राष्ट्रवाद के विचार को जनता के बीच पहुँचाने का सबसे लोकप्रिय माध्यम रहा है। आज पचास के दशक की फ़िल्मों में नेहरुवियन आधुनिकता को पढ़ा जाना मान्य विचार है। पर अभी का माहौल देखें तो यह भी अद्भुत संयोग है कि जिस दौर में हमारे सिनेमा में खिलाड़ियों के संघर्षों पर बनी बायोपिक खासी लोकप्रिय हो रही हैं, यही दौर लोकप्रिय सिनेमा में उग्र राष्ट्रवाद की वापसी का भी है। हालाँकि नब्बे के दशक के अन्त वाले समय की तरह, जहाँ ‘गदर’, ‘ज़मीन’ आैर ‘एलअोसी कारगिल’ जैसी फ़िल्मों के साथ सिनेमा में इस उग्र राष्ट्रवाद का पहला दौर नज़र आता है, यह सिनेमा उतना फूहड़ नहीं है।
लेकिन मेरी समस्या खिलाड़ियों पर बन रही फ़िल्मों के इस नवीन दौर में देशभक्ति की चाशनी मिलाने से तैयार हो रही लोकप्रिय कॉकटेल से है। मेरी समस्या राष्ट्रवादी सरणी को हर खिलाड़ी पर बनी बायोपिक पर आरोपित कर देने से जुड़ी है। इस कथा संरचना की सबसे बड़ी दिक्कत यही है कि खिलाड़ियों के जीवन पर अाधारित फिल्में होने के बावजूद इनकी कथाअों में निर्णायक मौकों पर उपजते भावनात्मक उबालों के अागे स्वयं वे खेल ही गौण हो जाते हैं जिनकी वजह से इन कथाअों का होना संभव हुअा। यह फिल्में खेलों को किसी अन्य सत्य तक पहुँचने के द्वितीयक साधन की तरह पढ़ती हैं। जबकि किसी भी सच्चे खिलाड़ी से पूछें तो वह अापको बतायेगा कि खेल सिर्फ़ साधन भर नहीं, स्वयं साध्य होता है।
खेलों अौर खिलाड़ियों पर बनने वाली फिल्मों में दिक्कततलब बात यही है कि वे हमेशा ‘देश’ को ‘खेल’ का पर्यायवाची मान लेती हैं। खिलाड़ी का खेल के प्रति प्यार हमेशा उसकी ‘देशभक्ति’ के रूप में अभिव्यक्त होता है अौर फिल्म राष्ट्रवाद की अांधी में बह जाती है। पर यह सिनेमा ‘राष्ट्रवाद’ की चाशनी तैयार करने की प्रक्रिया में उस अात्मीय उष्मा को गंवा देता है जो किसी खिलाड़ी अौर उसके अपने खेल से रिश्ते के मध्य मौजूद होती है। राष्ट्र खिलाड़ी के पीछे तब होता है जब वो जीतता है। लेकिन खेल खिलाड़ी का वो जीवनसाथी है जिसके सहारे खिलाड़ी हार से जन्मे उन दुर्गम क्षणों को जीता है जब उसका राष्ट्र उससे मुँह फिरा लेता है।
खेल स्वयं में एक जीवनपद्धति है अौर यह खिलाड़ी का व्यक्तित्व गढ़ता है। जब लालबजरी पर खड़े रफ़ेल नाडाल रेकैट के एक प्रहार से सामान्य सी दिखती गेंद में अकल्पनीय घूर्णन भर देते हैं, जब वीवीएस लक्ष्मण अपनी तरफ अाती गेंद को कलाइयों के सहारे फाइन लेग की तरफ़ मोड़ते हैं, जब लियोनल मैसी अपनी अपूर्व चपलता के मध्य उस गांडीवधारी सी एकाग्रता भरते हैं अौर रक्षकपंक्ति को छिन्न-भिन्न करते मछली की अाँख सरीख़े उस गोलपोस्ट की अोर बढ़ते हैं, यह सभी अपने अाप में मुकम्मल अभिव्यक्तियाँ हैं अौर इन्हें भाव की पूर्णता के लिए किसी ‘राष्ट्रवादी’ पुछल्ले की अावश्यकता नहीं।
वैसे महेंद्र सिंह धोनी पर बनी फ़िल्म ‘एम एस धोनी : दि अनटोल्ड स्टोरी’ इस ‘राष्ट्रवादी सरणी’ से कुछ हद तक मुक्त दिखती है। वो एक छोटे शहर से आए खिलाड़ी की खेल के सर्वोच्च शिखर तक यात्रा को खिलाड़ी की देशभक्ति के प्रतीक में नहीं बदलती। शायद यह खुद खिलाड़ी महेंद्र सिंह धोनी के व्यक्तित्व से भी जुड़ा है, जिन्होंने खेल में नतीजे से ज़्यादा हमेशा ‘प्रोसेस’ को महत्व दिया। यहाँ खेल की सम्पूर्णता जीतने में नहीं, पूरी ईमानदारी से खेले जाने की प्रक्रिया में निहित है। आैर इसी वजह से एक अन्य खिलाड़ी जिसकी बायोपिक में मेरी ख़ास दिलचस्पी है, उसका नाम अभिनव बिंद्रा है। हमारे राष्ट्र की आेर से संभवत: सबसे बड़ी खेल उपलब्धि हासिल करने वाला खिलाड़ी। वही अभिनव बिंद्रा जिन्होंने कहा था,
“सभी खिलाड़ी, 99.99 तो पक्का ही, पहले अपने लिए खेलते हैं। चाहे वो टीम स्पोर्ट्स हो या व्यक्तिगत प्रतिस्पर्धा। हाँ, वे इसे खुलकर नहीं कह पाते क्योंकि यह सुनने में ‘पोलिटिकली करेक्ट’ नहीं लगता।”
बिंद्रा के लिए खेल के मैदान पर की गई एकाग्र तपस्या ही उनकी देशभक्ति है। ऐसे में गर हिन्दी सिनेमा उनके खेल के प्रति समर्पण को किसी अन्य समर्पण के आगे द्वितीयक बनाकर पेश करे, तो यह देखना निराशाजनक होगा।
इस आलेख का किंचित संशोधित संस्करण समाचार पत्र ‘प्रभात खबर’ के राष्ट्रीय संस्करण के सिनेमा कॉलम में 12 नवम्बर 2017 को प्रकाशित हुआ।