यथार्थ की उलटबांसियाँ : मटरू की बिजली का मंडोला

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” बड़ी प्रार्थना होती है। जमाखोर अौर मुना़फाखोर साल-भर अनुष्ठान कराते हैं। स्मगलर महाकाल को नरमुण्ड भेंट करता है। इंजीनियर की पत्नी भजन गाती हैं – ‘प्रभु कष्ट हरो सबका’। भगवन्‌, पिछले साल अकाल पड़ा था तब सक्सेना अौर राठौर को अापने राहत कार्य दिलवा दिया था। प्रभो, इस साल भी इधर अकाल कर दो अौर ‘इनको’ राहत कार्य का इंचार्ज बना दो। तहसीलदारिन, नायबिन, अोवरसीअरन सब प्रार्थना करती हैं। सुना है विधायक-भार्या अौर मंत्री-प्रिया भी अनुष्ठान कराती हैं। जाँच कमीशन के बावजूद मैं ऐसा पापमय विचार नहीं रखता। इतने अनुष्ठानों के बाद इन्द्रदेव प्रसन्न होते हैं अौर इलाके के तरफ से नल का कनेक्शन काट देते हैं।

हर साल वसन्त !

हर साल शरद !

हर साल अकाल !  ” — हरिशंकर परसाई, ‘अकाल-उत्सव’ से।

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सिनेमाई संगीत में प्रामाणिकता की तलाश

“हिन्दी सिनेमा के संगीत से मेलोडी चली गई. आजकल की फ़िल्मों के गीत वाहियात होते जा रहे हैं. पहले के गीतों की तरह फ़िल्म से अलग वे याद भी नहीं रहते. जैसे उनका जीवन फ़िल्म के भीतर ही रह गया है, बाहर नहीं.”

पिछले दिनों सिनेमाई संगीत से जुड़ी कुछ चर्चाओं में हिस्सेदारी करते हुए यह मैंने आम सुना. इसे आलोचना की तरह से सुनाया जाता था और इस आलोचना के समर्थन में सर हिलाने वाले दोस्त भी बहुत थे.

aitbaarहिन्दी सिनेमा और सिनेमाई संगीत के बारे में दो भिन्न तरह की बातें पिछले दिनों मैंने अलग-अलग मंचों से कही जाती सुनीं, जिनका यूं तो आपस में सीधा कोई लेना-देना नहीं दिखता लेकिन दोनों को साथ रखकर पढ़ने से उनके गहरे निहितार्थ खुलते हैं. पहली बात को हमने ऊपर उद्धृत किया. लेकिन इससे बिल्कुल इतर दूसरी बात समकालीन सिनेमा और नए निर्देशकों के बारे में है जिनके सिनेमा बारे में आम समझ यह बन रही है कि यह अपने परिवेश की प्रामाणिकता पर गुरुतर ध्यान देता है और इसे फ़िल्म की मूल कथा के संप्रेषण के मुख्य साधन के बतौर चिह्नित करता है. दिबाकर बनर्जी, अनुराग कश्यप, चंदन अरोड़ा और कुछ हद तक इम्तियाज़ अली जैसे निर्देशक अपने सिनेमा में इस ओर विशेष ध्यान देते पाए गए हैं.

अगर मैं कहूँ कि इस आलेख के सबसे पहले जो कथन मैंने उद्धृत किया, खुद मैं भी उससे काफ़ी हद तक सहमत हूँ, तो? लेकिन साथ ही यह भी कि मैं उसे आलोचना नहीं मानता. हम दरअसल इन दो भिन्न लगती बातों को साथ रखकर नहीं देख पा रहे हैं. देखें तो समझ आएगा कि पहली बात के सूत्र दूसरे सकारात्मक बदलाव में छिपे हैं.

इसे कुछ बड़े परिप्रेक्ष्य में समझें. माना जाता है कि उदारीकरण के बाद हिन्दुस्तान के बाज़ार खुलने की प्रक्रिया में हिन्दी सिनेमा के लिए ’हॉलीवुड’ की चुनौती दिन दूनी रात चौगुनी बड़ी होती गई है. बात सही भी है. लेकिन मेरा मानना है कि ’हॉलीवुड’ की चुनौती जितनी बड़ी समूचे हिन्दी सिनेमा के लिए है, उससे कहीं ज़्यादा हिन्दी सिनेमा में सदा से एक अभिन्न अंग के रूप में मौजूद रहे गीतों के लिए हैं. जिस तरह समाज पर मुख्यधारा ’हॉलीवुड’ सिनेमा का प्रभाव बढ़ रहा है, हिन्दी सिनेमा में उससे मुकाबला करने की, उसे पछाड़ने की जुगत बढ़ती जा रही है. और ऐसे में सबसे बड़ा संकट, शायद अस्तित्व का संकट सिनेमा के गीत-संगीत के लिए उत्पन्न होता है.

हिन्दी सिनेमा में नब्बे के दशक में सबसे बड़ा बदलाव लेकर आने वाले व्यक्ति का नाम है रामगोपाल वर्मा. आज सिनेमा में देखी जा रही तकनीक समर्थित नवयथार्थवादी धारा को स्थापित करने का श्रेय उन्हें ही जाता है. और आपको याद होगा कि उन्होंने एक समय संगीत को अपने सिनेमा से एक गैर-ज़रूरी अवयव की तरह से निकाल बाहर किया था. यह संक्रमण काल था और इस दौर में हिन्दी सिनेमा का संगीत अपनी अस्तित्व की लड़ाई लड़ रहा था. यहाँ दो रास्ते थे उसके सामने, एक – अपनी पुरानी प्रतिष्ठा का इस्तेमाल करते हुए वैसा ही बने रहना, लेकिन बदलते सिनेमा के रंग में लगातार अप्रासंगिक होते चले जाना. और दूसरा – स्वयं का पुन: अविष्कार करने की कोशिश, याने सिनेमा की बदलती भाषा के अनुसार बदलना और सबसे ऊपर फ़िल्म के भीतर अपनी प्रासंगिकता स्थापित करना.

dev dमुझे खुशी है कि कुछ निर्देशकों ने बाज़ार की परवाह न करते हुए दूसरा रास्ता चुना. और यहाँ बाज़ार की परवाह न करने जैसे वाक्य का मैं जान-बूझकर प्रयोग कर रहा हूँ. क्योंकि फ़िल्म संगीत आज अपने आप में एक वृहत उद्योग है और ऐसे में अपनी फ़िल्म में ’फ़िल्म से बाहर’ पहचाने जाने वाले गीतों का न होना एक बड़ा दुर्गुण है. ऐसे में निर्देशकों ने अपने सिनेमा में संगीत को एक किरदार के बतौर पेश किया और उससे वह काम लेने लगे जिन्हें अभिव्यक्ति के सीमित साधनों के चलते या परिस्थिति के चलते फ़िल्म में मौजूद किरदार अभिव्यक्त नहीं कर पा रहे थे. अनुराग कश्यप की ’देव डी’ का ही उदाहरण लें. किरदारों की व्यक्तिगत अभिव्यक्तियाँ जहाँ अपनी सीमाएं तलाशने लगती हैं, फ़िल्म में संगीत आता है और संभावनाओं के असंख्य आकाश सामने उपस्थित कर देता है.

अनुराग द्वारा निर्मित और राजकुमार गुप्ता द्वारा निर्देशित ’आमिर’ का ही उदाहरण लें. फ़िल्म जो कथा कहती है वह अत्यन्त भावुक हो सकती थी, लेकिन यहीं अमित त्रिवेदी का संगीत उसे एक नितान्त ही भिन्न आयाम पर ले जाता है. उनके संगीत में एक फक्कड़पना है जिसके चलने ’आमिर’ का स्वाद अपनी पूर्ववर्ती मैलोड्रैमेटिक फ़िल्मों से बिल्कुल बदल जाता है. अमिताभ भट्टाचार्या द्वारा लिखा गीत ’चक्कर घूम्यो’ को शायद आप फ़िल्म से बाहर याद न करें, लेकिन याद करें कि फ़िल्म में एक घोर तनावपूर्ण स्थिति में आकर वही गीत कैसे आपको सोच का एक नया नज़रिया देता है. घटना को देखने का एक नया दृष्टिकोण जिसके चलने ’आमिर’ अन्य थ्रिलर फ़िल्मों से भिन्न और एक अद्वितीय स्वाद पाती है.

राजकुमार गुप्ता की ही अगली फ़िल्म ’नो वन किल्ड जेसिका’ के गीतों को देखें. क्या आपने हिन्दी सिनेमाई संगीत की कोमलकान्त पदावली में ऐसे खुरदुरे शब्द पहले सुने हैं,

“डर का शिकार हुआ ऐतबार
दिल में दरार हुआ ऐतबार
करे चीत्कार बाहें पसारकर के

नश्तर की धार हुआ ऐतबार
पसली के पार हुआ ऐतबार
चूसे है खून बड़ा खूँखार बनके

झुलसी हुई इस रूह के चिथड़े पड़े बिखरे हुए
उधड़ी हुई उम्मीद है
रौंदे जिन्हें कदमों तले बड़ी बेशरम रफ़्तार ये

no_one_killed_jessicaजल भुन के राख हुआ ऐतबार
गन्दा मज़ाक हुआ ऐतबार
चिढ़ता है, कुढ़ता है, सड़ता है रातों में”

गीत की यह उदंडता अभिव्यक्त करती है उस बेबसी को जिसे फ़िल्म अभिव्यक्त करना चाहती है. ठीक वैसे ही जैसे ’उड़ान’ के कोमल बोल उन्हें अभिव्यक्त करनेवाले सोलह साल के तरुण कवि की कल्पना से जन्म लेते हैं, ’नो वन किल्ड जेसिका’ के ’ऐतबार’ और ’काट कलेजा दिल्ली’ जैसे गीत अपने भीतर वह पूरा सभ्यता विमर्श समेट लाते हैं जिन्हें फ़िल्म अपना मूल विचार बनाती है.

मुझे याद आता है जो गुलज़ार कहते हैं, कि मेरे गीत मेरी भाषा नहीं, मेरे किरदारों की भाषा बोलते हैं. और वह मेरी अभिव्यक्तियाँ नहीं है, उन फ़िल्मी परिस्थितियों की अभिव्यक्तियाँ हैं जिनके लिए उन्हें लिखा जा रहा है. ऐसे में समझना यह होगा कि अगर सिनेमाई गीतों में अराजकता बढ़ रही है तो यह हमारे सिनेमा में पाए जाने वाले किरदारों और परिवेश के विविधरंगी होने का संकेत है और इसका स्वागत किया जाना चाहिए.

’पीपली लाइव’ का संगीत इसलिए ख़ास है क्योंकि इंडियन ओशन, भदवई गांव की गीत मंडली, राम संपत, रघुवीर यादव, नगीन तनवीर और नूर मीम राशिद जैसे नामों से मिलकर बनता उनका सांगितिक संसार इस समाज की इंद्रधनुषी तस्वीर अपने भीतर समेटे है. सच है कि उस संगीत में अराजकता है और सम्पूर्ण ’एलबम’ मिलकर कोई एक ठोस स्वाद नहीं बनाता. शायद इसीलिए ’पीपली लाइव’ संगीत के बड़े पुरस्कार नहीं जीतती. लेकिन इकसार की चाह क्या ऐसी चाह है जिसके पीछे अराजकता का यह इंद्रधनुषी संसार खो दिया जाए.

dibakarदिबाकर की फ़िल्मों का संगीत कभी खबर नहीं बनता. न कभी साल के अन्त में बननेवाली ’सर्वश्रेष्ठ’ की सूचियों में ही आ पाता है. वे हमेशा कुछ अनदेखे, अनसुने नामों को अपनी फ़िल्म के संगीत का ज़िम्मा सौंपते हैं और कई बार फ़िल्म के गीत खुद ही लिख लेते हैं. शायद यह बात – ’फ़िल्म का संगीत फ़िल्म के बाहर नहीं’ उनकी फ़िल्मों के संगीत पर सटीक बैठती है.

फिर भी मैं दिबाकर की फ़िल्मों के संगीत को हिन्दी सिनेमा में बीते सालों में हुआ सबसे सनसनीखेज़ काम मानता हूँ. क्योंकि उनकी फ़िल्मों का संगीत उनकी फ़िल्मों का सबसे महत्वपूर्ण किरदार होने से भी आगे कहीं चला जाता है. ’ओये लक्की लक्की ओये’ में स्नेहा खानवलकर और दिबाकर शुरुआत में ही ’तू राजा की राजदुलारी’ लेकर आते हैं. हरियाणवी रागिनी जिसका कथातत्व भगवान शिव और पार्वती के आपसी संवाद से निर्मित होता है. देखिए कि किस तरह तरुण गायक राजबीर द्वारा गाया गया यह गीत एक पौराणिक कथाबिम्ब के माध्यम से समकालीन शहरी समाज में मौजूद class के नफ़ासत भरे भेद को उजागर कर देता है. मुझे फिर याद आते हैं आचार्य हज़ारीप्रसाद द्विवेदी के निबंध जिनमें वह तमाम ’सूटेड-बूटेड’ आर्य देवताओं के मध्य अकेले लेकिन दृढ़ता से खड़े दिखते फ़क्कड़, भभूतधारी और मस्तमौला अनार्य देवता शिव की भिन्नता को स्पष्ट करते हैं.

इसी क्रम में फ़िल्म के दूसरे गीत की यह शुरुआती पंक्तियाँ देखें,

“जुगणी चढदी एसी कार
जुगणी रहंदी शीशे पार
जुगणी मनमोहनी नार
ओहदी कोठी सेक्टर चार”

यह जिस ‘शीशे पार’ का उल्लेख फ़िल्म का यह गीत करता है, यही वो सीमा है जिसे पार कर जाने की जुगत ‘लक्की’ पूरी फ़िल्म में भिड़ाता रहता है. यह class का ऐसा भेद है जिसे सिर्फ़ पैसे के बल पर नहीं पाटा जा सकता. यहाँ फ़िल्म में संगीत किरदार भर नहीं, वो उस फ़िल्म के मूल विचार की अभिव्यक्ति का सबसे प्राथमिक स्रोत बनकर उभरता है. दिबाकर की ही अगली फ़िल्म ‘लव, सेक्स और धोखा’ का घोर दर्जे की हद तक उपेक्षित किया गया संगीत भी इसी संदर्भ में पुन: पढ़ा जाना चाहिए.

पिछले साल आई फ़िल्म ‘डेल्ही बेली’ में एक गीत था ‘स्वीट्टी स्वीट्टी स्वीट्टी तेरा प्यार चाईंदा’. जब मैंने दोस्तों को बोला कि यह मेरी लिस्ट में पिछले साल के सबसे शानदार गीतों में से एक है, तो मुझे जवाबी आश्चर्य का सामना करना पड़ा. मेरी इस राय की वजह क्या है? वजह है इस गीत की फ़िल्म के भीतर भूमिका. फ़िल्म इस गीत के साथ हमारा परिचय दिल्ली के उस उजड्ड से करवाती है जिसकी सबसे बड़ी अभिव्यक्ति उसके हाथ में मौजूद उसकी पिस्तौल है. इस अभिव्यक्ति के लिहाज से गीत मुकम्मल है और इसीलिए महत्वपूर्ण है. यहाँ फ़िल्म का दूसरा गीत ‘बेदर्दी राजा’ भी देखें जो उस लंपट किरदार से आपका परिचय करवाता है जिसकी लंपटता फ़िल्म के कथासूत्र में आगे जाकर महत्वपूर्ण भूमिका अदा करती है.

बेशक हिन्दी सिनेमा का संगीत बदला है. लेकिन समय सिर्फ़ उसकी आलोचना का नहीं, ज़रूरत उसमें निहित सकारात्मक बदलाव देखे जाने की भी है. हम लोकप्रिय लेकिन अपनी फ़िल्म से ही पूरी तरह अप्रासंगिक हो जाने वाले इकसार संगीत के मुकाबले ऐसा, कुछ नया अविष्कार करने की ज़ुर्रत करने वाला संगीत हमेशा ज़्यादा सराहेंगे.

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साहित्यिक पत्रिका ‘कथादेश’ के मार्च अंक में प्रकाशित

साल सदियों पुराना पक्का घर है

साल,
दिखता नहीं पर पक्का घर है
हवा में झूलता रहता है
तारीखों पर पाँव रख के
घड़ी पे घूमता रहता है

बारह महीने और छह मौसम हैं
आना जाना रहता है
एक ही कुर्सी है घर में
एक उठता है इक बैठता है

जनवरी फ़रवरी बचपन ही से
भाई बहन से लगते हैं
ठण्ड बहुत लगती है उन को
कपड़े गर्म पहनते हैं

जनवरी का कद ऊँचा है कुछ
फरवरी थोड़ी दबती है,
जनवरी बात करे तो मुँह से
धुएँ की रेल निकलती है

मार्च मगर बाहर सोता है
घबराता है बँगले में
दिन भर छींकता रहता है
रातें कटती हैं नज़ले में

लेकिन ये अप्रैल मई तो
बाग में क्या कुछ करते हैं
आम और जामुन, शलजम, गोभी
फल क्या, फूल भी चरते हैं

मख्यियाँ भिन भिन करती हैं और
मच्छर भी बढ़ जाते हैं
जुगनू पूँछ पे बत्ती लेकर
पेड़ों पे चढ़ जाते हैं

जून बड़ा वहमी है लेकिन
गर्ज सुने घबराता है
घर के बीचों बीच खड़ा
सब को आवाज़ लगाता है

रेन-कोट और छतरी ले लो
बादल आया, बारिश होगी
भीगना मत गन्दे पानी में
खुजली होगी, खारिश होगी

दोस्त जुलाई लड़का है पर
लड़कियों जैसा लगता है
गुल मोहर की छतरी लेकर
ठुमक ठुमक कर चलता है

और अगस्त, बड़ा बद-मस्त है
छत पे चढ़ के गाता है
भीगता रहता है बारिश में
झरने खोल नहाता है

पीला अम्बर पहन सितम्बर
पूरा साधू लगता है,
रंग बिरंगे उड़ते पत्ते
पतझड़, जादू लगता है

गुस्से वाला है अक्टूबर
घुन्ना है गुर्राता है
कहता कुछ है, करता कुछ है
पत्ते नोच… गिराता है

और नवम्बर, पंखा लेकर
सर्द हवाएँ छोड़ता है
रूठे मौसम मनवाता है
टूटे पत्ते जोड़ता है

बड़ा बुज़ुर्ग दिसम्बर आखिर
बर्फ़ सफ़ेद – लिबास में आए
सब के तोहफ़े पीठ पे लेकर,
-सांताक्लॉज़- को साथ में लाए

बारह महीनों बाद हमेशा
घर पोशाक बदलता है
नम्बर प्लेट – बदल जाती है
साल नया जब लगता है

-गुलज़ार. साभार  ’चकमक’ से

राँझा राँझा

प्रायद्वीपीय भारत को पछाड़ती, दक्षिण से उत्तर की ओर भागती एक रेलगाड़ी में गुलज़ार  द्वारा फ़िल्म  ’रावण’ के लिए लिखा गीत ’राँझा राँझा’ सुनते हुए…

gulzarबड़ा मज़ेदार किस्सा है…

शुरुआती आलाप में कहीं गहरे महिला स्वर की गूँज है. और बहती हवाओं की सनसनाहट भी जैसे स्त्री रूपा है. रेखा अपनी आवाज़ को बह जाने देती हैं. बियाबान में भटकने देती हैं. उसे अब फ़िकर नहीं ज़माने की, परवाह नहीं रुसवाइयों की. कहना है हीर का कि उस राँझा का नाम लेते-लेते अब मैं खुद राँझा हो गई हूँ. अरे ओ ज़माने, अब मुझे हीर नहीं, राँझा कहकर ही बुलाया कर…

राँझा राँझा करदी वे मैं…

जावेद अली की आवाज़ साफ़ है, खड़ी एकदम. जैसे उसे ज़माने की परवाह हो, किसी की नज़रों में आने से दिल धड़कता हो. पुरुष स्वर थोड़ी ज़्यादा व्यावहारिकता समझता है. ’दिल अगर आ भी गया, वो तेरा शहर नहीं’. नदी होना बस स्त्री के ही हिस्से है. वे दूसरी तरफ़ इसके सिरे को सम्भाले रखते हैं. रोक लो इस उफनते समन्दर को नहीं तो ये अपने साथ हम दोनों को भी बहा ले जायेगा..

राँझा राँझा ना कर हीरे जग बदनामी होए,
पत्ती पत्ती झर जावे पर खुशबू चुप न होए.

गुलज़ार की दुनिया में खुशबू ’कम न होने’ की बजाय ’चुप नहीं होती’ है. बड़ा मज़ेदार है ये देखना कि कैसे आवाज़ की ये खूबियाँ बोल के भावों से मिल जाती हैं और अद्भुत तालमेल पैदा करती हैं. स्त्री स्वर उसकी चोरी पकड़ लेता है, “देखना पकड़ा गया, इश्क़ में जकड़ा गया” और पुरुष स्वर अपनी प्यारी सी बेचारगी कुछ यूँ बताता है, “आँख से हटती नहीं, अरे हटती नहीं, अरे हटती नहीं…”

शुरुआत में पुरुष बोल सीख वाले, देख, संभल कर चल, वाले हैं. और जहाँ पुरुष स्वर के बोलों के भाव भटकने लगते हैं, ठीक वहीं पुरुष स्वर धीरे-धीरे ये ओढ़ी हुई गम्भीरता छोड़ता है.

बिना तेरे रातें, अरे रातें, क्यों लम्बी लगती हैं,
कभी तेरा गुस्सा, तेरी बातें, क्यों अच्छी लगती हैं.

“ये ढलते कोयले, अरे कोयले, अब रखना मुश्किल है…” और अंत में इन बोलों के साथ वो भी उसी नदी की धारा में बह जाता है जिसे स्त्री रूपा हवाओं की सनसनाहट, अनुराधा का रगड़ खाता हुआ आलाप और रेखा का स्त्री स्वर इस गीत के शुरु में अपने साथ लेकर आए थे.

ओशियंस में गुलज़ार और विशाल की जुगलबन्दी

kuch aur nazmeinओशियंस में गुलज़ार और विशाल भारद्वाज साथ थे. बात तो ’कमीने’ पर होनी थी लेकिन शुरुआत में कुछ बातें संगीत को लेकर भी हुईं. बातों से सब समझ आता है इसलिए हर बात के साथ उसे कहने वाले का नाम जोड़ना ज़रूरी नहीं लगता. सम्बोधन से ही सब साफ़ हो जाता है. वहीं गुलज़ार ने यह भी बताया कि अब पंचम के बाद उनके साथ सबसे ज़्यादा गीत बनाने वाले विशाल ही हैं. इन गीतों में ’छोड़ आये हम वो गलियाँ का नॉस्टेल्जिया भी शामिल है और ’जंगल जंगल बात चली है’ का बचपना भी. “धम धम धड़म धड़ैया रे” की गगन गुंजाती ललकार भी और ’एश्ट्रे’ की नश्वरता और मृत्युबोध भी. ’रात के ढाई बजे की उत्सवप्रिय निडरता से ’कश लगा’ की ’घर फूँक, तमाशा देख’ प्रवृत्ति भी. यह जोड़ी मिलकर मेरी नज़र में पिछले दशक के कुछ सबसे यादगार गीतों के लिए ज़िम्मेदार है. कुछ झलकियाँ पेश हैं.

  • गुलज़ार साहब की एक किताब है “कुछ और नज़्में”. एक दौर था जब मुझे इस किताब की सारी नज़्में ज़बानी याद हुआ करती थीं और आप बीच में कहीं से भी कोई लाइन बोल दें और मैं आगे की पूरी नज़्म सुना दिया करता था. मेरे पिता बार-बार मेरे सामने गुलज़ार साहब की आलोचना करते थे. बाद में मुझे समझ आया कि इस तरह वो मुझे छेड़ा करते थे. मैं मुम्बई आया ही यह सोचकर था कि बस गुलज़ार साहब के साथ एक बार काम कर पाऊँ और मेरा करियर पूरा हो जाएगा.

  • विशाल के साथ मेरे शुरुआती काम “चड्डी पहन के फूल खिला है” की बहुत तारीफ़ हुई है. उसके लिए भी मुझे तब बहुत-कुछ सुनना पड़ा था. कहा गया कि गाने में ये ’चड्डी’ शब्द का इस्तेमाल कुछ ठीक नहीं. यहाँ तक सलाह दी गई कि इस चड्डी को बदल कर ’लुंगी’ कर लीजिए! मैंने वो करने से इनकार कर दिया. अरे भई मोगली की एक इमेज है और उसके हिसाब से ही गाना लिखा गया है. उस वक़्त जया जी चिल्ड्रंस फ़िल्म सोसायटी की अध्यक्ष हुआ करती थीं. आखिर उनके अस्तक्षेप से वो गाना आगे बढ़ा.

  • उस दौर में ही हमने साथ एक एनीमेशन “टॉम एंड जैरी” के लिये भी गाने किए थे. उसका एक गाना बहुत ख़ास है. हमारे यहाँ माँ के लिए तो बहुत गाने लिखे गए लेकिन पापा के लिए गाने ढूँढे से भी नहीं मिलते. गुलज़ार साहब के लिखे उस गाने के बोल शायद कुछ यूँ थे, “पापा आओ मैं तुम्हारे पास हूँ, पापा आओ मैं बहुत उदास हूँ. लाल कॉपी में तुम्हारी हिदायतें, नीली कॉपी में मेरी शिकायतें. पापा आओ और हिसाब दो.”

  • विशाल मेरे गाने ख़ारिज भी कर देते हैं. कुछ जम नहीं रहा, कुछ और, कुछ और कह कहकर. और ये अपने गाने भी ख़ारिज करते रहते हैं. बोरी भर नहीं तो कम से कम तकिया भर गाने तो मेरे इनके यहाँ पड़े मिल ही जायेंगे!
  • मुझे सेलेब्रेशन के गाने बनाने में बहुत दिक्कत होती है. उस वक़्त भी हुई थी और आज भी होती है. शायद मेरी तबियत ही उदास है तो उदास गाने ही बनते हैं! (चप्पा चप्पा का संदर्भ आने पर विशाल ने कहा)
  • अभी तीन-चार दिन से ’इश्किया’ के लिए एक ऐसे ही मूड का गाना बनाने की कोशिश में लगा था लेकिन कुछ बनता ही नहीं था. फिर गुलज़ार साहब ने कहा, “तुम हिट गाना बनाने की कोशिश करोगे तो नहीं बनेगा. लेकिन तुम गाना बनाने की कोशिश करोगे तो बन जाएगा.”
  • चप्पा चप्पा के दौरान तो यह बार-बार हुआ कि मैं डमी लिरिक्स देता था और विशाल उन्हें ही लिरिक्स में बदल देता था. ’चप्पा चप्पा’ गीत में ऐसे ही आया. मैंने कहा कि गाने की शुरुआत तो कुछ ऐसी होनी चाहिए जैसे ’चप्पा चप्पा चरखा चले’ और विशाल ने कहा कि बस आप तो यही दे दीजिए. यूँ ही मेरा कहा “गोरी, चटख़ोरी जो कटोरी से खिलाती थी” इसने गीत के बोल में बदल दिया.