in Literature

साल सदियों पुराना पक्का घर है

साल,
दिखता नहीं पर पक्का घर है
हवा में झूलता रहता है
तारीखों पर पाँव रख के
घड़ी पे घूमता रहता है

बारह महीने और छह मौसम हैं
आना जाना रहता है
एक ही कुर्सी है घर में
एक उठता है इक बैठता है

जनवरी फ़रवरी बचपन ही से
भाई बहन से लगते हैं
ठण्ड बहुत लगती है उन को
कपड़े गर्म पहनते हैं

जनवरी का कद ऊँचा है कुछ
फरवरी थोड़ी दबती है,
जनवरी बात करे तो मुँह से
धुएँ की रेल निकलती है

मार्च मगर बाहर सोता है
घबराता है बँगले में
दिन भर छींकता रहता है
रातें कटती हैं नज़ले में

लेकिन ये अप्रैल मई तो
बाग में क्या कुछ करते हैं
आम और जामुन, शलजम, गोभी
फल क्या, फूल भी चरते हैं

मख्यियाँ भिन भिन करती हैं और
मच्छर भी बढ़ जाते हैं
जुगनू पूँछ पे बत्ती लेकर
पेड़ों पे चढ़ जाते हैं

जून बड़ा वहमी है लेकिन
गर्ज सुने घबराता है
घर के बीचों बीच खड़ा
सब को आवाज़ लगाता है

रेन-कोट और छतरी ले लो
बादल आया, बारिश होगी
भीगना मत गन्दे पानी में
खुजली होगी, खारिश होगी

दोस्त जुलाई लड़का है पर
लड़कियों जैसा लगता है
गुल मोहर की छतरी लेकर
ठुमक ठुमक कर चलता है

और अगस्त, बड़ा बद-मस्त है
छत पे चढ़ के गाता है
भीगता रहता है बारिश में
झरने खोल नहाता है

पीला अम्बर पहन सितम्बर
पूरा साधू लगता है,
रंग बिरंगे उड़ते पत्ते
पतझड़, जादू लगता है

गुस्से वाला है अक्टूबर
घुन्ना है गुर्राता है
कहता कुछ है, करता कुछ है
पत्ते नोच… गिराता है

और नवम्बर, पंखा लेकर
सर्द हवाएँ छोड़ता है
रूठे मौसम मनवाता है
टूटे पत्ते जोड़ता है

बड़ा बुज़ुर्ग दिसम्बर आखिर
बर्फ़ सफ़ेद – लिबास में आए
सब के तोहफ़े पीठ पे लेकर,
-सांताक्लॉज़- को साथ में लाए

बारह महीनों बाद हमेशा
घर पोशाक बदलता है
नम्बर प्लेट – बदल जाती है
साल नया जब लगता है

-गुलज़ार. साभार  ’चकमक’ से

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“पंद्रह पांच पिच्चतर “से अभी बाहर निकला नहीं हुआ हूँ……

बहुत सुन्दर, वर्ष भर की अपनी कहानी है।