’आश्विट्ज़ के बाद कविता संभव नहीं है.’ – थियोडोर अडोर्नो.
जर्मन दार्शनिक थियोडोर अडोर्नो ने द्वितीय विश्व युद्ध के बाद इन शब्दों में अपने समय के त्रास को अभिव्यक्ति दी थी. जिस मासूमियत को लव, सेक्स और धोखा की उस पहली कहानी में राहुल और श्रुति की मौत के साथ हमने खो दिया है, क्या उस मासूमियत की वापसी संभव है ? क्या उस एक ग्राफ़िकल दृश्य के साथ, ’जाति’ से जुड़े किसी भी संदर्भ को बहुत दशक पहले अपनी स्वेच्छा से त्याग चुके हिन्दी के ’भाववादी प्रेम सिनेमा’ का अंत हो गया है ? क्या अब हम अपनी फ़िल्मों में बिना सरनेम वाले ’हाई-कास्ट-हिन्दू-मेल’ नायक ’राहुल’ को एक ’अच्छे-अंत-वाली-प्रेम-कहानी’ की नायिका के साथ उसी नादानी और लापरवाही से स्वीकार कर पायेंगे ? क्या हमारी फ़िल्में उतनी भोली और भली बनी रह पायेंगी जितना वे आम तौर पर होती हैं ? LSD की पहली कहानी हिन्दी सिनेमा में एक घटना है. मेरे जीवनकाल में घटी सबसे महत्वपूर्ण घटना. इसके बाद मेरी दुनिया अब वैसी नहीं रह गई है जैसी वो पहले थी. कुछ है जो श्रुति और राहुल की कहानी ने बदल दिया है, हमेशा के लिए.
LSD के साथ आपकी सबसे बड़ी लड़ाई यही है कि उसे आप ’सिनेमा’ कैसे मानें ? देखने के बाद सिनेमा हाल से बाहर निकलते बहुत ज़रूरी है कि बाहर उजाला बाकी हो. सिनेमा हाल के गुप्प अंधेरे के बाद (जहां आपके साथ बैठे गिनती के लोग वैसे भी आपके सिनेमा देखने के अनुभव को और ज़्यादा अपरिचित और अजीब बना रहे हैं) बाहर निकल कर भी अगर अंधेरा ही मिले तो उस विचार से लड़ाई और मुश्किल हो जाती है. मैंने डॉक्यूमेंट्री फ़िल्में देखते हुए कई बार ऐसा अनुभव किया है, शायद राकेश शर्मा की बनाई ’फ़ाइनल सल्यूशन’. लेकिन किसी हिन्दुस्तानी मुख्यधारा की फ़िल्म के साथ तो कभी नहीं. और सिर्फ़ इस एक विचार को सिद्ध करने के लिए दिबाकर हिन्दी सिनेमा का सबसे बड़ा ’रिस्क’ लेते हैं. तक़रीबन चालीस साल पहले ऋषिकेश मुख़र्जी ने अमिताभ को यह समझाते हुए ’गुड्डी’ से अलग किया था कि अगर धर्मेन्द्र के सामने उस ’आम लड़के’ के रोल में तुम जैसा जाना-पहचाना चेहरा (’आनंद’ के बाद अमिताभ को हर तरफ़ ’बाबू मोशाय’ कहकर पुकारा जाने लगा था.) होगा तो फ़िल्म का मर्म हाथ से निकल जायेगा. दिबाकर इससे दो कदम आगे बढ़कर अपनी इस गिनती से तीसरी फ़िल्म में एक ऐसी दुनिया रचते हैं जिसके नायक – नायिका लगता है फ़िल्म की कहानियों ने खुद मौहल्ले में निकलकर चुन लिये हैं. पहली बार मैं किसी आम सिनेमा प्रेमी द्वारा की गई फ़िल्म की समीक्षा में ऐसा लिखा पढ़ता हूँ कि ’देखो वो बैठा फ़िल्म का हीरो, अगली सीट पर अपने दोस्तों के साथ’ और इसी वजह से उन कहानियों को नकारना और मुश्किल हो जाता है.
पहले दिन से ही यह स्पष्ट है कि LSD अगली ’खोसला का घोंसला’ नहीं होने वाली है. यह ’डार्लिंग ऑफ़ द क्राउड’ नहीं है. ’खोसला का घोंसला’ आपका कैथार्सिस करती है, लोकप्रिय होती है. लेकिन LSD ब्रेख़्तियन थियेटर है जहाँ गोली मारने वाला नाटक में न होकर दर्शकों का हिस्सा है, आपके बीच मौजूद है. मैं पहले भी यह बात कर चुका हूँ कि हमारा लेखन (ख़ासकर भारतीय अंग्रेज़ी लेखन) जिस तरह ’फ़िक्शन’ – ’नॉन-फ़िक्शन’ के दायरे तोड़ रहा है वह उसका सबसे चमत्कारिक रूप है. ऐसी कहानी जो ’कहानी’ होने की सीमाएं बेधकर हक़ीकत के दायरे में घुस आए उसका असर मेरे ऊपर गहरा है. इसीलिए मुझे अरुंधति भाती हैं, इसिलिये पीयुष मिश्रा पसंद आते हैं. उदय प्रकाश की कहानियाँ मैं ढूंढ-ढूंढकर पढ़ता हूँ. खुद मेरे ’नॉन-फ़िक्शन’ लेखन में कथातत्व की सतत मौजूदगी इस रुझान का संकेत है. दिबाकर वही चमत्कार सिनेमा में ले आए हैं. इसलिए उनका असर गहरा हुआ है. उनकी कहानी सोने नहीं देती, परेशान करती है. जानते हुए भी कि हक़ीकत का चेहरा ऐसा ही वीभत्स है, मैं चाहता हूँ कि सिनेमा – ’सिनेमा’ बना रहे. मेरी इस छोटी सी ’सिनेमाई दुनिया’ की मासूमियत बची रहे. ‘हम’ चाहते हैं कि हमारी इस छोटी सी ’सिनेमाई दुनिया’ की मासूमियत बची रहे. हम LSD को नकारना चाहते हैं, ख़ारिज करना चाहते हैं. चाहते हैं कि उसे किसी संदूक में बंद कर दूर समन्दर में फ़ैंक दिया जाए. उसकी उपस्थिति हमसे सवाल करेगी, हमारा जीना मुहाल करेगी, हमेशा हमें परेशान करती रहेगी.
LSD पर बात करते हुए आलोचक उसकी तुलना ’सत्या’, ’दिल चाहता है’, और ’ब्लैक फ़्राइडे’ से कर रहे हैं. बेशक यह उतनी ही बड़ी घटना है हिन्दी सिनेमा के इतिहास में जितनी ’सत्या’ या ’दिल चाहता है’ थीं. ’माइलस्टोन’ पोस्ट नाइंटीज़ हिन्दी सिनेमा के इतिहास में. उन फ़िल्मों की तरह यह कहानी कहने का एक नया शास्त्र भी अपने साथ लेकर आई है. लेकिन मैं स्पष्ट हूँ इस बारे में कि यह इन पूर्ववर्ती फ़िल्मों की तरह अपने पीछे कोई परिवार नहीं बनाने वाली. इस प्रयोगशील कैमरा तकनीक का ज़रूर उपयोग होगा आगे लेकिन इसका कथ्य, इसका कथ्य ’अद्वितीय’ है हिन्दी सिनेमा में. और रहेगा. यह कहानी फिर नहीं कही जा सकती. इस मायने में LSD अभिशप्त है अपनी तरह की अकेली फ़िल्म होकर रह जाने के लिए. शायद ’ओम दर-ब-दर’ की तरह. क्लासिक लेकिन अकेली.
देरी से देखा तुम्हारा जवाब। यह उम्मीद रहती है कि नया, फ्रेश सोच/ढंग से लिखा हुआ मिलेगा। वह तुम्हारे लिखे से ही आई है।
आखिरी बात (3) ये है कि हम अक्सर जब किसी चीज़ पर फिदा होते हैं तो उसे बड़ा बाताते हुए बाकी पूरे दृश्य के बारे में
सामान्यीकरण कर लेते हैं। बड़े काम ऊपर से नहीं टपकते, किसी सिलसिले में होते हैं।
मेल में कुछ और भी पूछा था, उसका क्या?
@ Pankaj.
ठीक कह रहे हो. अभी कल एक दोस्त से बात में पता चला कि कई सिनेमा की गहरी समझ रखने वाले दोस्त भी इस तरह के रियक्शंस देते पाए गए हैं. मैं नहीं मानता कि उन्हें (या किसी को भी) फ़िल्म समझ नहीं आई. यह अस्वीकार है. और मैं यह बात पहले भी कह चुका हूँ और यहाँ फिर कह रहा हूँ कि दिबाकर हमारे दौर के सबसे ईमानदार रचनाकारों में से हैं.
@ Giriraj.
आपने पढ़ा और इतना ध्यान दिया यही बहुत अच्छा है. मतलब इतना बुरा तो नहीं लिखता हाँ कुछ बातें हैं जिनमें कुछ जोड़ा जा सकता है.
1. सबजेक्टिव होने में मुझे कोई परेशानी नहीं, शायद रोमांटिक कहलाए जाने में भी. हाँ यह ज़रूर है कि मेरा लिखा हमेशा एक ही तरह से रियक्ट करता है इससे मैं असहमत हूँ. ऐसा लगने का एक कारण यह हो सकता है कि आमतौर पर हम जैसे ’मरज़ी के मालिक’ लिखने वाले लोग तभी लिखते हैं जब कोई चीज़ पसन्द आती है. मैं इन दिनों गुस्सा होकर कम ही लिखता हूँ, दबा जाता हूँ उसे. शायद ’दुनियादारी’ सीख गया हूँ. और मैं अपना अनुभव बाँटने की ज़्यादा कोशिश करता हूँ. हाँ मेरे लिखे ऐसे पीस भी हैं जहाँ मैं जिसपर लिख रहा हूँ वह मेरी पसन्द नहीं है. उनमें आप यह बात नहीं पायेंगे. और अब ऐसा भी नहीं है गिरिराज भाई कि सब जगह फ़ैसीनेशन और awe ही है, कुछ वैरायटी तो विषय बदलने के साथ आती ही है दृष्टि में.
2. अब फिर यही बात की जाए तो बात यहाँ तक जाएगी कि क्योंकि हर अनुभव अपने आप में अनोखा है इसलिए किसी भी अनुभव की किसी और अनुभव से तुलना संभव नहीं, उसका संदर्भ देना तक नहीं. (मैंने तुलना नहीं की है यहाँ भी) वैसे एक बात बताऊँ, मैं गूगल ट्रान्सलेट खोल कर बैठा हूँ आपका लिखा समझने के लिए. वो आपके लिखे एक शब्द का अर्थ ’नुमाइशबाज़ी’ बता रहा है. अब ऐसा तो क्या लिख दिया मैंने गिरिराज भाई. हाँ कभी-कभी प्रेम में पड़ जाता हूँ, जिस पर लिख रहा होता हूँ उस कथावस्तु के. लेकिन अपनी ’दृष्टि’ तो नहीं छोड़ता कभी, गलत बात तो नहीं ही कहता.
3. आपने ठीक ही कहा फ़िक्शन और नॉन-फ़िक्शन के बारे में. हमें तो वैसे भी ’मिलावट’ पसन्द है. और मैंने कब कहा कि यह कोई नई या पहली बार हुई बात है. मैं बस एक रेफ़रेंस दे रहा था उस तरह के प्रयोगों का. बेशक आपके पास ज़्यादा मूल और प्रामाणिक स्रोत हैं इस बारे में भी. अच्छा है आपने उन्हें यहाँ लिख दिया. अब दोस्त और ज़्यादा ठीक से समझ पायेंगे मेरी बात.
4. बात ज़्यादा कुछ समझ नहीं आई इसलिए कुछ लिखूँगा भी नहीं. बस इतना कि पहले से किसी उम्मीद के साथ मेरा लिखा मत पढ़िए. पढ़कर फिर कोई उम्मीद बनाइए.
Read 2.1 as follows:
The breaking of the boundary between fiction and nonfiction is not that new an ‘event’. Kundera’s theory and practice of polyphonic novel is 30-40 year old and as he says it dates back to Musil. Marquez has also done it in his later novels. In Hindi, the realistic fiction is full of such instrusions. As I see them Fiction and Non Fiction are not compartments of reality, but different attitudes, and manners of composition towards reality and life and everything that we can think of and the two have never been ‘pure’ and sacrosanct.
Dear Mihir,
I have been thinking about this for some time now and finally decided to share it with you: few observations about your texts.
1. It has a certain romantic subjectivitity around it. Try nailing down the protagonist of your texts – this enigmatic, self-loving ‘main’/ ‘I’ – and you’d find that the sort of accentuated self that is projected in your texts is ‘fundamentally romantic’ (Romantic as it is in Wordsworth was a romantic poet). It is also reflected in the fact that this self is usually capable of one kind of response to the work in question: of fascination and awe. Lets not talk about the notion of being Awara as something essentially romantic…:-)
2. Kind of exhibitionism, say for example in beginning this piece with Adorno. You take Adorno’s statement on a face value and try to equate the horrific context of Adorno’s work with the impact of a story which I am sure is not comparable with Holocaust and the whole train of devastating events that took place in those dark and sad years.
2.1 The breaking of the boundary between fiction and nonfiction is not that new an ‘event’. Kundera’s theory and practice of polyphonic novel is 30-40 year old and as he says it dates back to Musil. Marquez has also done it in his later novels. In Hindi, the
3. A very commonly found tendency of treating the ‘object of study’ as singular and converting every thing else (the whole context) into a BIG OTHER. It seems ironical and unbecoming in a writing that you expect to be new and fresh.
Love,
g’raj
बात एकदम सही है.. LSD एक बहुत आनेस्ट मूवी है जिसके सारे पात्र हमारे आस पास ही है..
मै अपने तीन मित्रो के साथ मूवी देखने गया था। हम दो अपनी जगह बैठ चुके थे और तीसरे को आना था.. उसे इस मूवी के पारे मे न कोई जानकारी थी और न ही उसने पैरानार्मल एक्टिविटी के नये प्रयोग के बारे मे सुना था, बस साथ आ गया था.. वो जैसे आया. .थोडी देर तो उसे विश्वास नही हुआ कि मूवी शुरु हो चुकी है.. फ़िर बोला कहा ले आये.. फ़िर मैने उसको काफ़ी देर मूवी से ग्लूड देखा.. वो शायद अपने से ही लड रहा था.. रेज़िस्ट कर रहा था इसे मूवी मानने से…
मैने और भी जगहो पर ऐसे ही रियेक्शन्स के बारे मे सुना है… लोग सिनेमा वालो को गालिया देते नज़र आये, उन्हे लगा कि सिनेमा जो रील लाया है, वो खराब है.. और चिल्लाने लगे कि ’जला दो थियेटर को’… सुनकर बस मन खराब हो जाता है..हमारे इस समाज मे निर्मल पान्डेय जैसी शख्सियत कहा जीने वाली है..
कहानिया तो बहुत पहले से दायरे तोडती है .अलबत्ता उनकी संख्या कम थी.पर उन्हें इउसी तरह से बनाने का जोखिम अब लोग उठाने लगे है …..ओर शुक्र है डाइरेक्टर की ये नयी ब्रीड अपने आप को दोहराव से बचा रही है ….वर्ना सत्य के बाद राम गोपाल वर्मा ने अक्सर अपना दोहराव ही किया है ……’आमिर “मुस्लिम समाज ओर आतंकवादी पर बनी शानदार फिल्म थी पर वैसा हाइप नहीं पैदा कर पायी जैसा माई नेम इस खान ने किया….शायद मीडिया ओर स्टार का मिला जुला खेल भी उसका एक कारण था ……हाँ खोसला का घोसला एक मास्सेस फिल्म थी उसकी खासियत उसकी निरंतरता है …ओये लकी ओये भी कई जगह बोल्ड है …..टीन- एज के अनुभव ओर सोच के परम्परागत स्टाइल . को तोडती .आज के टीन को वैसा ही दिखाती है .जैसा वो है….पर तमाम खूबियों के बाद भी एल एस दी थोड़ी डार्क है ठीक वैसी ही जैसी “बेंडिट क्वीन ” …जिसको देखने के बाद आप अजीब सी फीलिंग लेकर हौल से लौटते है .प्रयोग के तौर पे ये डाइरेक्टर का किसी खास जगह पर रखे गए कैमरे से संवाद है ….जो टेक्नोलोजी की हमारी जिंदगी में दखल को डिफाइन करता है
@ विनीत.
मैं शायद वहीं फंस गया हूँ. उस पहली फ़िल्म के आखिरी दृश्य में. बाक़ी दो कहानियाँ भी बेहतरीन फ़िल्म का उदाहरण हैं. लेकिन वे फिर भी ’फ़िल्में’ हैं. रवीश ने लिखा है न, ’यह अ-फ़िल्म है’. उनका कहना पहली फ़िल्म के लिए ही है जैसे.
@ वरुण.
फ़िक्शन – नॉन-फ़िक्शन. यही तो ख़ास बात है. तुमने भी तो यह लिखा है अपने लेख में. याद नहीं – हमने कभी ’लाइफ़ ऑफ़ पाई’ पर बात की थी, और ’मैक्सिमम सिटी’ पर. दोनों में वो ख़ास क्षण जहाँ कहानी ’कहानी’ होने का बंधन तोड़ती है (बेशक अपनी-अपनी तरह से) और किताब ’औसत’ से एक ’बड़ी’ किताब बन जाती है हमारे लिए. और यह हमारे समय की ख़ासियत है. देखो न, शाहरुख़ ख़ान इसीलिए तमाम ख़ानों के बीच ’SRK’ है क्योंकि उसकी कहानी वो ’फ़िक्शन – नॉन-फ़िक्शन’ का दायरा तोड़ देती है. और शाहरुख़ यह बख़ूबी जानते हैं. आज भी रात के चार बजे जब मेरे कम्प्यूटर के ट्विटर बॉक्स में उनके मैसेज आने लगते हैं, कहीं भीतर ’राजू’ और ’सुनील’ जाग जाते हैं.
तुमने सब कुछ ही लिख दिया. बहुत सटीक शब्दों में. फिल्म एक बार फिर असर कर गयी दिमाग में. भूकंप के चार दिन बाद आने वाले aftershocks की तरह.
और मैं भी यही मानता हूँ कि ये अपनी तरह की इकलौती फिल्म होगी. सफल होकर भी. उसका एक कारण तो यही है कि ये फिल्म बहुत सारे grammar elements को नकारती है.
तुम्हारे रिव्यू का सबसे अच्छा point लगा fiction-nonfiction की टूटती boundaries वाला. ये बात शायद किसी और reviewer ने नहीं लिखी. बिलकुल district 9 का सा असर था.
हम बार बार नकारना chaenge इस फिल्म को ..वाकेई जीना मुहल कर दिया है इस फिल्म ने…सोचता हूँ ना सोचूं इस बारे में फिरभी नीद में भी आजाती है…कुछ उसी तरह जिन्दगी की तल्ख़ सच्चियां हैं जिनसे निजत पाने को हम सिनेमा देखने जाते हैं..अगर वाकेई में आगे LSD जसे फिल्में बनती हैं तो कह नहीं सकता की उन्हें देख सकूँगा या नहीं…क्यों की यही तो हकीकत है ये तो अपने पोदोसी की कहानी है ये तो मेरे भाई की कहानी है ये तो मेरी अपनी कहानी है जब यही देखना है तो खुद को क्यों ना देखें …..मगर नहीं खुद को नहीं देखसकते एसे,वाकेई दिबाकर सर का सिनेमां एक सच्चा आइना मगर हम इसकी सच्चाई पचा पायें वों जिगर अपने अन्दर नहीं.है ..
बाक़ी सब ठीक है आप की बात.. लेकिन जहाँ तक मुझे ख़बर मिल रही है, फ़िल्म सफल है, अच्छा बिज़नेस कर रही है और किसी भी तरह के अभिशाप से मुक्त है।
मिहिर,तुम्हारा लिखने का यही अंदाज बाकी के पढ़े के सामने खुल्ला चैलेंज देता है कि अभी रुको,कोई और लिख रहा है,रफ्तार थोड़ी धीमी है लेकिन देखना जब तक वो लिख चुका होगा,कईयों के खाने चित्त हो जाएंगे। नॉन-फिक्शन और फिक्शन के टूटने की घटना प्रोज राइटिंग की एक गया हॆबड़ी घटना है जिसकी तरफ अभी लोगों का ध्यान बहुत अधिक नहीं गया है। ऐसा एक हद तक सोचने और लिखने के बीच का बहुत अधिक रेण्डरिंग प्रोसेस न करने के कारण हुआ है जिसका अपना असर है।..
दो कहानियां अब भी रह जाती है,उम्मीद है उसके लिए इतंजार करना कामयाब होगा..