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हंसल मेहता वापस अाए हैं बड़े दिनों बाद। अपनी नई फ़िल्म ‘शाहिद’ के साथ, जिसकी तारीफें फ़िल्म समारोहों में देखनेवाले पहले दर्शकों से लगातार सुनने को मिल रही हैं। उनकी साल 2000 में बनाई फ़िल्म ‘दिल पे मत ले यार’ पर कुछ साल पहले दोस्त अविनाश के एक नए मंसूबे के लिए लिखा अालेख, पिछले दिनों मैंने ‘कथादेश’ के दोस्तों से शेयर किया। वही अाज यहाँ अापके लिए। हंसल की ‘दिल पे मत ले यार’ अाज भी मेरी पसंदीदा फ़िल्मों में शुमार है, अौर कहीं न कहीं इसकी भी अप्रत्यक्ष भूमिका रही है मुझे मेरे वर्तमान शोध तक पहुँचाने में।

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“रामसरन हमारी खोई हुई इन्नोसेंस है. वो इन्नोसेंस जो हम सबमें कहीं है लेकिन जिसे हमने कहीं छिपा दिया है क्योंकि मुझे एक बड़ा बंगला चाहिए, तुम्हें एक अच्छी सी नौकरी चाहिए. लेकिन रामसरन को इनमें से कुछ नहीं चाहिए. उसका काम सिर्फ़ इंसानियत से चल जाता है…

एंड फ़ॉर मी, दैट्स माय स्टोरी!” – महेश भट्ट, ’दिल पे मत ले यार’ में अपना ही किरदार निभाते हुए.

यह हिन्दी फ़िल्मों की ’तिरिछ’ है. बहुरूपिया शहर अपने सबसे डरावने मुखौटे को पहने. यह जौनपुर, यूपी से आए रामसरन (मनोज बाजपई), जो अपने कस्बे के बारे में पूछे जाने पर जवाब देता है, ’हिल स्टेशन नहीं है, फ्लैट है’, का सीधा साक्षात्कार है पहचानों की राजनीति में उलझे संवेदनहीन शहर से. यहाँ अख़बार की पत्रकार के लिए वो एक आवेगों से भरा रियलिटी कॉलम का मसाला है तो फ़िल्म निर्देशक के लिए एक कमाल का फ़िल्म आइडिया. यह शहर उसे सामान्य इंसान मानने से इनकार कर देता है. इस बेईमान शहर में उसकी ईमानदारी उसे अजायबघर से आए प्राणी का दर्जा दिलवाने पर तुली है. और जैसा किसी भी अजायबघर से आए प्राणी को खुले शहर के बीचों-बीच छोड़ देने पर हो सकता है, लोग उसे कोंच-कोंच कर मार डालने पर तुले हैं.

’दिल पे मत ले यार’ पर हिन्दी सिनेमा में आए ’पोस्ट-सत्या’ वाले जादुई-यथार्थवादी दौर की छाप है. ख़ासकर गीतों के फ़िल्मांकन में. वैसे बहुत से आलोचक इसकी शुरुआत रामू की ’रंगीला’ से ही मानते हैं. भाषा को लेकर भी यथार्थवादी नज़रिया ’रंगीला’ से ही सामने आने लगा था. संजय छैल और अनुराग कश्यप से होती यह संवादों की यात्रा आगे ’दिल पे मत ले यार’ तक आती है. गीतों को फ़िल्माने को लेकर रामू के नए नज़रिए का असर यहाँ भी साफ़ नज़र आता है.

हंसल मेहता हमें बताते हैं कि ’हम बनाम बे’ की यह अलगाववादी अवधारणा मुम्बई के आम जनमानस में कितने गहरे पैठ गई है. कई मायनों में यह फ़िल्म ’मनसे’ जैसी भविष्य में आने वाली अलगाववादी ताक़तों की तरफ़ इशारा करती मौन चेतावनी भी है. हंसल मेहता उस अप्रवासी कामगार रामसरन के दर्द को हमारे सामने लाते हैं जिसके लिए यह मुम्बई जीने का सिर्फ़ एक रास्ता छोड़ती है. अगर मुम्बई में जीना है तो अपने भीतर की इंसानियत को मार डालो नहीं तो यह शहर तुम्हें मार डालेगा. राजकपूर की बनाई और अपने दौर से बहुत आगे की फ़िल्म ’जागते रहो’ के अंत में तो फिर भी देवीस्वरूपा नर्गिस पानी पिलाने आती हैं. यहाँ अंत में भी कोई नहीं आता. कोई आस नहीं, कोई उम्मीद नहीं. फ़िल्म के अंत में रामसरन की मौत शायद इतना त्रासद अंत नहीं होता. अंत में शहर अपनी केंचुल छोड़ता है और अपना असल रंग दिखाता है. रामसरन इंसानियत और ईमानदारी को बचाने की आखिरी लड़ाई हार जाता है. ’दिल पे मत ले यार’ का अंत हिन्दी सिनेमा के सबसे त्रासद अंतों में से एक है. अंत में हमारे सामने दुबई जैसी किसी मायावी नगरी में बैठा रामसरन है जिसे हम अपने ही दोस्त गायतोंडे की सुपारी उठाते देखते हैं. याद आती है अग्येय की लिखी यह मारक कविता,

 

“साँप !

तुम सभ्य तो हुए नहीं,

नगर में बसना भी तुम्हें नहीं आया,

एक बात पूछूँ ( उत्तर दोगे)

तब कैसे सीखा डसना

विष कहाँ से पाया?”

 

’दिल पे मत ले यार’ में कोई नायिका नहीं है. हिन्दी सिनेमा की महानतम डार्क कॉमेडी ’जाने भी दो यारों’ की तरह यहाँ भी मुख्य किरदार के अलावा बाक़ी सभी क्रूर व्यवस्था का अंग हैं. मारक और बहरूपिये. और यह सच्चाई नायक पर धीरे-धीरे खुलती है. ’जाने भी दो यारों’ में भक्ति बर्वे थीं और यहाँ तब्बू हैं. हिन्दी सिनेमा के दो सबसे हृदयहीन महिला किरदार निभाने के लिए हिन्दी सिनेमा में आईं दो सबसे ताक़तवर अभिनेत्रियाँ.

’दिल पे मत ले यार’ को अपने कमाल के कथा-प्रसंगों के लिए याद किया जाएगा. वो प्रसंग जहाँ गायतोंडे ब्लू-फ़िल्म बनाकर कुछ पैसा कमाने की असफल कोशिश करता है या फिर वो प्रसंग जहाँ काम्या जी पहली बार रामसरन से मिलने उसके मोहल्ले में आती हैं. ये आम इंसान हैं, ऐसे आम इंसान जिन्हें इस बेमुर्रव्वत शहर ने दुर्लभ घोषित कर दिया है. ये सच्चाई, ईमानदारी और इंसानियत जैसे शब्दों को छोड़कर कहीं दूर भाग जाना चाहते हैं क्योंकि सच्चाई, ईमानदारी और इंसानियत इस शहर में जीने नहीं देते. अफ़सोस के साथ कहना पड़ता है कि यह फ़िल्म कोई सपना नहीं दिखाती. यह यह उस शहर के बारे में है जो आपके सपने को पूरे दिन के उजाले में बड़ी बेरहमी से धीरे-धीरे कुचलकर मार डालता है.

समूचे हिन्दी जनमानस में ’शहर’ और उसकी यांत्रिकता को, क्रूरता को, हृदयहीनता को लेकर रचनाकर्म की लम्बी परम्परा रही है. मैं हिन्दी कहानी संसार में उदय प्रकाश की ’तिरिछ’ और सिनेमा में हंसल मेहता की ’दिल पे मत ले यार’ को इस हृदयहीन शहर के बारे में हमारे दौर की सबसे ईमानदार अभिव्यक्तियाँ मानता हूँ. बेशक यह एकतरफ़ा अभिव्यक्तियाँ हैं लेकिन ज़रूरी हैं. रामसरन के किरदार से गुज़रते हुए उदय प्रकाश की एक और विवादास्पद कहानी ’रामसजीवन की प्रेमकथा’ भी बार-बार याद आती है.

ज्ञानरंजन अपनी पुस्तक ’कबाड़खाना’ में लिखते हैं, “हमारे साहित्यकार शहर में रहकर शहर से दूर हैं. आप किसी भी दिल्ली बसे लेखक से बात करें, मिलते ही वह सबसे पहले अपने ही नगर पर एक आघात-भरी टिप्पणी करेगा. वह हमेशा चिढ़ा हुआ रहता है. वास्तव में वह प्रवासी है, उसने नगर को कभी स्वीकार नहीं किया.” क्या हम इस आलोचना को ’दिल पे मत ले यार’ पर सीधे लागू कर सकते हैं?

जवाब छिपा है फ़िल्म के एक छोटे से प्रसंग में जो मेरे लिए इस फ़िल्म को एक बड़े फ़लक की फ़िल्म बनाता है. पत्रकार काम्या जी पहली बार रामसरन के घर उससे मिलने आई हैं. वे उससे उसके गांव के बारे में पूछती हैं. जानना चाहती हैं कि क्या रामसरन को गांव की याद नहीं आती? क्या उसका वापस लौटने का मन नहीं करता? रामसरन के जवाब बड़े सीधे और सटीक हैं. उनमें अपने गांव को लेकर कोई रूमानियत का भाव नहीं है. बताता है कि वहाँ न अस्पताल है न स्कूल है. शहरवालों के मन में ’गांव’ को लेकर जो रूमानियत का भाव है उसकी असलियत रामसरन अच्छी तरह जानता है. निर्णायक सवाल आने पर रामसरन कहता है,

“काम्या – वापस गांव जाने की इच्छा नहीं होती रामसरन?”

“रामसरन – मैडम जी अगर वापस ही जाना होता तो शहर आते ही क्यों.”

 

अपनी तमाम बुराइयों के बावजूद यह हमारे शहर की असल हकीक़त है. अब हमें इस सच्चाई को समझना चाहिए कि तमाम रामसरन अपने-अपने गांव छोड़ अब ’शहर’ आ गए हैं. और चाहे यह शहर अब उनके भीतर बाक़ी बचे इंसान के साथ किसी भी तरह का बर्ताव करे, वो अब वापस गांव नहीं जाने वाले. अब यही उनका घर है, यही उनकी दुनिया है. हमारा शहर जितनी जल्दी इस बात को समझ लेगा, उतना ही अपना भला करेगा.

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साहित्यिक पत्रिका ‘कथादेश’ के दिसंबर अंक में प्रकाशित हुअा

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