करण जौहर द्वारा निर्मित ‘धड़क’ ने बहस का नया पिटारा खोल दिया है। नागराज मंजुले की माइलस्टोन मराठी फ़िल्म ‘सैराट’ की ऑफिशियल हिंदी रीमेक। यह तो अच्छा है कि अब हिन्दी सिनेमा बाकायदा दूसरी भाषाओं की फ़िल्मों के राइट्स खरीदकर उन्हें अडॉप्ट कर रहा है, ‘प्रेरणा’ से नहीं। लेकिन ‘धड़क’ उदाहरण भी है समझने के लिए कि जब दलित अस्मिता के स्वघोष को ‘सवर्ण उत्तर भारतीय नज़र’ से दोहराने की कोशिश की जाए तो वो कितनी कृत्रिम हो जाती है।
इस ‘दलित नज़र’ को हमें समझना होगा। यही ‘दलित नज़र’ निर्देशक पा रंजीथ की तमिल फ़िल्म ‘काला’ में है। पिछले हफ़्ते ‘काला’ अमेज़न प्राइम पर तीन भाषाओं में रिलीज़ हुई और उत्तर भारतीय दर्शकों के लिए ‘काला’ देखना, अपने परिचित फॉर्मूला सिनेमा को विपरीत सिरे पर खड़े होकर देखने का अनोखा अनुभव है।
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निर्देशक पा रंजीथ की ‘काला’ ने रामकथा को उलट दिया है। रावण यहाँ नायक है और छली राम खलनायक। यह सिनेमा के पर्दे पर दलित अस्मिता का उद्घोष है, अपनी पूरी गमक के साथ। ऐसा नहीं कि हिन्दी सिनेमा ने दलित उत्पीड़न की कथाएं देखी नहीं। हमारा सत्तर और अस्सी के दशक का समांतर सिनेमा आन्दोलन सदा वंचित की कथा कहता रहा। लेकिन वो सिनेमायी भाषा मुख्यधारा सिनेमा से अलग थी, आम पब्लिक से दूर थी। तमिल सिनेमा से आयी रजनीकांत की ‘काला’ की सबसे खास बात यह है कि यहाँ पा रंजीथ अपनी बात लोकप्रिय सिनेमा की भाषा में कहते हैं। याद हो, कुछ-कुछ यही काम इससे पहले नागराज मंजुले ने बेहतरीन मराठी फ़िल्म ‘सैराट’ में किया था।
यहाँ इंद्रधनुषी रंग भी हैं और रैप भी। गीतों भरी प्रेम कहानियाँ भी हैं और अदम्य नायकीय एक्शन भी। स्लो-मो और स्पेशल इफेक्ट्स, तकनीक का प्रदर्शनकारी इस्तेमाल करते हुए फ़िल्म डिज़ाइनर फाइट सीक्वेंस रचने से लेकर एनिमेशन तक सबका इस्तेमाल करती है। सिनेमायी भाषा के लिहाज से यह फुल-फुल मसाला फ़िल्म है। संयोगों और मेलोड्रामा से भरपूर। बिम्ब वही पर अर्थ उलट, कबीर की उलटबांसियों की तरह।
यह लोकप्रिय हिन्दी सिनेमा के लिए जैसे एंटी-थीसिस है। विस्मयकारी क्लाइमैक्स में एक ओर रामायण की कथा का वाचन जारी है, वहीं धारावी झोपड़पट्टी का बहुजन महानायक काला करिकालन जैसे कथा से ऊपर उठकर उस वैचारिक युद्ध का प्रतीक बन जाता है जो आज के शहरी भारत से लेकर दण्डकारण्य के जंगलों तक जारी है। युद्ध, जो ज़मीन पर कब्जे के लिए सवर्ण राज्यसत्ता और बहुजन समाज के बीच लड़ा जा रहा है। सवर्ण कॉर्पोरेट सत्ता के लिए यह ज़मीन ताक़त है, बहुजन समाज के लिए उसकी ज़िन्दगी। रामायण में आये रावण के दस सर यहाँ बहुजन सामूहिकता के प्रतीक बन जाते हैं। एक काटोगे तो दूसरा उग आएगा।
काला कहता है, बहुजन का अन्तिम हथियार उसका शरीर है। उसकी मेहनत के बल पर ही इस शहर का चक्का रोज़ घूमता है। अन्त में, धारावी का रहनेवाला हर इंसान खुद काला है।
और भी दिलचस्प है फ़िल्म का ‘स्वच्छता’ और ‘गंदगी’ के विलोम को उसके सर के बल खड़ा कर देना, जो आज के राजनैतिक परिदृश्य में कहीं ज़्यादा मानीखेज़ है। यहाँ विलेन ‘क्लीन कंट्री’ अभियान चलानेवाला और ‘डिजिटल मुम्बई’ का सपना बेचनेवाला एक ऐसा राष्ट्रवादी राजनेता है जिसका चेहरा शहर के हर बिलबोर्ड पर चस्पां है। काला अपने से छोटों से भी आगे बढ़कर हाथ मिलाता है, बराबरी का रिश्ता कायम करता है। वो भगवा पार्टी का नेता चरण स्पर्श की गैरबराबर रूढ़ि में बंधा है। काला का स्याह रंग मेहनत का रंग है, सब पहचानों का सद्भाव है उसमें। धवलवर्णी विलेन ऐसे एकायामी भारत का कांक्षी है जिसमें हर विपक्षी को राष्ट्र की प्रगति में बाधक ‘देशद्रोही’ बताया जाता है। गौर से देखिये, उसे पहचानना ज़रा भी मुश्किल नहीं।
फ़िल्म अम्बेडकरवादी प्रतीकों और पहचानों से भरी है। भीमा चाल के पते से लेकर जय भीम के अभिवादन तक। भीमजी से लेकर लेनिन तक युवा किरदार काला के साथ खड़े नजर आते हैं। काला के छोटे बेटे ‘लेनिन’ का किरदार मुझे फ़िल्म में सबसे दिलचस्प लगा। वो फ़िल्म का युवा नायक है। दलित समाज की शिक्षित चेतनासम्पन्न नई पीढ़ी का प्रतिनिधि। और अब वो अपनी वाजिब हिस्सेदारी को संवैधानिक तरीके से हासिल करना चाहता है।
लेनिन पिता काला का वैचारिक उत्तराधिकारी है। खुद काला करिकालन दलित अस्मिता का ज़िन्दा प्रतीक है, लेकिन मरीन ड्राइव पर फिल्माए गए फ़िल्म के सबसे रोमांचक एक्शन सीक्वेंस में वो काली छतरी को हथियार बना लड़ते हुए अपनी वर्गीय पहचान भी स्पष्ट करता है। यह काली छतरी बम्बई के मजदूर वर्ग का सबसे पुख्ता सिनेमायी प्रतीक है। काला के रंग अगर स्याह और नीले हैं तो लेनिन का प्रतिनिधि रंग लाल है।
लेनिन अपनी झोपड़पट्टी की हालत को सुधारना चाहता है, उसकी किस्मत बदलना चाहता है। लेकिन सत्ता द्वारा बेचे जा रहे ‘रीडेवलपमेंट’ के प्लान की असल हकीकत नहीं समझ पाता। पर काला और उसके लोगों ने सवर्ण सत्ता के इन सुहावने पर दोगले वादों को नज़दीक से देखा, भुगता है। वो जानता है कि पचहत्तर एकड़ पर गोल्फ़ कोर्स बनवानेवाली ‘मनु बिल्डर्स’ की योजनाओं में उन जैसों के लिए कोई जगह नहीं होगी। राज्यसत्ता, और उसके द्वारा बेचे जा रहे ‘विकास’ के नारों के असलीे सवर्ण चेहरे की ठीक-ठीक पहचान में अंततः काला ही सही ठहरता है।
फ़िल्म एक ओर लेनिन को काला करिकालन के मौलिक वैचारिक उत्तराधिकारी के रूप में प्रस्तुत करती है, वहीं इस गैर-बराबर समाज में उसकी शुद्ध वाम आदर्शों पर खड़ी वर्गीय समझ की सीमाओं को भी चिह्नित कर देती है। अच्छा है कि यह फ़िल्म पुराने हिन्दी सिनेमा की ख्वाजा अहमद अब्बास से लेकर जावेद अख्तर जैसे मार्क्सवादी लेखकों द्वारा रची गयी उस एकायामी समझ से बंधी नहीं है जिसमें जाति की समस्या को क्लास प्रॉब्लम के एक बाई-प्रोडक्ट जैसे ट्रीट किया जाता रहा।
लेकिन यह वैचारिक संपन्नता हासिल किया दलित युवा ही भविष्य है। फ़िल्म के आखिर में एक कमाल के कोरियोग्राफ सीन में जहाँ धवलवर्णी विलेन पर रंगों का हमला होता है तो वो काला भी है, नीला भी और लाल भी। नीला और लाल, यही दोनों रंग उस वैचारिक चुनौती के प्रतीक हैं जिससे सवर्ण-कॉर्पोरेट सत्ता का गठजोड़ पटखनी खाएगा, और काला इनके एका का प्रतीक है। नागराज मंजुले और पा रंजीथ की फ़िल्में प्रस्थान हैं, ‘सहानुभूति’ से ‘स्वानुभूति’ की ओर। यह ‘दलित नज़र’ है, जो लोकप्रिय हिन्दी सिनेमा से अभी तक अनुपस्थित थी।
फ़िल्म महोत्सवों में सदा विचारणीय आदिम प्रश्न यह है कि आखिर पांच समांतर परदों पर रोज़ दिन में पांच की रफ़्तार से चलती दो सौ से ज़्यादा फ़िल्मों में ’कौनसी फ़िल्म देखनी है’ यह तय करने का फ़ॉर्म्यूला आख़िर क्या हो? अनदेखी फ़िल्मों के बारे में देखने और चुनाव करने से पहले अधिक जानकारी जुटाना एक समझदारी भरा उपाय लगता है लेकिन व्यावहारिकता में देखो तो इसमें काफ़ी पेंच हैं. जैसे आमतौर पर अमेरिकी और यूरोपीय मुख्यधारा से इतर सिनेमा के बारे में जानकारियाँ हम तक पहली दुनिया के चश्मे से छनकर आती हैं. इन जानकारियों पर अति-निर्भरता नज़रिया सीमित कर सकती है. फ़ेस्टिवल कैटेलॉग पर भी ज़्यादा भरोसा नहीं किया जा सकता, कई बार तो यही दस्तावेज़ सबसे भ्रामक साबित होता है. इन्हें तैयार करने वाले बहुधा ऐसे प्रशिक्षु सिनेमा विद्यार्थी होते हैं जिन्होंने खुद भी इनमें से कम ही फ़िल्में देखी हैं.
बड़े नामों या निर्देशकों के पीछे अपना पैसा लगाने वाले हमेशा उस खूबसूरत सिनेमा अनुभव को खो बैठते हैं जिसकी सुंदरता अभी वृहत्तर सिने-समाज द्वारा रेखांकित की जानी बाक़ी है. और फिर प्रतिष्ठित सिनेमा महोत्सव में, जहाँ सिनेमा का स्तर इस क़दर ऊँचा हो कि हर देखी फ़िल्म के साथ समांतर चलती और हाथ से छूटने वाली फ़िल्मों के लिए अफ़सोस गहराता ही चला जाए, किसी फ़िल्म का ’प्लॉट’ भर जान लेना आख़िर कहाँ पहुँचाएगा?
सबसे ऊपर और सबसे महत्वपूर्ण यह कि एक अनजाने से देश से आई किसी नई फ़िल्म को देखने से जुड़ा वो अनछुआ अहसास इन तमाम जानकारियों की भीड़ में कुचल जाता है. हमारे नज़रिए का कोरापन पहले ही नष्ट हो चुका होता है और सिनेमा अपना इत्र खो देता है. सूचना विस्फोट के इस अराजक समय में बिना किसी पूर्व निर्मित कठोर छवि के एक नई, कोरी फ़िल्म को देखने का विकल्प तो जैसे हमसे छीन ही लिया गया है.
हमारे दोस्त वरुण ग्रोवर इस मान्य विचार को चुनौती देने का प्रण करते हैं. वो अपनी बनते किसी फ़िल्म के बारे में कोई पूर्व जानकारी हासिल नहीं करते और उनके synopsis तो भूलकर भी नहीं पढ़ते. कुछ भरोसेमंद दोस्तों की सलाह पर हम किसी अनदेखी फ़िल्म के लिए थिएटर में घुस जाते हैं. और तभी हाल में अंधेरा होने से ठीक पहले परदे के सामने एक कमउमर लड़का आता है और पहले अपने सिनेमा अध्ययन करवाने वाले संस्थान का नाम ऊंचे स्वर में बताकर बतौर परिचय फ़िल्म की कहानी सुनाने लगता है. मैं वरुण की ओर देखता हूँ. वरुण अपने कानों में उंगलियाँ दिए बैठे हैं और माइक पर आती उसकी बुलन्द आवाज़ को अनसुना करने की भरसक, लेकिन असफ़ल कोशिश कर रहे हैं. मेरे सामने फिर एक बार यह साबित होता है कि इस सूचना विस्फोट के युग में जहाँ अनचाही सूचना का अथाह समन्दर सामने हिलोरें मारता है, हमारे भविष्यों में सिर्फ़ डूबना ही बदा है.
भागते हुए सिनेमा हाल के गलियारों में पहुँचे और हम सीधे धकेल दिए जाते हैं बेला टार के विज़ुअल मास्टरपीस ’द तुरिन हॉर्स’ के सामने. सिर्फ़ विज़ुअल, क्योंकि परदे पर आवाज़ तो है लेकिन सबटाइटल्स गायब हैं. लेकिन बिना शब्दों का ठीक-ठीक अर्थ जाने भी यह अनुभव विस्मयकारी है. एक तक़रीबन घटना विरल कथा में परदा श्वेत-श्याम दृश्य गढ़ रहा है. मैं देखने लगता हूँ. अन्दर तक भर जाता हूँ, साँस फूलने लगती है, लेकिन दृश्य में ’कट’ नहीं होता. धीरे-धीरे इन फ्रेम दर फ्रेम चलते अनन्त के साधक, सघन दृश्यों के ज़रिए वह सारा वातावरण और उसकी सारी ऊब, थकान मेरे भीतर भरती जाती है. मैंने अपने सम्पूर्ण जीवन में सिनेमा के उस विशाल परदे पर ऐसा विस्मयकारी कुछ होता कम ही देखा है.
लेकिन ठीक वहीं, हमें अभिभूत अवस्था में छोड़ फ़िल्म दोबारा न शुरु होने के लिए रोक दी जाती है. वादा किया जाता है रात का, लेकिन रात आती है उसी फ़िल्म के किसी घटिया डीवीडी प्रिंट के साथ. मैं पहले पन्द्रह मिनट की फ़िल्म देखकर उठ जाता हूँ. वह सुबह का उजला अनुभव अब भी मेरे पास है, मैं उसे यूं मैला नहीं होने दे सकता.
यह हमारे वक़्तों का सिनेमा है. एक कस्बा है और उसके केन्द्र में उसकी तमाम अर्थव्यवस्था का सूत्र संचालक एक संयंत्र है. एक संयंत्र जो मंदी की ताज़ा मार में घायल है और अपनी अंतिम सांसे गिन रहा है. यह उस संयंत्र की तालेबन्दी के बाद के कुछ निरुद्देश्य असंगत दिनों की कथा है. लेकिन यहाँ एक पेंच है. यहाँ कथा जिस व्यक्ति के द्वारा कही जाती है वह एक बुढ़ाता कार सेल्समैन है जिन्हें बीते खुशहाल सालों में अपने काम में सर्वश्रेष्ठ होने के कई तमगे मिले हैं. लेकिन आज कस्बे में मरघट सा सन्नाटा है और संयंत्र बंद होने के बाद अब उससे जुड़ी तमाम उम्मीदें भी धीरे-धीरे कर दम तोड़ रही हैं. संकट यह है कि सेल्समैन को आज भी अपना काम करना है. सच-झूठ कैसे भी हो, उस शोरूम में खड़ी नई-नवेली कार का सौदा पटाना है.
मुझे सीन पेन की क्लासिक फ़िल्म ’दि असैसिनेशन ऑफ़ रिचर्ड निक्सन’ याद आती है. यह एक ऐसी पूंजीवादी व्यवस्था के बारे में बयान है जिसमें इंसान का दोगलापन उसका तमगा और उसकी ईमानदारी उसके करियर के लिए बाधा समान है. यहाँ इंसान को आगे बढ़ने के लिए पहले अपने भीतर की इंसानियत को मारना पड़ता है. व्यवस्था बदली नहीं है, बस हुआ यह है कि इस वैश्विक महामंदी ने इस व्यवस्था के दोगले मुखौटे को उतार दिया है. अगर आप सुनने की चाहत रखते हों तो इस फ़िल्म के मंदीमय बर्फ़ीले सन्नाटे में भविष्य में होनेवाले ’ऑक्यूपाई वॉल स्ट्रीट’ की आहटें सुन सकते हैं.
Michael Markus Schleinzer, Austria, 2011.
पहले ही बता दिया गया था कि यह फ़िल्म इस समारोह की बहुप्रतिक्षित ’डार्क हॉर्स’ है. निर्देशक मार्कस तोप जर्मन निर्देशक माइकल हेनेके के लम्बे समय तक कास्टिंग डाइरेक्टर रहे हैं और ’दि व्हाइट रिबन’ के लिए तमाम बच्चों की चमत्कारिक लगती कास्टिंग उन्हीं का करिश्मा थी. ’माइकल’ का प्लॉट विध्वंसक है. यह फ़िल्म घर के तहखाने में कैद किए एक बच्चे और उसके यौन शोषक नियंता की दैनंदिन जीवनी को किसी रिसर्च जर्नल की तरह निरपेक्ष भाव से दर्ज करती अंत तक चली जाती है.
’माइकल’ का चमत्कार उसकी निर्लिप्त भाव कहन में है. फ़िल्म कहीं भी निर्णय नहीं देती. कहीं भी फ़ैसला सुनाने की मुद्रा में नहीं आती और यथार्थ को इस हद तक निचोड़ देती है कि परिस्थिति का ठंडापन भीतर भर जाता है. असहज करती है, लेकिन किसी ग्राफ़िकल दृश्य से नहीं, बल्कि अपने कथानक के ठंडेपन से. घुटन महसूस करता हूँ, मेरा अचानक बीच में खड़े होकर चिल्लाने का मन करता है. कहीं यह हेनेके की शैली का ही विस्तार है. ’माइकल’ एक सामान्य आदमी है. नौकरीपेशा, छुट्टियों में दोस्तों के साथ हिल-स्टेशन घूमने का शौकीन, त्योंहार मनाने वाला. दरअसल उसका ’सामान्य’ होना ही सबसे बड़ा झटका है, क्योंकि हम ऐसे अपराधियों की कल्पना किसी विक्षिप्त मनुष्य के रूप में करने के आदी हो गए हैं. निर्देशक मार्कस उसे यह सामान्य चेहरा देकर जैसे हमारे बीच खड़ा कर देते हैं. सच है, यह यथार्थ है. और यह भयभीत करता है.
Toast J S Clarkson, UK, 2011.
ब्रिटिश फ़िल्म ’टोस्ट’ की शुरुआत मुझे रादुँगा प्रकाशन, मास्को से आई हमारे घर के बच्चों की खानदानी किताब ’पापा जब बच्चे थे’ की किसी कहानी की याद दिलाती है. लेकिन अंत में नीति कथा बन जाती उन स्वभाव से उद्दंड रूसी बाल-कथाओं से उलट ’टोस्ट’ सदा उस बच्चे के नज़रिए से कही गई कथा ही बनी रहती है. इसे देखते हुए लगातार विक्रमादित्य मोटवाने की ’उड़ान’ याद आती है और मैंने इसे कुछ सोचकर ’फ़ीलगुड’ उड़ान का नाम दिया. कहानी में कायदा सिखाने वाले, बाहर से सख़्त, भीतर से नर्म पिता हैं. ममता की प्रतिमूर्ति साए सी माँ हैं, और हमारा कथानायक आठ-दस साल का नाइज़ेल है. और सबसे महत्वपूर्ण यह कि रोज़ नाइज़ेल के सामने घर का डब्बाबंद खाना है जिसे अधूरा छोड़ वह असली, लजीज़ पकवानों के ख्वाब देखा करता है.
आगे कहानी में माँ की मौत से लेकर सौतेली माँ तक के तमाम ट्विस्ट हैं. स्त्रियों का वही परम्परा से चला आया स्टीरियोटाइप चित्रण है जो खड़ूस सौतेली माँ की भूमिका में हेलेना कार्टर की अद्भुत अदाकारी की वजह से और उभरकर सामने आता है. ’टोस्ट’ कथा धारा के परम्परागत ढांचे को तोड़ती नहीं है. लेकिन उसे एक मुकम्मल कथा की तरह ज़रूर कहती है. हाँ, बचपन में नाइज़ेल के उस दोस्त का किरदार कमाल का है जो उसे हमेशा ज्ञान देता रहता है. सच कहूँ, यह भी एक स्टीरियोटाइप ही है लेकिन ऐसा जिसका सच्चाई से सीधा वास्ता है. मुझे अपने बचपन का साथी दीपू याद आता है जो मुझसे एक साल सीनियर हुआ करता था और मुझे हर आनेवाली क्लास के साथ अगली क्लास की अभेद्य चुनौतियों के बारे में बताया करता था. यहाँ भी उसका दोस्त वक़्त-बेवक़्त ’नॉर्मल फ़ैमिलीज़ आर टोटली ओवररेटेड’ जैसे वेद-वाक्य सुनाता चलता है. कथा का अंत फिर इसे ’उड़ान’ से कहीं गहरे जोड़ता जाता है.
यह वो महत्वाकांक्षी हॉलीवुड थ्रिलर है जिसके लिए स्क्रीन के बाहर लम्बी लाइनें लगीं और संभवत: जिस फ़िल्म की गूंज आप आनेवाले ऑस्कर पुरस्कारों में सुनेंगे. सत्ता है, हत्या है, महत्वाकांक्षाएं हैं, फ़रेब है, ऊपर दिखती खूबसूरती है, बदनुमा अतीत है. लेकिन जॉर्ज क्लूनी निर्देशित ’द आइड्स ऑफ़ मार्च’ की जान फ़िल्म के नायक रेयान गॉसलिंग हैं. पता हो, यह लड़का पिछले साल ’ब्लू वेलेंटाइन’ जैसी घातक रूप से अच्छी फ़िल्म दे चुका है. जॉर्ज क्लूनी और मेरे पसन्दीदा फ़िलिप सिमोर हॉफ़मैन जैसे खेले-खाए अदाकारों के सामने इस तीस साल के लड़के की धमक सुनने लायक है. अमेरिकी राष्ट्रपति चुनावों से ठीक पहले डेमोक्रेटिक उम्मीदवार के चुनाव के लिए मतदान के दौरान की इस कथा में हमारे समय के हालिया वर्तमान से निकले अनेक स्वर सुनाई देते हैं. किसी पर्फ़ेक्ट राजनैतिक थ्रिलर की तरह कथा आपको बांधे रखती है और जहाँ होना चाहिए वहाँ मोहभंग भी होता है, लेकिन परेशानी यही है कि फ़िल्म जहाँ बनती है ठीक वहीं ख़त्म हो जाती है.
इस बीच दोस्तों की चर्चाओं में लौट-लौटकर ’माइकल’ आती रही. एक दोस्त ने कहा कि वह अपराधी का मानवीकरण है. मुझे याद आया कि ’सत्या’ के बाद उसे भी स्थापित करते हुए आलोचकों ने यही कहा था कि यहाँ पहली बार एक ’डॉन’ का मानवीकरण होता है, उसके भी बीवी-बच्चे हैं. वो दोस्त की शादी की बरात में नाचता है. वो भी चाहता है कि उसकी बच्ची स्कूल में अंग्रेज़ी पोएम सीखे. तो क्या ’माइकल’ भी ’सत्या’ की तरह अपराधी का मानवीकरण करती है? यह भी एक नज़रिया है जिससे मैं असहमत हूँ. उसकी निर्पेक्षता मेरे भीतर और ज़्यादा सिहरन भर देती है. यह अहसास कि एक भयानक अपराधी भी कितने ही मामलों में ठीक हमारे जैसा है, उसके और हमारे बीच की दूरी एकदम कम कर देता है. और सच्चाई यह है कि इस दूरी के मिटने से ज़्यादा डरावना किसी भी ’सभ्य समाज’ के नागरिक के लिए कुछ और नहीं हो सकता.
Tabloid Errol Morris, USA, 2010.
यह संयोग ही था कि हम एरॉल मोरिस की डॉक्यूमेंट्री फ़िल्म ’टैबलॉयड’ देखने घुसे. और यह फ़िल्म तुरंत इस साल देखे गए कुछ दुर्लभ वृत्तचित्रों की लम्बी होती लिस्ट में शामिल हो गई. बहुत की रोचक अंदाज़ और आर्ट डिज़ाइन के साथ बनाई गई इस फ़िल्म की असल तारीफ़ इस बात में छिपी है कि निर्देशक ने कैसे मामूली से दिखते एक ’अखबारी कांड’ में इस गैर-मामूली फ़िल्म को देखा और बनाया. कैसे किसी की व्यक्तिगत ज़िन्दगी को मौका आने पर पीत-पत्रकारिता सरेराह उछालती है और खुद ही न्यायाधीश बन फ़ैसले करती है. और ब्रिटेन के टैबलॉयड जर्नलिज़्म को समझने के लिए यह फ़िल्म दस्तावेज़ सरीख़ी है. इसके तीस साल पुराने घटनाचक्र में आप आज बन्द हुए ’न्यूज़ ऑफ़ द वर्ल्ड’ की तमाम कारिस्तानियाँ सुन सकते हैं.
17 Girls Muriel Coulin and Delphine Coulin, France, 2011.
ये कुछ ऐसा था जैसे सत्रह लड़कियाँ आकर हमारे समाज से अपना शरीर, उस पर उनका अपना हक़ हमसे वापस मांगे. दोनों निर्देशक बहनों ने फ़िल्म से पहले आकर बताया था कि यह घटना भले ही कहीं और घटी और उन्होंने इसका ज़िक्र उड़ता हुआ अखबार के किसी पिछले पन्ने पर पढ़ा था, लेकिन कहानियाँ वे अपने घर, अपने कस्बे की ही सुनाती हैं. कैसे खुद उनके लड़कपन उन सीखों से भरे हुए थे जो लड़कियों को हमारे इन ’सभ्य’ समाजों में विरासत में मिलती हैं और कैसे वे नया जानने की, कुछ कर गुज़रने की बेचैनी से भरी थीं.
मेरी राय में ’17 गर्ल्स’ के कथाकेन्द्र में मौजूद ’गर्भधारण’ सिर्फ़ एक कथायुक्ति भर है. इसकी जगह कोई और युक्ति भी होती, अगर इतनी ही कारगर तो भी यह कथा संभव थी. क्योंकि यह मातृत्व के बारे में नहीं है. न ही यह सेक्स लिबरेशन जैसे किसी विचार के बारे में है. दरअसल यह कथा सामूहिकता के बारे में है. उस युवता के बारे में है जो जब साथ होती है तो दुनिया बदलने की बातों वाले किस्से अच्छे लगते हैं, सच्चे लगते हैं. आकाश के सितारे कुछ और पास लगते हैं. हमउमर साथ खड़े होते हैं, बाहें फ़ैलाते हैं और एक दूसरे को अपनी बाहों में समेट लेते हैं. बस, फिर किसी और पीढ़ी की, उनकी सीखों की, उनकी समझदारियों की ज़रूरत नहीं रहती. अजीब लगेगा, लेकिन इस फ़िल्म को देखते हुए मुझे भगतसिंह और उनके साथी याद आते हैं. उनकी तरुणाई और उनके अदम्य स्वप्न याद आते हैं. आज यह ’व्यक्तिगत ही राजनैतिक’ है वाला ज़माना है और इन लड़कियों की आँखों में भी मुझे वही सुनहले सपने दिखाई देते हैं.
दर्जन से ज़्यादा किशोरवय लड़कियों का सामुहिक गर्भधारण का यह फ़ैसला उनके घरवालों को, स्कूल को हिला देता है. उनके लिए इसे समझ पाना मुश्किल है. वाजिब है, उन्हें ’नैतिकता’ खतरे में दिखाई देती है. लेकिन उन लड़कियों के लिए यह मृत्यु ज्यों शान्ति से भरे उस कस्बे के ठंडे पानी में एक पत्थर मारने सरीख़ा है. यह उन तमाम परम्पराओं का अस्वीकार है जिन्हें हमारे स्कूलों में बड़े होते नागरिकों पर एक अलिखित ’नैतिक शिक्षा’ के नाम पर थोपा जाता है. एक पिता के झिड़ककर कहने पर कि “तुम्हें क्या लगता है तुम दुनिया बदल सकती हो?” उसकी बेटी जवाब में कहती है, “कम से कम हम कोशिश तो कर ही सकती हैं.”
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साहित्यिक पत्रिका ’कथादेश’ के दिसम्बर अंक में प्रकाशित
“नेहरूवियन सपना तब बुझ चुका था और राजनैतिक नेताओं की जमात राक्षसों में बदल चुकी थी. हर आदमी भ्रष्ट था और हमारा शहर अब उन्हीं भ्रष्ट राजनेताओं और अफ़सरानों के कब्ज़े में था. भू-माफ़ियाओं के साथ मिलकर उन्होंने पूरी व्यवस्था को एक कूड़ेदान में बदल दिया था. और इन्हीं सब के बीच दो फ़ोटोग्राफ़र दोस्त अपनी ज़िन्दगी के लिए संघर्ष कर रहे थे. लेकिन इस भ्रष्ट दुनिया में न तो उन्हें प्यार मिला और न ही अपनी नैतिकता बचाने की जगह ही मिली. कुंदन शाह की दुनिया में ’प्यासा’ का शायर और नाचनेवाली, और खुद उनके दो युवा फोटोग्राफ़र, सभी गर्त में हैं. सभी की किस्मत में अंधे कुएं में ढकेला जाना लिखा है और हम इस त्रासदी को देख हंसते हैं.” – सुधीर मिश्रा. ’नो पोट्स इन दि रिपब्लिक’. आउटलुक, 21 मई 2007.
ब्लॉग-जगत में सिनेमाई बहसबाज़ियों में शामिल रहे दोस्तों के लिए जय अर्जुन सिंह का नाम नया नहीं है. उनका ब्लॉग ‘Jabberwock’ बड़ी तेज़ी से आर्काइवल महत्व की चीज़ होता जा रहा है. उनके लेखन में नयापन है, उनके संदर्भ हमारी पीढ़ी की साझा स्मृतियों से आते हैं और सिनेमा पर होती किसी भी बात में यह संदर्भ सदा शामिल रहते हैं. कुंदन शाह की फ़िल्म ’जाने भी दो यारों’ पर हाल में आई उनकी किताब भी सिनेमा अध्ययन के क्षेत्र में एक महत्वपूर्ण हस्तक्षेप है. किताब अपने साथ फ़िल्म से जुड़े अनगिन अनजाने किस्से लाती है. ऐसे किस्से जिन्हें इस फ़िल्म के कई घनघोर प्रंशसक भी कम ही जानते हैं. यहाँ एक चूहे की लाश के लिए भर गर्मी में दौड़ा दिए गए जवान पवन मल्होत्रा हैं तो भरी बंदूक से पेड़ पर लटके आमों का शिकार करते ’डिस्को किलर’ अनुपम खेर. यहाँ ऐसे तमाम किस्से हैं जिन्हें फ़िल्म का ’फ़ाइनल कट’ देखने भर से नहीं जाना जा सकता. लेकिन साथ ही किताब उस मूल सोच पर गहराई से रौशनी डालती है जिससे ’जाने भी दो यारों’ जैसी फ़िल्म पैदा हुई. उस निर्देशक के बारे में जिसके लिए आज भी मार्क्सवाद एक प्रासंगिक विचार है.
किताब के अंत में लेखक जय अर्जुन सिंह एक जायज़ सवाल पूछते हैं, कि हमारे पिछले पच्चीस साला सिनेमा में कोई ’जाने भी दो यारों’ दुबारा क्यों नहीं हुई? एक बड़े फ़लक पर यह सवाल हमसे यह भी पूछता है कि फ़ूहड़ हास्य से भरे जा रहे हमारे हिन्दी सिनेमा में स्तरीय राजनैतिक व्यंग्य और व्यवस्था पर कटाक्ष करती फ़िल्मों के लिए जगह क्यों नहीं बन पाई? बड़ी तलाश के बाद एक पंकज आडवानी मिलते हैं जिनकी फ़िल्मों में उस दमकते हुए पागलपन की झलक मिलती है और कई सालों बाद दास्तान कहने वालों की टोली एक ’पीपली लाइव’ लेकर आती है. लेकिन इनके बीच लम्बा अकाल पसरा है. ’राडिया-टेप’ दस्तावेजों के सार्वजनिक होने के बाद आज हमारा वर्तमान जिन बहस-मुबाहिसों में घिरा है, ’जाने भी दो यारों’ सबसे प्रासंगिक फ़िल्म लगती है. यही हमारा वर्तमान है, जिसे परदे पर देख हम लोट-पोट हो रहे हैं, ठहाके लगा रहे हैं.
मैं अपने दोस्त वरुण ग्रोवर के सामने यही सवाल रखता हूँ. वरुण पेशेवर व्यंग्य लेखक हैं और टेलिविज़न पर रणवीर शौरी, विनय पाठक, शेखर सुमन जैसे कलाकारों के लिए स्टैंड-अप कॉमेडी लिख चुके हैं. वरुण का साफ़ कहना है कि स्तरीय राजनैतिक व्यंग्य के लिए ज़रूरी है कि वह ’एंटी-एस्टेब्लिशमेंट’ हो. और हिन्दी सिनेमा के लिए ’एंटी-एस्टेब्लिशमेंट’ होना कभी भी चाहा गया रास्ता नहीं रहा. वरुण इस सिद्धांत को अन्य मीडिया माध्यमों पर भी लागू करते हैं और उनका मानना है कि हमारे टेलिविज़न पर भी खासकर राजनैतिक और व्यवस्थागत मसलों पर व्यंग्य लिखते हुए ज़्यादा आगे जाने की गुंजाइश नहीं मिलती. इंटरनेट पर अपनी बात कहने की फिर भी थोड़ी आज़ादी है और इसीलिए हम अपने दौर का कुछ सबसे स्तरीय व्यंग्य ट्विटर और फ़ेसबुक पर ’फ़ेकिंग न्यूज़’, ’जी खंबा’ और ’जय हिंद’ जैसी साइट्स और ट्विटर हैंडल के माध्यम से पाते हैं. इस संदर्भ में जय अर्जुन भी कुंदन शाह का वो पुराना साक्षात्कार उद्धृत करते हैं जहाँ उन्होंने कहा था कि मैं ईमानदारी में विश्वास रखता हूँ. मेरे किरदार भ्रष्ट होने का विकल्प चुनने के बजाए मर जाना पसन्द करेंगे. जय अर्जुन कहीं न कहीं खुद कुंदन में भी यही प्रवृत्ति देखते हैं और इस ईमानदारी के साथ, गलाकाट प्रतिस्पर्धा वाले सिनेमा जगत में कुंदन फिर कभी वो नहीं बना पाते जो उन्होंने चाहा होगा.
एक और वजह है जो मैं दूसरी ’जाने भी दो यारों’ न होने के पीछे देख पाता हूँ. और यह बात सिर्फ़ सिनेमा तक सीमित नहीं, एक बड़े कैनवास पर यह व्यंग्य की पूरी विधा के सामने खड़े संकट की बात है. एक ख़ास दौर में आकर हमारी रोज़मर्रा की हक़ीकत का चेहरा ही इतना विकृत हो जाता है कि व्यंग्य के लिए कुछ नया कहने की गुंजाइश ही नहीं बचती. हमारा वर्तमान ऐसा ही एक दौर है. साथी व्यंग्यकारों ने पिछले कुछ सालों में यह बार-बार अनुभव किया है कि उनका व्यंग्य में लिखा हुआ कटाक्ष उनके ही सामने सच्चाई बन मुँह बाए खड़ा है. आज ’जाने भी दो यारों’ जैसी व्यंग्य फ़िल्म संभव नहीं, क्योंकि यह आज की नंगी सच्चाई है.
लेकिन क्या यह पूरा सच है कि हिन्दी सिनेमा में ’जाने भी दो यारों’ जैसी फ़िल्म का कोई वारिस नहीं हुआ? अगर मैं इस सवाल को थोड़ा बदल दूँ, जानना चाहूँ कि ’जाने भी दो यारों’ में आया शहर क्या हिन्दी सिनेमा में लौटकर आता है? कहीं दुबारा दिखाई देता है? तो क्या तब भी जवाब नकारात्मक ही होगा? ’जाने भी दो यारों’ को ’डार्क कॉमेडी’ कहा गया. सच है कि उसके बाद ’कॉमेडी’ किसी और ही दिशा में गई, लेकिन जो बदरंग स्याह इस फ़िल्म ने हमारे सिनेमाई शहर के चेहरे पर रंगा है उसका असर दूर तक और गहरे दिखाई देता है. फ़िल्म के असिस्टेंट डाइरेक्टर रहे सुधीर मिश्रा जय अर्जुन से आपसी बातचीत में इस ओर इशारा करते हैं. खुद उनकी फ़िल्मों को ही लीजिए. ’ये वो मंज़िल तो नहीं’, ’इस रात की सुबह नहीं’, ’हज़ारों ख्वाहिशें ऐसी’, ’चमेली’ जैसी फ़िल्में. भले इन फ़िल्मों का चेहरा-मोहरा ’जाने भी दो यारों’ से न मिलता हो, इनका स्वाद तो वही है.
पिछले साल सिनेमा में बदलती शहर की संरचना को पढ़ते हुए मेरी नज़र दो फ़िल्मों पर बार-बार ठहरती है. ’जाने भी दो यारों’ से कुछ ही साल की दूरी पर, यह अस्सी के उत्तरार्ध में आई दो सबसे आईकॉनिक फ़िल्में हैं — ’परिंदा’ और ’तेज़ाब’. रंजनी मजूमदार और मदन गोपाल सिंह जैसे आलोचकों ने इन्हें अपने अध्ययनों में रेखांकित किया है. ’तेज़ाब’ में आया शहर साक्षात खलनायक है और उसने नायक महेश देशमुख को उचक्के ’मुन्ना’ में बदल तड़ीपार कर दिया है. ’परिंदा’ में भी शहर एक नकारात्मक विचार है. दोनों ही फ़िल्मों में शहर का असल किरदार रात में उभरता है. यह ’रात का शहर’ है जिसमें अवैध सत्ता ही असल सत्ता है. उसके तमाम कुरूप खेलों के आगे ईमानदारी आत्महत्या सरीखी है. यह मासूमियत की मौत है.
क्या यह शहर वही नहीं? यह संयोग नहीं कि ’जाने भी दो यारों’ का ज़्यादातर महत्वपूर्ण घटनाक्रम रात में घटता है. चाहे वह डिमैलो के बंगले पर अवैध सौदेबाज़ी हो चाहे आधी रात ’अंतोनियोनी पार्क’ में लाश की तलाश. चाहे वह पुल के नीचे कथानायकों पर चला हवलदार का डंडा हो चाहे लाश के साथ आहूजा की लम्बी बातचीत. यह अवैध सत्ता के वैध सत्ता हो जाने का शहर है, यह ’रात का शहर’ है. और सबसे महत्वपूर्ण, ’जाने भी दो यारों’ के उस अविस्मरणीय दृश्य को हम कैसे भूल सकते हैं जहाँ मरीन ड्राइव की किसी निर्माणाधीन बहुमंज़िला इमारत की सबसे ऊपरी मंज़िल पर खड़े कमिश्नर डिमैलो, और उनसे बांद्रा के कब्रिस्तान पर बनने वाली ऊँची इमारत की सौदेबाज़ी करते तरनेजा और उसके गुर्गे सामने से आती डूबते सूरज की रौशनी में स्याह परछाइयों में बदल जाते हैं. जैसे उनके ’काले कारनामों’ को फ़िल्म एक और चाक्षुक अर्थ दे रही हो. मज़ेदार बात जय अर्जुन अपनी किताब में बताते हैं कि उस दृश्य में किरदारों का स्याह परछाइयों की तरह दिखाया जाना पहले से तय नहीं था, यह फ़िल्मांकन के वक़्त रौशनी कम होने के चलते कुंदन द्वारा मज़बूरन किया गया एक प्रयोग था. लेकिन यह संयोग से बना दृश्य वनराज भाटिया के बैकग्राउंड स्कोर से मिलकर जैसे फ़िल्म का प्रतिनिधि दृश्य बन जाता है. जब रंजनी मजूमदार ’परिंदा’ में आए शहर के बारे में लिखती हैं,
“यहाँ सभी छवियाँ अंधेरों से निकलती हैं और परछाइयाँ किरदारों के रूप गढ़ती हैं. शायद ही आप कहीं रंगों का चटख़ इस्तेमाल देखें. यहाँ रात को लेकर एक अजीब सा आकर्षण है. जैसा सार्त्र ने आधुनिक जीवन के बारे में कहा है की यह ऐसे रास्ते, दरवाज़े और सीढ़ियाँ हैं जो कहीं नहीं पहुंचतीं. ऐसे विशाल चिह्न जिनका कोई अर्थ नहीं. परिंदा का शहर अंधेरा, भीड़ भरा और निर्मम है.”
तो मुझे रह-रहकर ’जाने भी दो यारों’ का वो अद्भुत संयोग से बना, स्याह परछाइयों के जाम से जाम टकराने वाला दृश्य याद आता है.
जब दिबाकर के गढ़े ’लक्की सिंह’ को हमारा नागर समाज अपने भीतर से बार-बार बेइज़्ज़्त कर बेदखल करता है, मुझे ’जाने भी दो यारों’ का बेमुरव्वत शहर याद आता है. जब अनुराग के रचे आधुनिक महाकाव्य ’ब्लैक फ्राइडे’ में उम्मीद की आखिरी किरण भी हाथ से छूटती दिखाई देती है, मुझे ’जाने भी दो यारों’ का बहरूपिया शहर याद आता है. ’शिवा’, ’सत्या’ और ’कम्पनी’, मुझे राम गोपाल वर्मा की शुरुआती फ़िल्मों की तपिश में ’जाने भी दो यारों’ का रात में जागता शहर याद आता है. जहाँ से मैंने शुरुआत की वो सुधीर मिश्रा के उस लेख का अंतिम अंश है जिसे उन्होंने हिन्दुतान में बने राजनैतिक सिनेमा पर बात करते हुए लिखा था. और यह संयोग नहीं है कि जिस लेख का अंत ’जाने भी दो यारों’ के ज़िक्र से होता है उसकी शुरुआत गुरुदत्त की ’प्यासा’ से होती है. ’प्यासा’ जिससे हिन्दी सिनेमा में आए ’एंटी-एस्टेब्लिशमेंट’ के विचार से ज़ुड़ी किसी भी बहस की शुरुआत होती है. यह दरअसल एक ही समाज है, एक ही ’राष्ट्र-राज्य’ जो अपना रंग बदलता रहा है. कभी वो ’लोक कल्याणकारी राज्य’ का चोला ओढ़े था और कभी वो खुलेआम बाज़ार का ताबेदार है. एक ऐसा नागर समाज जिसमें से हर वो ’अन्य’ बहिष्कृत है जो मान्य व्यवस्था की खिलाफ़त करता है. चाहे वे ’प्यासा’ का शायर और नाचनेवाली हो, चाहे ’जाने भी दो यारों’ के ईमानदार फ़ोटोग्राफ़र.
पीयूष मिश्रा से मेरी मुलाकात भी अनुराग कश्यप की वजह से हुई. पृथ्वी थियेटर पर अनुराग निर्मित पहला नाटक ‘स्केलेटन वुमन’ था और पीयूष वहीं बाहर दिख गए. मैंने थोड़ा जोश में आकर पूछ लिया कि आपका इंटरव्यू कर सकता हूँ एक हिंदी ब्लॉग के लिए – साहित्य, राजनीति और संगीत पर बातें होंगी. उन्होंने ज़्यादा सोचे बिना कहा – परसों आ जाओ, यहीं, मानव (कौल) का प्ले है, उससे पहले मिल लो. बातचीत बहुत लंबी नहीं हुई पर पीयूष जितना तेज़ बोलते हैं, उस हिसाब से बहुत छोटी भी नहीं रही. उनके गीतों का रेस्टलेसनेस उनके लहज़े में भी दिखा और उनके लफ्ज़ों में भी. ये तो नहीं कहा जा सकता कि वो पूरे इंटरव्यू में ‘पॉलिटिकली करेक्ट’ रहे पर कुछ जगहों पर कोशिश ज़रूर नज़र आई. पर बातचीत का अंतिम चरण आते आते उन्होंने खुद को बह जाने दिया और थियेटर-वाले पाले से भी बात की, जबकि बाकी के ज़्यादातर सवालों में वो यही यकीन दिलाते दिखे कि अब पाला बदल चुका है.
लिखित इंटरव्यू में वीडियो रिकार्डेड बातचीत के ज़रूरी सवालों का जोड़ है, पर पूरा सुनना हो तो वीडियो ही देखें. पृथ्वी थियेटर की बाकी टेबलों पर चल रही बहस और बगल में पाव-भाजी बनाते भाई साब की बदौलत कुछ जगहों पर आवाज़ साफ नहीं है. ऐसे ‘गुम’ हो गए शब्दों का अंदाज़न एवज दे दिया है, या खाली डॉट्स लगा दिए हैं. मैं थोड़ा नरवस था, और कुछ जगहों पर शायद सवालों को सही माप में पूछ भी नहीं पाया, पर शुक्रिया पीयूष भाई का कि उन्होंने भाव भी समझा और विस्तार में जवाब भी दिया.
समाँ बहुत बाँध लिया, अब लीजिए इंटरव्यू:- ~वरुण ग्रोवर
वरुण~ आपका अब भी लेफ्ट विचारधारा से जुड़ाव है?
पीयूष~(लेफ्टिस्ट होने का मतलब ये नहीं कि) परिवार के लिए कम्प्लीटली गैर-ज़िम्मेदार हो जाओ.
लेफ्ट बहुत अच्छा है एक उमर तक… उसके बाद में लेफ्ट आपको… या तो आप लेफ्टिस्ट हो जाओ… लेफ्टिस्ट वाली पार्टी में मिल जाओ… तब आप बहुत सुखी… (तब) लेफ्ट आपके जीवन का ज़रिया बन सकता है.
और अगर आप लेफ्ट आइडियॉलजी के मारे हो… तो प्रॉब्लम यह है कि आप देखिए कि आप किसका भला कर रहे हो? सोसाइटी का भला नहीं कर सकते, एक हद से आगे. सोसाइटी को हमारी ज़रूरत नहीं है. कभी भी नहीं थी. आज मैं पीछे मुड़ के देखता हूँ तो लगता है कि (लेफ्ट के शुरुआती दिनों में भी) ज़िंदा रहने के लिए, फ्रेश बने रहने के लिए, एक्टिव रहने के लिए (ही) किया था तब… बोलते तब भी थे की ज़माने के लिए सोसाइटी के लिए किया है.
वरुण~ तो अब पॉलिटिक्स से आपका उतना लेना देना नहीं है?
पीयूष~ पॉलिटिक्स से लेना देना मेरा… तब भी अंडरस्टैंडिंग इतनी ही थी. मैं एक आम आदमी हूँ, एक पॉलिटिकल कॉमेंटेटर नहीं हूँ कि आज (…..) आई विल बी ए फूल टू से दैट आई नो सम थिंग! पहले भी यही था… हाँ लेकिन यह था कि जागरूक थे. एज़ पीयूष मिश्रा, एज़ अन आर्टिस्ट उतना ही कल था जितना कि आज हूँ. (अचानक से जोड़ते हैं) पॉलिटिक्स है तो गुलाल में!
वरुण~ हाँ लेकिन जो लोग ‘एक्ट वन’ को जानते हैं, उनका भी यह कहना है कि ‘एक्ट वन’ में जितना उग्र-वामपंथ निकल के सामने आता था, ‘एक्ट वन’ की एक फिलॉसफी रहती थी कि थियेटर और पॉलिटिक्स अलग नहीं हैं, दोनों एक ही चीज़ का ज़रिया हैं.
पीयूष~ ठीक है, वो ‘एक्ट वन’ हो गया. ‘एक्ट वन’ ने बहुत कुछ सिखाया. ‘एक्ट वन’ (की) ‘सो कॉल्ड’ उग्र-वामपंथी पॉलिसी ने बहुत कुछ दिया है मुझको. (लेकिन) उससे मन का चैन चला गया. ‘एक्ट वन’ ने (जीना) सिखाया… ‘एक्ट वन’ की जो ‘सो-कॉल्ड’ उग्र-वामपंथी पॉलिटिक्स है, यह, मेरा ऐसा मानना है की इनमें से अधिकतर लोग जो हैं तले के नीचे मखमल के गद्दे लगाकर पैदा होते हैं. वही लोग जो हैं वामपंथ में बहुत आगे बढ़ते हैं. अदरवाइज़ कोई, कभी कभार, कुछ नशे के दौर में आ गया. (कोई) मारा गया सिवान में! अब सिवान कहाँ पर है, लोगों से पूछ रहे हैं…सफ़दर हाशमी मारा जाता है, तहलका मच जाता है, ट्रस्ट बन जाते हैं, ना मालूम कौन कौन, (जो) जानता नहीं है सफ़दर को, वो जुड़ जाता है और वहाँ पर मंडी हाउस में… फोटो छप रहे हैं, यह है, वो है… सहमत! चंद्रशेखर को याद करने के लिए पहले तो नक़्शे में सिवान को देखना पड़ेगा, है कहाँ सिवान? कौन सा सिवान? कैसा सिवान? कौन सा चंद्रशेखर? सफ़दर के नाम से जुड़ने के लिए ऐसे लोग आ जाते हैं जो जानते नहीं थे सफ़दर को… सफ़दर का काम, सफ़दर का काम… क्या है सफदर का काम? मैं उनकी (सफ़दर की) इन्सल्ट नहीं कर रहा… ऐसे ऐसे काम कर के गए हैं की कुछ कहने की… खामोशी की मौत मरे हैं. मैं खामोशी की मौत नहीं मरना चाहता! थियेटर वाले की जवानी बहुत खूबसूरत हो सकती है, थियेटर वाले का बुढ़ापा, हिन्दुस्तान में कम से कम, मैं नहीं समझता कि कोई अच्छी संभावना है.
अधिकतर लोग सीनाइल (सठिया) हो जाते हैं. अचीवमेंट के तौर पर क्या? कुछ तारीखें, कुछ बहुत बढ़िया इश्यूस भी आ गये… कर तो लिया यार… अब कब तक जाओगे चाटोगे उसको? चार साल पहले जब मैं दिल्ली जाया करता था तो मेरा मोह छूटता नहीं था, मैं जाया करता था वहाँ पर जहाँ मैं रिहर्सल करता था… शक्ति स्कूल या विवेकानंद. ज़िंदगी बदल गई यार, दैट टाइम इज़ गॉन! अच्छा टाइम था, बहुत कुछ सिखाया है, बहुत कुछ दिया है, इस तरह मोह नहीं पालना चाहिए.
वरुण~ एन. के. शर्मा जी अभी भी वहीं हैं, उनके साथ के लोग एक-एक कर के यहाँ आते रहे, मनोज बाजपाई, दीपक डोबरियाल… उनका क्या व्यू है, थियेटर से निकलकर आप लोग सिनिमा में आ रहे हैं?
पीयूष~ एन. के. शर्मा जी का व्यू अब आप एन. के. शर्मा से ही पूछो. उनका ना तो मैं स्पोक्स मैन हूँ… उनसे ही पूछो!
वरुण~ बॉम्बे में एक ऑरा है उनको लेकर… वो लोगों (एक्टर्स) को बनाते हैं.
पीयूष~ टॉक टू हिम… टॉक टू हिम!
वरुण~ आप खुद को पहले कवि मानते हैं या एक्टर?
पीयूष~ ऐसा कुछ नहीं है.
वरुण~ बॉम्बे में आप खुद को आउट-साइडर मानते हैं?
पीयूष~ कैसे मानूँगा? मेरी जगह है यह. मेरा बच्चा यहाँ पैदा हुआ है. कैसे मानूँगा मैं? (इसके अलावा भी काफी कुछ कहा था इस बारे में, वीडियो में सुन सकते हैं.)
वरुण~ लेकिन आउटसाइडर इन द सेन्स, मैं प्रोफेशनली आउटसाइडर की बात कर रहा हूँ. जिसमें थियेटर वालों को हमेशा थोड़ा सा सौतेला व्यवहार दिया जाता है यहाँ पर.
पीयूष~ नहीं नहीं. उल्टा है भाई! थियेटर वालों को बल्कि…
वरुण~ स्टार सिस्टम ने कभी थियेटर वालों को वो इज़्ज़त नहीं दी…
पीयूष~ हाँ… स्टार सिस्टम अलग बात है. स्टार सिस्टम की जो ज़रूरत है वो… थियेटर वालों को मालूम ही नहीं कि बुनियादी ढाँचा कैसे होता है. मैं तो बड़ा सोचता था कि खूबसूरत बंदे थियेटर पैदा क्यूँ नहीं कर पाया. मैं समझ ही नहीं पाया आज तक! थियेटर वाले होते हैं, मेरे जैसी शकल सूरत होती है उनकी टेढ़ी-मेढ़ी सी.
लेकिन ऐसा कुछ नहीं है… आज… नसीर हैं, ओम पुरी हैं… पंकज कपूर… दे आर रेकग्नाइज़्ड, अनुपम खेर हैं…
वरुण~ नहीं वह बात है कि उनको इज़्ज़त ज़रूर मिलती है लेकिन उनको इज़्ज़त दे कर पेडेस्टल पे रख दिया जाता है लेकिन उससे आगे बढ़ने की कभी भी शायद…
पीयूष~ आगे बढ़ने की सबकी अपनी अपनी क़ाबिलियत है. और जितना आगे बढ़ना था, जितना सोच के नहीं आए थे उससे आगे बढ़े ये लोग. पैसे से लेकर नाम तक. इससे बेहतर क्या लोगे आप.
वरुण~ पुराने दिनों के बारे में, ख़ास कर के ‘एन ईवनिंग विद पीयूष मिश्रा’ होता था…
पीयूष~ तीन प्लेज़ थे एक-एक घंटे के. पहला ’दूसरी दुनिया’ था निर्मल वर्मा साब का, दूसरा ’वॉटेवर हैपंड टू बेट्टी लेमन’ (अरनॉल्ड वास्कर का), तीसरा विजयदान देथा का ‘दुविधा’. तब पैसे नहीं थे, प्लेटफॉर्म था नहीं… आउट ऑफ रेस्टलेसनेस किया था. वह फॉर्म बन गया भई की नया फॉर्म बनाया है. फॉर्म-वार्म कुछ नहीं था. ‘एक्ट वन’ मैंने जब छोड़ा था ’95 में, ऑलमोस्ट मुझे लगा था की मैं ख़तम हो गया. ‘एक्ट वन’ वाज़ मोर लाइक ए फैमिली. और वहाँ से निकलने के बाद यह नई चीज़ आई.
वरुण~ (असली सवाल पर आते हुए) मेरे लिए ज़्यादा फैसिनेटिंग यह था कि उसकी ब्रान्डिंग, सेलिंग पॉइंट था आपका नाम. 1996 में दिल्ली में आपके नाम से प्ले चल रहा था, कहानियों के नाम से या लेखक के नाम से या नाटक के नाम से नहीं, आपके नाम से परफॉर्मेन्स हो रही थी. बॉम्बे ने अब जा कर रेकग्नाइज़ किया है…
पीयूष~ ‘झूम बराबर झूम’ में काम किया, वो चल नहीं पाई. ‘मक़बूल’ में काम किया, उसका ज़्यादा श्रेय पंकज कपूर और इरफ़ान को मिला… वो भी अच्छे एक्टर हैं… पर पता नहीं कुछ कारणों से, ‘मक़बूल’ में बहुत तारीफ़ के बावजूद रेकग्निशन नहीं मिला. ‘आजा नच ले’ में काम किया, उसका लास्ट का ओपेरा लिखा… ऐसा हुआ कि बस यह फिल्म (गुलाल) बड़ी ब्लेसिंग बन कर आई मुझ पर. जितना काम था, सब एक साथ निकालो. लोग रेस्पेक्ट करते थे… जानते थे भाई यह हैं पीयूष मिश्रा. लेकिन ऐसा कुछ हो जाएगा, यह नहीं सोचा था.
वरुण~ गुलाल की बात करें तो… उसमें यह दुनिया अगर मिल भी जाए है, बिस्मिल की नज़्म है, कुछ पुराने गानों में भी री-इंटरप्रेटेशन किया है. इस सब के बीच आप मौलिकता किसे मानते हैं?
पीयूष~ एक लाइन ली है… एक लाइन के बाद तो हमने सारा का सारा री-क्रियेट किया है. जितनी यह बातें हैं… वो आज की जेनरेशन की ज़ुबान बदल चुकी है. और आप उन्हें दोष भी नहीं दे सकते. अब नहीं है तो नहीं है, क्या करें. लेकिन उसी का सब-टेक्स्ट आज की जेनरेशन को आप कम्यूनिकेट करना चाहें, कि कहा बिस्मिल ने था… ऐसा कुछ कहा था – कम्यूनिकेशन के लिए फिर प्यूरिस्ट होने की ज़रूरत नहीं है आपको कि बहुत ऐसी बात करें कि नहीं यार जैसा लिखा गया है वैसा. और ऐसा नहीं है की उनको मीनिंग दिया गया है. नहीं – यह नई ही पोयट्री है.
वरुण~ फिर भी, मौलिकता का जो सवाल है, फिल्म इंडस्ट्री में बार बार उठता है. संगीत को लेकर, कहानियों को लेकर, उसपर आपका क्या टेक है?
पीयूष~ मालूम नहीं… इंस्पिरेशन के नाम पर यहाँ पूरा टीप देते हैं. सारा का सारा, पूरा मार लेते हैं.
वरुण~ आपके ही नाटक ‘गगन दमामा बाज्यो’ को ‘लेजेंड ऑफ भगत सिंह’ बनाया गया. वहाँ मौलिकता को लेकर दूसरी तरह का डिबेट था.
पीयूष~ वहाँ पर जो है की फिर यू हैव टू बी रियल प्रोफेशनल. बॉम्बे का प्रोफेशनल! कैसे एग्रीमेंट होता है… मुझे उस वक़्त कुछ नहीं मालूम था. उस वक़्त मैं कर लिया करता था. हाँ भाई, चलो, आपके लिए कर रहे हैं मतलब आपके लिए कर रहे हैं. वहाँ फिर धंधे का सवाल है.
वरुण~ ‘ब्लैक फ्राइडे’ के गाने भी आपके ही थे. उनको उतना रेकग्निशन नहीं मिला जितना गुलाल को मिला.
पीयूष~ हूँ… हूँ… नहीं इंडियन ओशियन का वह गाना तो बहुत हिट है. उनका करियर बेस्ट है अभी तक का गाना. (‘अरे रुक जा रे बँदे’)… लाइव कॉन्सर्ट करते हैं… उन्हीं के हिसाब से, दैट्स देयर ग्रेटेस्ट हिट! लेकिन अगर ‘ब्लैक फ्राइडे’ सुपरहिट हो जाती, मालूम पड़ता पीयूष मिश्रा ने लिखा है गाना तो… सिनेमा के चलने से बहुत बहुत फ़र्क पड़ता है. हम थियेटर वालों को थोड़ी हार मान लेनी चाहिए की सिनेमा का मुक़ाबला नहीं कर सकते. वो तब तक नहीं होगा जब तक कि यहाँ (थियेटर की) इंडस्ट्री नहीं होगी. और इंडस्ट्री यहाँ पर होने का बहुत… यह देश इतना ज़्यादा हिन्दीवादी है ना… गतिशील ही नहीं है. यहाँ पर ट्रेडीशन ने सारी गति को रोक कर रख दिया है. हिन्दी-प्रयोग! पता नहीं क्या होता है हिन्दी प्रयोग? जो पसंद आ रहा है वो करो ना. हिन्दी नाटक… भाष्य हिन्दी का होना चाहिए, अरे हिन्दी भाष्य में कोई नहीं लिख रहा है नाटक यार. कोई ले दे के एक हिन्दी का नाटक आ जाता है तो लोग-बाग पागल हो जाता है की हिन्दी का नाटक आ गया! अब उन्हें नाटक से अधिक हिन्दी का नाटक चाहिए. लैंग्वेज के प्रति इतने ज़्यादा मुग्ध हैं… मैने जितने प्लेज़ लिखे उनमें से एक हिन्दी का नहीं था, सब हिन्दुस्तानी प्लेज़ थे.
एकेडमीशियन और थियेटर करने वालों में कोई फ़र्क नहीं (रह गया) है. जितने बड़े बड़े थियेटर के नाम हैं, सब एकेडमीशियन हैं. करने वाले बंदे ही अलग हैं. करने वाले बंदों को बहुत ही हेय दृष्टि से देखा जाता है. “यह नाटक कर रहा है… लेकिन वी नो ऑल अबाउट नाट्य-शास्त्र!” अरे जाओ, पढ़ाओ बच्चों को…
वरुण~ लेकिन आपका मानना है कि बॉम्बे में थियेटर चल रहा है… दिल्ली के मुक़ाबले.
पीयूष~ दिल्ली में लुप्त हो गया है. दिल्ली में बाबू-शाही की क्रांति के तहत आया था थियेटर. (नकल उतारते हुए) “नाटक में क्या होना चाहिए – जज़्बा होना चाहिए! जज़्बा कैसा? लेफ्ट का होना चाहिए.” एक्सपेरिमेंटेशन भी पता नहीं कैसा! यहाँ पर देखो, यह अभी भी चल रहा है – मानव (कौल) ने लिखा है यह प्ले (पार्क)… प्लेराइटिंग कर रहे हैं हिन्दी में और अच्छी-खासी हिन्दी है. कितना सारा नया काम हो रहा है यहाँ पर. और कमर्शियल थियेटर क्या है? ये कमर्शियल थियेटर नहीं है क्या… डेढ़ सौ रु. का टिकट ख़रीद रहा हूँ मैं यहाँ पर, कल मेरी बीवी देख रही है दो सौ रु. के टिकट में… दो सौ में तो मैं मल्टीप्लैक्स में नहीं देखूँ… सौ से आगे की वहाँ टिकट होती है तो मैं हार मान लेता हूँ कि नहीं जाऊँगा मैं लेकिन मैं देख रहा हूँ यहाँ. और इट्स ए वंडरफुल प्ले. हिन्दी का प्ले हैं, हिन्दी भाष्य का प्ले है, और क्या चाहिये आपको?
वहाँ पर होते (दिल्ली में) तो वो हिन्दी नाट्य.. हिन्दी नाट्य… क्या होता है ये हिन्दी नाट्य? भगवान जाने… ये बुढ़ापा चरमरा गया हिन्दुस्तान का… गाली देने की इच्छा होती है.
वरुण~ फिर क्या इसमें एन.एस.डी. का दोष है?
पीयूष~ एन.एस.डी. का दोष (क्यों?)… एन.एन.डी. में तो अधिकतर बाहर के प्ले होते हैं.
वरुण~ लेकिन भारत में ऐसे दो-तीन ही तो इंस्टीट्यूट हैं जहाँ थियेटर पढ़ाया जाता है, सिखाया जाता है.
पीयूष~ वो एक अलग से लॉबी है जिनको लगता है कि हिन्दी प्लेज़ होने चाहिए. हिन्दी प्लेज़ से रेवोल्यूशन आयेगा. ये एक बहुत बड़ी एंटी-अलकाजी लॉबी है.. अलकाजी अगर नहीं होते और इसके बजाय कोई हिन्दी वाला होता वहाँ पर तो बात कुछ और ही होती (कहने वाले). उस बन्दे ने सम्भाला इतने दिनों तक, उस बन्दे ने हिन्दुस्तान के थियेटर को दिशा दी. अगर वो नहीं होता तो शांति से बैठकर प्ले कैसे लिखते हैं हमें नहीं मालूम पड़ता. हम तो चटाइयों वाले बन्दे थे. हमारी औकात वही थी और हम वही रहते… उस बन्दे ने हमें सिखाया कि खांसी आ जाए तो एक्सक्यूज़ मी कह देना चाहिये, माफ़ कीजियेगा, या बाहर चले जाओ. इतने बेवकूफ़ हैं हिन्दी भाषी और विशेषकर जो हमसे ऊपरवाली जनरेशन के हैं वो सिफ़र हैं यहाँ से (दिमाग़ की ओर इशारा). ख़ाली व्यंग्य करना आता है, टीका-टिप्पणी करना आता है… अगर ऐसा होता तो ऐसे हो जाता… ऐसा होता तो ऐसे हो जाता… जो हुआ है उस व्यक्ति को उसका श्रेय नहीं दे रहे हैं. अलकाजी साहब अगर नहीं होते तो नुकसान में थियेटर ही होता. अभी तक पारसी थियेटर ही होता रहता. सूखे-बासे नाटक होते रहते. वो नाटक के नाम पे हमको करना पड़ता. ही वाज़ दि पर्सन हू इंट्रोड्यूस्ड थियेटर इन इंडिया.
वरुण~ आजकल मीडिया की जो भाषा है, न्यूज़ में भी हिन्दी और इंग्लिश मिक्स होता है.
पीयूष~ कहाँ तक बचाओगे यार? शास्त्रीय संगीत बचा क्या आज की तारीख़ में? कहाँ तक बचाओगे आप? कब तक? शुभा मुदगल को इल्ज़ाम दे दिया कि आप कुमार गंधर्व से पढ़ी और उसके बाद आप दूसरा किस्म का म्यूज़िक… कहाँ तक बचाओगे आप? ज़माना बदल रहा है, बदलेगा. ये परिवर्तन सब बहुत ही ज़रूरी अंग हैं दुनिया का. इसको बदलने दो. ज़्यादा गाँठ बाँधकर बैठोगे तो फिर वही गाँव के गाँव-देहात में बँधकर बैठना पड़ेगा कि चौपाल के आस-पास आपके किस्से सुनते रहेंगे लोग-बाग. उसके आगे कोई आपकी बात नहीं सुनेगा.
आज का संप्रेषण अलग है, आज की भाषा अलग है. बॉम्बे को देखकर लगता है कि भाषा… बॉम्बे के, साउथ बॉम्बे के किसी लौंडे से अब आप अपेक्षा करें कि वो उर्दू समझता हो या हिन्दी समझता हो… ’यो’ वाला लौंडा है वो, ऐसे ही बड़ा हुआ है तो आप उसको इल्ज़ाम क्यों देते हैं? आप सम्भाल कर रखिये. यहाँ पर बहुत सारे लोग हैं जिन्होंने अपनी भाषा सम्भालकर रखी है… मानव कौल अभी तक हिन्दी में लिख रहा है और क्या हिन्दी है उसकी… कोई टूटी-फूटी हिन्दी नहीं है. तो किसने कहा. आप बिगड़ने देना चाहते हैं तो आपकी भाषा बिगड़ जाएगी, जिस चीज़ से आपको मोह है उसे आप सम्भालकर रखेंगे. लेकिन उसमें झंडा उठाने की ज़रूरत नहीं है कि मैं वो हूँ… कि सबको ये करना चाहिए. जिसकी जो मर्ज़ी है वो करने दो ना यार. क्यों डेविड धवन को कोसो कि आप ऐसी फ़िल्म क्यों बनाते हैं, क्यों अनुराग को… अनुराग कश्यप की पिक्चरें भी लोगों को अच्छी नहीं लगतीं. ऐसा नहीं है कि हर बन्दा ऐसी पिक्चर को पसन्द ही करेगा. लेकिन ठीक है, हर बन्दे को अपनी-अपनी गलतियों के हिसाब से जीने का हक़ है.