‘सहमत’ का इनकार आैर राष्ट्रवाद की किरचें : राज़ी

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मैं ‘राज़ी’ देखते हुए एक अजीब से प्यार से भर गया। प्यार, जो किसी बच्चे के सर पर हाथ रखकर या उसका माथा चूमकर पूरा होता है। फ़िल्म की नायिका में मुझे नायिका नहीं, अपनी बच्ची नज़र आने लगी। कुछ इसका दोष फ़िल्म की कहानी को और गुलज़ार साब की लिखी लाइनों (फसलें जो काटी जाएं… बेटियाँ जो ब्याही जाएं…) को भी जाएगा। पर मेरा मन जानता था, सिर्फ यही वजह नहीं थी।
 
मैं parent होने का अहसास क्या होता है, यह अभी तक नहीं जान पाया हूँ। पता नहीं, वो कभी होगा भी या नहीं। हमारे चयन वो नहीं हैं। जीवन हमें किसी आैर ही चक्की में पीस रहा है। घर में भी मैं सबसे छोटा रहा.. सबसे छोटा लड़का, सबसे छोटा भाई, प्रेम में भी नौसिखिया, शादी के बाद भी। 
 
लेकिन एक जगह रही जहाँ मैंने अपने भीतर parent होने के अंश को धड़कता पाया। बस वही एक जगह। वो अपनी क्लास के बच्चों को लेकर। और पिछले साल मिरांडा हाउस में पढ़ाते हुए यह भाव बहुत उमड़ता रहा। बनस्थली की ट्रेनिंग का असर रहा होगा शायद। लड़कियों का पिता होना इस दुनिया का सबसे पवित्र अहसास है। मुझे उसका अंश मिला ज़रा सा।
 
इसीलिए, जब ‘राज़ी’ में पहले ही सीन में आलिया भट्ट को मिरांडा के गलियारों में देखा, मन किसी और ही रास्ते पर ले गया मुझे। फ़िल्म के कुछ और ही मायने हो गए मेरे लिए। एक पिता का दिल वहाँ धड़क रहा था, और जैसे एक पिता का दिल यहाँ भी धड़कने लगा। ‘राज़ी’ आम से ख़ास बन गई एक ही क्षण में।
 
हम अपने जीवन में एक भी गिलहरी को उसकी लम्बी बेपरवाह ‘कूद’ में ज़रा भी मदद कर पाएं। बस यही। इतना ही।

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पचास के सुनहरे दशक का बम्बईया सिनेमा ज़रा भी बम्बईया नहीं।

यह दरअसल परदे के आगे पंजाब का सिनेमा है, आैर परदे के पीछे बंगाल का सिनेमा। आज़ादी मुल्क़ के इन दोनों सबसे समृद्ध प्रांतों के लिए बंटवारा लायी थी, आैर इन्हीं प्रांतों से आए ‘जड़ों से उजड़े’ लोगों ने बम्बईया सिनेमा को बनाया। हमें हमारे हिस्से की सबसे मानीखेज़ कहानियाँ दीं। पंजाब ने हमें हमारे हिस्से के नायक दिये, बंगाल ने लेखक-निर्देशक। उनकी सुनायी कहानियाँ जैसे हमारी बन गईं, क्योंकि दुख दुख को पहचानता है।

अरुण यह मधुमय ‘देश’ बनाने की कोशिश में जिन्होंने विष पिया, वो इसकी कीमत खूब समझते हैं।

यह संयोग भर नहीं है कि ‘राज़ी’ की निर्देशक मेघना गुलज़ार इसी युगल विरासत की प्रतिनिधि हैं, और वो एक स्त्री हैं। उनके हिस्से बंटवारे में लहूलुहान हुआ पंजाब भी है, बंगाल भी। आैर शायद इसीलिए उनके पास इससे आगे देख पाने की दृष्टि है। एक सुखद आश्चर्य की तरह उनकी फ़िल्म ‘राज़ी’ ने हमारे सिनेमा (और समाज पर भी) पर इस समय हावी देशभक्ति की एकायामी परिभाषा को सिरे से बदल दिया है।

जिस किस्म का राष्ट्रवाद वो प्रस्तुत करती है, उसकी नींव नफ़रत पर नहीं रखी गयी है।

‘राज़ी’ का राष्ट्रवाद नेहरूवियन आधुनिकता और राष्ट्र निर्माण के सपने की याद दिलाता है। पचास के दशक में उस सपने को सिनेमा के पर्दे पर जिलाने वाली राज कपूर की ‘जिस देश में गंगा बहती है’, दिलीप कुमार की ‘नया दौर’, व्ही शांताराम की ‘दो आंखे बारह हाथ’ और महबूब ख़ान की ‘मदर इंडिया’ जैसी क्लासिक फ़िल्मों की याद दिलाता है। ठीक है, वो प्रयोग अधूरा साबित हुआ और वो सपना टूटा।

उस टूटे सपने की किरचें पूरे सत्तर के दशक के ‘एंग्री यंग मैन’ मार्का विद्रोह में बिखरी नज़र आती हैं।

पर ‘राज़ी’ यहीं नहीं रुकती। हाँ, वो हमें भारतीय राष्ट्रवाद का मौलिक चेहरा याद दिलाती है जिसकी बुनियाद आज़ादी के संघर्ष के दौरान रखी गयी, मुल्क़ के बंटवारे के बहुत पहले। राष्ट्रवाद, जिसका चेहरा आज की तरह एकायामी, हिंसा पर टिका आैर बदनुमा नहीं था। लेकिन वो हमें इस पारिवारिक तथा सामुदायिक वफ़ादारियों की नींव पर खड़े भारतीय राष्ट्रवाद का दोमुँहा चरित्र भी दिखाती है। राज्य, जो नागरिक से अनन्य वफ़ादारियाँ तो माँगता है, लेकिन बदले में न्याय के समक्ष आैर संसाधनों में बराबरी का वादा कभी पूरा नहीं करता।

आज़ादी के दशक भर बाद आयी क्लासिक ‘मदर इंडिया’ की राधा अपने जान से प्यारे बेटे बिरजू पर दुनाली तानकर कहती है, “मैं बेटा दे सकती हूँ, लाज नहीं दे सकती”। बिरजू का खून पानी बन ‘आधुनिक भारत के मंदिर’ बहुउद्देश्यीय बांधों से निकली कलकल नहरों में बहने लगता है। लेकिन आज़ादी के सत्तर साल बाद ‘राज़ी’ की सहमत फ़िल्म के अन्त तक आते-आते इस राष्ट्र-राज्य के छल को समझ गयी है। वो राष्ट्रप्रेम की ऐसी किसी भी परिभाषा पर संदेह करती है जो देश को इंसानियत से भी ऊपर रखे।

सहमत सवाल पूछती है, “ये किस वफ़ादारी का सबक़ देते हैं आप लोग? नहीं समझ आती आपकी ये दुनिया.. ना रिश्तों की क़दर है, ना जान की।”

सहमत ‘मदर इंडिया’ की भूमिका को निभाने से इनकार कर देती है। शायद उसे समझ आने लगा है कि राष्ट्र-राज्य यह कुर्बानियाँ हमेशा स्त्रियों से, वंचितों से, दलितों से, अल्पसंख्यकों से आैर हाशिए पर खड़ी पहचानों से ही मांगा करता है। कभी उसका पता हाशिमपुरा है, तो कभी नर्मदा की घाटी। कभी नियमगिरी के पहाड़, तो कभी तूतीकोरिन। सहमत की कोख़ में ‘दुश्मन’ का बच्चा है, आैर मुल्क़ युद्धरत है। पर उसका साफ़ फ़ैसला है, “मैं इक़बाल के बच्चे को गिराऊंगी नहीं। एक आैर क़त्ल नहीं होगा मुझसे।” यही फ़िल्म में उसका अन्तिम संवाद है।

उसे माँ बनना है, ‘मदर इंडिया’ नहीं।

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इस आलेख का मूल संस्करण तीन जून 2018 के ‘प्रभात खबर’ में ‘राज़ी को माँ बनना है, मदर इंडिया नहीं’ शीर्षक से प्रकाशित हुआ।

 

सावधान हिन्दी सिनेमा, राष्ट्रगान तुम्हारा पीछा कर रहा है

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This essay was originally written for ‘Aalochana’ (ed. by Apoorvanand) in 2014

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       साल 2014. कुछ बारिश अौर कुछ उमस से भरा अगस्त का महीना, जिसके ठीक मध्य में भारत का स्वतंत्रता दिवस पड़ता है, समाप्ति की अोर था। अचानक दैनिक अखबारों के पिछले पन्नों की सुर्खियों में एक समाचार पढ़ने को मिला। समाचार केरल के तिरुअनंतपुरम से अाया था। समाचार पच्चीस साल के नौजवान लड़के के बारे में था जिसे भारतीय दंड संहिता की धारा 124 (A) के तहत ‘देशद्रोह’ के अारोप में गिरफ़्तार कर लिया गया था।

‘दि हिन्दू’ में प्रकाशित समाचार के अनुसार यह नौजवान अठ्ठारह अगस्त की शाम अपने पांच अन्य दोस्तों के साथ थियेटर में फ़िल्म देखने गया था। उस पर अारोप है कि फ़िल्म शुरु होने से पहले सरकारी तंत्र की अाज्ञानुसार बजनेवाले राष्ट्रगान ‘जन गण मन’, जो एक अन्य समाचार के अनुसार राष्ट्रगान की अधिकृत धुन न होकर दरअसल उसके बोलों पर रचा गया कोई म्यूज़िक वीडियो था[1], की धुन पर वह खड़ा नहीं हुअा अौर इस तरह उसने राष्ट्रगान का अपमान किया। सिनेमाहाल में ही मौजूद कुछ अन्य दर्शकों से नौजवान अौर उसके साथी दोस्तों की इस बाबत बहस भी हुई। इनमें कुछ नौजवान से पूर्व परिचित थे जिन्होंने पुलिस में रिपोर्ट करवाई। इसमें नौजवान द्वारा सोशल मीडिया पर कुछ दिन पहले स्वतंत्रता दिवस अौर राष्ट्रध्वज को लेकर की गई कथित टिप्पणी को भी जोड़ा गया अौर बीस अगस्त की रात में पुलिस ने नौजवान को उसके घर से गिरफ़्तार कर लिया।[2]

इस समाचार के बाद भी इस घटना को लेकर छिटपुट खबरें अखबारों में अाती रहीं। छ: सितंबर को प्रकाशित समाचार के अनुसार उनकी ज़मानत याचिका ख़ारिज करते हुए कोर्ट ने कहा, “उनका कृत्य राष्ट्र विरोधी है और यह अपराध कत्ल से भी ज्यादा गंभीर है।”[3] घटनास्थल पर मौजूद उनके एक साथी ने बताया कि “राष्ट्रगान के वक्त खड़ा होने की हमारी अनिच्छा पर कुछ लोगों ने सवाल खड़े किए। उन्होंने कहा कि अगर हम खड़े नहीं हो सकते तो पाकिस्तान चले जाएं।”[4]

वेबसाइट ‘काफ़िला’ ने उनका जमानत पर बाहर अाने के बाद दिया गया संक्षिप्त साक्षात्कार प्रकाशित किया, जिसमें उन्होंने कहा था, “मैं अराजकतावादी हूँ… ऐसे व्यक्ति को पैंतीस दिन के लिए ये कहकर जेल में डाला गया कि मैं एक पाकिस्तानी जासूस हूँ। लेकिन मैं एक चीनी जासूस क्यों नहीं हूँ? क्यों मैं सिर्फ़ एक पाकिस्तानी जासूस हूँ? इसकी वजह मेरे धर्म में छिपी है।”[5]

केरल निवासी दर्शनशास्त्र के इस विद्यार्थी का नाम सलमान मोहम्मद है।

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क्या राष्ट्रवाद की चाशनी में डुबोये बिना स्पोर्ट्स बायोपिक बनाना संभव नहीं?

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नितेश तिवारी की ‘दंगल’ हमारे सिनेमा की वो पहली स्पोर्ट्स बायोपिक नहीं है, जिसका अन्त राष्ट्रगान पर हुआ हो। इससे पहले बॉक्सर मैरी कॉम पर बनी बायोपिक भी इसी रास्ते पर चलकर चैम्पियन मैरी कॉम की कहानी को भारतीय राष्ट्रवाद की प्रतीक यात्रा बना चुकी है। कह सकते हैं कि बॉक्स आॅफिस पर सफ़ल ‘भाग मिल्खा भाग’ ने इस कथा संरचना का आधार तैयार किया आैर बाद में फ़िल्मों ने इसे फॉलो किया।

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सच है कि आज़ादी वाले दशक से ही हिन्दी सिनेमा भारतीय राष्ट्रवाद के विचार को जनता के बीच पहुँचाने का सबसे लोकप्रिय माध्यम रहा है। आज पचास के दशक की फ़िल्मों में नेहरुवियन आधुनिकता को पढ़ा जाना मान्य विचार है। पर अभी का माहौल देखें तो यह भी अद्भुत संयोग है कि जिस दौर में हमारे सिनेमा में खिलाड़ियों के संघर्षों पर बनी बायोपिक खासी लोकप्रिय हो रही हैं, यही दौर लोकप्रिय सिनेमा में उग्र राष्ट्रवाद की वापसी का भी है। हालाँकि नब्बे के दशक के अन्त वाले समय की तरह, जहाँ ‘गदर’, ‘ज़मीन’ आैर ‘एलअोसी कारगिल’ जैसी फ़िल्मों के साथ सिनेमा में इस उग्र राष्ट्रवाद का पहला दौर नज़र आता है, यह सिनेमा उतना फूहड़ नहीं है।

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’राष्ट्रवाद’ का सिनेमाई उत्सवगान

“ यह दीप अकेला स्नेह भरा,
है गर्व भरा मदमाता पर,
इसको भी पंक्ति दे दो ”
– अज्ञेय

mother-indiaबीते महीने में हमारे देश के सार्वजनिक पटल पर हुई विविधरंगी प्रदर्शनकारी गतिविधियों ने फिर मुझे यह याद दिलाया है कि आज भी अपने मुल्क में सबसे ज्यादा बिकने वाला विचार, ‘राष्ट्रवाद’ का विचार है। और जैसा किसी भी ‘कल्पित समुदाय’ के निर्माण में होता है, उस दौर के लोकप्रिय जनमाध्यम का अध्ययन इस ‘राष्ट्रीय भावना’ के निर्माण को बड़े दिलचस्प अंदाज में आपके सामने रखता है। मजेदार बात यह है कि नवस्वतंत्र मुल्क में जब हमारा समाज इस विचार को अपने भीतर गहरे आत्मसात कर रहा था, सिनेमा एक अनिवार्य उपस्थिति की तरह वहां मौजूद रहा। यही वो दौर है जिसे हिंदी सिनेमा के ‘सुनहरे दौर’ के तौर पर भी याद किया जाता है।

पारिवारिक और सामुदायिक पहचानों में अपने को तलाशते और चिह्नित करते नवस्वतंत्र मुल्क की जनता को ‘राष्ट्र-राज्य’ की वैधता और आधिपत्य का पाठ पढ़ाने का काम हमारा लोकप्रिय सिनेमा करता है। और प्रक्रिया में वह दो ऐसे काम करता है, जिन्हें समझना ‘आधुनिकता’ के भारतीय मॉडल (जिसे आप सुविधा के लिए ‘नेहरुवियन आधुनिकता’ भी कह सकते हैं) को समझने के लिए कुंजी सरीखा है। पहला तो यह कि वह व्यक्ति की पुरानी वफादारियों (पढ़ें समुदाय, परिवार) के ऊपर राज्य की सत्ता को स्थापित करने के लिए पूर्व सत्ता को विस्थापित नहीं करता, बल्कि उन पुरानी वफादारियों को ही वह ‘राष्ट्र’ के रूपक में बदल देता है। इससे सहज ही और बिना किसी मौलिक परिवर्तन के इस नवनिर्मित ‘राष्ट्र-राज्य’ की सत्ता को वैधता मिल जाती है।

इसे उदाहरण के माध्यम से समझें। सुमिता चक्रवर्ती लोकप्रिय हिंदी सिनेमा पर अपने सर्वप्रथम अकादमिक कार्य में दो आइकॉनिक हिंदी फिल्मों को इस संदर्भ में व्याख्यायित करती हैं। सबसे पहले याद आती है, महबूब खान की अविस्मरणीय ‘मदर इंडिया’ जहां मां – देवी मां और भारत मां के बीच की सारी रेखाएं मिट जाती हैं। सुमिता चक्रवर्ती लिखती हैं, “एक विचार के तौर पर मदर इंडिया हिंदुस्तान के कई हिस्सों में पूजी जाने वाली ‘देवी मां’ के कल्ट से उधार लिया गया है।” वे आगे लिखती हैं, “यह रस्मी गौरवगान समाज में होने वाले स्त्री के सामाजिक शोषण और उसकी गैर-बराबर सामाजिक हैसियत के साथ-साथ चलता है। लेकिन हिंदुस्तानी समाज में एक ‘मां’ के रूप में स्त्री की छवि सिर्फ एक ‘स्त्री’ भर होने से कहीं ऊंची है।” यहां हिंदुस्तानी समाज में पहले से मौजूद एक धार्मिक प्रतीक को फिल्म बखूबी राष्ट्रीय प्रतीक से बदल देती है। यह संयोग नहीं है कि फिल्म की शुरुआत इन ‘भारत माता’ द्वारा एक बांध के उदघाटन से दृश्य से होती है। वैसा ही एक बांध, जिसे जवाहरलाल नेहरू ने ‘आधुनिक भारत के मंदिर’ कहा था। वैसा ही एक बांध जैसे बीते साठ सालों में लाखों लोगों की समूची दुनियाओं को ‘विकास’ के नाम पर अपने पेटे में निगलते गये हैं। ‘विकास’ के नेहरुवियन मॉडल की पैरवी करती यह फिल्म अंत तक पहुंचते हुए एक ऐसी व्यवस्था की पैरवी में खड़ी हो जाती है, जहां ‘बिरजू’ जैसी अनियंत्रित (लेकिन मूल रूप से असहमत) आवाजों के लिए कोई जगह नहीं।

raj kapoorऐसा ही एक और मजेदार उदाहरण है राज कपूर की ‘आवारा’। यह राज्य की सत्ता के सबसे चाक्षुक हिस्से – कानून व्यवस्था, को परिवार के मुखिया पुरुष पर आरोपित कर देती है और इस तरह पारिवारिक वफादारी की चौहद्दी में रहते हुए भी व्यक्ति को राज्य-सत्ता की वैधता के स्वीकार का एक आसान या कहें जाना-पहचाना तरीका सुझाती है। ‘आवारा’ के संदर्भ में बात करते हुए सुमिता चक्रवर्ती लिखती हैं, “हिंदी सिनेमा देखने वाली जनता एक नये आजाद हुए मुल्‍क की नागरिक भी थी और यह जनता एक नागरिक के रूप में अपने परिवार और समुदाय की पारंपरिक चौहद्दियों से आगे अपने उत्तरदायित्व समझने में कहीं परेशानी महसूस कर रही थी। नये संदभों में उन्हें मौजूद मुश्किल परिस्थितियों को भी समझना था और बदलाव और सुधार का वादा भी ध्यान रखना था। यह वादा अब नयी एजेंसियों द्वारा किया जा रहा था और यह एजेंसियां थीं राज्य-सत्ता और उसकी अधिकार प्रणाली। क्योंकि ‘कानून-व्यवस्था’ आम जनमानस में राज्य की सत्ता का सबसे लोकप्रिय प्रतीक है, इसलिए हिंदी सिनेमा में एक आम नागरिक के जीवन में राज्य की भूमिका दिखाने का यह सबसे माकूल प्रतीक बन गया।”

फिल्म ‘आवारा’ में जज रघुनाथ की भूमिका में कानून-व्यवस्था के प्रतीक बने पृथ्वीराज कपूर न सिर्फ फिल्म में कानून के दूसरी तरफ खड़े नायक राज (राज कपूर) के जैविक पिता हैं, बल्कि असल जीवन में भी वह राज कपूर के पिता हैं। ऐसे में इस पितृसत्तात्मक व्यवस्था की पहले से तय सोपान और अधिकार शृंखला में बिना किसी छेड़छाड़ के यह फिल्म नवनिर्मित ‘राष्ट्र-राज्य’ की कानून-व्यवस्था की वैधता की स्थापना आम जनमानस में करती है।

दूसरा यह कि इस ‘सार्वभौम राष्ट्रीय पहचान’ की तलाश में वह तमाम इतर पहचानों को अनुकूलित भी करता चलता है। हिंदी सिनेमा के शुरुआती सालों में ‘जाति’ के सवाल सिनेमाई अनुभव का हिस्सा बनते हैं लेकिन जैसे-जैसे साल बीतते जाते हैं, हमारा सिनेमा ऐसे सवाल पूछना कम करता जाता है। हमारे नायक-नायिकाओं के पीछे से इसी ‘सार्वभौम पहचान’ के नाम पर उनकी जातिगत पहचानें गायब होती जाती हैं। इस ‘राष्ट्रवाद’ का एक दमनकारी चेहरा भी है। साल 1954 में बनी ‘जागृति’ जैसी फिल्म, जिसे ‘बच्चों की फिल्म’ कहकर आज भी देखा-दिखाया जाता है, में ‘शक्ति’ की मौत जैसे अजय के ‘शुद्धीकरण’ की प्रक्रिया में आखिरी आहूति सरीखी है। शक्ति की मौत अजय को एकदम ‘बदल’ देती है। अब वह एक ‘आदर्श विद्यार्थी’ है। किताबों में डूबा हुआ। आखिर ‘शक्ति’ की मौत ने अजय को अपने देश और समाज के प्रति उसकी जिम्मेदारियों का अहसास करवा ही दिया! और फिर ऊपर से ‘शेखर’ जैसे अध्यापक दृश्य में मौजूद हैं, जो फिल्म के अंत तक आते-आते एकदम नियंत्रणकारी भूमिका में आ जाते हैं। यहां भी फिल्म तमाम ‘अन्य पहचानों’ का मुख्यधारा के पक्ष में बड़ी सफाई से अनुकूलन कर देती है।

jagritiइस समूचे प्रसंग को एक प्रतीक रूप में देखें तो बड़ी क्रूर छवि उभरकर हमारे सामने आती है। सुमिता चक्रवर्ती फिल्म ‘जागृति’ पर टिप्पणी करते हुए लिखती हैं, “यहां कमजोर की कुर्बानी दी जाती है, जिससे बलशाली आगे जिये और अपनी शक्ति को पहचाने। ‘शक्ति’ न सिर्फ शारिरिक रूप से कमजोर है, गरीब और दया के पात्र की तरह दिखाया गया है। उसे साथी बच्चों द्वारा उसकी शारीरिक अक्षमता के लिए चिढ़ाया जाता है। लेकिन वह सुशील और उच्च नैतिकता वाला बच्चा है, जिसे फिल्म अपने पवित्र विचारों के प्रगटीकरण के लिए एक माध्यम के तौर पर इस्तेमाल करती है। लेकिन उसे मरना होगा (दोस्ती की खातिर) उस मिथ को जिलाये रखने के लिए। एकीकृत जनता का मिथ।”

अगर लोकप्रिय सिनेमा के ढांचे पर इस राष्ट्रवादी बिंब को आरोपित कर देखें, तो यह अनुकूलन बहुत दूर तक जाता है। मुख्य नायक हमेशा एक ‘सार्वभौम राष्ट्रीय पहचान’ लिये होता है (जो आमतौर पर शहरी-उच्चवर्ण-हिंदू-पुरुष की होती है) और उसके दोस्त या मददगार के रूप में आप किसी अन्य धार्मिक या सामाजिक पहचान वाले व्यक्ति को पाते हैं। तो ‘जंजीर’ में ईमानदार नायक ‘विजय’ की सहायता के लिए ‘शेर खान’ मौजूद रहता है और ‘लक्ष्य’ में नायक ‘करण शेरगिल’ की सहायता के लिए ‘जलाल अहमद’। फिल्म ‘तेजाब’ में तड़ीपार नायक ‘मुन्ना’ को वापस ‘महेश देशमुख’ की पहचान दिलाने की लड़ाई में ‘बब्बन’ जैसे इतर पहचान वाले दोस्त ‘कुर्बान’ हो जाते हैं, और ‘लगान’ के राष्ट्रवादी उफान में ‘इस्माइल’ से लेकर ‘कचरा’ की भूमिका हमेशा मुख्य नायक ‘भुवन’ (उच्चवर्ण हिंदू) के सहायक की ही रहती है।

एक तय प्रक्रिया के तहत सिनेमा का यह राष्ट्रवादी विमर्श तमाम ‘इतर’ पहचानों को सहायक भूमिकाओं में चिह्नित करता जाता है और हमें इससे कोई परेशानी नहीं होती। और फिर एक दिन अचानक हम ‘गदर’ या ‘ए वेडनसडे’ जैसी फिल्म को देख चौंक जाते हैं। क्यों? क्या जिस अनुकूलन की प्रक्रिया का हिंदी सिनेमा इतने सालों से पालन करता आया है, उसकी स्वाभाविक परिणिति यही नहीं थी? हम ऐसा सिनेमाई राष्ट्रवाद गढ़ते हैं, जिसमें तमाम अल्पसंख्यक पहचानें या तो सहायक भूमिकाओं में ढकेल दी जाती हैं या वह मुख्य नायक के कर्मपथ पर कहीं ‘कुर्बान’ हो जाती हैं। क्या यह पूर्व तैयारी नहीं है ‘गदर’ जैसी फिल्म की, जो अन्य धार्मिक पहचान को सीधे तौर पर खलनायक के रूप में चिह्नित करती है? ‘ए वेडनसडे’ जैसी फिल्म, जिसे इस बहुचर्चित छद्मवाक्य, “सारे मुसलमान आतंकवादी नहीं होते, लेकिन सारे आतंकवादी मुसलमान होते हैं” के प्रमाण-पत्र के रूप में पढ़ा जा सकता है, क्या उन फिल्मों का स्वाभाविक अगला चरण नहीं है जिनमें मुसलमान चरित्र हमेशा दोयम दर्जे की सहायक भूमिका पाने को अभिशप्त हैं?

और सवाल केवल धार्मिक पहचान का ही नहीं। मैंने एक और लेख में ‘हिंदी सिनेमा में प्रेम’ पर लिखते हुए यह सवाल उठाया था कि क्या ‘शोले’ में जय और राधा की प्रेम-कहानी का अधूरा रह जाना एक संयोग भर था? क्या यह पहले से ही तय नहीं था कि जय को आखिर मरना ही है। और फर्ज करें कि अगर ‘शोले’ में यह प्रेम-कहानी, जो सामाजिक मान्यताओं के ढांचे को हिलाती है, पूर्णता को प्राप्त होती तो क्या तब भी ‘शोले’ हमारे सिनेमाई इतिहास की सबसे लोकप्रिय फिल्म बन पाती? यह सवाल मैं यहां इसीलिए जोड़ रहा हूं क्योंकि एक विधवा से शादी करने के फैसले के साथ खुद ‘जय’ भी एक अल्पसंख्यक पहचान से खुद को जोड़ता है। और उसका भी वही क्रूर अंजाम होता है, जिसकी परिणति आगे जाकर ‘राष्ट्रवादी अतिवाद’ में होती है। चाहें तो ‘राष्ट्रवाद’ का यह अतिवादी चेहरा देखने के लिए हिंदी सिनेमा की सबसे मशहूर लेखक जोड़ी सलीम-जावेद की लिखी ‘क्रांति’ तक आएं, जहां एक अधपगली दिखती स्त्री की ओर इशारा कर नायक मनोज ‘भारत’ कुमार कहता है कि यह अभागी अपने पति के साथ सती हो जाना चाहती थी, इन जालिम अंगेजों ने वो भी न होने दिया।

इन्हें भारतीय आधुनिकता के मॉडल के ‘शॉर्टकट’ कहें या ‘षड्यंत्र’, सच यही है कि इन्हीं चोर रास्तों में कहीं उन तमाम अतिवादी विचारों के बीज छिपे हैं, जिन्हें भारत ने बीते सालों में अनेक बार रूप बदल-बदल कर आते देखा है। जब हम पारिवारिक सत्ता के और धार्मिक मिथकों में ‘राष्ट्र-राज्य’ की सत्ता के बिंब को मिलाकर परोस रहे थे, उस वक्त हमने यह क्यों नहीं सोचा कि आगे कोई इस प्रक्रिया को उल्टी तरफ से भी पढ़ सकता है? और ऐसे में ‘राष्ट्र-राज्य’ और उसकी सत्ता किसी खास बहुसंख्यक पहचान के साथ जोड़ कर देखी जाएगी और लोग इसे स्वाभाविक मानकर स्वीकार कर लेंगे? आज ऐसा होते देखकर हम भले ही कितना बैचैन हों और हाथ-पांव मारें। सच्चाई यही है कि यह हमारी ‘आधुनिकता’ और ‘राष्ट्रवाद’ के मॉडल की स्वाभाविक परिणिति है।

और अंत में : कुछ अपनी बात, गांधी की बात

बीते दिनों में महात्मा गांधी का नाम लौट-लौटकर संदर्भों में आता रहा। लेकिन यह जिक्र तमाम संदर्भों से गायब है कि आज भारतीय राष्ट्रवाद के पितृपुरुष घोषित किये जा रहे इस व्यक्ति को जीवन के अंतिम दिनों में इसी नवस्वतंत्र देश ने नितांत अकेला छोड़ दिया था। गांधी द्वारा उठाये जा रहे असुविधाजनक सवाल इस नवस्वतंत्र मुल्क के राष्ट्रवादी विजयरथ की राह में बाधा की तरह थे। राष्ट्र उत्सवगान में व्यस्त है, संशयवादियों के लिए उसके पास समय नहीं। जिस गांधी के नैतिक इच्छाशक्ति पर आधारित फैसलों के पीछे पूरा मुल्क आंख मूंदकर खड़ा हो जाता था, आज उसे संशय में पाकर वही मुल्क उसे कठघरे में खड़ा करता था। ठीक उस वक्त जब यह नवस्वतंत्र देश ‘नियति से साक्षात्कार’ कर रहा था, महात्मा सुदूर पूर्व में कहीं अकेले थे। अपनी नैतिकताओं के साथ, अपनी असफलताओं के साथ।

सुधीर चंद्र गांधी पर अपनी नयी किताब में उस वक्त कांग्रेस के सभापति आचार्य कृपलानी के वक्तव्य, “आज गांधी खुद अंधेरे में भटक रहे हैं” को उद्धृत करते हुए एक वाजिब सवाल उठाते हैं, “कृपलानी के कहे को लेकर बड़ी बहस की गुंजाइश है। पूछा जा सकता है कि 1920 में, असहयोग आंदोलन के समय और उसके बाद क्या लोगों को गांधी की अहिंसा के कारगर होने के बारे में शक नहीं होता रहता था? कितनी बार उन तीस सालों के दौरान संकटों का सामना होने पर गांधी लंबी अनिश्चितता और आत्म संशय से गुजरने के बाद ही उपयुक्त तरीके को तलाश कर पाये थे? वैसे ही जैसे कि इस वक्त, जब कृपलानी और कांग्रेस और देश गांधी को अकेला छोड़ने पर आमादा थे।”

सवाल वाजिब है। लेकिन एक बड़ा अंतर है, जो गांधी के पूर्ववर्ती अहिंसक आंदोलनों और उपवास को इस अंतिम दौर से अलगाता है। राष्ट्रवाद की जिस उद्दाम धारा पर गांधी के पूर्ववर्ती आंदोलन सवार रहे और अपार जनसमर्थन जिनके पीछे शामिल था, वह इन अंतिम दिनों में छिटक कर कहीं दूर निकल गयी थी। कभी यही ‘राष्ट्रवाद‘ उनका हथियार बना था। यह राष्ट्रवाद और अखंडता का ’पवित्र मूल्य‘ ही था, जिसके सहारे गांधी अंबेडकर से एक नाजायज बहस में ’जीते‘ थे। गांधी के आभामय व्यक्तित्त्व के आगे यह तथ्य अदृश्य रहा, लेकिन जब देश के सामने चुनने की बारी आयी, तो उसने ’राष्ट्र‘ के सामने ’राष्ट्रपिता‘ को भी पार्श्व में ढकेल दिया। कड़वा है लेकिन सच है, अपने देश के अतिवादी राष्ट्रवाद की पहली बलि खुद ’राष्ट्रपिता’ थे।

‘राष्ट्रवाद’ अपने आप में कोई इकहरा विचार नहीं। इसलिए सरलीकरण का खतरा उठाते हुए कह रहा हूं कि ‘राष्ट्रवाद’ आधुनिक दौर की सबसे वर्चस्ववादी और सर्वग्राह्य विचारधारा है। इसके आगे किसी और की नहीं चलती। यह सिद्धांतत: ‘ब्लैक होल’ की तरह है, किसी भी व्यक्ति / विचार / असहमति को समूचा निगलने में सक्षम। समझ आता है कि क्यों ओरहान पामुक पिछली हिंदुस्तान यात्रा में साहित्य के बारे में बात करते हुए कह गये थे, “साहित्य मानवता की अभिव्यक्ति है। लेकिन हमें समझना होगा कि मानवता और राष्ट्रवादी मानवता दो अलग-अलग चीजें हैं।”

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‘कथादेश’ के मई अंक में प्रकाशित