यहाँ से शहर को देखो : हल्ला

“शहरों को फूको के शब्दों में ‘दौर-ए-हमवक्ती’ (इपॉक ऑफ़ सायमाल्टेनिटी) कहा जा सकता है, जहाँ अलग-अलग कालखंड एकसाथ विद्यमान होते हैं. शहर, ख़ासतौर पर उत्तर-औपनिवेशिक शहर, अपनी ज़द में विभिन्न गतियों और लयों को समेटे रखता है और इससे विरोध और प्रतिस्पर्धा का निहायत गतिशील माहौल पैदा होता है.”
-आदित्य निगम.

किसी फ़िल्म का अन्तिम दृश्य पूरी फ़िल्म को देखने का एक नया नज़रिया दे सकता है. एक आखिरी इशारा इतना कुछ कह दे कि पूरी फ़िल्म के मायने ही बदल जाएँ. मैं यह जानता तो था लेकिन हल्ला में बहुत दिनों बाद फ़िर ऐसा होता देखा. हल्ला यूँ भी एक बेहतर फ़िल्म है जो आधुनिक ‘शहर’ की यंत्रवत व्यवस्था और विडंबनाओं को light hearted way में उभारती है लेकिन इसका अंत इसे सिर्फ़ वही नहीं रहने देता. हल्ला का अंत बताता है कि जहाँ से आप शहर को देख रहे हैं वो शहर की अकेली तस्वीर नहीं. देखने के और नज़रिए हैं लेकिन इस आधुनिक शहर व्यवस्था में चीज़ें इतनी अलग-थलग हैं कि बहुत बार आप यह समझ भी नहीं पाते कि एक ही परिघटना के अलग-अलग व्यक्तियों के लिए कितने अलग-अलग अर्थ हो सकते हैं.

हल्ला के निर्देशक जयदीप वर्मा हर्षिकेश मुखर्जी, बासु चटर्जी और सई परांजपे की फिल्में देखकर बड़े हुए हैं और हल्ला इसी परम्परा का अगला चरण है. शहर को देखने का ये नज़रिया कथा और चश्मेबत्तूर से आता है और इस रिश्ते से खोसला का घोंसला इसकी बड़ी बहन है. हल्ला में वो मुंबई है जो नायक को रोज़ सुनाई देती है, दिखाई देती है. हल्ला की मुंबई जुहू बीच, चौपाटी या मरीन ड्राइव नहीं है. हल्ला में दिन कार की अगली ड्राइवर सीट पर या ऑफिस में कम्प्यूटर के सामने शेयर बेचते-खरीदते बीत जाता है. फ़िल्म के दो सबसे महत्त्वपूर्ण घटनास्थल जहाँ ज्यादातर कहानी आगे बढ़ रही है वो एक चलती कार की अगली दो सीट और रिहायशी इमारत का पार्किंग लॉट हैं. कार्पोरेट व्यवस्था में निचली पायदान पर खड़ी जिंदगियाँ यही शहर देख रही हैं. बहुत देर तक लगता है कि यह फ़िल्म शोर के बारे में है. लेकिन हल्ला शहर के बारे में है. वो शहर जिससे आपका-मेरा रोज़ सामना होता है. शहर जिसकी कितनी लयें हैं ख़ुद उसे भी नहीं मालूम.

सुकेतु मेहता Maximum city में लिखते हैं, ” यह कमबख्त शहर. समुद्र की एक बड़ी लहर को आकर इन द्वीपों को मिटा देना चाहिए और इसे जल समाधि दे देनी चाहिए. इस शहर पर बम गिराकर इसे ख़त्म कर देना चाहिए. हर सुबह मुझे गुस्सा आता है. यहाँ कुछ भी काम कराने का यही रास्ता है; लोग गुस्सा करने पर ही काम करते हैं, गुस्से से डरते हैं. यदि पैसा और सही लोगों से जान-पहचान ना हो तो गुस्सा ही काम आता है. मैं गुस्से का फायदा समझने लगा हूँ- टेक्सी ड्राइवरों, द्वारपालों, प्लमबरों, सरकारी आदमियों पर गुस्सा होता हूँ. भारत में मेरा सीडी प्लेयर भी गुस्से या शारीरिक हिंसा की बदौलत चलता है. जब प्ले बटन को आराम से दबाने पर भी ये नींद से नहीं जागता, तो एक धौल जमाने से तुंरत बजने लगता है.”

रजत कपूर को इस रोल में देखना एक सुखद आश्चर्य था. रजत ख़ुद को मूलत: एक निर्देशक कहते हैं जो शौकिया अदाकारी भी करता है. अभी तक रजत कपूर ने बहुत से बेहतरीन रोल किए हैं लेकिन यह किरदार उनके भीतर के अदाकार के लिए भी एक चुनौती था. Osian’s में उनकी ‘the prisnor’ देखते हुए भी लगा कि एक लेखक का किरदार उनके लिए चुनौती नहीं. लेकिन जनार्दन का किरदार रजत के लिए एक चुनौती था क्योंकि वो ऐसे बिल्कुल नहीं हैं. यह रोल कुछ-कुछ राहुल बोस के झंकार बीट्स में निभाए ऋषि जैसा है. ऋषि राहुल के लिए एक चुनौती था क्योंकि राहुल जैसे मेच्योर ऐक्टर के लिए एक इम्मेच्यौर रोल प्ले करना ही बड़ी चुनौती है. और हमारे दौर के कुछ बेहतरीन अदाकार अपनी अदाकारी की सुरक्षित पनाहों से निकलकर ऐसी चुनौती का सामना करने को तैयार हैं ये देखकर अच्छा लगता है.

इस फ़िल्म की खूबसूरती यही है कि यह बड़े के पीछे नहीं भागती. हमने ‘नई कहानी’ पढ़ते हुए जाना है कि जिंदगी का एक छोटा सा हिस्सा भी अपने भीतर सारे अर्थ समेटे होता है. जिंदगी की एक छोटी सी ‘क्राइसिस’ किसी बड़े परिवर्तन की ओर ईशारा कर देती है. और कहानी का मूल काम है ईशारा करना.

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*पोस्ट का शीर्षक फैज़ अहमद फैज़ की एक नज़्म से लिया गया है.

सरकार राज: आग से तो बेहतर है!


” Idea! लेकिन अभी पूरी तरह आया नहीं है.” सरकार राज में उपस्थित कैरीकैचर खलनायकों की पूरी जमात में से एक गोविन्द नामदेव (जिनकी मूँछें इतनी अजीब हैं कि आप उन्हें कम और उनकी मूंछों को ज़्यादा देखते हैं. पेंसिल से बनाई हैं क्या!) का यह संवाद ही सरकार राज की पूरी कहानी है. इस Idea पर थोड़ी और मेहनत इसे सरकार से बेहतर फ़िल्म बना सकती थी. लेकिन जैसा जय को लगता है कि फ़िल्म कुछ जल्दबाज़ी में बना दी गई है, ठीक लगता है. ऐसे में angled और close-up shots पर, कलाकारों के अलग-अलग mannerisms पर तथा पार्श्व संगीत पर तो ध्यान दिया गया लेकिन लगता है कि सिर्फ़ इन्हीं पर ध्यान दिया गया. इन सभी तकनीकों से प्रभाव का निर्माण तो होता है लेकिन सिर्फ़ प्रभाव का ही निर्माण होता है. मेरे ऊपर के वाक्यों में जैसा उकताऊ सा दोहराव है आख़िर में सरकार राज भी सरकार का ऐसा ही उकताऊ दोहराव बनकर रह जाती है जहाँ कोई पुराना किरदार पिछली फ़िल्म से आगे ठीक तरह से विकसित नहीं होता. सवा दो घंटे की मशक्कत के बाद अंत में आपके पास ढेर सारे रामूप्रभाव (‘अँधेरा कायम रहे’ और इसबार साथ में पीलापन भी! पीला पीला हो पीला पीलाएकदम शाहरुख़ और सैफ style!) और भविष्य में सरकार-3 की उम्मीद (‘चीकू को फ़ोन लगाओ’ और क्यों था यार!) के सिवा कुछ नहीं बचता.

सरकार के अमिताभ की सबसे बड़ी खा़सियत थी उसकी खामोशी. वही उसकी ताक़त थी. ‘शक्ति’. जब बिस्तर पर घायल पड़े सरकार को शंकर आकर कहता है कि मैंने भाई को मार दिया, सरकार कुछ नहीं कहते. लेकिन सरकार का वो चेहरा हमें हमेशा याद रहता है. लेकिन सरकार राज इससे उलट है. सरकार राज में दोनों की सोच है कि, ‘हम तो फ़ेल होना चाहते थे. तुमने हमें पास कैसे कर दिया? लो हम फ़िर वही परीक्षा देंगे. अब पास करके बताओ!’ दोनों बाप-बेटे मिलकर ‘विष्णु के मामले में मुझसे गलती कहाँ हुई’ और ‘बाबा मुझे कोई पछतावा नहीं है’ जैसे पिछली फ़िल्म के छूटे तंतू discuss करते हैं और एक अच्छे ड्रामा में तब्दील हो सकने की सम्भावना रखने वाले Idea को मेलोड्रामा में तब्दील कर देते हैं (ले देकर साला एक के के था उसे भी पिछली फ़िल्म में मार डाला) कोई क़सर बाकी न रहे इसलिए सरकार बार बार आंसू बहाते हैं. न जाने ये सरकार का रोना reality shows की देखादेखी है या लालकृष्ण आडवाणी की प्रेरणा से है. (लेकिन सरकार तो बाल ठाकरे से प्रेरित थी ना? लगता है फ़िर जल्दबाज़ी में घालमेल हो गया!) सरकार ना सिर्फ़ आडवाणी माफ़िक रोते हैं बल्कि आख़िर में बहु ऐश्वर्या को (और हैरान परेशान दर्शक को भी) पूरा plot समझाने की ज़िम्मेदारी भी उनपर ही है. वे सरकार में जो-जितनी बकवास नहीं कर पाये थे सारी सरकार राज में करते हैं. मुझे तो लगता है कि अपने henchmen बाला के हिस्से के सारे संवाद भी बिचारे सरकार को ही बोलने पड़े हैं!

लेकिन सरकार राज की जल्दबाज़ी का सबसे बड़ा शिकार है शंकर नागरे (अभिषेक बच्चन). फ़िल्म के लेखक, निर्देशक यह तय ही नहीं कर पाये हैं कि इस आधुनिक महाभारत में शंकर नागरे अर्जुन है या अभिमन्यु? नतीजा यह कि शंकर का किरदार अर्जुन की उग्र वीरता और चालाकी तथा अभिमन्यु की इमानदार पात्रता और भोलेपन के बीच में झूलता रहता है. उसका पूरी फ़िल्म में बार-बार ‘सब संभाल लूँगा’ का दावा अर्जुन रुपी अदम्य योग्यता है तो आख़िर में चक्रव्यूह में फँसकर मौत उसे फ़िर भोले अभिमन्यु के खाँचे में पहुँचा देती है. फ़िल्म शुरू से ही उसका चित्रण कुछ ‘नादान’ रूप में करती तो अभिमन्यु पूरा जीवन पाकर मरता और ये किरदार का झोल यूँ ना अखरता. लेकिन बाज़ार को अभिषेक अभिमन्यु के रूप में हजम नहीं होता शायद. आज बाज़ार को अर्जुन रुपी नायक अभिषेक चाहिए. character development गया भाड़ में.

ऐसे में आश्चर्य नहीं की सबसे बेहतरीन काम उस अदाकार के हिस्से आया है जिसके काँधों पर पिछली फ़िल्म का बोझा नहीं है. ऐश्वर्या राय एक बेहतर तराशे गए किरदार में जान फूंकती हैं (अनीता राजन) और अकेली बाप-बेटे की मैलोड्रामा से भरपूर जोड़ी पर भारी हैं. अनीता फ़िल्म में सिर्फ़ एक बार रोती है और वो मेरे हिसाब से इस फ़िल्म का सबसे बेहतरीन दृश्य है. उसकी ईमानदारी उसकी आँखों में दिखती है. सबसे कम संवादों के बाद भी (या शायद इसी वजह से?) उसका प्रभाव सबसे गहरा है. आमतौर पर वह हमेशा receiving end पर है. उन top angled shots में जहाँ शंकर उसे ‘शक्ति’ का और ना जाने क्या क्या समझा रहा है और फ़िर जहाँ वो अपने ससुर से अभिमन्यु की मौत के जिम्मेदार दुर्योधनों और शकुनियों के नाम जान रही है. हर संवाद में उसका ‘सुनना’ बोलने वालों के ‘वक्तव्यों’ से ज़्यादा प्रभावशाली है.

मैं एक वक्त Orkut पर ‘आई हेट ऐश्वर्या राय’ community का सदस्य रहा हूँ. आज भी दोस्तों में ऐश का प्रशंसक नहीं गिना जाता हूँ. लेकिन सरकार राज देखने के बाद मेरा मानना है कि अगर यह फ़िल्म किसी कलाकार के फिल्मी सफ़रनामे में एक नया आयाम जोड़ती है तो वह सिर्फ़ और सिर्फ़ ऐश्वर्या हैं. उनका कार्पोरेट रूप बिपाशा से ज़्यादा convincing है. अब ये बात और है कि शायद ख़ुद ऐश्वर्या राय (बच्चन) यह निष्कर्ष सुनकर सबसे ज़्यादा दुखी हों!

एक सुझाव है. अगर आप मुम्बई पर एक बेहतरीन फ़िल्म देखना ही चाहते हैं तो ‘आमिर’ देखिये. एक ऐसी फ़िल्म जिसे देखने एक एक हफ्ते बाद भी जिसका review नहीं लिख पाया हूँ. इतना कुछ है कहने को कि कहना ही मुश्किल हो जाता है. फ़िर घनानंद याद आते हैं, “अच्छर मन को छरै बहुरि अच्छर ही भावे”. कोशिश जारी है.

नैतिक दुविधा से ग्रस्त खूनी खेल: रेस

एक बात है, अब्बास-मस्तान नामधारी यह सफ़ेदपोश निर्देशक जोड़ा जब भी बदले के खूनी खेल से भरी कहानियाँ बनता है तो अपनी पिच पर खेलता नज़र आता है. और यह भी सही है कि श्रीराम राघवन नामक चमत्कार के हिन्दी सिनेमा में अवतरित होने से पहले थ्रिलर के क्षेत्र में अब्बास-मस्तान ही मांग की पूर्ति करते रहे हैं.
लेकिन रेस की कहानी में एक मूलभूत झोल है जो इसे बाज़ीगर या सोल्ज़र (मैं इन्हें अब्बास-मस्तान का सबसे महत्त्वपूर्ण काम मानता हूँ) नहीं बनने देता. आप गौर करेंगे कि बाज़ीगर और सोल्ज़र दोनों ही फिल्मों में नायक प्रत्येक हत्या के साथ अपने नायकत्व को और ज़्यादा मज़बूती से स्थापित करता है. प्रतिनायक की छवि बनाते हुए भी शाहरुख़ अपनी हर हत्या के साथ और ज़्यादा क्रूर होता जाता है और सोल्ज़र में बॉबी भी एक के बाद एक हत्या के दहला देने वाले तरीके तलाशता है. जैसे एक स्टेटमेंट की तरह बार-बार अपना नायकत्व सामने रख रहे हों. और यह काम करता है. यह दोनों ही अपने ‘मर्दाना’ नायकत्व को प्रत्येक क्रूरता के साथ और ज़्यादा मज़बूती से स्थापित करते हैं. इसका क्या कारण है?
इसका कारण यह है कि इन दोनों ही नायकों के पास एक बहुत ही मज़बूत मोटिव है बदले का. एक ऐसा अतीत है इनके पास जो इनका हर गुनाह माफ़ करवा देता है. ऐसा अतीत जो नायक की छवि हत्यारा होने के वावजूद खंडित नहीं होने देता. यहाँ तक कि नायक नायिका का भी अपने लक्ष्य की प्राप्ति में इस्तेमाल करता है. लेकिन जिसके अतीत में राखी जैसी माँ अकेली खड़ी हो वहां नायिका के प्रेम की क्या बिसात. वैसे भी हिन्दुस्तानी सिनेमा में ‘माँ’ के सामने ‘प्रेमिका’ ने हमेशा दोयम दर्जे की भूमिका ही पाई है. यह नायक प्रत्येक हत्या के साथ अपने लक्ष्य की ओर बढ़ रहा है.
यहीं रेस मात खा जाती है. रेस में दोनों ही नायकों के पास हत्या का कोई आधार नहीं है. खासकर फ़िल्म के नायक के तौरपर स्थापित किए गए सैफ़ (रणवीर) के पास. ऐसे में वह अपने raw look के बावजूद भी कभी पूरी तरह क्रूर नहीं हो पाता. यह नैतिक दुविधा निर्देशक द्वय के दिमाग में भी है और इसी वजह से अंत में भी रणवीर द्वारा राजीव (अक्षय) की हत्या नहीं करवाई जाती. दरअसल रणवीर के पास राजीव को मारने का कोई कारण नहीं है सिवाय इसके कि राजीव उसे मारना चाहता है और बचने के लिए वह अपने छोटे भाई को मार दे. और यह तो बड़ा टटपूँजिया सा कारण है खून का! इसीलिए नैतिक दुविधा पैदा होती है जो फ़िल्म को एक संतुष्टिदायक अंत तक नहीं पहुचने देती. अंत में एक सड़क दुर्घटना में राजीव की मौत होती है जो बड़ा फुस्स अंत है!
फ़िल्म में दोनों नायकों में से किसी एक के पास हत्या के लिए एक सौलिड मोटिव का होना ज़रूरी था. अक्षय के नकारात्मक किरदार में इसकी कोशिश तो की गई लेकिन ‘सौतेला’ वाला फंडा कुछ जम नहीं पाया. यूँ भी नायक जब सैफ़ को पेश किया जा रहा है तो उसका एक नायक के रूप में स्थापित होना ज़रूरी था जो नहीं हो पाया. हालांकि फ़िल्म में इसकी गुंजाइश थी. शुरूआती पन्द्रह मिनट तक जिस तरह रनिंग कमेंट्री (वायस ओवर) के साथ किदारों का परिचय करवाया जा रहा था वह थियेटर का सबसे मूलभूत गड्ढा है. इसके बजाए एक अतीत का गढ़ना कहीं कारगर होता जहाँ भाइयों का टकराव बचपन से ही स्थापित किया जाता. एक सौलिड मोटिव रचा जाता. एक माँ भी होती तो क्या कहने! ऐसी एक अदद ‘माँ’ आनेवाली हर हत्या को नायक का बदला बना देती है. एक क्रूर लेकिन दिलचस्प बदले की कहानी और रेस में बस इतना ही फ़ासला है.

जब वी मेट : ‘किस्सा-ऐ-कसप’

आज फ़िल्मफेयर देखते हुए लगा कि यह पुरानी पोस्ट (13 नवम्बर) जो मैंने अपने ब्लॉग कबाड़ में डाल दी थी पोस्ट कर दी जानी चाहिए. आख़िर ‘गीत’ को एक के बाद एक पुरस्कार मिल रहे हैं! अब तो यह मुझ अकेले की तमन्ना का बयान नहीं. इससे identify करने वाले बहुत हैं. पढ़िये एक नितांत निजी टिप्पणी और उसके बाद इम्तियाज़ अली होने का अर्थ तलाशती ये ‘जब वी मेट’ की कसपिया व्याख्या..!

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“दिल्ली शहर एक परेशान सा ठिकाना है जो सुकून से कोसों दूर है. दोस्त भी पास नहीं, ना सितारेसब एक फासले पर रह गया है. कमरे में अकेलेसारे सुखन हमारेदोहराता मैं तनहा हूँना, अब मैं और सलाह नहीं दे सकता. अब रंग चाहिए. अब दूसरों की प्रेम कहानियाँ सुनना और हल तलाशना काफी हुआ. हाँ.. मुझे संगीत कुछ अधूरा सा लग रहा है. धुन तबतक अधूरी है जबतक उसे बोल मिलें. हाँ.. मेरा तराना अधूरा है. हाँ.. अब मुझे
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मेरी जिन्दगी में एक गीत चाहिए..”

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क्या आपने कभी किसी कहानी से प्रेम किया है? पूरी शिद्दत से किसी कविता को चाहा है? किसी उपन्यास को दिल से लगाकर रातें काटी हैं? एक प्रेम कहानीसाधारण सीएक लड़का, एक लड़की और बहुत सारे संशय वाली. क्या कभी आप पर ऐसी छायी है कि उसका जादू आपके हर काम को अपने आगोश में ले ले? आप जब भी कोई नयी कहानी सुनाने बैठें, वही प्रेम कहानी रूप बदलकर आपकी जुबाँ पर आ जाए?

इम्तियाज़ अली ने एक प्रेम कहानी से ऐसा ही घनघोर प्रेम किया है. पहले एक टेलीफिल्म (स्टार के लिए ‘बेस्टसेलर’ में). फ़िर अभय देओलआयशा टाकिया के साथ पहली फ़िल्म ‘सोचा ना था’. उसके बाद ‘आहिस्ता-आहिस्ता’ जो उस पुरानी टेलीफिल्म का ही रीमेक थी (इम्तियाज़ ने कहानी/स्क्रीनप्ले किया था). और अब ‘जब वी मेट’ आई है, उनकी दूसरी फ़िल्म. शाहिदकरीना के साथ. एक ही प्रेम कहानी रूप बदल-बदलकर… एक साधारण सी प्रेम कहानी, जिसमें एक लड़का है, एक लड़की है लेकिन “love at first sight” नहीं है. (तीनो फिल्में इसका उदाहरण हैं). शुरुआत में तो लड़के या लड़की को प्रेम भी किसी और से है (आप ‘सोचा ना था’ की कैरेल, ‘आहिस्ता-आहिस्ता’ के धीरज और ‘जब वी मेट’ के अंशुमान को याद कर सकते हैं.) और फिर एक सफर है साथ… कभी गोवा, कभी दिल्ली और कभी रतलाम से भटिंडा तक! जिन्दगी का सफर.. कभी कंटीले रास्ते, कभी सुहानी पगडंडियाँ. याद आता है गोपीकृष्ण/राधाकृष्ण प्रेम जिसको सूरदास ने साहचर्य का प्रेम बनाकर प्रस्तुत किया. यह पहली नज़र का प्यार नहीं, यह तो रोज की दिनचर्या में पलता-बढ़ता है. रोज की अटखेलियाँ इसे सहलाती है. चुहल बात को आगे बढाती है और पता ही नहीं चलता कि कब प्यार हो जाता है.

और फ़िर हमेशा.. एक भाग जाने का सुर्रा है! संशय मूल थीम है और कहानी हमेशा ‘या की’ टोन बनाए रखती है. यह ‘कसपिया’ संशय है जो ‘ये प्यार है या ये प्यार है’ से उपजता है. अतार्किकता हावी रहती है और कहानी हमेशा “जब आप प्यार में होते हो तो कुछ सही-ग़लत नहीं होता” जैसे ‘वेद-वाक्य’ देती चलती है. मैं शर्त लगाकर कह सकता हूँ कि इम्तियाज़ अपने तकिये के सिरहाने ‘कसप’ रखकर सोते होंगे!

ये तो थी इम्तियाज़ की प्रेम कहानी एक प्रेम-कहानी से उधार! और अब अपनी और फ़िल्म की बात. तो मुझे गीत से प्यार हो गया. ऊपर का कथन टाइम-पास बकवास नहीं एक स्वीकारोक्ति था. और गीत है ही ऐसी की कोई भी उसपर मर मिटे! करने से पहले सोचा नहीं, जो सोचा वो कभी किया नहीं.. that’s geet for U! कुछ कमाल के संवाद नज़र हैं… नायिका नायक को कहती है, “तुम मेरी बहन के साथ भाग जाओ.” या “मैं अपनी फेवरेट हूँ!”. तमाम बातों के बावजूद नायिका का भिड़ जाने का अंदाज.. याद रहेगा. तो प्रेम कहानियो के सुखद अंत तलाशना बंद कर ‘जब वी मेट’ को इस नज़रिये से परखें. खासकर इम्तियाज़ द्वारा बनाये इसी प्रेम कहानी के अन्य रूपों के सामने रखकर जब वी मेट का अर्थ करें. नए अर्थ अपने आप खुलने लगेंगे.

मिथ्या: खोई हुई पहचान की तलाश में

मैं जान जाता कि यह एक सपना है. लेकिन यह पता चल जाने के बावजूद मैं अच्छी तरह से जानता कि तब भी मैं अपनी इस मृत्यु से बच नहीं सकता. मृत्यु नहीं -तिरिछ द्वारा अपनी हत्या से- और ऐसे में मैं सपने में ही कोशिश करता कि किसी तरह मैं जाग जाऊं. मैं पूरी ताक़त लगाता, सपने के भीतर आँखें फाड़ता, रौशनी को देखने की कोशिश करता और ज़ोर से कुछ बोलता. कई बार बिलकुल ऐन मौके पर मैं जागने में सफल भी हो जाता.

माँ बतलाती कि मुझे सपने में बोलने और चीखने की आदत है. कई बार उन्होंने मुझे नींद में रोते हुए भी देखा था. ऐसे में उन्हें मुझे जगा डालना चाहिए, लेकिन वे मेरे माथे को सहला कर मुझे रजाई से ढक देती थीं और मैं उसी खौफ़नाक दुनिया में अकेला छोड़ दिया जाता था. अपनी मृत्यु -बल्कि अपनी हत्या से बचने की कमज़ोर कोशिश में भागता, दौड़ता, चीखता.”

उदय प्रकाश की कहानी तिरिछ का अंश.


दुनिया का सबसे बड़ा डर क्या है?
…सपने आपके भीतर के डर और इच्छाओं को जानने का सबसे बेहतर ज़रिया हैं. मुझे सबसे डरावना सपना वह लगता है जहाँ मैं अकेला रह जाता हूँ. मेरे दोस्त
, मेरा परिवार, मेरी दुनिया मुझसे बिछुड़ जाते हैं. मैं अनजान भीड़ के बीच होता हूँ या अपनी जानी-पहचानी जगहों पर अकेला होता हूँ. मुझे पहचानने वाला कोई नहीं होता. ऐसे में अक्सर मैं जागने की कोशिश करता हूँ. लेकिन कभी-कभी सपने के भीतर अचानक ऐसा लगता है कि यह सपना नहीं हकीक़त है और वह अहसास खौफ़नाक होता है. हाँ, दुनिया का सबसे बड़ा डर अकेलेपन का डर होता है. अपनी पहचान के खो जाने का डर होता है. अपनी दुनिया से बिछुड़ने का डर होता है.
इस नज़रिये से देखने पर
मिथ्या का दूसरा हिस्सा एक डरावना अनुभव है. वी.के. (रणवीर) बारबार इसे सपना समझकर जागने की कोशिश करता है. लेकिन वह सपना नहीं है. उसे समझ नहीं आता कि क्या सपना है और क्या सच? वह चिल्लाता हैतुमने कहा था कि कुछ नहीं बदलेगा.” और आख़िर में वह अपनी एकमात्र याद रही पहचान से भी ठुकराया जा चुका है. वी.के. एक ऐसा शख्स है जिसका सबसे डरावना सपना सच हो गया है.
दोस्तों को नायक की मौत पर कहानी का अंत एक त्रासद अंत लग सकता है लेकिन मैं इससे असहमत हूँ. वी.के. का अंत दरअसल उसके सपने का भी अंत है. उसकी ‘जागने’ की निरंतर कोशिश एक बंदूक की गोली उसके भेजे में जाने के साथ ही सफल हो जाती है. गोली लगने के साथ ही उसका खौफ़नाक सपना टूट जाता है और उसे एक फ्लैश में सब याद आ जाता है. उसकी आखिरी पुकार
सोनल में एक चैन, एक संतुष्टि, एक सुकून सुनाई देता है. यह त्रासद अंत नहीं. वी.के. एक कमाल का दोहराव रचते हुए एक परफैक्ट मौतमरता है जो फ़िल्म के पहले दृश्य से उसकी तमन्ना थी. मौत उसे अपनी खोई हुई पहचान, खोई हुई जिंदगी से जोड़ देती है.
मैं यह कहने में हिचकूंगा नहीं कि फ़िल्म पर रजत कपूर से ज्यादा सौरभ शुक्ला की छाप नज़र आती है. यह मिक्स डबल्स जैसी नहीं है और भेजा फ्राई जैसी तो बिलकुल नहीं है. हाँ रघु रोमियो के कुछ अंश यहाँ-वहां दिख जाते हैं. मरीन ड्राइव (नेकलेस) के फुटपाथ पर बैठे अथाह/अनंत समंदर की तरफ़ देखते और दारु पीते वी.के. की छवि सत्या के भीखू की याद दिलाती है. जैसा मदनगोपाल सिंह कहते हैं यह उत्तर भारत के छोटे शहरों से वाया दिल्ली (
NSD) होते मुम्बई आए लड़कों की पौध का दक्षिण भारत के उन्नत तकनीशियन निर्देशकों से लेखक के तौर पर मिलन से उपजा सिनेमा है. मिथ्या मुझे अनेक पूर्ववर्ती फिल्मों की याद दिलाती रही जिनमें से कुछ की चर्चा मैं यहाँ करना चाहूँगा.

सत्या– फ़िल्म पर RGV स्कूल की छाप साफ नज़र आती है. इसका सीधा कारण फ़िल्म से लेखक के रूप में सौरभ शुक्ला का जुड़ा होना है. यह मुम्बई के अंडरवर्ल्ड को देखने की नई यथार्थवादी दृष्टि थी जो सत्या में उभरकर सामने आई थी. यह मुम्बई के अंडरवर्ल्ड को देखने की नई यथार्थवादी दृष्टि थी जो सत्या में उभरकर सामने आई थी. विनय पाठक ने ओशियंस सिने फेस्ट में मिथ्या के प्रीमियर में कहा भी था कि डॉन लोग कोई चाँद से नहीं आए हैं. वे भी हमारे-आपके जैसे इंसान हैं. यह दृष्टि सौरभ शुक्ला, अनुराग कश्यप, जयदीप सहनी जैसे लेखकों की बदौलत आई थी और आज फैक्टरीकी बुरी हालत के पीछे इन लेखकों का अलगाव एक बड़ा कारण माना जा रहा है. मिथ्या में यह दृष्टि इंस्पेक्टर श्याम (ब्रिजेन्द्र काला) के किरदार में बखूबी उभरकर आई है. एक बेहतरीन अदाकार जिसके काम की पूरी तारीफ ज़रूरी है बिना किसी हकलाहट के!

डिपार्टेड– मार्टिन स्कोर्सेसी की यह थ्रिलर दो परस्पर विरोधी योजनाओं के उलझाव से निकली कहानी है. मुझे वी.के. की दुविधा में लिओनार्दो की दुविधा का अक्स दिख रहा था. lost identities की कहानी के रूप में और अपनी खोई पहचान वापस पाने की लड़ाई के तौर पर यह दोनों फिल्में साथ रखी जा सकती हैं. कुछ और नाम भी याद आ रहे हैं नेट और बरमूडा ट्राएंगल जैसे. कभी विस्तृत चर्चा में बात करेंगे.

दिल पे मत ले यार– यह मिथ्या की नेगेटिव है. इसमें सपना खौफनाक नहीं है, सपने के टूटने के बाद की असल तस्वीर खौफनाक है. हिन्दी सिनेमा का सबसे त्रासद अंत. मिथ्या का अंत मौत के बावजूद सुकून देता है. दिल पे मत ले यार का अंत कड़वाहट से भर देता है. असल जिंदगी अपनी तमाम ऐयाशियों के साथ किसी भी खौफनाक सपने से ज़्यादा भयावह है. मिथ्या के अंत में नायक की मौत सुकून देने वाली है. सुकून इस बात का कि आखिरकार वह अपने भयावह सपने की कैद से आजाद हो गया है. इसके विपरीत दिल पे मत ले यार के अंत में दुबई में बैठे अरबपति डान रामसरन और गायतोंडे सफलता के नहीं, मौत के प्रतीक हैं. मासूमियत की मौत, भरोसे की मौत, इंसानियत की मौत. मुम्बई शहर को आधार बनाती दो बेहतरीन फिल्में जो उत्तर भारत से आए दो युवकों के भोले सपनों और महत्वाकांक्षाओं की किरचें बिखरने की कथा को मायानगरी के वृहत लैंडस्कैप में चित्रित करती है. मुम्बई शहर पर चर्चित और प्रशंसित फिल्में कम नहीं लेकिन यह दोनों अपेक्षाकृत रूप से कम चर्चित फिल्में 90 के बाद बदलते महानगर और उसके जायज़- नाजायज़ हिस्सों पर तीखा कटाक्ष हैं. इन्हें उल्लेखनीय हस्तक्षेप के तौर पर दर्ज किया जाना चाहिए.

अंत में रणवीर शौरी. मेरी पसंद. उसमें मेरे जैसा कुछहै. मिथ्या में पहले आप उसके लिए डरते हैं, फ़िर उसके साथ डरते हैं और अंत में उसकी जगह आप होते हैं और आपका ही डर आपके सामने खड़ा होता है. यह साधारणीकरण ही रणवीर के काम की सबसे बड़ी बात है. कुछ दृश्यों में उसका काम आपपर हॉंटिंग इफेक्ट छोड़ जाता है. जब भानू (हर्ष छाया) उसे अपने भाई का कातिल समझ कर मार रहा है वहां उसकी पुकार “भानू, मैं तेरा भाई हूँ.” एक ना मिटने वाला निशान छोड़ जाती है. एक ही फ़िल्म में हास्य और त्रासदी के दो चरम को साधकर उसने काफी कुछ साबित कर दिया है.

मिथ्या देखा जाना चाहती है. उसकी यह चाहत पूरी करें.

चक दे इंडिया : हुँकारा आज भर ले…

chak de india

ये एक अजीब सी तुलना है. पिछले सप्ताह मैनें अमिताभ को “सी.एन.एन. आई.बी.एन.” पर बोलते सुना. स्वतंत्रता दिवस के दिन अमिताभ अपनी पसन्दीदा फिल्मों के बारे में बात कर रहे थे. अम्रर अकबर एन्थनी की बात आने पर उन्होनें कहा कि हम सभी को लगता था कि इतना अतार्किक विचार कैसे चलेगा? संयोगों और अतार्किकताओं से भरी ये कहानी सिर्फ मनमोहन देसाई के दिमाग का फितूर है. आज भी हम उस फिल्म के पहले दृश्य को देखकर हंसते हैं. एक नली से तीनों भाइयों का खून सीधा माँ को चढता हुआ दिखाया जाना एक मेडिकल जोक है। लेकिन इन सबके बावजूद कुछ है जिसने देखने वाले से सीधा नाता जोड़ लिया. सारी अतार्किकतायें पीछे छूट गयीं और कहानी अपना काम कर गयी. अब आप क्या कहेंगे इसे…
srk
मैं इसे एक फिल्मी नाम देता हूँ… दिल का रिश्ता. पिछ्ले ह्फ्ते शिमित अमीन की फिल्म चक दे इण्डिया देखते हुए भी मुझे ऐसा ही एह्सास हुआ. वैसे फिल्म के कई प्रसंग तो बहुत ही पकाऊ थे जैसे कबीर खान के घर छोडने का प्रसंग जहाँ पडोस में रहने वाला बच्चा अपने पिता से कह्ता है, “पापा मैनूं भी गद्दार देख्नना है”. इस जगह भारी मेलोड्रामा दिखाई देता है. या वो सारी बोर्ड मीटिंग्स जहाँ चेयरमैन बार-बार ये ही दोहराता है, “ये चकला-बेलन चलाने वाली भारतीय नारियाँ हैं”. क्या ये भी स्टिरियोटाइप किरदार नहीं हैं? लेकिन इनके बावजूद मुझे फिल्म पसन्द आयी और इसका कारण वो ही दिल का रिश्ता है. ये एक सच्चे दिल से बनाई गई फिल्म है जो नज़र आ ही जाता है.
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सबसे पहले सबसे खास बात… याद कीजिये कि मुख्यधारा के सिनेमा में आखिरी बार आपने कब एक मुस्लिम को नायक के रूप में देखा था? आसानी से याद नहीं आयेगा ये तय है. हमारे दौर के सबसे बडे नायक शाहरुख ने भी हमेशा राज या राहुल या वीर प्रताप सिंह या मोहन भार्गव जैसी भूमिकाएँ ही निभाई हैं. हाँ हे राम् का अमज़द एक अपवाद कहा जा सकता है. शायद जयदीप के लिये सबसे मुश्किल ये ही रहा हो की यशराज को एक ऐसी कहानी के लिये कैसे मनाया जाये जिसके नायक का नाम कबीर खान है. यह एक बहुत ही महत्वपूर्ण तथ्य है जिसे गौर से देखा जाना चाहिये. आज SRK ऐसा रोल कर सकता है, क्या ये पहले सम्भव था या हो सकता था? पुराने धुरंधर याद कर पायेंगे कि अमिताभ ने अपनी बादशाहत के दौर में मुस्लिम नायक की भूमिकाएँ भी निभाई हैं लेकिन शाहरुख के खाते में ये तथ्य नहीं है. यह समय का परिवर्तन है. मित्रों का तो यहाँ तक कहना है कि गदर जैसी दुर्घटना नब्बे के दशक में ही सम्भव थी. मनमोहन सिंह और लालकृष्ण आडवाणी ने इस दशक की शुरूआत में जो किया यह उसी का असर है. इसलिये चक दे अभी भी एक अपवाद ही कही जाएगी, मुख्यधारा नहीं. लेकिन ये एक खूबसूरत अपवाद है.

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चक दे एक खेल आधारित फिल्म का मूल नियम ध्यान रखती है और वो है कमज़ोर की विजय. भारत द्वारा निर्मित सबसे चर्चित खेल फिल्म लगान की तरह चक दे भी कमज़ोरों के विजेता बनकर निकलने की कहानी है. यहाँ आपको सारे भेदभाव दिख जायेंगें जैसे जेन्डर, इलाका, खेल के आपसी भेदभाव और इनके खिलाफ लडाई साथ-साथ जारी है. टाँम एण्ड जैरी की लडाई में जीत हमेशा जैरी की ही होती है और यही नियम हमारी फिल्मों पर भी लागू होता है. सच यही है कि आम दर्शक ज़िन्दगी की लडाई हारे हुये किरदार से ही रिलेट करता है. वहीं उसे अपना अक्स दिखाई देता है.
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हाँकी की भारत में क्या जगह थी इसे दिखाने के लिये बहुत सुन्दर प्रतीक चुना गया है. देश की राजधानी के ह्रदयस्थल को निहारती मेजर ध्यानचन्द की मूरत उस केन्द्रीय स्थान की गवाही देती है जो आजाद भारत में हाँकी ने पाया था. मेजर ध्यानचन्द हाँकी स्टेडियम जैसे लुटियंस की बनाई दिल्ली को निहार रहा है. इंडिया गेट के मध्य भाग से देखने पर ठीक सामने राष्ट्रपति भवन दिखाई देता है. अगर आप सुनील खिलनानी की आइडिया आँफ इंडिया का शहर और सपना अध्याय पढें तो मालूम होगा कि इस नक्शे को बनाने में क्या सत्ता संरचना काम कर रही थी. क्यों वायसराय के घर के लिये उन्नयन कोण सबसे ऊँचा रखा गया था. यहाँ ध्यानचंद का होना एक कमाल के प्रतीक की खोज है. और इसका श्रेय भी मैं जयदीप साहनी को दूंगा जिन्होंनें एकबार फिर साबित कर दिया है की नये बनते शहर की बुनावट और उसकी सत्ता संरचना को उनसे अच्छा समझने वाला हिन्दी सिनेमा में और कोई नहीं है. खोसला का घोसला के बाद चक दे इंडिया एक और उपलब्धि है जयदीप के लिये. ये दिल्ली है बिना किसी लाग-लपेट के.
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और वो सोलह लड़कियाँ… सोलह अलग-अलग नाम, सोलह अलग-अलग किरदार, सोलह अलग-अलग पहचान. हर एक ऊर्जा की खान. जैसे उबलता लावा. वैसे कोमल चौटाला को सबसे ज्यादा पसंद किया गया है और खुद ममता खरब ने कहा है कि कोमल मे मेरी छवि है लेकिन काम के मामले में मेरी पसंद शिल्पा शर्मा रही. आपने उसे खामोश पानी में देखा होगा और हज़ारों ख्वाहिशें ऐसी में नहीं देखा होगा. लेकिन आप बिन्दिया नायक को नहीं भूल सकते. अगर ये उनका फिल्म जगत में आगमन माना जाये तो ये एक धमाकेदार आगमन है. वो आयी… वो छायी टाइप! लेकिन आखिर में श्रेय तो जयदीप को ही जाएगा जिन्होंनें इतने तीखे, तेज़्-तर्रार किरदार रचे.

chak de india
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शाहरुख के लिये ये फिल्म स्वदेस वाले खाते में जाती है जहाँ उसने अपना किंग खान वाला स्टाइल छोड़कर काम किया है. स्वदेस हालाँकि ज्यादा परतदार फिल्म थी लेकिन चक दे इंडिया भी उसी खाते में है. स्तर भले कम हो लेकिन खाना वो ही है. शाहरुख को चाहनेवालों के लिये ये एक नया रूप तो है ही. (हाँ, मेरी पसंद अभी भी कभी हाँ, कभी ना को ही शाहरुख का सर्वश्रेष्ठ काम मानती है. ना स्वदेस को और ना चक दे को).

ये फिल्म तो बस उम्मीद है कि हिन्दुस्तानी फिल्मों की मुख्यधारा किसी नये प्रयोगशील रास्ते पर आगे बढ़ रही है…