देवदास को आईना दिखाती चंदा और पारो : साल दो हज़ार नौ में हिन्दी सिनेमा

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luck-by-chance-wallpaper-1महीना था जनवरी का और तारीख़ थी उनत्तीस. ’तहलका’ से मेरे पास फ़ोन आया. तक़रीबन एक हफ़्ता पहले मैंने उन्हें अपने ब्लॉग का यूआरएल मेल किया था. ’आप हमारे लिए सिनेमा पर लिखें’. ’क्या’ के जवाब में तय हुआ कि कल शुक्रवार है, देखें कौनसी फ़िल्म प्रदर्शित होने वाली है. क्योंकि कल तीस तारीख़ भी है और अंक जाना है इसलिए किसी एक फ़िल्म की समीक्षा कर रात तक हमें भेज दें. अगले हफ़्ते हमें गोरखपुर फ़िल्म उत्सव के लिए निकलना था और हम उसकी ही तैयारियों में जुटे थे. ’विक्टरी’ का हश्र मैं पहले से जानता था, तय हुआ कि ज़ोया अख़्तर की ’लक बाय चांस’ देखी जाएगी.

आज मैं इस घटना से तक़रीबन एक साल दूर खड़ा हूँ लेकिन इस साल आए लोकप्रिय हिन्दी सिनेमा पर बात शुरु करते हुए बार-बार मेरा ध्यान इसी फ़िल्म पर जाता है. हाँ यह मेरे लिए इस साल की पहली उल्लेखनीय फ़िल्म है क्योंकि रोहन सिप्पी और कुणाल रॉय कपूर की बनाई बेहतरीन राजनीतिक व्यंग्य कथा ’दि प्रेसिडेंट इज़ कमिंग’ मैं बहुत बाद में देख पाया. बहरहाल ’लक बाय चांस’ इस साल की सर्वश्रेष्ठ हिन्दी फ़िल्म नहीं है. शायद मैं इस जगह ’देव डी’ को रखूँगा. हद से हद उसे हम औसत से थोड़ा ऊपर गिन सकते हैं. लेकिन ’देव डी’ तक पहुँचने का रास्ता इसी फ़िल्म से होकर जाता है. शायद इसके माध्यम से वो कहना संभव हो पाए जिसे मैं हिन्दी सिनेमा के एक बड़े बदलाव के तौर पर चिह्नित कर रहा हूँ.

बेशक ’लक बाय चांस’ को एक ख़ास मल्टीप्लेक्स-यूथ श्रंखला की फ़िल्मों वाले खांचे में फ़िट किया जा सकता है और इसकी पूर्ववर्ती फ़िल्मों में ’दिल चाहता है’ से ’रॉक ऑन’ तक सभी को गिना जाता है लेकिन एक मूल अंतर है जो ’लक बाय चांस’ को अपनी इन पूर्ववर्ती फ़िल्मों से अलग बनाता है और वो है इसका अंत. जैसा मैंने अपनी समीक्षा में लिखा था,

zoya akhtar“लेकिन वो इसका अन्त है जो इसे ’दिल चाहता है’ और ’रॉक ऑन’ से ज़्यादा बड़ी फ़िल्म बनाता है. अन्त जो हमें याद दिलाता है कि बहुत बार हम एक परफ़ैक्ट एन्डिंग के फ़ेर में बाक़ी ’आधी दुनिया’ को भूल जाते हैं. याद कीजिए ’दिल चाहता है’ का अन्त जहाँ दोनों नायिकायें अपनी दुनिया खुशी से छोड़ आई हैं और तीनों नायकों के साथ बैठकर उनकी (उनकी!) पुरानी यादें जी रही हैं. या ’रॉक ऑन’ का अन्त जहाँ चारों नायकों का मेल और उनके पूरे होते सपने ही परफ़ैक्ट एन्डिंग बन जाते हैं. अपनी तमाम खूबियों और मेरी व्यक्तिगत पसंद के बावजूद ये बहुत ही मेल-शॉवनिस्टिक अन्त हैं और यहीं ’लक बाय चांस’ ख़ुद को अपनी इन पूर्ववर्तियों से बहुत सोच-समझ कर अलग करती है. ’लक बाय चांस’ इस तरह के मेल-शॉवनिस्टिक अन्त को खारिज़ करती है. फ़िल्मी भाषा में कहूं तो यह एक पुरुष-प्रधान फ़िल्म का महिला-प्रधान अन्त है. ज़्यादा खुला और कुछ ज़्यादा संवेदनशील. एक नायिका की भूली कहानी, उसका छूटा घर, उसके सपने, उसका भविष्य. आखिर यह उसके बारे में भी तो है. यह अन्त हमें याद दिलाता है कि बहुत दिनों बाद इस पुरुष-प्रधान इंडस्ट्री में एक लड़की निर्देशक के तौर पर आई है!”

एक पुरुष-प्रधान फ़िल्म का एक महिला-प्रधान अन्त. यहाँ एक और गौर करने की बात है, मेरी इस समीक्षा को पढ़कर एक पाठक ने टिप्पणी की थी कि जिस अन्त की आप तारीफ़ कर रहे हैं वो तो फ़िल्म में अलग से जोड़ा हुआ लगता है. कहना होगा कि ख़ामी के बावजूद यह एक ईमानदार टिप्पणी है. सच है कि फ़िल्म की बाकी कहानी से फ़िल्म का अन्त अलग है. लेकिन यही ’जोड़े हुए अन्त’ वाला तरीका हमें एक झटके के साथ समझाता है कि हमारी मुख्यधारा सिनेमा की कहानियाँ कितनी ज़्यादा पुरुष केन्द्रित होती हैं. और हम इस सांचे में इतना गहरे ढल चुके हैं कि इससे परेशानी होना तो दूर की बात है, हमें यह अजीब भी नहीं लगता. हमारे सिनेमा में बीती हुई कहानियाँ (पास्ट स्टोरीज़) सिर्फ़ नायकों के पास होती हैं, नायिकाओं के पास नहीं.

gulaalposterऔर इसी अंत की वजह से ’लक बाय चांस’ इस साल की दो सबसे महत्वपूर्ण फ़िल्मों अनुराग कश्यप की ’गुलाल’ और ’देव डी’ की पूर्वपीठिका बनती है. पहले बात ’गुलाल’ की. ’गुलाल’ इतनी आसानी से हजम होनेवाली फ़िल्म नहीं है. इस पर मेरी दोस्तों से लम्बी बहसें हुई हैं. गुलाल का समाज कैसा है? उसे क्या मानकर पढ़ा जाए – यथार्थ या फंतासी? लेकिन इन सवालों से अलग शुरुआत में मेरा फ़िल्म को लेकर मुख्य आरोप यह रहा कि मुख्य किरदार के साथ-साथ चलते हुए बीच में कहीं फ़िल्म भी यह समझ खो देती है कि इस व्यवस्था की असली शिकार आखिर में स्त्री है. तो क्या ’गुलाल’ स्त्री विरोधी फ़िल्म है और मधुर भंडारकर की फ़िल्मों की तरह क्या वो भी जिस समस्या के खिलाफ़ बनाई गई है उसे ही बेचने लगती है?

मुझे खुशी है कि मैं यहाँ गलत था. ‘गुलाल’ की बहुत सी समस्याएं तो उसे एक फंतासी मानकर पढ़ने से हल होती हैं. इस मायने में ’गुलाल’ का पुरुष-प्रधान समाज मुक्तिबोध की कविता ’अंधेरे में’ के डरावने अंधेरे की याद दिलाता है. यह निरंकुश व्यवस्था का चरम है. लेकिन मेरे आरोप का जवाब यहाँ भी फ़िल्म के अन्त में छिपा है. मेरे मित्र पल्लव ने ऐसी ही किसी उत्तेजक बहस के बीच में कहा था कि ’गुलाल’ का असल अर्थ वहाँ खुलता है जहाँ फ़िल्म के आखिरी दृश्य में नायिका गुलाल पुते चेहरों की भीड़ में खड़ी है और उसके भाई की ताजपोशी हो रही है. नायिका की आँख से बह निकले एक आँसू में सम्पूर्ण ’गुलाल’ का अर्थ समाहित है. व्यवस्था परिवर्तन होता है और एक स्त्री को माध्यम बनाकर होता है लेकिन इन तमाम परिवर्तनों के बावजूद इस पुरुष-प्रधान समाज का ढांचा ज़रा नहीं बदलता. माना कि ’गुलाल’ में स्त्री का दृष्टिकोण फ़िल्म में प्रत्यक्ष रूप से मौजूद नहीं है लेकिन आपको गुलाल के असल अर्थ तभी समझ आयेंगे जब आप उस स्त्री के नज़रिए को अपने साथ रख फ़िल्म देखेंगे.

dev-dअनुराग कश्यप की ’देव डी’ पारंपरिक चरित्रों की नई व्याख्या के लिए मील का पत्थर मानी जानी चाहिए. अगर देवदास उपन्यास और उस पर बनी पहले की फ़िल्में (विशेष तौर से संजय लीला भंसाली का अझेल मैलोड्रामा) सिर्फ़ देवदास की कहानी हैं तो अनुराग की ’देव डी’ देवदास के साथ-साथ चंदा और पारो की भी कहानी है. देवदास दरअसल हिन्दी सिनेमा का सतत कुंठित नायक है. उसमें एक ’शहीदी भाव’ सदा से मौजूद रहा है. कभी उसके हाथ पर ’मेरा बाप चोर है’ लिख दिया गया है (दीवार में अमिताभ) तो कभी उसके पिता को उनके ही दोस्त ने धोखे से मार दिया है (बाज़ीगर में शाहरुख़). हिन्दुस्तानी सिनेमा का महानायक हमेशा ऐसी ’पास्ट लाइफ़ स्टोरीज़’ अपने साथ रखता है जिससे उसके आनेवाले सभी कदम जस्टीफाइड साबित हों. और नायिकाएं होती हैं जिनकी कोई पिछली कहानियाँ नहीं होती. लेकिन ’देव डी’ में चंदा की भी कहानी है और पारो की भी. और यही ’अन्य कहानियाँ’ हमारी ’मुख्य कथा’ को आईना दिखाती हैं. अपनी व्याख्या को ही अकेली व्याख्या मानकर चलने वाला हमारा फ़िल्मी नायक आखिर ’ख़ामोशी के उस पार’ की आवाज़ सुन पाता है.

’देव डी’ में जब चंदा देव को कहती है कि ’तुम किसी और से प्यार नहीं करते. तुम सिर्फ़ अपने आप से प्यार करते हो’ तो दरअसल वो यहाँ हिन्दुस्तानी सिनेमा के सबसे चहेते नायकीय किरदार को आईना दिखा रही है. यही अंतर है देवदास और ’देव डी’ में. अनुराग देव के पिता का किरदार इसीलिए बदल देते हैं. देव के पिता यहाँ एक नरम मिजाज़ लिबरल बाप की भूमिका में हैं ताकि कोई गलतफ़हमी न बाकी रहे. हमें यह मालूम होना चाहिए कि देव और पारो के न मिल पाने की वजह देव के पिता का सामंती व्यवहार नहीं था. देव द्वारा पारो को चाहने और उसकी याद में अपनी ज़िन्दगी जला लेने के दावे के बावजूद सच यह है कि देव के भीतर भी एक ऐसा पुरुष बैठा है जो अंत में पारो को उन्हीं कसौटियों पर कसता है जो इस सामंती और पुरुषसत्तात्मक समाज ने एक लड़की के लिए बनाई हैं. इस देवदास का थोड़ा सा हिस्सा हर हिन्दुस्तानी पुरुष के भीतर कहीं है. आपके भीतर भी, मेरे भीतर भी. जब ’लव आजकल’ में जय, वीर सिंह से सवाल करता है कि ’अब मीरा किसी और के साथ है और जब वो किसी और के साथ है तो फिर उनके बीच ’वो सब’ भी होगा, फिर मुझे बुरा क्यों लग रहा है?’ तो यह उसके भीतर कहीं बचा रह गया वही ’देवदास’ है जिसके लिए स्त्री एक ऑबजेक्ट पहले है और बाद में कुछ और. और जब फ़िल्म के आखिर में वो वापस मीरा के पास लौटता है तो उसका एक शादीशुदा लड़की को पहले हुए ’वो सब’ के बारे में पूछे बिना प्रपोज़ करना उसी ’देवदास’ पर एक छोटी सी जीत है.

हमारी लड़ाई भी अपने भीतर के ’देवदासों’ से ही है.

Khargosh-Hindiमुख्यधारा से अलग हटकर मैंने दो हज़ार नौ में जो सबसे बेहतरीन फ़िल्में देखी उनमें से ज़्यादातर आपके लिए दो हज़ार दस की फ़िल्में होने वाली हैं. इन्हीं में से एक ’खरगोश’ को मैं हिन्दी सिनेमा के सबसे संभावनापूर्ण प्रयासों में से एक गिन रहा हूँ. ’आदमी की औरत तथा अन्य कहानियाँ’ अपने विज़ुअल टेक्स्ट में चमत्कार पैदा करती है और इस सिनेमा माध्यम की असल विज़ुअल ताक़त का अहसास करवाती है. मराठी फ़िल्म ’हरिश्चंद्राची फैक्ट्री’ तो अपने ऑस्कर नामांकन के साथ अभी से चर्चा में आ गई है. इस फ़िल्म में ’लगे रहो मुन्नाभाई’ की ज़िन्दादिली और ’गांधी’ की सी प्रामाणिकता एक साथ मौजूद है. उम्मीद करें कि नए साल में परेश कामदार की ’खरगोश’, अमित दत्ता की ’आदमी की औरत तथा अन्य कहानियाँ’ और परेश मोकाशी की ’हरिशचंद्राची फैक्ट्री’ को बड़ा परदा नसीब हो और हमें इन फ़िल्मों को विशाल सार्वजनिक प्रदर्शन में देखकर एक बार फिर इस सिनेमा नामक जादुई माध्यम के जादू से चमत्कृत होने का मौका मिले.

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मूलत: मासिक पत्रिका समकालीन जनमत के कॉलम ’बायस्कोप’ में प्रकाशित. जनवरी 2010.

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ख़ामोशी के उस पार : विदेश

मूलत: तहलका समाचार के फ़िल्म समीक्षा खंड ’पिक्चर हॉल’ में प्रकाशित

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दीपा मेहता की ’विदेश’ परेशान करती है, बेचैन करती है. यह देखने वाले के लिए एक मुश्किल अनुभव है. कई जगहों पर यंत्रणादायक. इतना असहनीय कि आसान रास्ता है इसे एक ’बे-सिर-पैर’ की कहानी कहकर नकार देना. यह ज़िन्दगी की तमाम खूबसूरतियाँ अपने में समेटे एक तितली सी चंचल, झरने सी कलकल लड़की चांद (प्रीति ज़िन्टा) के भोले, नादान, खूबसूरत सपने की असल ज़िन्दगी में मौजूद कुरूप यथार्थ से सीधी मुठभेड़ है. चांद के लिए यथार्थ इतना असहनीय और अप्रत्याशित है कि वो उसे सम्भाल नहीं पाती. सपना कुछ यूँ टूटता है कि चांद हक़ीक़त और फ़साने के बीच का फ़र्क खो बैठती है. आगे पूरी फ़िल्म में इस टूटे सपने की बिखरी किरचें हैं जिन्हें प्यार से रुककर समेटने वाला भी कोई नहीं. वो निपट अकेली जितना इन्हें समेटने की कोशिश करती है उतने ही अपने हाथ लहूलुहान करती है. इस फ़िल्म की मिथकीय कथा को तर्क की कसौटी पर कसकर नकार देना आसान रास्ता है लेकिन यान मारटेल का बहुचर्चित ’लाइफ़ ऑफ़ पाई’ पढ़ने वाले जानते हैं कि असहनीय यथार्थ का सामना करने के लिए कथा में एक शेर ’रिचर्ड पारकर’ गढ़ लेना इंसानी मजबूरी है.

चांद को उसका पति बेरहमी से मारता है. अपने देश, अपनी पहचान से दूर दड़बेनुमा घर में कैद चांद की लड़ाई अपनी पहचान की लड़ाई है. पति से प्यार और अपनेपन की अथक चाह उसे एक ऐसी मिथक कथा पर विश्वास करने के लिए मजबूर कर देती है जिसमें एक शेषनाग उसके पति का रूप धरकर आता है और उसे दुलारता है. गिरीश कर्नाड के नाटक ’नागमंडलम’ से लिए गए फ़िल्म के इस दूसरे हिस्से को ’जादुई यथार्थ’ का बेजा इस्तेमाल कहकर टाला नहीं जा सकता. यह आपको असहज कर देता है. और फ़िल्म के मर्म तक पहुँचने के लिए आपको इस एहसास से जूझना होगा. चांद की कहानी कोरी घरेलू हिंसा की कहानी भर नहीं. दरअसल यह उस मनोस्थिति के बारे में है जिससे अपने ही पति द्वारा जानवरों की तरह मारी-पीटी जा रही चांद गुज़र रही है. उसका ’पगला जाना’ ऐसी त्रासदी है जिसे दीपा मेहता सिनेमा के पर्दे को बार-बार स्याह-सफ़ेद रँगकर और तीखेपन से उभारती हैं. प्रीति यहाँ अपनी मुखर सार्वजनिक छवि के उलट दूर देस में फँसी एक अकेली और अपनी पहचान पाने की जद्दोज़हद में जुटी लड़की चांद के किरदार में जान फ़ूँक देती हैं और बाकी तमाम अनजान चेहरे इस फ़िल्म को अपनी नैसर्गिक अदायगी से वत्तचित्र का सा तेवर देते हैं.

कनाडा में रहने वाले अप्रवासी भारतीय परिवार में ब्याही गई चांद की कहानी ’विदेश’ अप्रत्यक्ष रूप से उस बदहाल हो रहे सूबे पंजाब की कहानी भी है जिसके सपने भी अब विदेशों से आती स्पॉन्सरशिप और किसी दूर देस में मौजूद अनदेखे सुनहरे भविष्य से लगाई झूठी उम्मीद के मोहताज हैं. आमतौर से स्त्री पर होती घरेलू हिंसा पर आधारित कहानियों में मुख्य खलनायक पति या घरवाले होते हैं लेकिन दीपा की ’विदेश’ यह साफ़ करती है कि व्यख्याएं हमेशा इतनी सरल नहीं होती. यहाँ बहु की पिटाई में संतुष्टि पाने वाली सास (तारीफ़ कीजिए बलिन्दर जोहल के बेहतरीन काम की) में एक असुरक्षित माँ छिपी है जिसे डर है कि उसके बेटे को यह नई आई रूपवती बहु हड़प लेगी. और अपनी ही पत्नी को मारने वाला रॉकी (वंश भारद्वाज) उन एन.आर.आई. सपनों को ढोती जीती-जागती लाश है जिसे ’फ़ीलगुड सिनेमा’ के नाम पर हिन्दुस्तानी सिनेमा ने सालों से बुना है. समझ आता है कि उसे हिन्दी सिनेमा के उल्लेख भर से क्यों चिढ़ है. विदेश एक त्रासद अनुभव है. यह दीवार की ओट से आती उन बेआवाज़ सिसकियों की तरह है जिन्हें सुनने के लिए कानों की नहीं दिल की ज़रूरत होती है.

सिद्धार्थ- द प्रिजनर : महानगरीय सांचे में ढली नीतिकथा

मूलत: तहलका समाचार के फ़िल्म समीक्षा खंड ’पिक्चर हॉल’ में प्रकाशित

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बचपन में पंचतंत्र और हितोपदेश की कहानियाँ सुनकर बड़ी हुई हिन्दुस्तान की जनता के लिए ’सिद्दार्थ, द प्रिज़नर’ की कहानी अपरिचित नहीं है. सोने का अंडा देने वाली मुर्गी और व्यापारी की कहानी के ज़रिये ’लालच बुरी बला है’ का पाठ बचपन में हम सबने सीखा है. इस तरह की कहानियों को हम नीति कथायें (मोरल टेल) कहते हैं. सिद्दार्थ और मोहन की कहानी एक ऐसी ही नीति कथा का मल्टीप्लैक्सीय संस्करण है जो अपना रिश्ता ऋग्वेद और बुद्धनीति से जोड़ती है. फ़िल्म के मुख्य किरदार रजत कपूर के नाम ’सिद्दार्थ’ में भी यही अर्थ-ध्वनि व्यंजित होती है. कहानी की सीख है, “इच्छाएं ही इंसान के लिए सबसे बड़ा बंधन हैं. इच्छाओं से मुक्ति पाकर ही इंसान सच्ची आज़ादी पाता है.”

मैंने यह फ़िल्म पिछले साल ’ओशियंस’ में देखी थी जहाँ रजत कपूर को इस फ़िल्म के लिए सर्वश्रेष्ठ अभिनेता का पुरस्कार मिला था. ’ओशियंस’ में यह उन हिन्दुस्तानी फ़िल्मों में से एक थी जिसका टिकट मैंने समारोह शुरु होते ही सबसे पहले खरीदा था. वजह? ऑन पेपर, इस फ़िल्म का मूल प्लॉट हिन्दी सिनेमा इतिहास में आई थ्रिलर फ़िल्मों में अबतक के सबसे आकर्षक प्लॉट्स में से एक है. कुछ ही समय पहले जेल से रिहा हुए और अब अपनी ज़िन्दगी नए सिरे से शुरु करने की कोशिश में लगे लेखक सिद्दार्थ रॉय की नई किताब की इकलौती पांडुलिपि सायबर कैफ़े चलानेवाले मोहन (सचिन नायक) के रुपयों से भरे ब्रीफ़केस से बदल जाती है. सिद्दार्थ अपनी किताब को लेकर बैचैन है वहीं मोहन की जान उस पैसों से भरे ब्रीफ़केस में अटकी है जो अब सिद्दार्थ के पास है. इंसान की इच्छाएं उसे क्या-क्या नाच नचाती हैं. आगे इस कहानी में प्यार, रोमांच, धोखा, लालच, झूठ और मौत सभी कुछ है. लेकिन इस चमत्कारिक प्लॉट के बाद भी कुछ है जो अटका रह जाता है. थ्रिलर होते हुए भी यह फ़िल्म रजत कपूर की ही पिछली फ़िल्म मिथ्या की तरह अंत में आपके ऊपर एक उदासी का साया छोड़ जाती है. शुरुआत में आपको यह फ़िल्म एक थ्रिलर होने के नाते रफ़्तार में धीमी लग सकती है लेकिन इच्छाओं के पीछे भागती जिस जिन्दगी की व्यर्थता को दर्शाने की कोशिश फ़िल्म कर रही है उस तक पहुँचने के लिए यह कारगर हथियार है. जेल से छूटने के बाद सिद्दार्थ की रिहाइशगाह के शुरुआती सीन मेरे मन में फ़िर कभी न उगने के लिए डूबते सूरज का सा प्रभाव छोड़ते हैं. मेरे लिए यह फ़िल्म औसत से एक पायदान ऊपर खड़ी है. छोटी सी कहानी जिसकी चाहत एक बड़ा कैनवास रचकर कुछ बड़ा कहना नहीं. ओ. हेनरी और मोपांसा की लघु कथाओं की याद दिलाती यह फ़िल्म सिनेमा हाल से चाहे अनपहचानी ही निकल जाये लेकिन लेकिन आनेवाले वक़्तों में हमारे घरों में मौजूद और धीरे-धीरे बड़े हो रहे डी.वी.डी. संग्रह का हिस्सा ज़रूर बनेगी ऐसी मुझे उम्मीद है.

विज्ञापन जगत से सिनेमा में आये प्रयास गुप्ता के लिये सबसे बड़ी तारीफ़ है ’बैंग-ऑन’ कास्टिंग. रजत कपूर को देखकर तो मुझे शुरु से ही लगता रहा है कि वे तो बने ही लेखक का रोल करने के लिए हैं! वो इस रोल में इतने फ़िट हैं कि आप उनकी बेहतरीन अदाकारी को नोटिस तक नहीं करते. लेकिन अदाकारी में कमाल किया है अपने दांतों से पूरे महल को रौशन करते रहे ’हैप्पीडेंट वाइट फ़ेम’ सचिन नायक ने. सच्चाई, ईमानदारी, नैतिकता और भौतिक सुख के बीच छिड़ी जंग के निशान आप उसके चेहरे पर पढ़ सकते हैं. फ़िल्म की उदासी और निस्सहायता उनके किरदार से ही सबसे बेहतर तरीके से व्यंजित होती है. प्रदीप सागर के रूप में एक बार फिर हम ’भाई’ का ’दूसरा’ चेहरा देखते हैं और मुझे ’सत्या’ याद आती है. लेकिन ‘सिद्दार्थ’ रामू की ’सत्या’ की तरह बड़े कैनवास वाली ’मैग्नमओपस’ नहीं है. यह ज़िन्दगी की कतरन है, ’स्लाइस ऑफ़ लाइफ़’ जो बात तो छोटी कहती है लेकिन पूरी साफ़गोई से कहती है.

बिल्लू: अब फिर से राज कपूर नहीं

मूलत: तहलका समाचार के फ़िल्म समीक्षा खंड ’पिक्चर हॉल’ में प्रकाशित

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बहुत दिन हुए देखता हूँ कि हमारे मनमोहन सिंह जी की सरकार अपना हर काम किसी ’आम आदमी’ के लिए करती है. मैं देखता कि जब विदर्भ में किसान आत्महत्या कर रहे हैं, गुजरात से कर्नाटक तक अल्पसंख्यकों को छांट-छांट कर मारा जा रहा है, मंगलोर में सरेआम लड़कियों से मार-पीट होती है और वो भी ’भारतीय संस्कृति’ के नाम पर, तो फ़िर ये ’आम आदमी’ कौन है जिसके लिये ये सारा विकास और सुरक्षा का ताम-झाम हो रहा है? अमाँ मियाँ आख़िर कहाँ छुपकर जा बैठा है जो नज़र ही नहीं आता? और फ़िर आज मैंने प्रियदर्शन की बिल्लू देखी. हाँ! यही है हमारे मनमोहन सिंह जी का ’आम आदमी’.. मिल गया! मिल गया! लेकिन अफ़सोस कि अब ये सिर्फ़ प्रियदर्शन की फ़िल्मों में ही बचा है और इसीलिए सरकारी योजनाओं की तरह ही इस फ़िल्म के किरदारों और परिवेश का भी असल दुनिया और उसकी वास्तविकताओं, जटिलताओं से बहुत कम लेना-देना है.

यह आधुनिक कृष्ण-सुदामा कथा बहुत सी समस्याओं से ग्रस्त है. सबसे बड़ी समस्या है गाँव-शहर की विपरीत जोड़ियाँ बनाने की बुरी आदत जिससे हिन्दी सिनेमा ने बहुत मुश्किल से मुक्ति पाई है. ऐसी फ़िल्मों गाँव भोले-भाले, गरीब और ईमानदार बड़े भाई के रोल में होता है और शहर अमीर, चालाक लेकिन भीतर से अकेले छोटे भाई का रोल अपना लेता है. अब दिक्कत यह है कि राज कपूर मार्का ’श्री चार सौ बीस’ और ‘अनाड़ी’ वाला दौर ख़त्म हुआ और अब हमारे गाँव-शहर ऐसे स्याह-सफ़ैद रहे नहीं. एक ’गाँव’ उठकर शहर चला आया है तो दूसरी तरफ़ शहर ने भी अपने पाँव गाँव के भीतर तक पसार लिए हैं. नतीजा ये कि उत्तर प्रदेश के एक गाँव ’बुदबुदा’ की कहानी होते हुए भी इस फ़िल्म का गाँव एक ऐसी हवाई कल्पना बनकर रह जाता है जिसका धरातल पर कोई अस्तित्व नहीं, जिसके चित्रण में कोई सच्चाई नहीं. परिवेश के चित्रण और ज़िन्दा किरदार गढ़ने के मामले में बेजोड़ ’मनोरमा सिक्स फ़ीट अन्डर’, ’ओये लक्की! लक्की ओये!’ और ’देव डी’ जैसी फ़िल्मों के दौर में बिल्लू पचास के दशक के सिनेमा की पैरोडी से ज़्यादा कुछ नहीं बन पाती.

इस डूबते हुए जहाज़ की अकेली टिमटिमाती लौ हैं फ़िल्म के नायक.. ख़ान. नहीं साहेबान मैं यहाँ महानायक शाहरुख़ ख़ान की नहीं, फ़िल्म के नायक इरफ़ान ख़ान की बात कर रहा हूँ. बिलाल परदेसी (बिल्लू) का मुख्य किरदार निभाते हुए इरफ़ान ने एकबार फ़िर साबित किया है कि ढीली-ढाली पटकथा (कटिंग की कमी है!) और किसी ’बॉक्स ऑफ़िस’ नामक जीव के लिये उंडेले गए गाने पर गाने (कहें आइटम नम्बर पर आइटम नम्बर तो शायद बात ज़्यादा साफ़ हो!) के बावजूद वे अपना जलवा दिखा ही जाते हैं. इस बीच महानायक शाहरुख़ शायद इस फ़िल्म की सबसे कमज़ोर कड़ी हैं. अगर बिल्लू केश कर्तनालय की कैंची थोड़ा सा उनके नाच-गाने पर भी चल जाती तो फ़िल्म की मुख्य कथा का बड़ा भला होता! उनके भावपूर्ण सीन (जैसे ’वो कागज़ की कश्ती, वो बारिश का पानी’ मार्का क्लाईमैक्स भाषण!) अब उनकी ही किसी पुरानी फ़िल्म की पैरोडी लगते हैं. वैसे अगर शाहरुख़ इस साहिर ख़ान में थोड़ा-बहुत खुद को प्ले कर रहे थे तो इससे एक बात तो साफ़ हो जाती है. इस महानायक को कल्पनिक किरदार ही निभाने चाहिए क्योंकि इस महानायक की ज़िन्दगी कुल-मिलाकर एक बहुत ही बोर और मैलोड्रमैटिक फ़िल्म के प्लॉट से ज़्यादा कुछ नहीं बन पाती है.

लक बाय चांस: उड़ती तितली को पकड़ने की कोशिश

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मूलत: तहलका हिन्दी के फ़िल्म समीक्षा खंड ‘पिक्चर हॉल’ में प्रकाशित

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“यह बॉलीवुड का असल चेहरा है. ’लक बाय चांस’ हिन्दी फ़िल्म इंडस्ट्री के लिए वही है जो ’सत्या’ मुम्बई अन्डरवर्ल्ड के लिए थी.” – ’पैशन फ़ॉर सिनेमा’ पर दर्ज एक स्ट्रगलिंग एक्टर का नज़रिया.

लक बाय चांस की शुरुआत ही इसे अन्य हिन्दी फ़िल्मों से अलग (और आगे) खड़ा कर देती है. परस्पर विरोधी छवियों को आमने-सामने खड़ा कर ज़ोया कमाल की विडम्बना रचती हैं. (‘विडम्बना’, कितने दिनों बाद मैं किसी हिन्दी फ़िल्म की समीक्षा में इस शब्द का इस्तेमाल कर रहा हूँ!) परियों वाले पंख लगाकर सार्वजनिक शौचालय में जाती लड़की, कैंटीन में बैठकर चाय पीते अंतरिक्ष यात्री, सिनेमा हॉल के बूढ़े गेटकीपर से लेकर कोरस में गाती मोटी आन्टियों तक आती तमाम छवियाँ आपको उन लोगों की याद दिलाती हैं जिनके लिए यह सपनों से भरी दुनिया, यह चमक-दमक, यह ग्लैमर महज़ पेट भरने की ज़रूरत, एक नौकरी भर है. शुरुआत से ही इसमें किसी डाक्यूमेंट्री फ़िल्म सी प्रामाणिकता दिखाई देती है. चाहे वो नायक के दोस्त के घर में बजता रब्बी शेरगिल का ‘बुल्ला की जाणा मैं कौण’ हो चाहे बकौल मदनगोपाल सिंह ‘चड्ढा-चोपड़ा कैम्प’ के सच्चे प्रतिनिधि रोमी रॉली (ऋषि कपूर) और मिंटी रॉली (जूही चावला) जैसे चरित्र, ‘लक बाय चांस’ हर बारीक़ी का ख्याल रखती है. मैकमोहन जी को देखकर और उनके मुँह से ‘पूरे पचास हज़ार’ सुनकर तो मेरी आँखों में आँसू आ गए! सच में ज़ोया इस इंडस्ट्री की रग-रग से वाकिफ़ हैं. हर स्तर पर बारीक़ डीटेलिंग इसकी बड़ी खासियत है.

इसे ‘दिल चाहता है’ से जोड़ा जायेगा. सही भी है, यह फ़रहान की बड़ी बहन ज़ोया की पहली फ़िल्म है और ‘दिल चाहता है’ के निर्देशक ख़ुद इसमें नायक के रोल में हैं. जब हिन्दी सिनेमा में ‘दिल चाहता है’ घटित हुई मैं उस वक़्त सोलह बरस का था. आज मैं चौबीस का होने को हूँ. माने ये कि अपने लड़कपन में ‘दिल चाहता है’ देखने वाली मेरी पीढ़ी आज अपनी भरपूर जवानी के दौर से गुज़र रही है. ‘लक बाय चांस’ इसी ‘दिल चाहता है’ पीढ़ी की बात करती है. वो इसी पीढ़ी के लिए है. नये जीवन-मूल्य, चरित्रों में नयापन, सिनेमा में जिन्दगी को देखने का ज़्यादा आम नज़रिया. ‘रॉक ऑन’ के बाद आई फ़रहान की यह दूसरी फ़िल्म ज़िन्दगी में आती सफ़लता- असफ़लता और उससे जुड़ी जटिलताओं पर, दोस्ती और प्यार पर, ईमानदारी और रिश्तों में सच्चाई की भूमिका पर ‘रॉक ऑन’ जितना इंटेस तो नहीं लेकिन उससे ज़्यादा मैच्योर टेक है. अपने स्वभाव से मुख़र और हमेशा ज़रूरत से ज़्यादा मैलोड्रेमैटिक ‘बॉलीवुड’ पर आधारित होने के बावजूद ‘लक बाय चांस’ कहीं भी लाउड नहीं है और प्रसंगों को ज़रा भी ओवरप्ले नहीं करती. मुख्य किरदारों में मौजूद सोना मिश्रा (कोंकणा) और विक्रम जयसिंह (फ़रहान) इस ख़ासियत को सबसे अच्छी तरह निभाते हैं. यही बात इसे विषय में अपनी पूर्ववर्ती ‘ओम शान्ति ओम’ से एकदम जुदा बनाती है और इसके तार सीधे ‘गुड्डी’ जैसी क्लासिक से जोड़ देती है. आप महानायक ज़फ़र खान (रितिक रौशन) को कार के बंद शीशे के पार खड़े झोपड़पट्टी के बच्चों को देखकर तरह-तरह के मुंह बनाते, उनसे खेलते देखिये और आप समझ जायेंगे कि बहुत बार ज़ोया को अपनी बात कहने के लिए संवादों की भी ज़रूरत नहीं होती. यह एक धोखेबाज़ महानायक के भीतर कहीं खो गए बच्चे की खोज है. आधे मिनट से भी कम का यह सीन इस फ़िल्म को कुछ और ऊंचा उठा देता है. यह ‘ओम शान्ति ओम’ जैसी नायक-खलनायक वाली द्विआयामी फ़िल्म नहीं. इसमें तीसरा आयाम भी शामिल है जिसे स्याह-सफ़ेद के खांचों में बंटी दुनिया में धूसर या ‘ग्रे’ कहा जाता है. वो आलोचनात्मक नज़रिया जिसके बाद किरदार ‘नायक-खलनायक’ के दायरों से आज़ाद हो जाते हैं.

लेकिन वो इसका अन्त है जो इसे ‘दिल चाहता है’ और ‘रॉक ऑन’ से ज़्यादा बड़ी फ़िल्म बनाता है. अन्त जो हमें याद दिलाता है कि बहुत बार हम एक परफ़ैक्ट एन्डिंग के फ़ेर में बाक़ी ‘आधी दुनिया’ को भूल जाते हैं. याद कीजिए ‘दिल चाहता है’ का अन्त जहाँ दोनों नायिकायें अपनी दुनिया खुशी से छोड़ आई हैं और तीनों नायकों के साथ बैठकर उनकी (उनकी!) पुरानी यादें जी रही हैं. या ‘रॉक ऑन’ का अन्त जहाँ चारों नायकों का मेल और उनके पूरे होते सपने ही परफ़ैक्ट एन्डिंग बन जाते हैं. अपनी तमाम खूबियों और मेरी व्यक्तिगत पसंद के बावजूद ये बहुत ही मेल-शॉवनिस्टिक अन्त हैं और यहीं ‘लक बाय चांस’ ख़ुद को अपनी इन पूर्ववर्तियों से बहुत सोच-समझ कर अलग करती है. ‘लक बाय चांस’ इस तरह के मेल-शॉवनिस्टिक अन्त को खारिज़ करती है. फ़िल्मी भाषा में कहूं तो यह एक पुरुष-प्रधान फ़िल्म का महिला-प्रधान अन्त है. ज़्यादा खुला और कुछ ज़्यादा संवेदनशील. एक नायिका की भूली कहानी, उसका छूटा घर, उसके सपने, उसका भविष्य. आखिर यह उसके बारे में भी तो है.

यह अन्त हमें याद दिलाता है कि बहुत दिनों बाद इस पुरुष-प्रधान इंडस्ट्री में एक लड़की निर्देशक के तौर पर आई है!