मूलत: तहलका हिन्दी के फ़िल्म समीक्षा खंड ‘पिक्चर हॉल’ में प्रकाशित
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“यह बॉलीवुड का असल चेहरा है. ’लक बाय चांस’ हिन्दी फ़िल्म इंडस्ट्री के लिए वही है जो ’सत्या’ मुम्बई अन्डरवर्ल्ड के लिए थी.” – ’पैशन फ़ॉर सिनेमा’ पर दर्ज एक स्ट्रगलिंग एक्टर का नज़रिया.
लक बाय चांस की शुरुआत ही इसे अन्य हिन्दी फ़िल्मों से अलग (और आगे) खड़ा कर देती है. परस्पर विरोधी छवियों को आमने-सामने खड़ा कर ज़ोया कमाल की विडम्बना रचती हैं. (‘विडम्बना’, कितने दिनों बाद मैं किसी हिन्दी फ़िल्म की समीक्षा में इस शब्द का इस्तेमाल कर रहा हूँ!) परियों वाले पंख लगाकर सार्वजनिक शौचालय में जाती लड़की, कैंटीन में बैठकर चाय पीते अंतरिक्ष यात्री, सिनेमा हॉल के बूढ़े गेटकीपर से लेकर कोरस में गाती मोटी आन्टियों तक आती तमाम छवियाँ आपको उन लोगों की याद दिलाती हैं जिनके लिए यह सपनों से भरी दुनिया, यह चमक-दमक, यह ग्लैमर महज़ पेट भरने की ज़रूरत, एक नौकरी भर है. शुरुआत से ही इसमें किसी डाक्यूमेंट्री फ़िल्म सी प्रामाणिकता दिखाई देती है. चाहे वो नायक के दोस्त के घर में बजता रब्बी शेरगिल का ‘बुल्ला की जाणा मैं कौण’ हो चाहे बकौल मदनगोपाल सिंह ‘चड्ढा-चोपड़ा कैम्प’ के सच्चे प्रतिनिधि रोमी रॉली (ऋषि कपूर) और मिंटी रॉली (जूही चावला) जैसे चरित्र, ‘लक बाय चांस’ हर बारीक़ी का ख्याल रखती है. मैकमोहन जी को देखकर और उनके मुँह से ‘पूरे पचास हज़ार’ सुनकर तो मेरी आँखों में आँसू आ गए! सच में ज़ोया इस इंडस्ट्री की रग-रग से वाकिफ़ हैं. हर स्तर पर बारीक़ डीटेलिंग इसकी बड़ी खासियत है.
इसे ‘दिल चाहता है’ से जोड़ा जायेगा. सही भी है, यह फ़रहान की बड़ी बहन ज़ोया की पहली फ़िल्म है और ‘दिल चाहता है’ के निर्देशक ख़ुद इसमें नायक के रोल में हैं. जब हिन्दी सिनेमा में ‘दिल चाहता है’ घटित हुई मैं उस वक़्त सोलह बरस का था. आज मैं चौबीस का होने को हूँ. माने ये कि अपने लड़कपन में ‘दिल चाहता है’ देखने वाली मेरी पीढ़ी आज अपनी भरपूर जवानी के दौर से गुज़र रही है. ‘लक बाय चांस’ इसी ‘दिल चाहता है’ पीढ़ी की बात करती है. वो इसी पीढ़ी के लिए है. नये जीवन-मूल्य, चरित्रों में नयापन, सिनेमा में जिन्दगी को देखने का ज़्यादा आम नज़रिया. ‘रॉक ऑन’ के बाद आई फ़रहान की यह दूसरी फ़िल्म ज़िन्दगी में आती सफ़लता- असफ़लता और उससे जुड़ी जटिलताओं पर, दोस्ती और प्यार पर, ईमानदारी और रिश्तों में सच्चाई की भूमिका पर ‘रॉक ऑन’ जितना इंटेस तो नहीं लेकिन उससे ज़्यादा मैच्योर टेक है. अपने स्वभाव से मुख़र और हमेशा ज़रूरत से ज़्यादा मैलोड्रेमैटिक ‘बॉलीवुड’ पर आधारित होने के बावजूद ‘लक बाय चांस’ कहीं भी लाउड नहीं है और प्रसंगों को ज़रा भी ओवरप्ले नहीं करती. मुख्य किरदारों में मौजूद सोना मिश्रा (कोंकणा) और विक्रम जयसिंह (फ़रहान) इस ख़ासियत को सबसे अच्छी तरह निभाते हैं. यही बात इसे विषय में अपनी पूर्ववर्ती ‘ओम शान्ति ओम’ से एकदम जुदा बनाती है और इसके तार सीधे ‘गुड्डी’ जैसी क्लासिक से जोड़ देती है. आप महानायक ज़फ़र खान (रितिक रौशन) को कार के बंद शीशे के पार खड़े झोपड़पट्टी के बच्चों को देखकर तरह-तरह के मुंह बनाते, उनसे खेलते देखिये और आप समझ जायेंगे कि बहुत बार ज़ोया को अपनी बात कहने के लिए संवादों की भी ज़रूरत नहीं होती. यह एक धोखेबाज़ महानायक के भीतर कहीं खो गए बच्चे की खोज है. आधे मिनट से भी कम का यह सीन इस फ़िल्म को कुछ और ऊंचा उठा देता है. यह ‘ओम शान्ति ओम’ जैसी नायक-खलनायक वाली द्विआयामी फ़िल्म नहीं. इसमें तीसरा आयाम भी शामिल है जिसे स्याह-सफ़ेद के खांचों में बंटी दुनिया में धूसर या ‘ग्रे’ कहा जाता है. वो आलोचनात्मक नज़रिया जिसके बाद किरदार ‘नायक-खलनायक’ के दायरों से आज़ाद हो जाते हैं.
लेकिन वो इसका अन्त है जो इसे ‘दिल चाहता है’ और ‘रॉक ऑन’ से ज़्यादा बड़ी फ़िल्म बनाता है. अन्त जो हमें याद दिलाता है कि बहुत बार हम एक परफ़ैक्ट एन्डिंग के फ़ेर में बाक़ी ‘आधी दुनिया’ को भूल जाते हैं. याद कीजिए ‘दिल चाहता है’ का अन्त जहाँ दोनों नायिकायें अपनी दुनिया खुशी से छोड़ आई हैं और तीनों नायकों के साथ बैठकर उनकी (उनकी!) पुरानी यादें जी रही हैं. या ‘रॉक ऑन’ का अन्त जहाँ चारों नायकों का मेल और उनके पूरे होते सपने ही परफ़ैक्ट एन्डिंग बन जाते हैं. अपनी तमाम खूबियों और मेरी व्यक्तिगत पसंद के बावजूद ये बहुत ही मेल-शॉवनिस्टिक अन्त हैं और यहीं ‘लक बाय चांस’ ख़ुद को अपनी इन पूर्ववर्तियों से बहुत सोच-समझ कर अलग करती है. ‘लक बाय चांस’ इस तरह के मेल-शॉवनिस्टिक अन्त को खारिज़ करती है. फ़िल्मी भाषा में कहूं तो यह एक पुरुष-प्रधान फ़िल्म का महिला-प्रधान अन्त है. ज़्यादा खुला और कुछ ज़्यादा संवेदनशील. एक नायिका की भूली कहानी, उसका छूटा घर, उसके सपने, उसका भविष्य. आखिर यह उसके बारे में भी तो है.
यह अन्त हमें याद दिलाता है कि बहुत दिनों बाद इस पुरुष-प्रधान इंडस्ट्री में एक लड़की निर्देशक के तौर पर आई है!
बहुत ही खूबसूरती के साथ आप ने इस फिल्म की समीक्षा की ….
यह ’जोड़ा हुआ’ अंत शायद संभव न होता अगर निर्देशक का नाम ज़ोया अख़्तर न होता. स्त्री होने की वजह से शायद वो यह देख पाईं कि हमारे मुख्यधारा सिनेमा में बनने वाली तमाम ’मेल प्रोटेगनिस्ट’ को केन्द्र में रखने वाली फ़िल्में किस तरह नायिका की कहानी को एकदम सिरे से भूल जाती हैं. इस फ़िल्म का अंत ही इसे इस धारा की अन्य फ़िल्मों (जैसे दिल चाहता है, रॉक ऑन) से अलग बनाता है.
iska end to yaar joda hua lagta hai.kahani to ye male protogonist ki hi hai.
bahut achchha likha hai aap ne.aap ko padhta rahta hoon.kya aap hindi talkies series ke liye apne sansmaran bhej sakenge.mujhe likhen…brahmatmaj@gmail.com
कल ही देखी यह फिल्म. बहुत सटीक समीक्षा की है आपने. बधाई.