हम जेएनयू में हैं। छात्रों का हुजूम टेफ़्लास के बाहर कुछ कुर्सियाँ डाले दिबाकर के आने की इन्तज़ार में है। प्रकाश मुख्य आयोजक की भूमिका में शिलादित्य के साथ मिलकर आखिरी बार सब व्यवस्था चाक-चौबंद करते हैं। दिबाकर आने को ही हैं। इस बीच फ़िल्म की पीआर टीम से जुड़ी महिला चाहती हैं कि स्पीकर पर बज रहे फ़िल्म के गाने की आवाज़ थोड़ी बढ़ा दी जाए। लेकिन अब विश्वविद्यालय के अपने कायदे हैं और प्रकाश उन्हें समझाने की कोशिश करते हैं। वे महिला चाहती हैं कि दिबाकर और टीम जब आएं ठीक उस वक़्त अगर “भारत माता की जय” बज रहा हो और वो भी बुलन्द आवाज में तो कितना अच्छा हो। मैं यह बात हेमंत को बताता हूँ तो वह कहता है कि समझो, वे पीआर से हैं, यही उनका ’वन पॉइंट एजेंडा’ है। हेमन्त, जिनकी ’शटलकॉक बॉयज़’ प्रदर्शन के इन्तज़ार में है, जेएनयू के लिए नए हैं। मैं हेमन्त को कहता हूँ कि ये सामने जो तुम सैंकड़ों की भीड़ देख रहे हो ना, ये भी भीड़ भर नहीं। यहाँ भी हर आदमी अपने में अलग किरदार है और हर एक का अपना अलग एजेंडा है।
हम जेएनयू में हैं। घने सवालों के बीच। दिबाकर अपने मुम्बई में ’दोस्ती फ़्लेमिंगोज़’ जैसे किसी अजीब नामवाली इमारत में बसे अपने घर और पड़ोस का किस्सा सुना रहे हैं। परेल का उनका फ़्लैट, वही परेल जहाँ पहले मुम्बई की मशहूर कपड़ा मिलें हुआ करती थीं और जिसकी ऊँची चिमनियाँ आज भी उनके बीसवीं मंज़िल के घर की खिड़की से दिखती हैं। फिर अचानक उनकी कथा में ड्राइवर आ जाते हैं, गार्ड आ जाते हैं और अन्य बहुत सारे कर्मचारीनुमा किरदार। यही सब लोग जो आज उनकी भव्य इमारत में नौकर हैं, उन्हें बताते हैं कि कभी यह जगह उनका घर हुआ करती थी। जहाँ आज उनकी गाड़ी पार्क होती है वहाँ कभी उनकी चाल रही होगी और जहाँ आज इमारत का मुख्य दरवाज़ा है वहाँ कभी चाय की वो दुकान थी जहाँ पूरा मोहल्ला इकठ्ठा होता था। गार्ड बताता है, “इधर मिल थी और इधर बच्चों के खेलने का मैदान हुआ करता था” घर चले गए हाथ से, और आज वे यहाँ नौकर हैं। वे उनसे ’अलग’ हैं जो यहाँ अब रहते हैं। वे ठीक से अंग्रेज़ी बोलना नहीं जानते। बोलते भी हैं तो उनका ’एक्सेंट’ यहाँ के वर्तमान मालिकों जैसा नहीं। यह भेद बताते हुए उनके चेहरे पर कोई गुस्से भरा नकारात्मक भाव नहीं है। लेकिन दिबाकर इस औचक सच्चाई से रूबरू हैं जहाँ किसी जगह का पूर्वमालिक आज ठीक उसी अपने घर की जगह पर सफ़ाई कर्मचारी या गार्ड बना दिया गया है और यह सर्वमान्य ’प्रगति’ है।
अजीब बात बस यही है कि वो ये किस्सा इस सवाल के जवाब में सुना रहे हैं कि उन्हें ’शांघाई’ बनाने का ख्याल कैसे आया? और सिर्फ़ इस जेएनयू की बातचीत में ही नहीं, मैं नोटिस करता हूँ कि उनसे जहाँ-जहाँ भी यह सवाल पूछा गया है, दिबाकर ने यही कथा सुनाई है। फिर पिछले हफ़्ते उनकी फ़िल्म पहली बार देखते हुए मैं नोटिस करता हूँ कि फ़िल्म का मुख्य किरदार मारे जाने के पहले कुछ ऐसा ही बोल रहा है, “प्रगति करो। खूब करो। लेकिन आईबीपी के नाम पे, प्रगति के नाम पे आप भारत नगर वालों को अपने घर से पचास मील दूर फेंक दोगे। फिर उन्हीं भारत नगर वालों को आईबीपी के गेट के सामने गार्ड बनाकर खड़ा कर दोगे। क्या ये प्रगति है? वो यहाँ आपके साथ रह नहीं सकते। काले हैं, कपड़े खराब हैं, इंग्लिश बोल नहीं सकते। ये कैसी प्रगति है भाई? कि सिर्फ़ मर्सिडीज़ चले और साइकिल न चले।“
क्यों भला? आखिर ’शांघाई’ की व्याख्या में यही कहानी ही क्यों? क्या ’शांघाई’ मुम्बई के विस्थापित मूलवासियों के बारे में है? ’शांघाई’ तो एक पॉलिटिकल थ्रिलर है, जिसके केन्द्र में एक राजनीतिक हत्या है। दिबाकर अपने दर्शकों को फिर ’धोखा’ दे गए लगते हैं।
मेरा एक सवाल है। सवाल ’शांघाई’ की दर्शकदीर्घा से है और बड़ा सीधा सा है। ’शांघाई’ देखनेवाले कितने लोग जग्गू (टैम्पो ड्राइवर की भूमिका में अनन्त जोग) से आईडेंटिफ़ाई करते हैं? कितने लोगों को जग्गू में अपना अक्स दिखता है? फ़िल्म उन्हीं से शुरु होती हैं और अन्त में उन्हीं पर ख़त्म, और इस नाते वह फ़िल्म की संरचना में सबसे महत्वपूर्ण किरदार बनकर उभरते हैं। मैं अभी तक ’शांघाई’ पर ऐसी एक दर्जन पोस्ट, कमेंट्स, अपडेट्स पढ़ चुका हूँ जिनमें टी ए कृष्णन (आईएएस ऑफ़िसर की भूमिका में अभय देओल) की भूमिका को ख़ास सराहा गया है और वे उनके किरदार से आईडेंटिफ़ाई करने वाले हैं। लेकिन अभी तक ’जग्गू’ के किरदार से आईडेंटिफ़ाई करने वाला कोई नहीं। ’शांघाई’ में जग्गू और कृष्णन दोनों हैं। लेकिन आज उस फ़िल्म की दर्शक दीर्घा में कृष्णन है, कभी शालिनी भी है, कौल हैं, अरुणा अहमदी हैं, डॉ. अहमदी भी हैं शायद। लेकिन जग्गू नहीं है।
यह कोई निरपेक्ष यथार्थ नहीं। यह हमारे मध्यवर्ग का यथार्थ है। बेशक वास्तविक यथार्थ में प्रतिरोध है, अन्याय को न सहने की जिजीविषा है, आततायी व्यवस्था को पलट देने का जज़्बा है। लेकिन यह वास्तविक यथार्थ क्या हमारे मध्यवर्ग की सीमित दुनिया का यथार्थ भी है? क्या रिश्ता है हमारे वृहत मध्यवर्ग का उस व्यापक यथार्थ से जिसकी परछाईयाँ बस्तर के जंगलों में पसरी हैं। ’शांघाई’ में मध्यवर्ग के भिन्न स्तरों पर खड़े पात्र कथा के केन्द्र में हैं और फ़िल्म ज़्यादातर हिस्से उनकी नज़र से हमें यथार्थ दिखाती है। गौर कीजिए, वही इसके दर्शक भी हैं। असल यथार्थ इसके बीच कहीं-कहीं आता है जग्गू और भग्गू की कथा के रूप में और हमें किसी फ़्लैश लाइट की तरह हिट करता है।
और इसके लिये ’शांघाई’ की पटकथा लेखक उर्मि जुवेकर और संपादक नम्रता राव का कुशल काम रास्ता बनाता है। फ़िल्म यह कहकर नहीं करती, बल्कि बार-बार, हर निर्णायक क्षण में दो समांतर दृश्यों की ’क्रिस-क्रॉस’ एडिटिंग द्वारा इसे संभव बनाती है। देखिए कैसे भग्गू की कथा के दृश्य सत्ता की सौदेबाज़ियों के ठीक बीच में पिरोये गए हैं और आपको बिना कुछ बोले देखने का दूसरा नज़रिया देते हैं। जहाँ हॉस्पिटल में प्रसारित होते अरुणा अहमदी की प्रेस कॉंफ़्रेंस का दृश्य है और केन्द्रीय सत्ता की उनसे सौदेबाज़ी है, वहीं ठीक बीच में एक समांतर दृश्य आता है। जेल में बन्द एक कथित ’हत्यारा’ अपने परिवार का पेट कैसे भरे, इसके अंधेरे रास्तों पर भटक रहा है। आखिर में भी गौरी के घर शालिनी का और हम सबका सच से आत्मसाक्षात्कार पिरोया गया है उस समांतर दृश्य के साथ जहाँ सत्ता की साक्षात प्रतिनिधि मुख्यमंत्री (सुप्रिया पाठक) के गर्भग्रह में सभी सत्ता के लिए असुविधाजनक सवालों को अनुकूलित किया जा रहा है। यही पटकथा और संपादन की कुशल तकनीक फ़िल्म के किसी सामान्य से लगते वार्तालाप को देखने का दूसरा नज़रिया देती है और दृश्य के अर्थ बदल जाते हैं।
दिबाकर का दर्शक कौन है, वे इस तथ्य को जानते हैं और इसीलिए उनका सिनेमा सचेत सिनेमा है। पिछली फ़िल्मों की तरह यहाँ भी वो अपने दर्शक से बाकायदा ’धोखा’ करते हैं और फिर ’पॉलिटिकल थ्रिलर’ कहकर मध्यवर्ग को उसकी ही ज़िन्दगियों के दोगलेपन से रूबरू करवाने लगते हैं। लोगों की दिक्कत उनसे यह है कि वे तो अपने नायकों को भी नहीं बक्शते। चार्टर्ड प्लेन से आया क्रांतिकारी आन्दोलनकर्ता जब शलिनी को जबरन थाने ले जाने की बात कर रहे स्थानीय पुलिसवालों को धमकाता है तो उनका और अपना वर्गभेद साफ़ करता है। बेशक, यहाँ वह सही की तरफ़ खड़ा है लेकिन यहाँ भी एक पावरगेम है जिसे दिबाकर का सिनेमा कभी नज़रअन्दाज़ नहीं करता। अहमदी का किरदार सही की तरफ़ है लेकिन उसमें सदा ’पॉलिटिकली करेक्ट’ होने की चाहत नहीं। और इसीलिए यह ’आदर्श’ नहीं, जीता-जागता किरदार है। और यही अद्भुत नज़रिये में बहुवचन का दिबाकरी खेल हमें उस अंतिम दृश्य तक पहुँचाता है जिसे वरुण ने अपने शानदार आलेख में ’फ़िल्म की आत्मा’ कहा है। इस दृश्य की शुरुआत में एक ओर हमारी नायिका है, हत्यारी व्यवस्था द्वारा शोषित और शिकार तथा दूसरी ओर स्वयं हत्यारा है। और फ़िर फ़िल्म हमें देखने का ’अन्य’ नज़रिया देती है और जैसे सारा नक्शा ही बदल जाता है। फ़िल्म का एक संवाद नज़रिया उलट देता है और उसी दृश्य में जब शालिनी बोलती है ’तुम लोग’, हम शालिनी को शोषणकारी वर्ग का हिस्सा बनते और जग्गू को व्यवस्था के असली शिकार के रूप में देख पाते हैं तो यह दुर्लभ है। यह ’अन्य’ का नज़रिया सिनेमा तो क्या साहित्य और किसी भी रचनात्मक कला में विरल है और जब भी मिलता है रचना को भिन्न स्तर पर ले जाता है।
जग्गू या गौरी या भग्गू फ़िल्म में तभी आते हैं जब वे हमारे किरदारों की कथाओं को ओवरलैप करते हैं। ठीक वैसे जैसे वो हमारी ज़िन्दगियों में आते हैं। किसी उपकथा की तरह। क्या वो इस कथा की उपकथा हैं? नहीं। वो इस कथा की मुख्य कथा हैं। ठीक वैसे ही जैसे अनुषा रिज़वी की ’पीपली लाइव’ में मुख्य कथा मिनट भर को आने वाले होरी की कथा थी। और याद है, उस फ़िल्म में आए मीडिया ने भी कभी उस कथा को मुख्य कथा नहीं माना था। मैंने तब इन्हीं कथादेश के पन्नों पर लिखा था कि ’पीपली लाइव’ में आया मुख्यधारा मीडिया दरअसल हम हैं। इस देश का ’ग्रेट इंडियन मिडिल क्लास’। ’शांघाई’ में वो महान चिंतित मिडिल क्लास सिनेमा के परदे के सामने बैठा है। वही तय कर रहा है कि इस फ़िल्म में ’जनता’ नहीं है। इस फ़िल्म में ’प्रतिरोध’ नहीं है। इस फ़िल्म में ’विकल्प’ नहीं है। और इसलिए यह फ़िल्म सच्चे अर्थों में एक ’क्रांतिकारी’ फ़िल्म नहीं है।
हाँ, ’शांघाई’ एक क्रांतिकारी फ़िल्म नहीं है। लेकिन कोई मुझे बताए कि जैसा हमारा मध्यवर्ग आज है, जैसा उसका चरित्र है, क्या उसे लेकर कोई क्रांतिकारी फ़िल्म बनाई जा सकती है? ऐसी फ़िल्म जो क्रांति की बात भी करे और ईमानदार भी बनी रहे। आज हम जिस दोगलेपन में जी रहे हैं, अपने ही वृहत्तर समाज से योजनाबद्ध तरीके से जिस अलगाव को हमने निभाया है, हमें सिर्फ़ आईना दिखाया जा सकता है। और वही ’शांघाई’ करती है। और अगर वह आईना सच्चा है तो उसमें ’विकल्प’ नहीं दिखेगा, सिर्फ़ हमारा भद्दा दोमुहाँपन दिखेगा।
’शांघाई’ वो करती है जो उसे करना चाहिए। या जो वो अधिकतम कर सकती है। वो अपने दर्शक को पहचानती है और उसे उसकी असलियत दिखाती है, आईना दिखाती है। एक ’चिंतित दिखने’ का ठोंग करते मध्यवर्ग को बताती है कि तुमने बेशक पढ़ा हो कि तुम्हारे आस-पास कैसा अन्याय हो रहा है, बेशक तुम ’सब जानने’ का दंभ भरते हो, वास्तव में तुम इस व्यवस्था के सबसे प्रिय अंधे हो। इस देश की अस्सी प्रतिशत जनता अपनी ज़िन्दगी में ’रोज़’ क्या झेलती है, इस व्यवस्था का ’असल’ चेहरा कैसा है, तुम्हें धेला पता नहीं है। या शायद यह कि ’पता होना’ और खुद उस स्थिति में होना दो नितांत भिन्न अवस्थाएं हैं और पहली अवस्था दूसरी को समझने में उतनी ही नाकाफ़ी है जितना उस अंतिम ’फ़िल्म की आत्मा’ वाले दृश्य में शालिनी की शहरी नागरिक समाज वाली समझदारी गौरी, जग्गू और उसके परिवार की स्थिति को समझने में नाकाफ़ी साबित होती है।
मैं फ़िर कह रहा हूँ। आज का मुख्यधारा सिनेमा, ’बॉलीवुड’ एक नितांत इकहरी सी व्यवस्था है जहाँ हाशिए के लोगों का प्रवेश अलिखित तौर पर वर्जित है। यह उच्चवर्ग और मध्यवर्ग का सिनेमा है और इससे किसी हाशिए की कथा का वाहक बनने की उम्मीद करना बेमानी है। उससे सर्वहारा पर ’स्वानुभूति’ वाली फ़िल्म की उम्मीद करना बेमानी है। वो होगी भी तो कभी ईमानदार फ़िल्म नहीं हो सकती। यहाँ आप अधिक से अधिक ’प्रेमचंद’ हो सकते हैं (जो शायद दिबाकर हुए हैं), ओमप्रकाश वाल्मिकी कभी नहीं। शायद आगे बने, अभी व्यवस्था में इसकी गुंजाईश नहीं है। इसके मूल में जो आर्थिक व्यवस्था काम कर रही है वो सीधे बाज़ार आधारित है और उसका दर्शक सिर्फ़ इस देश का ऊपरी पन्द्रह-बीस प्रतिशत तबका है। अरे जहाँ हाशिए के समूहों, दलितों, महिलाओं की संख्या गिनती की हो और वो भी व्यवस्था की शर्तों पर हो उस व्यवस्था से हाशिए की कथाओं की उम्मीद कैसे? अगर आपको हाशिए की कथाएं अपनी मूल आवाज़ में सुननी हैं तो मुख्यधारा सिनेमा से बाहर निकलना होगा। वे आपको मिलेंगी उन वृत्तचित्रों में जिन्हें सरकार प्रतिबंधों के तमगे देती है। वे आपको मिलेंगी उन राजनौतिक – सांस्कृतिक समूहों में जिन्हें ’माओवादी’ का ठप्पा लगा ठिकाने लगाने की कोशिश है। वे आपको मिलेंगी उन पर्चों, पैम्फ़लेटों, डायरियों और लघु पत्रिकाओं में जिन्हें लिखने और छापने वाले मानवाधिकार समूह, सांस्कृतिक समूह या तो गिरफ़्तार हैं या अपनी जान बचाते घूम रहे हैं। वे आपको मिलेंगी उन मूल रचनाओं में जिन्हें क्षेत्रीय का तमगा देकर पहले ही किनारे कर दिया गया है।
मुझे खुद दिबाकर का कहा ही याद आता है। जब उन्होंने जेएनयू में कहा था कि “भारतमाता की जय” गीत दरअसल गुस्से से भरा व्यंग्य है और उनके हिसाब से हमारे वर्तमान में गर्व करने लायक कुछ नहीं, तो किसी छात्र ने पलटकर पूछा था कि आखिर आपको यहाँ ’भारत माता’ पर व्यंग्य करने वाला गीत रचने, सुनाने का मौका मिला, ’शांघाई’ जैसी आलोचनात्मक फ़िल्म बनाने, सार्वजनिक रूप से दिखाने का मौका मिल रहा है, क्या यह अपने आप में गर्व की बात नहीं? और उन्होंने जवाब में कहा था कि मैं तो व्यावसायिक फ़िल्मकार हूँ, उन्हें मालूम है कि मैं चाहे अपनी फ़िल्म में कितनी ही क्रांतिकारी बातें कर लूँ, अन्त में मुझे शुक्रवार को कुछ टिकट बिक जाने की कामना में सबकुछ करना है। लेकिन इसी देश में बहुत सी फ़िल्में ऐसी हैं जिन्हें प्रदर्शन से रोका जाता है। इसी देश में बहुत सी किताबें ऐसी हैं जिन्हें प्रतिबंधित किया जाता है। वो महत्वपूर्ण फ़िल्में हैं, वो महत्वपूर्ण किताबें हैं। और यह असल चिंता की बात है। अगर हमें अपनी आज़ादी बचानी है तो उन अंधेरे कोनों पर सदा सवाल उठाते रहना होगा।
गौर से देखिए, ’शांघाई’ में ऐसे कितने दृश्य और प्रसंग हैं जहाँ कथा के बीच ही कोई अप्रासंगिक सा लगता विचलन वाला किरदार है। वो हमारे आईएएस अधिकारी की कार चलाता ड्राइवर है या अस्थायी जांच कमीशन बने सरकारी स्कूल के कमरे को झाड़ता, बरामदे पर पोंचा लगाता सफ़ाई कर्मचारी है या ट्रेडमिल पर भागते अधिकारी की सेवा में पानी की बोतल और फ़्रूट लेकर खड़ा कोई आदमी है या दीवार पर पेंट करता कोई मज़दूरों का जोड़ा है या विशाल और सूखा स्विमिंगपूल बुहारता मज़दूर है। वह सदा कोई सर्वहारा है और वो आपकी कथा में कभी प्रवेश नहीं कर पाता। लेकिन वो सदा वहाँ मौजूद है। यही ’शांघाई’ है।
उसे आपकी नज़र चाहिए। कि आप समझें कि जो जाम में फंसा बेनाम ड्राइवर अपने बॉस को बता रहा है कि यहीं हत्या हुई थी और यह मोर्चा वाले हैं और कि वो भी यहीं रहता था लेकिन इन मोर्चा वालों के आने के बाद उसे बहुत दूर जाना पड़ा, वही ड्राइवर इस फ़िल्म की मुख्य कथा है। कि जब हमारी नायिका अपनी नौकरानी को किसी ’अदृश्य बदले’ के तहत कल से काम पर ना आने को कह रही है तो ठीक उसके पीछे एक वृद्धा को उसके घर-चौबारे से बेदखल किया जा रहा है, यही ’शांघाई’ की मुख्य कथा है। कि उस चमत्कारिक फ़्रेम में जहाँ कौल ट्रेडमिल पर दौड़ रहे हैं और सीएम का फ़ोन आता है, वहीं शीशे के तीन प्रतिबिबों में सत्ता के तीन दृश्य-अदृश्य स्तरों के बीच खड़ा वह अनाम सर्वहारा पात्र इस फ़िल्म की मूल कथा है। कि आप उसे पहचानें। कि आप समझें कि इन किरदारों की कहानी असल कहानी है जो इस एक चमचमाती मौत के पीछे लोगों की ज़िन्दगियों में रोज़ घट रही सच्चाई है। इतनी भयावह लेकिन इतनी आम कि उसे हम अब कथा ही नहीं मानते।
मैंने लिखा, फिर कह रहा हूँ, कृष्णन से आईडेंटिफ़ाई करती दर्जन भर पोस्ट, कमेंट, अपडेट्स मैं पढ़ चुका हूँ। लेकिन दिबाकर की सुनाई उस शुरुआती कथा का असल मतलब मैं अब ही समझ पाया हूँ। वो चाबी भी जिसे वे खुद उस कथा के माध्यम से हमें दे रहे हैं इस ’शांघाई’ का ताला खोलने के लिए। लेकिन मैं अभी भी उस पहली पोस्ट के इन्तज़ार में हूँ जो ’शांघाई’ में सदा मौजूद इन सर्वहारा किरदारों की बात करे, इन्हें पहचाने। वे किरदार जो ’शांघाई’ में सदा मौजूद हैं। वे आपसे, हमसे और फ़िल्म की मुख्य कथा लगते मध्यवर्गीय किरदारों से कहीं ज़्यादा अच्छी तरह से इस व्यवस्था को जानते हैं। क्योंकि यह व्यवस्था उनके लिए दैनंदिन का भोगा हुआ यथार्थ है। वे किरदार जो एक ही शहर में तीन-तीन बार विस्थापित किये जाते हैं। उनका एक प्रतिनिधि जग्गू आपके और हमारे सीधे ’मुँह पर’ है और सिर्फ़ इसीलिए हम उसकी बात करते हैं। लेकिन बाक़ी ’अन्य’। क्या यह सच नहीं कि वे अन्य हमारी, हम शहरी मध्यवर्ग की आँख से अब दिखने ही बन्द हो गए हैं? क्योंकि उनका त्रास, उनका विस्थापन हमारी आँखों के सामने ’घटना’ बनकर नहीं आता। अब न वे हमें अपने आस-पास दिखते हैं और न फ़िल्म में। यह सच्चाई है हमारी। ’शांघाई’ सिर्फ़ हमें यह सच्चाई सबूत के साथ बताती है।
अगर अभी तक उस पाठ को फ़िल्म में नहीं पढ़ा गया है तो यह फ़िल्म से ज़्यादा हमारे बारे में, फ़िल्म की दर्शकदीर्घा के बारे में बताता है।
Sir,
Bahut bahut pehle, Varun bhaiyya ke fb reference se is post ko padha tha … mano movie ka eureka moment ! Ek must-read article jo is movie ko naya aayam de deta hai … Aaj fir wife ke saath movie “revise” kari … wakai mein kuch naya notice kiya … aur fir se mann ho aaya ise hi padhne ka ….
Bachpan mein suna tha .. ki shlok / kavita ki infinite interpretations /vyakhya ho sakti hai … but mathematical venn diagram mein dekhen .. to middle class film critics sirf kuch % hi cover karte hain … middle class ko lower class ki presence se avagat karata aisa pehla lekh padhne mein aaya …
Anek anek dhanyavaad ise likhne ke liye … Aur haan, aapne is white background karne ke liye fir socha kya ?
शुक्रिया शोभित। मुझे आज भी लगता है कि ‘शांघाइर्’ को मिली आलोचना ही उसकी असल तारीफ़ है। वह हमारे मध्यवर्ग को प्रश्नांकित करती है, जो उसका असल दर्शक है। एेसे में आलोचना स्वाभाविक है। लोग सिनेमाहाल में सिनेमा देखने जाते हैं, आइर्ना देखने नहीं।
बहुत अच्छा । बहुत खूब। मैनें भी शांघई की कई समीक्षाएं पढीं मगर वे सब चलताऊ किस्म की थीं। आपने गजब लिखा है। फिल्म देखने के बाद मन में एक गांठ सी लगी हुई थी , मगर अब खुल गई है। मैं समझ रहा था कि जग्गू की खामोशी और बैचेन आंखों पर किसी को कुछ लिखना चाहिये। गौरव सोलंकी ने भी अच्छा लिखा है मगर आपका लिखा ज्यादा अच्छा लगा।
हमारे लिये इनकी पीड़ा जितनी मनोरंजक है उतनी फंतासी भी
हमारे लिये इनकी पीड़ा जितनी मनोरंजक है उतनी फंतासी भी
Yes Tanaya, for sure. But for the time being use “Ctrl +” keys together on your laptop for making the font size more readable for your need.
Hi Mihir,
I happened to bump into your blog through Jai’s. And it has been an extremely interesting read.. Just one request you needs to do something about the font size.. Becomes extremely difficult to read after a point because it’s so small
अधूरी नींद के बावजूद पढ़ गया Mihir Pandya को .लगातार हथौड़ा चलाता ये समीक्षक दिमाग के भीतर चोट करता है .फ़िल्म न देख पाने के बावजूद उस जगह खडा है जहां जाने का ख़याल तक नहीं आता .वह उम्मीद करता है ,,”लेकिन मैं अभी भी उस पहली पोस्ट के इन्तज़ार में हूँ जो ’शांघाई’ में सदा मौजूद इन सर्वहारा किरदारों की बात करे, इन्हें पहचाने। वे किरदार जो ’शांघाई’ में सदा मौजूद हैं। ”
आप अगर शंघाई की जगह देश लिख देते और उम्मीद रखते तो भी आपको कोई पोस्ट नहीं मिलेगी जिसकी बात लिखी है.मै तो उस महिला की भावना समझते हुए गा रहा हू ,”भारत माता की जय बोलो
that is superbly written article! As a middle class Indian, even I hadn’t noticed these people in the film. It’s sad…just sad. इस बढ़िया लेख के लिए शुक्रिया !
प्रमोद जी, मैं ठीक अभी अपने छोटे भाई (जो इस ब्लॉग का तकनीकी पक्ष देखता है) के प्राण पी रहा हूँ इसे बदलने के लिए। देखिए, मेरी धमकियाँ कब काम करती हैं! वैसे मैं ’शांघाई’ पर आपका स्टेटस अपडेट देखकर भी थोड़ा चकराया था। आप अपनी भाषा में उन गिने चुने सिनेमा पर लिखने वालों में से हैं जिन्होंने दिबाकर के सिनेमा को उसके सही पाठ के साथ पहले भी पहचाना है।
सही लिखाई..
अलग से एक बात. यह काले पर सफ़ेद की पढ़ाई वैसे आंखों के लिए बेवज़ह की कसरत बनती है.
करारा लेख.
लेकिन एक बात जो तुमने नयी और बहुत शानदार तरह से लिखी है वो है फिल्म में हर तरफ दिखते वो लोग जो चुपचाप हैं और वो ही असल में ‘शांघाई’ के अनाथ हैं. उनपर तुम्हारा लिखा बहुत पैना है…और समझने में सरल भी. उसमें कोई opinion नहीं है…वो फिल्म का एक ऐसा fact है जो सबने नज़र-अंदाज़ कर दिया. या तुम्हारे ही कहे को आगे बढ़ाऊँ तो clear and loud proof है कि middle class को यह लोग अब दिखना ही बंद हो गए हैं. ना सड़क पर दिखते हैं, ना फिल्म में दिखे.
फिल्म को समेटने के लिए इससे बढ़िया लेख क्या मिलेगा और?