फिर एक नया साल दरवाज़े पर है अौर हम इस तलाश में सिर भिड़ाए बैठे हैं कि इस बीते साल में ‘नया’ क्या समेटें जिसे अागे साथ ले जाना ज़रूरी लगे। फिर उस सदा उपस्थित सवाल का सामना कि अाखिर हमारे मुख्यधारा सिनेमा में क्या बदला?
क्या कथा बदली? इसका शायद ज़्यादा ठीक जवाब यह होगा कि यह कथ्य में पुनरागमन का दौर है। ‘पान सिंह तोमर’ देखते हुए जिस निस्संगता अौर बेचैनी का अनुभव होता है, वह अनुभव गुरुदत्त की ‘प्यासा’ के एकालाप ‘जिन्हें नाज़ है हिन्द पर वो कहाँ हैं’ तक जा पहुँचता है। ‘गैंग्स अॉफ वासेपुर’ की कथा में वही पुरानी सलीम-जावेद की उग्र भंगिमा है जिसके सहारे अमिताभ ने अपना अौर हिन्दी सिनेमा का सबसे सुनहरा दौर जिया। ‘विक्की डोनर’, ‘लव शव ते चिकन खुराना’, ‘अइय्या’, ‘इंग्लिश विंग्लिश’ अौर ‘तलाश’ जैसी फिल्में दो हज़ार के बाद की पैदाईश फिल्मों में नई कड़ियाँ हैं जिनमें अपनी अन्य समकालीन फिल्मों की तरह कुछ गंभीर लगती बातों को भी बिना मैलोड्रामा का तड़का लगाए कहने की क्षमता है। लेकिन अगर कथा नहीं बदली अौर न ही उसे कहने का तरीका थोड़े ताम-झाम अौर थोड़े मैलोड्रामा को कम करने के बावजूद ज़्यादा बदला, तो फ़िर ऐसे में अाखिर वो क्या बात है जो हमारे इस समकालीन सिनेमा को कुछ पहले अाए सिनेमा से भिन्न अनुभव बना रही है?
मेरा मानना है कि यह वर्तमान हमारे सिनेमा के इतिहास में पहला है जिसमें लेखक अौर निर्देशक अपनी कथाएं बम्बई जैसे महानगर के अावरण में लपेटे बिना सुना रहे हैं। दरअसल कथाएँ पहले भी उनकी ही थीं। वे कथाएं जो हमारे सिनेमा के तमाम पितृपुरुष बँटवारे से लहुलुहान पँजाब के देहातों से नंगे पाँव भागते अपनी यादों में साथ ले अाए थे। लेकिन वह ‘अनेकता में एकता’ खोजने का ज़माना था अौर कथा को एक ‘पैन इंडियन’ अावरण की चाशनी (जो अन्तत: मुम्बई था या दिल्ली, या ज़्यादातर कोई अनाम शहर या गाँव) में लपेटकर पेश करने की जो मजबूरी थी वो धीरे-धीरे एक लाइलाज मर्ज बनती गई। लेकिन यहाँ हाल के वर्षों में समाज में बड़े पैमाने पर बदलाव अाए हैं। अस्मिता विमर्श न सिर्फ विचार के केन्द्र में अाया, यह राजनीति के केन्द्र का भी निर्धारण करने लगा। नब्बे के दशक में हमारे लोकतंत्र का ढांचा बदला अौर यही वो समय था जब एक नई पीढ़ी हिन्दुस्तान के शहर-देहातों में अपना भविष्य सिनेमा में तलाशने का मन बनाने लगी थी। इसलिए नहीं कि यहाँ ग्लैमर था अौर पैसा था, बल्कि इसलिए कि उनके पास कहने को कथाएँ थीं जिनका किसी भी तरह बाहर अाना ज़रूरी था। दो हज़ार का दशक बीतते न बीतते वे अाए, विशाल अौर दिबाकर तो दो हज़ार छ: में ही इस प्रामाणिकता की तलाश में अपने जाने शहर अौर इलाकों मेरठ अौर दिल्ली लौट गए थे। लेकिन उनकी असली धमक ख़ास इस साल सुनाई दी है।
यही हमारे सिनेमा के वर्तमान का सबसे बड़ा बदलाव है। वही कथा अाज हमारे सामने अपने असली नाम-पते के साथ है, अपने असली अावरण में। उसे मुम्बई या किसी फिल्मी काल्पनिक नगर का बाशिंदा होने का झूठ नहीं बोलना है। अब ‘वासेपुर’ को समूचे भारत में प्रासंगिक होने के दबाव में किसी काल्पनिक ‘रामगढ़’ में बदल जाने की ज़रूरत नहीं। अब धावक से डाकू बने पान सिंह की कथा न सिर्फ भिंड-मुरैना के असल परिवेश को साथ रखकर सुनाई जा सकती है, बल्कि उसी प्रदेश की खाँटी बोली का इस्तेमाल भी पूरी फ़िल्म में धड़ल्ले से हो सकता है। इसीलिए अब कलकत्ता में घटित हुई ‘कहानी’ में अदम्य नायिका के बाद सबसे महत्वपूर्ण किरदार खुद शहर कलकत्ता निभाता है। उसके रास्ते, उसकी अादतें, उसकी मनुहारें, उसकी बेज़्ज़तियाँ, उसके त्योंहार सब फिल्म को उसका सच्चा अाधार देते हैं। अब कलकत्ता के रहनेवाले निर्देशक सुजॉय घोष पर यह दवाब नहीं है कि अगर वो एक हिन्दी फिल्म बना रहे हैं अौर अगर समूचे भारत में सफलता पाना चाहते हैं तो अपनी कहानी को उसके अपने शहर कलकत्ता से निकालकर या तो मुम्बई लेकर अाएं, या उसे किसी बेनाम शहर के हवाले कर दें। यह फिल्म अपनी ज़मीन नहीं छोड़ती अौर इसीलिए एक अौसत कथा होने के बावजूद सफल अौर प्रशंसित होती है। साल की सबसे प्यारी फिल्म ‘विक्की डोनर’ से भी अगर यह तथ्य निकाल लिया जाए कि जिन बंगाली अौर पंजाबी परिवारों के बीच हुए दोस्ती अौर प्यार की कथा वो कह रही है, उनका होना दिल्ली शहर में घटित हुए एक ख़ास भौगोलिक संयोग से जुड़ा है, तो इस कथा का तो अस्तित्व ही संभव नहीं। जूही चतुर्वेदी द्वारा लिखी अौर शुजित सरकार द्वारा निर्देशित ‘विक्की डोनर’ एक पंक्ति में ‘लाजपत नगर’ के ‘सी अार पार्क’ से हुए प्यार की कथा है। दिल्ली की दो ऐसी कॉलोनियाँ जिनमें भौगोलिक दूरी सिर्फ कुछ किलोमीटर की ही है, लेकिन जिनके माध्यम से एक ही झटके में अमृतसर से हावड़ा तक के सफ़र का मज़ा लिया जा सकता है। ‘अइय्या’ भी छोटे-बड़े संकेतों के माध्यम से एक प्रामाणिक मराठी परिवार गढ़ती है, ठीक वैसे ही जैसे ‘लव शव ते चिकन खुराना’ पंजाब को सिर्फ ‘सरसों के पीले खेतों’ तक सीमित नहीं करती अौर उसके भीतरी संकट की अोर भी इशारा करती है। अौर ‘बर्फी’ में भी एक पहाड़ी शहर का अपनी छोटी सी टॉय ट्रेन अौर उसकी पटरियों से सदा दिखता गहरा रिश्ता उस फ़िल्म का सबसे सहेजे जाने लायक सफ़र है।
अौर यही पहचान का पक्का वाला ठप्पा इस साल की दो सबसे उल्लेखनीय मानी गई फिल्मों की ज़मीन तैयार करता है। ़फ़िल्में जिनका वृहत कालखंड उन्हें कथा या परिवेश से ज़्यादा छेड़छाड़ की इजाज़त नहीं देता।
‘गैंग्स अॉफ वासेपुर’ अौर ‘पान सिंह तोमर’
दोनों फ़िल्में दो भिन्न तरीकों से उस सतत ह्वास की कथा कहती हैं जिनके भग्नावशेष हमारे समाज का वर्तमान गढ़ते हैं। यह वही ‘शहर का किनारा’ है जहाँ हमारे विकास के तमाम दावे ठिठककर रुक जाते हैं अौर सदा के लिए अंधेरे में छोड़ दिए गए उस ‘भारतीय देहात के महासागर’ की शुरुअात होती है। यह दोनों इतिहास कथाएं उसी उत्तर भारत के गर्भ से निकली हैं जहाँ नव स्वतंत्र राष्ट्रराज्य द्वारा दिखाए गए, अाधुनिकता नामक पारस पत्थर से छूकर निकले बराबरी अौर न्याय के रंगीन सपने रूढ़ि, अपमान, सामंतशाही अौर साम्प्रदायिकता के निर्जन प्रदेश में बिलख-बिलखकर दम तोड़ते रहे हैं।तिग्मांशु धूलिया की फिल्म ‘पान सिंह तोमर’ पर लिखते हुए हमने इस पर विस्तार से बात की है कि किस तरह फौजी-किसान पान सिंह की कथा जिसकी शुरुअात खुद उनके शब्दों में ‘पंडित जी के संगे-संगे हुई’, अागे चलकर राज्य संस्था द्वारा किए बराबरी, न्याय अौर नागरिक मूल्यों की स्थापना के वादे कैसे समाज के बहुमत के लिए मृगमरिचिका साबित हुए, इसकी प्रतीक कथा बन जाती है। लेकिन ‘पान सिंह तोमर’ की इस व्याख्या में ही कहीं अनुराग कश्यप की तीन पीढ़ियों अौर साठ साल के लम्बे वक़्फे में फैली ‘गैंग्स अॉफ वासेपुर’ को समझने के भी सूत्र छिपे हैं, इसे कम ही लोगों ने देखा। बदले, खानदानी अदावतों, अापसी रंजिशों अौर हत्याअों से भरे इस समरांगण में हमें यह पहचानना ज़रूरी है कि अाखिर वे कौन लोग हैं जो शहर के सीमांतों पर निरंतर चलते इस गृहयुद्ध के बावजूद लगातार सम्मान अौर सफलता की सीढ़ियाँ चढ़ रहे हैं। अौर वह समाज का कौन सा तबका है जिसके जीवन में देश की अाज़ादी के साथ अाया हर नया दिन अौर ज़्यादा नाउम्मीदी लेकर अाता है, अंधेरा अौर ज़्यादा बढ़ता जाता है। क्या यह सिर्फ एक संयोग है कि कुरैशी अौर पठानों की अापसी रंजिशों अौर नायकीय-खलनायकीय लगते उत्थान अौर पतन के बीच इस पूरे खेल का सूत्र संचालक तथा उससे असल लाभ लेने वाला व्यक्ति इस सीमांत वासेपुर से दूर हमारे शहर की सुरक्षित पनाहगाहों में रहता है, उसके पास समाज सत्ता अौर राज्य व्यवस्था दोनों में बड़े अोहदे का स्थान है अौर उसके फ़ोन की रिंगटोन में किसी हिन्दी फिल्म का गाना नहीं, गायत्री मंत्र गूंजता है। राज्य सत्ता उपस्थित है, लेकिन वह किनके लिए उपस्थित है यह फिल्म का वह प्रसंग ठीक-ठीक समझाता है जहाँ रामाधीर सिंह अपने विधायक लड़के को विरोधी से ‘सही तरीके’ से निपटने का पाठ पढ़ा रहे हैं अौर कहते हैं, “छोटा अादमी गुंडई करना चाहता है, करने दो। मज़ा लेना चाहता है मज़ा लेने दो। उसके मुँह लगोगे, अपने बराबर बिठाअोगे, अच्छा लगेगा? वो अवैध तरीका अपना रहा है, तुम वैध तरीका अपनाअो। धनबाद थाना तुमरे हाईकमान में अाता है ना। बुलाअो, एसपी को खाने पे बुलाअो।”
यह हमने कैसी राज्य व्यवस्था बनायी है जिसमें हमारी स्मृतियों से भी विस्मृत हुअा एक अन्तरराष्ट्रीय स्तर का पदक विजेता धावक सिर्फ तभी हमारे लिए खबर बनता है जब वो बीहड़ में अन्यायपूर्ण व्यवस्था को बदलता ना देख अन्तत: खुद बंदूक उठाता है। यह कैसा कानून है जिसके सहारे ‘वैध’ अौर ‘अवैध’ की ऐसी भ्रष्ट व्याख्याएँ किया जाना संभव होता है। यह कैसी अाधुनिकता अौर विकास है, जिसकी परिधि से चंबल के बीहड़ सदा बाहर रहते हैं, शहर की सुरक्षा से दूर बसे वासेपुर जैसे सीमांत बाहर रहते हैं। फिल्म यह बोलकर नहीं कहती लेकिन यह हमें समझना है कि ‘वासेपुर’ जैसे हर एक इलाके के निरंतर होने वाले घेट्टोअाइज़ेशन से अन्तत: फायदा कौन उठा रहा है। वह कौनसा वर्ग है जिसके हाथ में सत्ता है अौर हर नए बदलाव अौर कथित विकास के वादे के साथ उसके हाथ में सत्ता अौर मज़बूत होती है।
यकसाँ प्रेम कहानी सदा नए लिबास में रचने वाले इम्तियाज़ अली द्वारा लिखी गई अौर होमी अदजानिया द्वारा निर्देशित ‘कॉकटेल’ फिर इस साल की ‘तनु वेड्स मनु’ रही। एक अौर फ़िल्म जिसकी शुरुअाती ताज़गी को अंत का हिस्सा व्यवस्था की पुन:स्थापना की कोशिश में निगल जाता है। ‘कॉकटेल’ की वैरोनिका को अाप उसके जिस ‘अॉन द फेस’ व्यवहार अौर समझदारी के लिए पसन्द करते हैं, दो भिन्न पृष्ठभूमि से अायी इन लड़कियों को जैसे एक दूसरे का सहारा बनते देखते है, अौर इन तीन नितांत भिन्न किरदारों को साथ बिना किसी तरह के नैतिक सवाल का जवाब खोजे एक छत के नीचे रहता देख जिस नएपन का अहसास होता है, मध्यांतर के बाद जैसे वो सब बदल जाता है। जब वैरोनिका खुद अपने उसी व्यवहार पर सवाल उठा रोती है, जैसे फिल्म अपना अागे की अोर उठाया कदम वापस खींच लेती है। लेकिन इसके बावजूद जैसा अपनी समीक्षा में अालोचक तृषा गुप्ता ने लिखा, फ़िल्म में अाए ‘मीरा’ अौर ‘वैरोनिका’ की दोस्ती अौर साथ के वो पंद्रह मिनट ख़ास हैं हिन्दी सिनेमा के लिए। क्यूँकि इसी बीच एक क्षण ऐसा भी अाता है जहाँ इन दो लड़कियों की दोस्ती वो मुकाम पा लेती है जिसे हम रिश्ते में सम्पूर्णता का मुकाम कहते हैं। वह दुर्लभ क्षण जहाँ फिर रिश्ते में किसी तीसरे के होने की ज़रूरत ख़त्म हो जाती है। इस सहलिंगी दोस्ती का वह दुर्लभ क्षण जहाँ इन दोनों की ज़िन्दगी में किसी अौर पुरुष के होने की ज़रूरत खत्म हो जाती है। हिन्दी सिनेमा ने पुरुष यारी का मर्दानगी से बजबजाता ‘भाईचारा’ बहुत देखा है, लेकिन हमारे मुख्यधारा सिनेमा में ऐसी स्वतंत्र स्त्री साझेदारियाँ कितनी देखी गई हैं याद कीजिए। इसीलिए यह क्षण ख़ास है। अौर इसीलिए जब यह फ़िल्म भी पहले से तयशुदा राहों पर निकल पड़ती है तो ज़्यादा दुख होता है।
ऐसा ही एक दुर्लभ क्षण अाता है ‘विक्की डोनर’ में, जहाँ दो विधवा स्त्रियाँ, जो संयोग से एक-दूसरे की सास-बहु हैं, शाम ढलने के बाद साथ बैठती हैं अौर दारू के पैग के ऊपर अपनी-अपनी परेशानियाँ बाँटती हैं। मालूम है कि वे अपनी तमाम परेशानियाँ यूँ दारू के एक-दो पैग के सहारे हल न कर पाएंगी, लेकिन वे घर में किसी ‘ज़िम्मेदार पुरुष’ के होने के इन्तज़ार में भी नहीं बैठी हैं। उन्होंने हाथ बढ़ाया है अौर शायद सबसे मुश्किल माने गए रिश्ते में अपना सबसे सच्चा साथी ढँूढा है। साथी, जिसका दुख अपने दुख से मिलता है। सास-बहु जो अपने भीतर की स्त्री को पहचानती हैं अौर अपने रिश्ते से अागे अपनी इस पहली प्राथमिक पहचान को रखती हैं। अौर बेशक यह यकसाँ दुख के दुख से मिलने से उपजा रिश्ता है, लेकिन यह बिल्कुल भी निराशा का क्षण नहीं फ़िल्म में। अब उन्होंने अपनी ज़िन्दगी की लगाम खुद अपने हाथों में ले ली है अौर यह क्षण इसीलिए स्वाधीनता का क्षण गिना जाना चाहिए हिन्दी सिनेमा में। ऐसा क्षण जिसके अागे मर्यादाअों के सौ अाडंबर ध्वस्त हैं। यह स्री की दुख की साझेदारी है अौर यह संयोग नहीं हैं कि हिन्दी सिनेमा के लिए इस दुर्लभ लगते प्रसंग को रचनेवाली, इस कहानी की लेखक खुद एक ज़िन्दादिल महिला जूही चतुर्वेदी हैं।
अौर अंत में है दिबाकर की ‘शांघाई’ का अंधेरा। उस अादमी की कथा जो इस शहरी बियाबान की निरंतर चौड़ी होती खाई की सबसे पहली बलि है। हमारे ही शहर के मध्य की झुग्गी में रहनेवाला वो अनाम इंसान जिसकी पहचान भी अब हम भूलते जा रहे हैं। हमारी कारें बड़ी अौेर लम्बी हो रही हैं, हम उस ड्राइवर से अपनी दूरी सायास बढ़ा रहे हैं जो उसे चलाता है। उस पड़ोस के राशनवाले को अौर रास्ते में फलों का ठेला लगाने वाले को हमने जबसे मल्टिनेशनल कंपनी के हाइपरमार्केट में जाना शुरु किया, कबका भुला दिया। अब तो घर अाए धोबी, सोसायटी के चौकीदार अौर प्रेसवाले से भी घर की बाई ही हिसाबकिताब कर लेती है। हमारे शहरों की अाभासी दीवारें असल दीवारों से कहीं ज़्यादा उँची होती जा रही हैं। अगर हम ठीक अभी नहीं चेते, तो जल्द ही इन्हें भेदने की कोशिश में यही सपनों के शहर सतत चल रहे युद्ध के रणक्षेत्रों में बदलते जायेंगे। ‘शांघाई’ इस हक़ीक़त का भयावह पूर्वाभास है।
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साहित्यिक पत्रिका ‘कथादेश’ के जनवरी अंक में प्रकाशित अालेख