पिछले हफ़्ते रामकुमार ने कहा कि बीते दशक में बदलते हिन्दुस्तानी समाज की विविध धाराओं को एक अंक में समेटने की कोशिश है. आप पिछले दशक के सिनेमा पर टिप्पणी लिखें. ख़्याल मज़ेदार था. लिखा हुआ आज की पत्रिका के रविवारीय परिशिष्ठ में प्रकाशित हुआ है.
मज़ेदार बात है कि बीते दशक में सिनेमा जगत में आए पहले सबसे बड़े बदलाव की शुरुआत सत्तर एमएम के परदे से नहीं, हमारे घर में रखे ’बुद्धू बक्से’ से होती है. एक अस्त होता हुआ महानायक अपने डूबते फ़िल्मी करियर और कम्पनी को बचाने छोटे परदे पर अवतरित होता है और जैसे सारी बिसात ही पलट जाती है. साल 2000 में अमिताभ के ’कौन बनेगा करोड़पति’ में आने के साथ ही हमारे फ़िल्मी सितारों के ’मल्टी अपीयरेंस’ जीवन की शुरुआत होती है. इस दशक में टीवी सरताज है और सितारों से लेकर सिनेमा तक सब उसके गुलाम हैं, उसकी शरण में हैं. यह ’सिनेमा निर्माण उद्योग’ में खुद ’सिनेमा’ के गौण हो जाने का दशक है और अब फ़िल्म के प्रचार का बजट उसके निर्माण से सवाया है.
पिछले दशक की तरह यहाँ भी शुरुआत में शाहरुख़ इस खेल के बादशाह बन उभरते हैं. हर कायदे के मौके पर पहले से मौजूद सितारा. ट्विटर पर अपनी हाज़िर जवाबी से सबको कायल करते हैं और बहुत तराशी हुई इमेज के साथ एक ’सदा उपलब्ध’ सितारे बन जाते हैं. लेकिन दशक के अंतिम साल में दो और ख़ान उनका सितारा डुबोते से दिखाई देते हैं. इस बीच आमिर जैसे एक तय परियोजना के तहत आगे बढ़ते रहते हैं और दशक के अंतिम कुछ सालों में तो जैसे उनमें छूकर सोना कर देने वाला गुण आ जाता है.
लेकिन जो बेहतर बदलाव हमारे सिनेमा ने पिछले दशक में देखा है वो है परिवेश की प्रामाणिकता का आग्रह. इसकी गूँज ’सत्या’ में ही सुनाई दी थी. और नब्बे के दशक में जिन बड़जात्याओं की हवेलियों और चोपड़ाओं की स्विस वादियों में हिन्दी सिनेमा फंस गया था उनसे निज़ात ज़रूरी भी थी. बदलाव का असर ऐसा हुआ कि दशक का अंत आते आते उद्योग के सबसे बड़े बैनर यशराज को भी अपनी कहानियों में असलियत के रंग चढ़ाने की ज़रूरत महसूस हुई. जयदीप साहनी के वहाँ होने का असर दिखता है. ’रॉकेट सिंह’ से ’चक दे’ तक और हालिया ’बैंड, बाजा, बरात’ इस प्रामाणिकता के आग्रह की बानगी हैं.
यहाँ हर निर्देशक का अपना रास्ता है. एक अनुराग कश्यप हैं जिनकी फ़िल्मों का सच शुरुआत के सालों में इतना कड़वा था कि हमसे हजम ही नहीं हुआ. एक के बाद एक उनकी फ़िल्में बैन होती गईं. एक दिबाकर हैं जिन्होंने शुरुआत तो की हिन्दुस्तानी मिडिल-क्लास की ’डार्लिंग ऑफ़ दि क्राउड’ ’खोसला का घोंसला’ बनाकर, लेकिन इस परिवेश की प्रामाणिकता की खोज में अपनी नई फ़िल्म में नए कलाकारों और डिजिटल कैमरे के साथ कैसे साहसिक प्रयोग कर दिखाए. विशाल ने ’मक़बूल’ से लेकर ’ओमकारा’ तक सदियों पुराने शेक्सपियर को नितांत हिन्दुस्तानी परिवेश में पुनर्जीवित किया, जैसे चमत्कार किया. राजकुमार हीरानी और इम्तियाज़ अली जैसे निर्देशक एक ही कहानी हमें पूरे दशक रूप बदल-बदलकर सुनाते रहे. हमने हर बार उनकी कहानी की ईमानदारी देखी, हर बार उन्हें सर आँखों पर बिठाया. इस ख़ूबी को और गाढ़ा करना होगा. यही असलियत का रंग निरंतर बड़ी होती हॉलीवुड की चुनौती का जवाब है.
कम शब्दों में काफी कुछ कह गये … विशाल भारद्वाज की फिल्मों की तरह..
ट्रेंड और फार्मूला की व्याख्या तो ढेरों हैं, लेकिन इसे ठीक-ठीक समझना मुश्किल ही लगता है.
प्रतिभायें कम नहीं है, भारतीय सिनेमा में।