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The ugliness of the indian male : Udaan

Udaan wallpaperअगर आप भी मेरी तरह ’तहलका’ के नियमित पाठक हैं तो आपने पिछले दिनों में ’स्पैसीमैन हंटिंग : ए सीरीज़ ऑन इंडियन मैन’ नाम की उस सीरीज़ पर ज़रूर गौर किया होगा जो हर दो-तीन हफ़्ते के अंतर से आती है और किसी ख़ास इलाके/संस्कृति से जुड़े हिन्दुस्तानी मर्द का एक रफ़ सा, थोड़ा मज़ाकिया ख़ाका हमारे सामने खींचती है. वो बाहरी पहचानों से मिलाकर एक स्कैच तैयार करती है, मैं भीतर की बात करता हूँ… ’हिन्दुस्तानी मर्द’. आखिर क्या अर्थ होते हैं एक ’हिन्दुस्तानी मर्द’ होने के? क्या अर्थ होते हैं अपनी याद्दाश्त की शुरुआत से उस मानसिकता, उस सोच को जीने के जिसे एक हिन्दुस्तानी मर्द इस समाज से विरासत में पाता है. सोचिए तो, हमने इस पर कितनी कम बात की है.


सही है, इस पुरुषसत्तात्मक समाज में स्त्री होना एक सतत चलती लड़ाई है, एक असमाप्त संघर्ष. और हमने इस निहायत ज़रूरी संघर्ष पर काफ़ी बातें भी की हैं. लेकिन क्या हमने कभी इस पर बात की है कि इस पुरुषसत्तात्मक समाज में एक पुरुष होना कैसा अनुभव है? और ख़ास तौर पर तब जब वक़्त के एक ख़ास पड़ाव पर आकर वो पुरुष महसूस करे कि इस निहायत ही एकतरफ़ा व्यवस्था के परिणाम उसे भी भीतर से खोखला कर रहे हैं, उसे भी इस असमानता की दीवार के उस तरफ़ होना चाहिए. इंसानी गुणों का लिंग के आधार पर बँटवारा करती इस व्यवस्था ने उससे भी बहुत सारे विकल्प छीन लिए हैं. क्या कोई कहेगा कि जैसे बचपन में एक लड़की के हाथ में गुड़िया दिया जाना उसके मूल चुनाव के अधिकार का हनन है ठीक वैसे ही लड़के के हाथ में दी गई बंदूक भी अंतत: उसे अधूरा ही करती है.


और फिर ’उड़ान’ आती है.


जैसी ’आम राय’ बनाई जा रही है, मैं उसे नकारता हूँ. ’उड़ान’ पीढ़ियों के अंतर (जैनरेशन गैप) के बारे में नहीं है. यह एक ज़ालिम, कायदे के पक्के, परंपरावादी पिता और अपने मन की उड़ान भरने को तैयार बैठे उसके लड़के के बीच पनपे स्वाभाविक तनाव की कहानी नहीं है जैसा इसका प्रचार संकेत करता रहा. किसी भी महिला की सक्रिय उपस्थिति से रहित यह फ़िल्म मेरे लिए एक नकार है, नकार लड़कपन की दहलीज़ पर खड़े एक लड़के का उस मर्दवादी अवधारणा को जिसे हमारा समाज एक नायकीय आवरण पहनाकर सदियों से तमाम लोकप्रिय अभिव्यक्ति माध्यमों में बेचता आया है. नकार उस खंडित विरासत का जिसे लेकर उत्तर भारत का हर औसत लड़का पैदा होता है. विरासत जो कहती है कि वीरता पुरुषों की जागीर है और सदा पवित्र बने रहना स्त्रियों का गहना. पैसा कमाकर लाना पुरुषों का काम है और घर सम्भालना स्त्रियों की ज़िम्मेवारी.


उड़ान एक सफ़र है. निर्देशक विक्रमादित्य मोटवाने के रचे किरदार, सत्रह साल के एक लड़के ’रोहन’ का सफ़र. जिसे त्रिआयामी बनाते हैं फ़िल्म में मौजूद दो और पुरुष किरदार, ’भैरव सिंह’ और ’अर्जुन’. शुरुआत से नोटिस कीजिए. जैसे भैरव सिंह रोहन पर अपना दबदबा स्थापित करते हैं ठीक वैसे ही रोहन सिंह अर्जुन पर अपना दबदबा स्थापित करता है. अर्जुन के घर की सीढ़ियों पर बार-बार ऊपर नीचे होने के वो दृश्य कौन भूल सकता है. वो अभी छोटा है, दो ’मर्दों’ के बीच अपनी मर्दानगी दिखाने का ज़रिया, एक शटल-कॉक. बेटा सीढ़ियों पर बैठा अपने पिता को इंतज़ार करवाता है और पिता अपने हिस्से की मर्दानगी भरा गुस्सा दिखाता उन्हें पीछे छोड़ अकेला ही गाड़ी ले जाता है. नतीजा, बेचारा बीमार अर्जुन पैदल स्कूल जाता है. रास्ते में वो रोहन का हाथ थामने की कोशिश करता है. वो अकेला बच्चा सिर्फ़ एक नर्म-मुलायम अहसास की तलाश में है. लेकिन रोहन कोई उसकी ’माँ’ तो नहीं, वो उसे झिड़क देता है.


लेकिन फिर धीरे से किरदार का ग्राफ़ घूमने लगता है. जहाँ एक ओर भैरव सिंह अब एक खेली हुई बाज़ी हैं, तमाम संभावनाओं से चुके, वहीं रोहन में अभी अपार संभावनाएं बाक़ी हैं. इस लड़के की ’एड़ी अभी कच्ची है’. बदलाव का पहिया घूमने लगता है. हम एक मुख़र मौन दृश्य में रोहन और अर्जुन के किरदारों को ठीक एक सी परिस्थिति में खड़ा पाते हैं. शायद फ़िल्म पहली बार वहीं हमें यह अहसास करवाती है. अर्जुन का किरदार अनजाने में ही रोहन के भीतर छिपे उस ज़रा से ’भैरव सिंह’ को हमारे सामने ले आता है जिसे एक भरा-पूरा ’भैरव सिंह’ बनने में ज़्यादा वक़्त नहीं लगने वाला. लेकिन शायद तभी… किसी अदृश्य कोने में छिपा रोहन भी ये दृश्य देख लेता है.


चक्का घूम रहा है. रोहन लगातार तीन दिन तक अर्जुन की तीमारदारी करता है. उसे कविताएँ सुनाता है. उसके लिए नई-नई कहानियाँ गढ़ता है. उसे अपना प्यारा खिलौना देता है और खूब सारी किताबें भी. उससे दोस्तों के किस्से सुनता है, उसे दोस्तों के किस्से सुनाता है. उसके बदन पर जब चमड़े की मार के निशान देखता है तो पलटकर बच्चे से कोई सवाल नहीं करता. सवाल मारनेवाले से करता है और तनकर-डटकर करता है. पहचानिए, यह वही रोहन है जो ’कोई उसकी माँ तो नहीं’ था.


मध्यांतर के ठीक पहले एक लम्बे और महत्वपूर्ण दृश्य में भैरव सिंह रोहन को धिक्कारता है, धिक्कारता है बार-बार ’लड़की-लड़की’ कहकर. धिक्कारता है ये कहकर कि ’थू है, एक बार सेक्स भी नहीं किया.’ यह भैरव सिंह के शब्दकोश की गालियाँ हैं. एक ’मर्द’ की दूसरे ’मर्द’ को दी गई गालियाँ. लेकिन हिन्दी के व्यावसायिक सिनेमा की उम्मीदों से उलट, फ़िल्म का अंत दो और दो जोड़कर चार नहीं बनाता. रोहन इन गालियों का जवाब क्लाइमैक्स में कोई ’मर्दों’ वाला काम कर नहीं देता. या शायद यह कहना ज़्यादा अच्छा हो कि उसके काम को ’असली मर्दों’ वाला काम कहना उसके आयाम को कहीं छोटा करना होगा.


एक विशुद्ध काव्यात्मक अंत की तलाश में भटकती फ़िल्मों वाली इंडस्ट्री से होने के नाते तो उड़ान को वहीं ख़त्म हो जाना चाहिए था जहाँ अंतत: रोहन के सब्र का बाँध टूट जाता है. वो पलटकर अपने पिता को उन्हीं की भाषा में जवाब देता है. और फिर एक अत्यंत नाटकीय घटनाक्रम में उन्हें उस ’जैसे-सदियों-से-चली-आती-खानदानी-दौड़’ में हराता हुआ उनकी पकड़ से बचकर दूर निकल जाता है.


udaan wallpaperलेकिन नहीं, ऐसा नहीं होता. फ़िल्म का अंत यह नहीं है, हो भी नहीं सकता. रोहन वापस लौटता है. ठीक अंत से पहले, पहली बार फ़िल्म में एक स्त्री के होने की आहट है. वो स्त्री जिसका अक़्स पूरी फ़िल्म में मौजूद रहा. पहली बार उस स्त्री का चेहरा दिखाई देता है. वो स्त्री जो रोहन के भीतर मौजूद है. अंत जो हमें याद दिलाता है कि हर हिन्दुस्तानी मर्द के DNA का आधा हिस्सा उसे एक स्त्री से मिलता है. और ’मर्दानगी’ की हर अवधारणा उस भीतर बसी स्त्री की हत्या पर निर्मित होती है. यह अंत उस स्त्री की उपस्थिति का स्वीकार है. न केवल स्वीकार है बल्कि एक उत्सवगान है. क्या आपको याद है फ़िल्म का वो प्रसंग जहाँ अर्जुन और रोहन अपनी माँओं के बारे में बात करते हैं. रोहन उसे बताता है कि मम्मी के पास से बहुत अच्छी खुशबू आती थी, बिलकुल मम्मी वाली. अर्जुन उस अहसास से महरूम है, उसने अपनी माँ को नहीं देखा.


हमें पता नहीं कि रोहन ने उन तसवीरों में क्या देखा. लेकिन अब हम जानते हैं कि रोहन वापस आता है और अर्जुन को अपने साथ ले जाता है. उस रौबीली शुरुआत से जहाँ रोहन ने अर्जुन से बात ही ’सुन बे छछूंदर’ कहकर की थी, इस ’माँ’ की भूमिका में हुई तार्किक परिणिति तक, रोहन के लिए चक्का पूरा घूम गया है. एक लड़के ने अपने भीतर छिपी उस ’स्त्री’ को पहचान लिया जिसके बिना हर मर्द का ’मर्द’ होना कोरा है, अधूरा है. फ़िल्म के अंतिम दृश्य में रास्ता पार करते हुए रोहन अर्जुन का हाथ थाम लेता है. गौर कीजिए, इस स्पर्श में दोस्ती का साथ है, बराबरी है. बड़प्पन का रौब और दबदबा नहीं.


अंत में रोहन की भैरव सिंह को लिखी वो चिठ्ठी बहुत महत्वपूर्ण है. आपने गौर किया – वो अर्जुन को अपने साथ ले जाने की वजह ये नहीं लिखता कि “नहीं तो आप उसे मार डालेंगे”, जैसा स्वाभाविक तौर पर उसे लिखना चाहिए. वो लिखता है कि “नहीं तो आप उसे भी अपने जैसा ही बना देंगे. और इस दुनिया में एक ही भैरव सिंह काफ़ी हैं, दूसरा बहुत हो जाएगा.” क्या आपने सोचा कि वो ऐसा क्यों लिखता है? दरअसल खुद उसने अभी-अभी, शायद सिर्फ़ एक ही रात पहले वो लड़ाई जीती है. ’वो लड़ाई’… ’भैरव सिंह’ न होने की लड़ाई. अब वो फ़ैंस के दूसरी तरफ़ खड़ा होकर उस किरदार को बहुत अच्छी तरह समझ पा रहा है जो शायद कल को वो खुद भी हो सकता था, लेकिन जिसे उसने नकार दिया. वो अर्जुन को एक भरपूर बचपन देगा. जैसा शायद उसे मिलना चाहिए था. और बीते कल में शायद कहीं भैरव सिंह को भी.


udaan wallpaper1रोहन उस चिठ्ठी के साथ वो खानदानी घड़ी भी भैरव सिंह को लौटा जाता है. परिवार के एक मुखिया पुरुष से दूसरे मुखिया पुरुष के पास पीढ़ी दर पीढ़ी पहुँचती ऐसी अमानतों का वो वारिस नहीं होना चाहता. यह उसकी परंपरा नहीं. होनी भी नहीं चाहिए. यह उसका अंदाज़ है इस पुरुषवर्चस्व वाली व्यवस्था को नकारने का. वो और उसकी पीढ़ी अपने लिए रिश्तों की नई परिभाषा गढ़ेगी. ऐसे रिश्ते जिनमें संबंधों का धरातल बराबरी का होगा.


किसी भी महिला किरदार की सचेत अनुपस्थिति से पूरी हुई उड़ान हमारे समय की सबसे फ़िमिनिस्ट फ़िल्म है. अनुराग कश्यप की पिछ्ली फ़िल्म ’देव डी’ के बारे में लिखते हुए मैंने यह कहा था – दरअसल मेरे जैसे (उत्तर भारत के भी किसी शहर, गाँव कस्बे के ग्रेट इंडियन मिडिल क्लास से निकलकर आया) हर लड़के की असल लड़ाई तो अपने ही भीतर कहीं छिपे ’देवदास’ से है. अगर हम इस दुनिया की बाकी आधी आबादी से बराबरी का रिश्ता चाहते हैं तो पहले हमें अपने भीतर के उस ’देवदास’ को हराना होगा जिसे अपनी बेख़्याली में यह अहसास नहीं कि पुरुष सत्तात्मक समाज व्यवस्था कहीं और से नहीं, उसकी सोच से शुरु होती है. ’उड़ान’ के रोहन के साथ हम इस पूरे सफ़र को जीते हैं. यह एक त्रिआयामी सफ़र है जिसके एक सिरे पर भैरव सिंह खड़े हैं और दूसरे पर एक मासूम सा बच्चा. रोहन के ’भैरव सिंह’ होने से इनकार में दरअसल एक स्वीकार छिपा है. स्वीकार उस आधी आबादी के साथ समानता के रिश्ते की शुरुआत का जिससे रोहन भविष्य के किसी मोड़ पर टकराएगा.


और सिर्फ़ रोहन ही क्यों. जैसा मैंने पहले लिखा था, “उड़ान हमारे वक़्तों की फ़िल्म है. आज जब हम अपने-अपने चरागाहों की तलाश में निकलने को तैयार खड़े हैं, ’उड़ान’ वो तावीज़ है जिसे हमें अपने बाज़ू पर बाँधकर ले जाना होगा. याद रखना होगा.” ठीक, याद रखना कि हम सबके भीतर कहीं एक ’लड़की’ है, और उसे कभी मिटने नहीं देना है.

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” i love this film! how aptly written. i think this film is very ‘real’ in terms of a boy’s experience, which otherwise is always stereotyped as a savior, a hero, true lover etc. we need to see that men are objectified in this media of films as for women in the opposite sense of submission and pure woman.i won’t hesitate call it a feminist film. thanks for sharing.”

आपने फिल्म की आत्मा को समझा है और आपकी सोच ने शायद इसे मेरे लिए एक नया आयाम दिया है ।

फिल्म के अंतिम सीन में अर्जुन के कदमों में मनमर्जी, स्वधीनता, लड़कपन और नई आशा की उछाल……..इस दृश्य से पहले, भैरव सिंह जब रोहन के पीछे भागते भागते थकहार जाता है और रोहन पीछे मुड़कर मंद सी मुस्कान फेंकता है………कुछ ऐसे दृश्य है जो दिल को एक अलग सा सुकूं देते हैं….।

कुल मिलाकर इस फिल्म का एक अलग स्वाद है। पहले शिमला के नामी बिशप कॉटन स्कूल की स्वतंत्र वादियां और बाद में जमशेदपुर में हिटलरी बाप की हजारों बंदिशें…… अंत में गुलामी की सब बेड़ियां तोड़ कर मुंम्बई के लिए एक स्वतंत्र उड़ान

पहली बार पढ़ रहा हूँ शायद ! संतुष्ट होकर जा रहा हूँ !
बेहतरीन समीक्षा ! आभार ।

praygna ji nae ek counter dala hai jo ki orignal kae takker ka hai ,aor acha hai
per orignal to orignal hai :)
points bahut hi dhassu uthaye gaye hai,devnagri lipi ka use aor interesting banata hai
jaisey ki hamara samaaz male-dominant hai ,waisey hi cuture main angrezi bhasa bahut jyada encroach ker raha hai aajkal

acha anuvhab tha hindi padhna,bahut dino kae baad ek pura lekh hindi mian pada hai,likhna bhul gaya hu….. kosis karunga fhir sae likhna sheekhney kae liyae
dhanyawaad reaise karaney kae iyae ki hindi meri matryabhasha hai aor main usey bhul raha hu

aor sabsey uper,film bahut hi pyari thi aor usmain jo poem they wo bahut hi lajawaab :)

sayanshu ji aor devanshu ji sae parichay karaney kae liyae dhanyawaad

सब से पहले तो बढ़िया से इस फिल्म को ‘पढ़ने’ के लिए बधाई! कई सारी बातों से सहमति कुछ में थोडा अलग नज़रियाँ रख रही हूँ . मैंने तुम्हारे लिखे को अगर गलत पढ़ा है तो बताना. पहले वोह बातें जिसमें तुमसे सहमत हूँ…यह स्त्रीवादी फिल्म है…और इसके लिए, पितृसत्ता ( पुरुषसत्ता नहीं कहूंगी)को उघाड़ने के लिए यह किसी भी स्त्री पात्र के कंधे पर या उंगलीयों में सुई या कैची नहीं रखती. यह जनरेशन गैप को फोकस नहीं करती.
यह फिल्म पर त्रिआयामी नहीं बल्कि चार आयामी है. इसका चौथा आयाम जिसकी बहुत ही सजग और ठोस उपस्थिति पुरे फिल्म में पिरोई गयी है और वोह है जिम्मी सिंह …यह है तो भैरव का भाई पर ‘भैरव सिंह’ नहीं. पर यह रोहन भी नहीं है. इसके मन में सवाल है…तार्किकता है पर उसके आधार पर स्टैंड लेने की ताकत नहीं है. यह पितृसत्ता की ही एक परत है जो व्यक्ति को अपने ‘पेट्रियार्क’ के सामने चुनौती रखने का सहस नहीं देती.
‘वो अकेला बच्चा सिर्फ़ एक नर्म-मुलायम अहसास की तलाश में है. लेकिन रोहन कोई उसकी ’माँ’ तो नहीं, वो उसे झिड़क देता है.’ :- हर नरम-मुलायम एहसास ‘माँ’ नहीं होता. ‘स्त्री’ भी नहीं होता. अर्जुन जरूर से नरमाई..प्यार और अपनत्व का भूखा है…पर इसका मतलब वोह हर शख्स में ‘माँ’ ढूंढ़ रहा है. यह कहने से अनजाने में कहीं न कहीं हम लिंग के आधार पर किये ‘व्यक्तित्वों’ के वर्गीकरण के शरण में चले जाते हैं…रोहन आखिर तक रोहन है …उसके अपने सफर हैं…उस सफर के अपने पाडाव हैं…पर उसका अर्जुन की जिम्मेदारी लेना उसकी ‘माँ’ बनना नहीं हैं…वह अभिभावक है..उसने अर्जुन का ‘पालकत्व’ स्वीकार किया है…जिसके लिए उसे न तो ‘माँ’ बनने की जरूरत है न ‘पिता’. हर व्यक्ति में अभिभावक बनने का साहस और चरित्र होता है. उसे पहचाने और स्वीकार करने के पल होते हैं. और यह अपने से निशक्तों/छोटों के सन्दर्भ में ही नहीं होते. याद करो, जब रोहन एक बार सोये अर्जुन को गोद में लिए आता हैं ( पिता के कहने पर) और अगली बार ‘ भैरव सिंह’ यानी अपने नशे में धुत पिता को कंधो के सहारे घर तक पहुँचाता है. रोहन की यह यात्रा पेट्रियार्क बनने के नकार की तो है ही साथ ही बेपरवाह से जिम्मेदार बनने की भी है ( जो किसी लड़की के बारे में भी होती है)…स्त्रीवादी अर्थों में यह उसके के अपने सम्पूर्ण व्यक्तित्व के पहचान का सफ़र है. जो ‘स्त्री’ और ‘पुरुष’ के खाकों से परे है.
जिम्मी के घर आने और फिर से तस्वीरों में अपनी ‘माँ’ से रु-बी-रु होने से पहले ही वह यह निर्णय ले चुका है की वह अर्जुन को साथ ले जायेगा. दरअसल घर से निकालने से पहले भी वह तय कर चूका है. जिम्मी के घर वह पहुचता है उसे यह अहसास दिलाने कि अभिभावकतव केवल जैविकीय नहीं होता..वह एक अहसास है जो प्यार, जिम्मेदारी और सुकून भरा है. जिसे उसने ठुकराया था. इस अहसास से कि रोहन ‘भैरव सिंह’ का अपना जना (आम तौर पर ‘जनना’ स्त्रियों के साथ जुड़ता है पर उस पर मालकाना/ ‘सेफ deposit ‘/नाम की मुहर बाप की होती है और यह पितृसत्ता की जड़ है) वह रोहन को अपने साथ नहीं ले जाता. छोड़ देता है. अपनी हार स्वीकार करता है उन सारे सुखद एहेसासों के बावजूद जिन्हें उसने अल्बम में यादों के साथ संजोकर रखा है. एल्बम पहले भी था और अंत में भी केवल खुलती रोहन के माँ की तस्वीर जिसे जिम्मी संभाला है…हम जानते है प्रेम की परते केवल रिश्तों के खाकों में कैद नहीं होती. और ना ही उनकी यादे इसलिए संभाली जाती है क्योकि उसमें आप व्यक्तिगत तरीके से उलझे हो…रोहन जिम्मी को वह एहसास लौटाता है. यह एल्बम एक आइना है रोहन का जिससे रोहन हर बार सवालों के साथ रूबरू होता है…जवाब उस एल्बम में नहीं..खुद रोहन के अन्दर हैं. उसके निर्णय उसने उसकी कविता की तरह ही किसी की विरासत में नहीं पायें खुद चित्रायें ख्यालों से रचे हैं. वर्ना एक पर्याय भैरव सिंह के अलावा अप्पू राजा बनने का भी था.
और कुछ भी हाँ जो लिखना है पर इस समीक्षा के सन्दर्भ यही!

Hi Mihir,
It was great to read this unique perspective you have presented here.
I have shared it with many.
Some are not too well-versed with Hindi, so I am going to translate your beautiful article into English and email to them. More people need to know about these views of yours.
BTW, let me introduce myself to you.
I’m Satyanshu Singh. I wrote the poems featured in ‘Udaan’.
But, your Hindi is way better than mine.
Visiting your blog will help me learn.
Thanks.
Keep Writing.

@ज्योति. ऊपर लिखी कहानी कुछ-कुछ मेरी भी कहानी है. पिता चाहे वैसे न हों, समाज तो वही है हमारा.

@ प्रियदर्शी. शुक्रिया बहुत बहुत, इतनी अच्छी चीज़ तक पहुँचने का सीधा रास्ता यहाँ चिपकाने का. दिव्यांशु और सत्यांशु के नाम मुझे याद थे. उस दिन फ़िल्म ख़त्म होने के बाद अनुराग से हमने यही पूछा था सबसे पहले! फ़िल्म के प्रोमो से ही, वो उनकी कविताएं ही थीं जिन्होंने हमें बाँध लिया था.

@ पंकज. तुमसे फ़ेसबुक पर बात हो ही गई. जैसा मैंने कहा, मेरे लिए तो फ़िल्म का अंत ही उसे पूरा करता है. अगर वो अंत न होता तो भी फ़िल्म अच्छी तो होती लेकिन वो न कर पाती जो वो अब कर गई है.

@ नीरज. शुक्रिया नीरज. रोहन के किरदार की यही सबसे बड़ी ख़ासियत है कि वो एक निरंतर विकसनशील किरदार है. वो लगातार अपने सबक सीख रहा है. और ये जायज़ ही है कि हम फ़िल्म के दौरान उसके व्यवहार में, उसके फ़ैसलों में, उसकी सोच में परिवर्तन आता देखें. तुम गौर करोगे – जितना भैरव सिंह उसे दबा रहा है, उतना ही वो अर्जुन के लिए मुलायम होता जा रहा है. लेकिन यह प्रक्रिया ठीक फ़िल्म की शुरुआत से शुरु नहीं होती. कुछ वक़्त लगता है रोहन को अपना सही पाठ पढ़ने में.

@ नीलिमा. लेकिन मैं आपको पढ़ता रहा हूँ. जितना मैं याद कर पा रहा हूँ, आप मेरे शहर से हैं.

@ प्रमोद. अपनी कहूँ… मेरे भीतर तो सिर्फ़ एक लड़की नहीं, हज़ारों लड़कियाँ हैं. पूरी बनस्थली है ठीक ठीक समझो तो.

हर हिन्दुस्तानी मर्द के DNA का आधा हिस्सा उसे एक स्त्री से मिलता है. और ’मर्दानगी’ की हर अवधारणा उस भीतर बसी स्त्री की हत्या पर निर्मित होती है.

हम सबके भीतर कहीं एक ’लड़की’ है, और उसे कभी मिटने नहीं देना है.

वाह ! बहुत खूब, बहुत खूब, बहुत सुन्‍दर !

अच्छी समीक्षा, पहली बार आपके ब्लाग पर आई, आपको पढ़ना बहुत अच्छा लगा, लगता है अब नियमित आना पड़ेगा

बहुत ही उम्दा लेख लिखा है. मुझे सबसे बेहतेरीन लगा तुम्हारा रोहन का बहिरव सिंह में बदलने का विश्लेषण. यह बहुत ही अलग नजरिया हैं जो तुमने पेश किया : मर्दों की मर्दानगी जो सिर्फ शासन तक सीमित है. उड़ान फिल्म का यह अब तक का सबसे बेहतेरीन लेख है.

वाह दोस्त… बहुत बहुत बहुत बेहतरीन… कुछ सवाल जो भी थे, तुमने उन्हे भी समेट लिया..

behtareen lekh
“किसी भी महिला किरदार की सचेत अनुपस्थिति से पूरी हुई उड़ान हमारे समय की सबसे फ़िमिनिस्ट फ़िल्म है”
Bahut badhiya observation

Shukriya dost… tumhaara yeh lekh bhi kisi margdarshak udan se kam nahin hai…bohot khoob!

bahut khub.aapka lekh badi ummeed jaga gaya.aanewale samay main aap jaise samajhwale kuchh purush bhi honge to hamara satat sanghrsh aasan ho jaayega.