कितने शहरों में कितनी बार

फिराक साहब की विनोदप्रियता और मुंहफटपन के कई किस्से अनिता और शशि को जुबानी याद थे. दोनों उनसे मिलने जाती रहती थीं. अनिता ने ही बताया कि एक बार फिराक साहब के घर में चोर घुस आया. फिराक साब और अनिता दोनों बैंक रोड पर विश्वविद्यालय के मकानों में रहते थे. ऐसा लगता था उन मकानों की बनावट चोरों की सहूलियत के लिए ही हुयी थी, वहां आएदिन चोरियाँ होतीं. फिराक साब को रात में ठीक से नींद नहीं आती थी. आहट से वे जाग गये. चोर इस जगार के लिए तैयार नहीं था. उसने अपने साफे में से चाकू निकाल कर फिराक के आगे घुमाया. फिराक बोले, “तुम चोरी करने आये हो या कत्ल करने. पहले मेरी बात सुन लो.”
चोर ने कहा, “फालतू बात नहीं, माल कहाँ रखा है?”
फिराक बोले, “पहले चक्कू तो हटाओ, तभी तो बताऊंगा.”
फ़िर उन्होंने अपने नौकर पन्ना को आवाज़ दी, “अरे भई पन्ना उठो, देखो मेहमान आये हैं, चाय वाय बनाओ.”
पन्ना नींद में बड़बडाता हुआ उठा, “ये न सोते हैं न सोने देते हैं.”
चोर अब तक काफी शर्मिंदा हो चुका था. घर में एक की जगह दो आदमियों को देखकर उसका हौसला भी पस्त हो गया. वह जाने को हुआ तो फिराक ने कहा, ” दिन निकाल जाए तब जाना, आधी रात में कहाँ हलकान होगे.” चोर को चाय पिलाई गई. फिराक जायज़ा लेने लगे कि इस काम में कितनी कमाई हो जाती है, बाल बच्चों का गुज़ारा होता है कि नहीं. पुलिस कितना हिस्सा लेती है और अब तक कै बार पकड़े गये.
चोर आया था पिछवाड़े से लेकिन फिराक साहब ने उसे सामने के दरवाजे से रवाना किया यह कहते हुए, “अब जान पहचान हो गई है भई आते जाते रहा करो.”

-ममता कालिया. “कितने शहरों में कितनी बार” अन्तिम किश्त से. तद्भव17. जनवरी 2008.

अच्छर मन को छरै बहुरि अच्छर ही भावै

रवीश ने अपने ब्लॉग पर यह चर्चा शुरू की है कि किसने पुस्तक मेले से क्या खरीदा यह शेयर किया जाए. तो मुझे लगा कि ‘सनद रहे और वक्त ज़रूरत काम आए’ की परम्परा पर चलते हुए मुझे भी यह ‘पुण्य कर्म’ कर ही देना चाहिए! मेरे लिए यह तीसरा पुस्तक मेला था. दिल्ली आने के बाद दूसरा. पहली बार जब दादा,भाभी के साथ दिल्ली पुस्तक मेले में आया था उन दिनों उदयपुर में बी. ए. में पढ़ा करता था. दूसरा मेला मेरे दिल्ली रहते हुआ और तब से मैं दादा,भाभी के लिए दिल्ली में होस्ट हूँ. अब मैं कह सकता हूँ कि मैंने अपने 22 साल के जीवन में चार क्रिकेट वर्ल्डकप और तीन विश्व पुस्तकमेले देखे हैं.

Delhi Metropolitan:The Meking of an Unlikely City. Ranjana Sengupta. Penguin Books.
पिछले दिनों अपने सेमिनार के सिलसिले में मैंने ‘खोंसला का घोसला’ में मध्यवर्ग, शहरीकरण और लिविंग स्पेस की संरचना पर काम किया. यह फ़िल्म दिल्ली को अपना आधार शहर बनाती है और इस शहर की बदलती सत्ता संरचना का एक कमाल का पाठ रचती है. एक पंक्ति में कहूं तो यह फ़िल्म एक मध्यमवर्गीय व्यक्ति की ‘यमुना पार’ या ‘पुरानी दिल्ली/ दिल्ली 6’ से निकलकर ‘साऊथ दिल्ली’ वाला बनने की तमन्ना का मुकम्मल बयान है. तमाम चिन्ह इस पाठ से निकलते हैं जिनमें से कुछ को मैंने अपने पर्चे में पकड़ने की कोशिश की. तो स्वाभाविक था कि मेले में दिल्ली पर आया एक नया अध्ययन देखकर मेरा मन मचल जाए. और दादा ने कहते ही किताब दिलवा दी.
Anna Karenina. Lev Tolstoy. Raduga Publications.
हाँ मैंने अभी तक अन्ना केरेनिना नहीं पढ़ी है. लेकिन इसे खरीदने का केवल यही कारण नहीं था. करीब तीन साल पहले मैंने अपना पहला लेख (प्रकाशित) जो लिखा था उसका विषय बचपन में पढ़ी रूसी कहानियों की याद था. दोस्त कहते हैं कि बहुत nostalgic लेख था. शायद वो सही कहते हैं. आज भी मुझे पुराने प्रगति प्रकाशन/ रादुगा प्रकाशन से एक लगाव सा है. वो मुझे मेरा बचपन याद दिलाते हैं जो बहुत खूबसूरत था. (तब नहीं लगता था, आज लगता है.) तो मैं ना केवल अन्ना कैरेनिना पढ़ना चाहता था बल्कि उसे उसी पुराने रूसी अनुवाद वाले कलेवर में पढ़ना चाहता था. किस्मत कि वो मुझे PPH पर आसानी से मिल गया.
साफ माथे का समाज. अनुपम मिश्र. पेंग्विन बुक्स.
अनुपम मिश्र की ‘आज भी खरे हैं तालाब’ एक चर्चित किताब रही है. मैंने इनके बारे में तब ज़्यादा जाना जब मैं MA में गाँधी पर बनी फिल्मों पर एक शोध कर रहा था. हालांकि अभी भी पढ़ा नहीं है लेकिन दादा का कहना है कि मुझे इन्हें पढ़ना चाहिए. और फ़िर जीतू भैया की वजह से हमें पेंग्विन पर ख़ास डिस्काउंट भी मिल रहा था. तो ऐसे में यह खरीद बिल्कुल मुफ़ीद रही!
A Roland Barthes Reader. Edi. Susan Sontag. Vintage.
सेमिनार पेपर के लिए संरचनावाद पढ़ा (द्वितीयक स्रोत से) और फ़िर लिखा. संदर्भ पर विवाद हो गया. और मैं मूल देखते ही ले आया. अब मूल पढने की कोशिश करूँगा और सामने वाले को विवाद का कोई मौका ही नहीं दूंगा. वैसे भी मुझे आजकल संरचनावादियों में रोलां बार्थ सबसे ज़्यादा आकर्षित कर रहे हैं.
अम्बेडकर साहित्य. सभी गौतम बुक सेंटर से प्रकाशित
हिन्दू धर्मं की रिडल.
अछूत कौन और कैसे.
जाति भेद का उच्छेद.
शूद्रों की खोज.
बुद्ध और उनका धम्म.
इसमें अब क्या शक है के अम्बेडकर को पढ़ना बहुत ज़रूरी है. चाहता तो था कि पूरा समग्र खरीद लिया जाए लेकिन अभी इतने से ही संतोष कर लिया है. दादा भी ले जाना चाहता था. लेकिन अभी पहले मुझे मिल गया है.
A World To Win. Essays on Communist Manifesto. Leftword.
लेफ्टवर्ड वाले आधी कीमत पर बेच रहे थे. केवल चालीस रूपये!
याद के लिए:- यह किताब
कभी मैंने पापा को गिफ्ट की थी.
निबंधों की दुनिया. विजयदेव नारायण साही. वाणी प्रकाशन.
दोस्तों हिन्दी में M.Phil. कर रहा हूँ. पढ़ना पढता है सारा कुछ. अब तो पर्चे नज़दीक आ रहे हैं.
Fantasies of a Bollywood Love Thief. Stephen Alter. Harper Collins.
मेरी सबसे पसंदीदा ख़रीद. यह किताब ‘ओमकारा‘ के बनने के दौरान लिखी गई है लेकिन इसमें हिन्दुस्तानी सिनेमा से जुड़े और कई मज़ेदार किस्से भी हैं. रविकांत ने इसका ज़िक्र कर तिल्ली लगाई थी सबसे पहले. उसका ही नतीजा है यह ख़रीद.
हाँ, मैंने जिंदगी जी है. पाब्लो नेरुदा. अनुवादक मनीषा तनेजा. कांफ्लुएंस इंटरनेशनल.
पाब्लो नेरुदा की आत्मकथा का सीधा स्पेनिश से हिन्दी अनुवाद. मनीषा का किया मर्ख्वेज़ का अनुवाद ‘एकाकीपन के सौ साल’ आपने पिछले दिनों देखा होगा. मैंने उस उपन्यास का सौम्या सुरभि गुप्ता वाला अनुवाद पढ़ा था. तो मैं मनीषा तनेजा का किया यह पहला अनुवाद पढूँगा. देखें इसका नंबर कब आता है.
सिनेमा के शिखर. प्रदीप तिवारी. संवाद प्रकाशन.
विश्व सिनेमा के चर्चित फिल्मकारों के जीवन और सृजन पर लेख हैं. मुझे एक परिचयात्मक जानकारी मिलने की उम्मीद है.
अपनी धरती, अपना आकाश. विजय शर्मा. संवाद प्रकाशन.
एक और परिचयात्मक किताब. नोबल विजेताओं के जीवन/विचार/रचना पर केंद्रित.
हंसने वाला कुत्ता. सत्यजित राय. प्रकाशन विभाग.
सत्यजित राय बचपन से मेरे प्रिय कहानीकार रहे हैं. उनकी कहानियाँ जब भी कहीं हिन्दी में मिल जाएं, मैं नहीं छोड़ता. और जो दोस्त आजकल ‘तारे ज़मीन पर’ देखकर बौराए हुए हैं उन्हें मेरी सलाह है कि सत्यजित राय की कहानी ‘सदानंद की छोटी दुनिया’ एकबार ढूंढकर/खोजकर/तलाशकर ज़रूर पढ़ें.
जो ख़रीदा था और उसमें से जो उदयपुर जाने से बच गया, मेरे पास रह गया वो सब बता दिया है. अब यह मत पूछियेगा कि क्या पढ़ा? कितना पढ़ा? कब पढ़ा? 2007 में शुरू किया उपन्यास ‘काइट रनर’ तो अभी तक जारी है. अब और क्या कहूँ. फ़िर भी उम्मीद है और उम्मीद पर ही दुनिया कायम है! सलाम!

बात निकलेगी तो फिर दूर तलक जायेगी

मीडियानगर 03 पर बातचीत
फ़रवरी की शाम छ: बजे,
ऑक्सफ़र्ड बुक स्टोर, कनॉट प्लेस, दिल्ली.

फिज़ाओं में क्या था:- वक्ताओं के पीछे एक नारंगी रंग की दीवार थी जिसपर बहुत सारे शब्द बिखरे हुए थे. ये मुझे ‘तारे ज़मीन पर’ के शुरूआती दृश्य की याद दिला रहा था जिसमें हमारा कुल-ज़मा लिखा पढ़ा सब कुछ एकसाथ बरसता सा लगता है. हाँ, बीच में बड़े-बड़े अक्षरों में लिखा था vernacular. कई बार ये बेतरतीब चुनाव की प्रणाली भी कितने अर्थ व्यंजित करने लगती है ना. वैसे मानने वाले ये भी मान सकते हैं कि वो ‘vernacular’ वहाँ यूं ही नहीं था. क्योंकि हर बेतरतीब नमूने के पीछे एक नजरिया होता है.
पार्श्व में बार-बार NDTV के नये शाहकार ‘रामायण’ की ध्वनि “जय श्री राम” गूँज उठती थी और सामने बैठे NDTV के अविनाश सिर्फ़ अपनी मौजूदगी से ही एक कमाल का विरोधाभास पैदा कर रहे थे. अब जब किसी संवाद का माहौल ही ऐसा कोलाजनुमा हो गया हो तो बातचीत को तो उस तरफ़ जाना ही हुआ!

बात-चीत:- अनुवाद पर हुई बातों को ज़रा देर के लिए छोड़ दें तो आनंद प्रधान की बातों से निकली बात ही आगे बढ़ती गई. बात ठीक थी और सवाल भी कि “आज का हमारा मीडिया आखिर जा कहाँ रहा है?” लेकिन मुझे बार बार लगता रहा कि जो छोटी पहलकदमियाँ इसके बरक्स खड़ी होंगी उनपर बात होती तो कैसा होता. लेकिन इस ‘यूं होता तो क्या होता’ का अब क्या जवाब…
जैसे ये भी एक सवाल है कि हमें वहाँ ये बात करने की बजाए कि mainstream media क्या और क्यों छाप रहा है ये बात करनी चाहिए थी कि medianagar में क्या छपा? सीधा कहूँ तो हमें ज़रूर पहले दोनों वक्ताओं राहुल और देबश्री के लिखे पर बात करनी चाहिए थी जो हमनें नहीं की. ‘मल्लिका सेहरावत’ और ‘राखी सावंत’ के कारनामों को सिनेमा की ख़बर कहकर दिखाते मीडिया को देबश्री का मुम्बई सिनेमा पर किया काम जवाब हो सकता है. या कम से कम एक विकल्प तो हो ही सकता है. तो उसपर बात करनी तो रह ही गयी. और मैं भी बात ना करने वालों में से एक था तो ये इल्जाम मुझपर भी है. उम्मीद है कि आगे होने वाली बातचीत इस मुद्दे को साध लेंगी.

ठोस:- संजीव के तरकश में कई पैने तीर थे जो उन्होंने चलाये. मुझे जो बात सबसे ज्यादा सोचने वाली लगी उसका ज़िक्र कर रहा हूँ. इसलिए भी कि इसका ठीक जवाब मुझे भी नहीं मालूम. उन्होंने कहा कि पूरे अंक की भाषा का स्वाद एक जैसा है. ये मानते हुए कि ये स्वाद बहुत स्वादिष्ट है ये भी मानना पड़ेगा कि एकरसता कभी अच्छी नहीं लगती. उनका कहना था कि ऐसा लगता है जैसे सारा अनुवाद एक ही व्यक्ति ने कर दिया हो. अब मैं इस बहस में नहीं जा रहा कि उनका ये आकलन medianagar के बारे में कितना सही है. मेरा सवाल ज्यादा बड़ा है जो और दिमागों में भी आया होगा. हर पत्रिका समय के साथ अपना एक ख़ास कलेवर/एक ख़ास आकार लेती है. यही उसकी पहचान बनाता है. अब पहला सवाल तो ये है कि क्या भाषा भी इस पहचान का एक हिस्सा है? और दूसरा ये कि इसका एक ख़ास स्वरूप में ढलकर पत्रिका की पहचान बनना ज्यादा ठीक है या भाषागत वैविध्य ज्यादा ज़रूरी है? इस सवाल को यूं देखिये कि क्या ‘पहल’ ‘तद्भव’ ‘हंस’ में भी भाषागत एकरसता दिखती है? और अगर हाँ तो वो क्यों और कितनी ठीक है?

दिल की बात:- मेरे लिए तो वो एक निजी कोलाज था. मेरे दो भूतपूर्व गुरु मुझे मेरे ‘रंग दे बसंती’ ( अर्थात ‘क्या करें, क्या ना करें’ वाले दिन) दिनों की याद दिला रहे थे. आनंद प्रधान IIMC में बीते एक महीने की और देवेन्द्र चौबे JNU की जागती रातों की याद ताज़ा कर गए. और इस तस्वीर को मुकम्मल करने अचानक पीछे खड़ा आदित्य राज कौल दिखा (शायद किताब ख़रीदने आया था) और उसके तुरंत बाद राहुल ने बोलते हुए शिवम्

प्रेम के पक्ष में…

साल 1986. राजीव गाँधी ने ये दाँव खेला था. मुस्लिम कट्टरपंथियों को फायदा पहुँचाने के लिये शाहबानो केस में फैसला पलटा गया और हिंदु कट्टरपंथियों को अयोध्या में ताला खोल चुप कराया गया. कुछ दोस्त शाहबानो केस को मुस्लिम तुष्टीकरण कहते हैं और ये भूल जाते हैं कि आधी मुस्लिम आबादी उन महिलाओं की है जिनका हक़ छीना गया. और सच शायद यही है. हर समुदाय में वो महिला ही तो है जो हर बार इस प्रकार के ‘तुष्टीकरण’ के नतीजे भुगतती है.
……
साल 2007. प. बंगाल में CPM की सरकार आलोचना के घेरे में है. नंदीग्राम में जो हुआ और जो हो रहा है वह हमारी आँखें खोलने के लिये काफ़ी है. हम सभी जो अपने आपको मार्क्सवाद से किसी ना किसी तरह जुडा पाते हैं. लेकिन कुछ और भी है जिसे यूँ नहीं छोड़ा जा सकता…
पहले नंदीग्राम और फ़िर रिज़वान का मामला, कहा गया कि CPM का ‘मुस्लिम वोट बैंक’ टूट रहा है. और फ़िर कल कलकत्ता में हुई हिंसा.. और आज रात मैं TV पर देख रहा हूँ कि तस्लीमा को रातोंरात कलकत्ता छोडना पडा है. शायद हिंसा की आशंका.. शायद सरकार की सलाह पर.. पता नहीं. एक बार फ़िर एक महिला ने ‘तुष्टीकरण’ का नतीजा भुगता है. शायद अब CPM का ‘मुस्लिम वोट बैंक’ बच जाये…
मैं व्यक्तिगत रूप से तसलीमा के लेखन का प्रशंसक नहीं रहा हूँ. लेकिन “हमारे समाज में हर व्यक्ति को अपनी बात कहने का हक़ है” इसके पक्ष में जम के खडा हूँ. और अपनी तरह से जीने का हक़ है चाहे वो सबको रास आये या न आये. और हमारे समाज को इतना संवेदनशील तो होना ही चाहिये कि वो तसलीमा को भी उतनी ही जगह (space) दे जितना मुझे मिली है. और ये लडाई उसी ‘Room for one’s own’ के लिये है.
……
तसलीमा का कलकत्ता से जाना सिर्फ एक घटना भर नहीं है. ये एक प्रेमी-प्रेमिका का बिछुडना है. तसलीमा ने कलकत्ता से प्रेम किया है. वो उसके लिये तड्पी हैं, उसे उलाहना दिया है, उससे रूठी हैं, उसे मनाया भी है. वो उन्हें अपने घर की याद जो दिलाता है. बीता बचपन, गुज़रा साथी, छूटा दोस्त…
पढिये ये कविता ‘कलकत्ता इस बार…’ जो उन्होंनें हार्वर्ड विश्वविद्यालय में रहते हुये लिखी थी. भूमिका में वे लिखती हैं, “चार्ल्स नदी के पार, केम्ब्रिज के चारों तरफ़ जब बर्फ़ ही बर्फ़ बिछी होती है और मेरी शीतार्त देह जमकर, लगभग पथराई होती है, मैं आधे सच और आधे सपने से, कोई प्रेमी निकाल लेती हूँ और अपने प्यार को तपिश देती हूँ, अपने को ज़िन्दा रखती हूँ. इस तरह समूचे मौसम की नि:संगता में, मैं अपने को फिर ज़िन्दा कर लेती हूँ.”

आज इस कविता की प्रासंगिकता अचानक बढ गयी है…

कलकता इस बार…
इस बार कलकता ने मुझे काफी कुछ दिया,
लानत-मलामत; ताने-फिकरे,
छि: छि:, धिक्कार,
निषेधाञा
चूना-कालिख, जूतम्-पजार
लेकिन कलकत्ते ने दिया है मुझे गुपचुप और भी बहुत कुछ,
जयिता की छलछलायी-पनीली आँखें
रीता-पारमीता की मुग्धता
विराट एक आसमान, सौंपा विराटी ने
2 नम्बर, रवीन्द्र-पथ के घर का खुला बरामदा,
आसमान नहीं तो और क्या है?
कलकत्ते ने भर दी हैं मेरी सुबहें, लाल-सुर्ख गुलाबों से,
मेरी शामों की उन्मुक्त वेणी, छितरा दी हवा में.
हौले से छू लिया मेरी शामों का चिबुक,
इस बार कलकत्ते ने मुझे प्यार किया खूब-खूब.
सबको दिखा-दिखाकर, चार ही दिनों में चुम्बन लिए चार करोड्.
कभी-कभी कलकत्ता बन जाता है, बिल्कुल सगी माँ जैसा,
प्यार करता है, लेकिन नहीं कहता, एक भी बार,
कि वह प्यार करता है.
चूँकि करता है प्यार, शायद इसीलिये रटती रहती हूँ-कलकत्ता! कलकत्ता!
अब अगर न भी करे प्यार, भले दुरदुराकर भगा दे
तब भी कलकत्ता का आँचल थामे, खडी रहूँगी, बेअदब लड्की की तरह!
अगर धकियाकर हटा भी दे, तो भी मेरे कदम नहीं होंगे टस से मस!
क्यों?
प्यार करना क्या अकेले वही जानता है, मैं नही?

-तसलीमा नसरीन
‘कुछ पल साथ रहो…’ से (
अनुवाद- सुशील गुप्ता)