in films

मैं ‘राज़ी’ देखते हुए एक अजीब से प्यार से भर गया। प्यार, जो किसी बच्चे के सर पर हाथ रखकर या उसका माथा चूमकर पूरा होता है। फ़िल्म की नायिका में मुझे नायिका नहीं, अपनी बच्ची नज़र आने लगी। कुछ इसका दोष फ़िल्म की कहानी को और गुलज़ार साब की लिखी लाइनों (फसलें जो काटी जाएं… बेटियाँ जो ब्याही जाएं…) को भी जाएगा। पर मेरा मन जानता था, सिर्फ यही वजह नहीं थी।
 
मैं parent होने का अहसास क्या होता है, यह अभी तक नहीं जान पाया हूँ। पता नहीं, वो कभी होगा भी या नहीं। हमारे चयन वो नहीं हैं। जीवन हमें किसी आैर ही चक्की में पीस रहा है। घर में भी मैं सबसे छोटा रहा.. सबसे छोटा लड़का, सबसे छोटा भाई, प्रेम में भी नौसिखिया, शादी के बाद भी। 
 
लेकिन एक जगह रही जहाँ मैंने अपने भीतर parent होने के अंश को धड़कता पाया। बस वही एक जगह। वो अपनी क्लास के बच्चों को लेकर। और पिछले साल मिरांडा हाउस में पढ़ाते हुए यह भाव बहुत उमड़ता रहा। बनस्थली की ट्रेनिंग का असर रहा होगा शायद। लड़कियों का पिता होना इस दुनिया का सबसे पवित्र अहसास है। मुझे उसका अंश मिला ज़रा सा।
 
इसीलिए, जब ‘राज़ी’ में पहले ही सीन में आलिया भट्ट को मिरांडा के गलियारों में देखा, मन किसी और ही रास्ते पर ले गया मुझे। फ़िल्म के कुछ और ही मायने हो गए मेरे लिए। एक पिता का दिल वहाँ धड़क रहा था, और जैसे एक पिता का दिल यहाँ भी धड़कने लगा। ‘राज़ी’ आम से ख़ास बन गई एक ही क्षण में।
 
हम अपने जीवन में एक भी गिलहरी को उसकी लम्बी बेपरवाह ‘कूद’ में ज़रा भी मदद कर पाएं। बस यही। इतना ही।

raazi 1

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पचास के सुनहरे दशक का बम्बईया सिनेमा ज़रा भी बम्बईया नहीं।

यह दरअसल परदे के आगे पंजाब का सिनेमा है, आैर परदे के पीछे बंगाल का सिनेमा। आज़ादी मुल्क़ के इन दोनों सबसे समृद्ध प्रांतों के लिए बंटवारा लायी थी, आैर इन्हीं प्रांतों से आए ‘जड़ों से उजड़े’ लोगों ने बम्बईया सिनेमा को बनाया। हमें हमारे हिस्से की सबसे मानीखेज़ कहानियाँ दीं। पंजाब ने हमें हमारे हिस्से के नायक दिये, बंगाल ने लेखक-निर्देशक। उनकी सुनायी कहानियाँ जैसे हमारी बन गईं, क्योंकि दुख दुख को पहचानता है।

अरुण यह मधुमय ‘देश’ बनाने की कोशिश में जिन्होंने विष पिया, वो इसकी कीमत खूब समझते हैं।

यह संयोग भर नहीं है कि ‘राज़ी’ की निर्देशक मेघना गुलज़ार इसी युगल विरासत की प्रतिनिधि हैं, और वो एक स्त्री हैं। उनके हिस्से बंटवारे में लहूलुहान हुआ पंजाब भी है, बंगाल भी। आैर शायद इसीलिए उनके पास इससे आगे देख पाने की दृष्टि है। एक सुखद आश्चर्य की तरह उनकी फ़िल्म ‘राज़ी’ ने हमारे सिनेमा (और समाज पर भी) पर इस समय हावी देशभक्ति की एकायामी परिभाषा को सिरे से बदल दिया है।

जिस किस्म का राष्ट्रवाद वो प्रस्तुत करती है, उसकी नींव नफ़रत पर नहीं रखी गयी है।

‘राज़ी’ का राष्ट्रवाद नेहरूवियन आधुनिकता और राष्ट्र निर्माण के सपने की याद दिलाता है। पचास के दशक में उस सपने को सिनेमा के पर्दे पर जिलाने वाली राज कपूर की ‘जिस देश में गंगा बहती है’, दिलीप कुमार की ‘नया दौर’, व्ही शांताराम की ‘दो आंखे बारह हाथ’ और महबूब ख़ान की ‘मदर इंडिया’ जैसी क्लासिक फ़िल्मों की याद दिलाता है। ठीक है, वो प्रयोग अधूरा साबित हुआ और वो सपना टूटा।

उस टूटे सपने की किरचें पूरे सत्तर के दशक के ‘एंग्री यंग मैन’ मार्का विद्रोह में बिखरी नज़र आती हैं।

पर ‘राज़ी’ यहीं नहीं रुकती। हाँ, वो हमें भारतीय राष्ट्रवाद का मौलिक चेहरा याद दिलाती है जिसकी बुनियाद आज़ादी के संघर्ष के दौरान रखी गयी, मुल्क़ के बंटवारे के बहुत पहले। राष्ट्रवाद, जिसका चेहरा आज की तरह एकायामी, हिंसा पर टिका आैर बदनुमा नहीं था। लेकिन वो हमें इस पारिवारिक तथा सामुदायिक वफ़ादारियों की नींव पर खड़े भारतीय राष्ट्रवाद का दोमुँहा चरित्र भी दिखाती है। राज्य, जो नागरिक से अनन्य वफ़ादारियाँ तो माँगता है, लेकिन बदले में न्याय के समक्ष आैर संसाधनों में बराबरी का वादा कभी पूरा नहीं करता।

आज़ादी के दशक भर बाद आयी क्लासिक ‘मदर इंडिया’ की राधा अपने जान से प्यारे बेटे बिरजू पर दुनाली तानकर कहती है, “मैं बेटा दे सकती हूँ, लाज नहीं दे सकती”। बिरजू का खून पानी बन ‘आधुनिक भारत के मंदिर’ बहुउद्देश्यीय बांधों से निकली कलकल नहरों में बहने लगता है। लेकिन आज़ादी के सत्तर साल बाद ‘राज़ी’ की सहमत फ़िल्म के अन्त तक आते-आते इस राष्ट्र-राज्य के छल को समझ गयी है। वो राष्ट्रप्रेम की ऐसी किसी भी परिभाषा पर संदेह करती है जो देश को इंसानियत से भी ऊपर रखे।

सहमत सवाल पूछती है, “ये किस वफ़ादारी का सबक़ देते हैं आप लोग? नहीं समझ आती आपकी ये दुनिया.. ना रिश्तों की क़दर है, ना जान की।”

सहमत ‘मदर इंडिया’ की भूमिका को निभाने से इनकार कर देती है। शायद उसे समझ आने लगा है कि राष्ट्र-राज्य यह कुर्बानियाँ हमेशा स्त्रियों से, वंचितों से, दलितों से, अल्पसंख्यकों से आैर हाशिए पर खड़ी पहचानों से ही मांगा करता है। कभी उसका पता हाशिमपुरा है, तो कभी नर्मदा की घाटी। कभी नियमगिरी के पहाड़, तो कभी तूतीकोरिन। सहमत की कोख़ में ‘दुश्मन’ का बच्चा है, आैर मुल्क़ युद्धरत है। पर उसका साफ़ फ़ैसला है, “मैं इक़बाल के बच्चे को गिराऊंगी नहीं। एक आैर क़त्ल नहीं होगा मुझसे।” यही फ़िल्म में उसका अन्तिम संवाद है।

उसे माँ बनना है, ‘मदर इंडिया’ नहीं।

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इस आलेख का मूल संस्करण तीन जून 2018 के ‘प्रभात खबर’ में ‘राज़ी को माँ बनना है, मदर इंडिया नहीं’ शीर्षक से प्रकाशित हुआ।

 

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