in films

शायद किराये के मकानों में ऐसा अक्सर होता है। जिस घर में हम रहने आये, उसकी दीवारों पर पिछले रहनेवालों के निशान पूरी तरह मिटे नहीं थे। ख़ासकर बच्चों की उपस्थिति के निशान। कमरे की दीवारों पर रंग बिरंगी पेंसिल की कलाकारियाँ और अलमारियों पर सांता क्लाज़ के स्टिकर। उससे भी कमाल था बाथरूम की एक अलमारी पर अनगिनत स्टिकर से बना एक कोलाज जिसमें एक बच्चे की कल्पना की उड़ान में आनेवाली तमाम तरह की चीज़ें थीं। नए रंग रोगन ने दीवार की कलाकारियों को तो मिटा दिया। लेकिन अलमारी का कोलाज हमने उतारा नहीं। एक स्कूलबस, कुछ जोड़ी जूते, एक लम्बी दूरबीन, बहुत सारी मछलियाँ। थोड़ा सा उन अनदेखे बच्चों को वहाँ रहने दिया। शायद थोड़ा खुद को। अपना बचपन भी तो मैं शहरी आबादी से बहुत दूर एक बड़े से चौक वाले मकान के किसी शांत कोने में छोड़ आया था किन्हीं और अनदेखे लोगों द्वारा संभाले जाने के लिए।

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सिनेमा आपको चमत्कृत करने की कला है। सिनेमा हमें जादू की दुनिया में ले जाता है। सिनेमा हमारे लिए फंतासी की नई दुनिया रचता है। बीते साल भारतीय सिनेमा के शतक समारोह में हमने सिनेमा को लेकर इस तरह के भावुक वक्तव्य बहुत सुने जिनमें सिनेमा की आदिम चमत्कृत कर देने वाली कथाओं से निकला नॉस्टेल्जिया भरा था। हिन्दी सिनेमा ही नहीं, विश्व सिनेमा के संदर्भ में बात करते हुए इसका उल्लेख आया कि सिनेमा में अपराधियों और तवायफों की इतनी पूछ की वजह यह है कि अपने स्वभाव से ही उस दुनिया की बात करता सिनेमा ज़्यादा आकर्षण जगाता है जिसे हमने देखा नहीं, जाना नहीं। इसलिए सिनेमा सिर्फ सिनेमा नहीं हमारे लिए, वो एक नई दुनिया में खुलनेवाला रौशनदान है।

बेशक यह सिनेमा है और खूब सिनेमा है, लेकिन यह सिनेमा की सिर्फ एक परिभाषा है। किसी ने पूछा नहीं कि मान लो हम सड़क पर खड़े हैं और हमें अपने ही घर के भीतर झांकने के लिए एक खिड़की की ज़रूरत हो तो उसका पर्याय बने वो सिनेमा कहाँ है। याने कि इस बहुप्रचलित माध्यमरूप के परे सिनेमा का दूसरा रूप भी है जिसका चमत्कार हमारे जीवन का और उसकी साधारणता का हमशक्ल होने में है। यहाँ अविश्वस्नीय की चकाचौंध नहीं, लेकिन यह कथा में लिपटा दारुण यथार्थ भी नहीं। यह ज़िन्दगी है मेरी और आपकी जिसे हमारे सामने उल्था कर दिया गया है ज्यों का त्यों।

S O Tआनंद गांधी की ‘शिप ऑफ थिसियस’ हमारी ज़िन्दगी के इन्हीं सबसे साधारण लेकिन सिनेमा माध्यम पर पुनर्रचना के लिए सबसे दुर्लभ क्षणों को तीन सरल कहानियों के ज़रिये ज़िन्दा कर देती है। एक नेत्रहीन फोटोग्राफर, एक श्वेतांबर जैन भिक्षु और एक स्टॉक ब्रोकर। तीन किरदार और उनकी तीन ईमानदार दुविधाएं। नेत्रहीन फोटोग्राफर आलिया (आयदा-अल-काशेफ) जिसके लिए उसकी कला, अपने संसार से परिचय का द्वार है। लेकिन क्या यह परिचय का द्वार सम्पूर्ण है जिसे किसी और अनुभव से बदला नहीं जा सकता? किसी ज़्यादा प्रत्यक्ष अनुभव द्वारा भी नहीं? क्या अनुभव का प्रत्यक्ष स्वाद इतना नायाब है कि उसके लिए कला माध्यम द्वारा बनाया गया अनुभव तक पहुँचाने वाला यह आत्मीय द्वार दांव पर लगा दिया जाये? भिक्षु मैत्रेय (नीरज कबि) के जीवन के सवाल कहीं अपनी मान्यताओं और स्वयं के अस्तित्व के बीच चयन के सवाल हैं। और इससे आगे इसके भी कि सम्पूर्ण पर्यावरण को अपने अधीन समझने वाले मनुष्य का दरअसल अपने शरीर पर क्या और कितना हक़ होना चाहिए? अन्तिम कथा में ‘अपने व्यवसाय के आगे कुछ नहीं देखने वाला’ बताया गया एक जवान मारवाड़ी स्टॉकब्रोकर नवीन (सोहुम शाह) व्यक्तिगत जीवन में सत्य और ईमानदारी की तलाश में दूर तक जाता है और कुछ ऐसा हासिल करता है जिसके सहारे इस ‘पदार्थभोगी प्राणी’ के जीवन की व्याख्या हम ‘ज्ञानियों’ की नज़र में बदल जाये।

थिसियस के जहाज़ की कहानी एक सवाल के रूप में हमारे सामने है जिससे आनंद गांधी की फिल्म अपना शीर्षक ग्रहण करती है। अपने पदार्थ रूप में यह सवाल दार्शनिक भी है और अस्तित्ववादी भी। सवाल है कि अगर किसी जहाज में एक-एक कर नया पुरजा लगता चला जाये और सारे पुरजे उस वक्त तक बदलते चले जायें जब तक कि उसमें एक भी ‘मूल’ पुरजा मौजूद न रहे, तब भी क्या वो जहाज़ वही रहेगा? लेकिन गांधी की ‘शिप ऑफ थिसियस’ आदिम दर्शन का शास्त्रार्थ नहीं। इसके किरदार आपकी हमारी दुनिया के लोग हैं। समूची दुनिया है जिसमें दुनियादारी है, कारोबार है, घरेलू झगड़े हैं। छत्तीसगढ़ में गिरफ्तार हुआ एक मानवाधिकार कार्यकर्ता है और ‘तंग गलियों वाले शहर में लम्बी कार कहाँ पार्क करें’ जैसी सनातन समस्याएं भी।

लेकिन इससे आगे का भी कुछ है इस फिल्म में। यह हमारे जीवन के उन निजी और सार्वजनिक क्षणों को परावर्तित करती है जब हम ज़िन्दगी की निरंतर चलती आपाधापी में ठहरकर या किसी व्यक्ति, घटना, विचार द्वारा रोके जाने पर रुककर सोचते हैं – खुद इस ज़िन्दगी के बारे में। इसके होने के बारे में, खुद अपने होने के बारे में। हम सभी की ज़िन्दगी में यह क्षण आता है। किसी के लिए सबसे पुराने मित्र के अचानक साथ छोड़ देने पर आता है। किसी के लिए अतृप्त ज़िन्दगी की गाँठ खोल निकल जाने की अकेली डोर बनी नौकरी के चले जाने पर आता है। किसी के लिए पहली संतान के जन्म पर आता है। और किसी के लिए घातक बीमारी के होने न होने की आशंकाओं के बीच अपनी टेस्ट रिपोर्ट का इन्तज़ार करती माँ की नज़रों के सामने बैठे आता है।

यह भी एक खास तरह का जादू ही तो है जिसमें आप यह भूल जाते हैं कि आप अपनी देखी-जानी दुनिया में नहीं, जादू की दुनिया में हैं। और शायद परदे पर यह जादू रचना जो आपको सिनेमाहाल में होने का अहसास भुला दे, ज़्यादा मुश्किल है। इस फिल्म में तकनीक के तमाम चमत्कार हैं, ख़ासकर पहली कहानी में। लेकिन किसी निर्णायक क्षण में मौजूद ज़िन्दगी की साधारणता और उस साधारणता में छिपी अदम्य सुन्दरता को पकड़ने के लिए यह फिल्म सारे तामझाम छोड़ देती है। तीसरी कहानी में अस्पताल के भीतर दृश्य में सिर्फ दो किरदार मौजूद हैं। दो किरदार जिनका रिश्ता उन्हें आपस में जोड़ता है लेकिन जिनकी दुनियाएं शायद एक दूसरे के लिए लगातार अपरिचित होती जा रही हैं। लगता है जैसे बात करने के लिए कोई कड़ी भी नहीं बची। लेकिन फिर बिना किसी गतिशील कैमरा मोमेंट के रियल-टाइम में फिल्माया गया एक प्रसंग आता है और हम ज़िन्दगी की नितांत साधारणता के महीन रेशों से निकलती सुनहरी आभा को देखते हैं। अचानक बातचीत का सिरा जो टूट गया था, जैसे खुल जाता है। संवाद, जैसे तालाब के ठहरे पानी में फेंका पत्थर जिसके सहारे बनती विचार लहरें दोनों मस्तिष्क के समन्दरों में अनन्त निकल जाती हैं। आगे जो हम इन किरदारों की गति देखते हैं, उस परस्पर विरोधी संवाद से उपजी लहरें दूर तक जाती दिखाई देती हैं। यह उतना ही सामान्य लेकिन उतना ही अदम्य अनुभव है जिसे पाने के लिए पहली कथा के अन्त में आलिया अपना कैमरा वापस अपने झोले में रख लेती है।

S O Tकहीं गहरे यह तीनों कहानियाँ संवाद हैं। दो पात्रों के बीच संवाद और इस माध्यम से दो विचार प्रणालियों के बीच संवाद। लेकिन यह संवाद के बहुमुखी स्वभाव को उजागर करने वाली फिल्म भी है जिसमें हर संवाद दोनों सिरों पर मौजूद पात्रों को बदलता चलता है। वैचारिक रूप से गतिशील संवाद जहाँ आप अपना पक्ष रखते हुए दूसरे पक्ष का विरोध करते हैं, लेकिन इस प्रक्रिया में आप उस दूसरे तर्क से एक रिश्ता भी बनाते हैं। और फिर जब आप अपने हिस्से के तर्क को झोले में समेटकर आगे निकल जाते हैं, पता नहीं चलता लेकिन दूसरा विरोधी तर्क भी अपना कटियातार डालकर साथ चला आता है। और फिर किसी निर्णायक क्षण जब आप अपने उसी झोले में से अपना पुराना माकूल तर्क निकालने के लिए हाथ डालते हैं, निकलता है वो विरोधी तर्क जो इस दरमियान अब आपका अपना हो गया है। वाद-विवाद से आगे संवाद एक परस्पर आदान-प्रदान की अन्योन्याश्रित प्रक्रिया है जिसमें लेन-देन दोनों ओर से होता है।

मुझे याद आता है बीस के दशक के उन तूफानी अन्तिम दिनों में विचार और कार्य प्रणालियों के भिन्न धरातलों पर लेकिन विश्वास के इकसार मोर्चे पर खड़े भगतसिंह और गाँधी के बीच का संवाद। और उनके तमाम भविष्य के तर्क जिनमें उस संवाद के दौरान साथ चले आये विरोधी तर्क की गूंज सुनाई देती है। यह मौलिक संवाद है जो आपको बदल देता है। हत्या में अंतिम इंसाफ ढूंढने वाला क्रान्तिकारी जनता के जागरण में अन्तिम उम्मीद देखने लगता है और एक अहिंसा का पुजारी साधु ‘करो या मरो’ जैसा उग्र नारा उछालता है। थोड़े से गांधी भगतसिंह की विचारसरणी में प्रवेश कर जाते हैं वहीं दूसरी ओर जाने के बहुत सालों बाद भी थोड़े से भगतसिंह विचार की तरुणाई बनकर गांधी के साथ रहते हैं हमेशा, उनकी उम्मीदों में। बीस के दशक का यह मौलिक संवाद दोनों सिरों पर मौजूद व्यक्तित्वों को हमेशा के लिए बदल देता है, और शायद हमारे महादेश की नियति को भी।

याद है वो जो बच्चों के सपनों का कोलाज नए घर की अलमारी पर छोड़ दिया था? हमारे घर की नई पीढ़ी का एक उत्साही बच्चा घर आया एक दिन और उस कोलाज में उसे न जाने क्या कुछ दिखने लगा! एक बचपन ने निशान छोड़े और दूसरे ने उन्हें अपने सफ़री झोले में डाल लिया। अपनी सबसे प्राथमिक अवस्था में, संवाद शुरु हो गया है।

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मैं चाहता हूँ कि इस फ़िल्म का प्रसार भाषा की सीमाओं में बँधकर न हो। फिल्म का काफी हिस्सा अंग्रेज़ी में है। इसलिए नहीं कि निर्देशक ने माध्यम भाषा के रूप में अंग्रेज़ी को चुना बल्कि इसलिए कि फिल्म के कुछ किरदारों की पहली भाषा अंग्रेज़ी है और कहीं वह दो भिन्न पृष्ठभूमि के किरदारों के मध्य माध्यम भाषा बनती है हिन्दी की तरह। लेकिन किसी रास्ते से संभव हो तो इसे हिन्दी सबटाइटल के साथ भी जारी किया जाना चाहिए। बल्कि सबटाइटल के लिए मैं खुद इसका हिन्दी अनुवाद करने को प्रस्तुत हूँ। किसी सद्भावनाभाव से नहीं। इसलिए क्योंकि ‘शिप ऑफ थिसियस’ वो फिल्म है जिसे मैं अपनी माँ को दिखाना चाहूँगा।

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Mihir, your review meets the profundity of Ship Of Theseus with similar depth. It thus becomes a triumph of art. Beautifully moving pieces of work, both. Really touched. Thank you.

The review/analysis is as serene, poetic and satisfying as the film. And you nailed it with the last line. Thanks for the insight.