यह आलेख ’चकमक’ के बच्चों से मुख़ातिब है.
इस बार फिर शुरुआत एक सवाल से करते हैं. अगर तुम्हें एक मूवी कैमरा (जिससे फ़िल्म बनाई जाती है) मिल जाये और उसके साथ यह छूट भी कि तुम किसी एक चीज़ का वीडियो बना सकते हो तो बताओ तुम किसका वीडियो बनाओगे?
अच्छा जब तक तुम अपने मन का जवाब सोचो तब तक मैं तुम्हें बताता हूँ कि जब ऐसे ही आज से तकरीबन सौ साल पहले धुंडीराज गोविन्द फालके को मूवी कैमरा मिला तो उन्होंने किस चीज़ का वीडियो बनाया? अब तुम पूछोगे कि ये अजीब से नाम वाले ’धुंडीराज गोविन्द फालके’ कौन हुए? अरे बताऊँगा, लेकिन पहले किस्सा तो पूरा सुनो. उन्होंने पहला वीडियो बनाया एक उगते हुए पौधे का. अब तुम कहोगे कि उगते हुए पौधे का कोई वीडियो कैसे बना सकता है. अरे भई पौधा कोई एक दिन में थोड़े न उग आता है कि बस कैमरा लगाया और बन गया वीडियो. पहले बीज डालो, फिर पानी डालो और लगातार उसकी देखभाल करो. तब हफ़्तों में कहीं जाकर एक बीज से पौधा तैयार होता है.
ठीक कहा तुमने. लेकिन फालके भी इतनी आसानी से हार मानने वाले कहाँ थे. उन्होंने इसके लिए एक अद्भुत तरकीब खोजी. उन दिनों हाथ से हैंडल घुमाकर चलाने वाले फ़िल्म कैमरा आते थे. तो फालके साहब ने क्या किया कि कैमरा गमले के ठीक सामने रख दिया और बिना उसे अपनी जगह से हिलाए वो रोज़ एक तय समय पर उसका हैंडल घुमा देते थे. ऐसा उन्होंने एक महीने तक लगातार लिया. फिर उस पूरी रील को धोकर एक साथ प्रोजेक्टर पर चलाया. और चमत्कार! ऐसा लगा जैसे हमने अपनी आँखों के सामने एक पौधा उगते देखा हो.
और यही थी हिन्दुस्तान में बनी पहली चलती-फिरती फ़िल्म. और इसे बनानेवाले थे ’धुंडीराज गोविन्द फालके’ या दादासाहब फालके.
मुझे भी यह सब पहले से कहाँ पता था. हिन्दुस्तान में बनी पहली फ़िल्म की यह कहानी और उसके साथ जुड़ी दादा साहब फालके की कहानी का मुझे पता चला नई मराठी फ़िल्म ’हरिश्चंद्राची फैक्ट्री’ से. निर्देशक परेश मोकाशी की बनाई यह फ़िल्म दादा साहब फालके के जीवन पर आधारित है. दादा साहब फालके हिन्दुस्तान की पहली फ़ीचर फ़िल्म के निर्माता-निर्देशक थे. उन्होंने ही हिन्दुस्तान में फ़िल्म निर्माण की शुरुआत की और उन्हें हिन्दुस्तानी फ़िल्म उद्योग का पितामह माना जाता है. आज भी भारत सरकार फ़िल्म निर्माण में क्षेत्र में उत्कृष्ठ योगदान के लिए जो सबसे बड़ा सम्मान देती है उसे ’दादा साहब फालके’ सम्मान कहा जाता है.
लेकिन यह इतना आसान नहीं था. फ़िल्म बनाना तब नई-नई कला थी. हिन्दुस्तान में उस वक़्त फ़िल्म बनाने के बारे में कोई भी ठीक से नहीं जानता था. तरह तरह की अफ़वाहें फैली हुई थीं सिनेमा के बारे में. कोई कहता था यह आदमी से उसकी शक्ति छीन लेती है और कोई इसे अंग्रेज़ों का जादू-टोना बताता था. लेकिन गोविन्द फालके हमेशा से विज्ञान में रुचि रखते थे. विज्ञान से इसी गहरे लगाव के चलते उन्होंने फोटोग्राफी का व्यवसाय भी किया था और खुद जादू भी सीखा था. पहली बार अंग्रेज़ों के थियेटर में फ़िल्म देखकर वे इतने चमत्कृत हुए कि उन्होंने ऐसी ही फ़िल्म भारत में भी बनाने की ठान ली. क्योंकि यहाँ कोई इस कला के बारे में जानता नहीं था इसलिए उन्होंने अपने घर का सामान बेचा और जहाज़ से इंग्लैंड की यात्रा पर निकल पड़े. इंग्लैंड में रहकर उन्होंने फ़िल्म बनाने की पूरी कला सीखी. जब भारत वापस आये तो अपनी पत्नी और दो बच्चों के साथ मिलकर फ़ैसला कर लिया कि हिन्दुस्तान की पहली फ़िल्म बनायेंगे. उन्हें उनके दोस्त अपनी ’घर फूँक, तमाशा देख’ प्रवृत्ति के कारण सत्यवादी हरिश्चन्द्र कहते थे. तो उन्होंने भी तय किया कि पहली फ़िल्म सत्यवादी ’राजा हरिश्चन्द्र’ पर ही बनायेंगे.
फ़िल्म बनाते हुए भी बहुत सी मुश्किलें आईं. उस दौर में महिलाओं का नाटकों में काम करना बुरा माना जाता था और फ़िल्म तो वैसे भी एकदम नया माध्यम थी, कोई महिला फ़िल्म में काम करने को तैयार न हुई. ऐसे में पुरुषों को ही स्त्रियों के कपड़े पहन कर उनके रोल निभाने पड़े. और भी मुसीबतें थीं. फ़िल्म में स्त्रियों का रोल करने वाले पुरुष अपनी मूँछे मुंडवाने को तैयार नहीं थे. ऐसी मान्यता जो है कि मूँछें सिर्फ़ पिता की मौत के बाद मुंडवाते हैं. बड़ी मुश्किल से अभिनेता माने. फिर भी समाज में फ़िल्म में काम करने वालों को बुरी नज़र से देखा जाता था. इस मुश्किल के हल के लिए फालके ने कहा कि सारे लोग ये कहा करें कि वे ’फ़ैक्टरी’ में काम करते हैं, फ़िल्म बनाने वाली फ़ैक्टरी!
मई उन्नीस सौ तेरह में ’राजा हरिश्चन्द्र’ प्रदर्शित हुई और खूब सराही गई. सन उन्नीस सौ चौदह में फालके को फिर लंदन जाने का मौका मिला और वहाँ उनकी फ़िल्में बहुत सराही गईं. उन्हें वहाँ रहकर फ़िल्म बनाने के प्रस्ताव भी दिये गए लेकिन उन्होंने हिन्दुस्तान में फ़िल्म उद्योग की स्थापना का जो सपना देखा था उसे पूरा करना उनका सबसे मुख्य ध्येय था. उन्होंने हिन्दुस्तान में ही रहकर सौ से ज़्यादा फ़िल्में बनाईं और भारत में फ़िल्म उद्योग की विधिवत शुरुआत की.
‘हरिश्चन्द्र फ़ैक्टरी’ के निर्देशक परेश मोकाशी ने फ़िल्म में दादा साहब फालके को एक ऐसे जुझारू इंसान के रूप में पेश किया है जिसने हर परेशानी का हँसकर सामना किया. फ़िल्म में एक घटना का ज़िक्र आता है. लगातार फ़िल्में देखते हुए एक रोज़ उन्हें आँखों में बहुत तकलीफ़ हुई और डॉक्टर को दिखाने पर उसने आँखों की रौशनी जाने की आशंका व्यक्त की. फालके यह सुनकर उदास हो गए. इसलिए नहीं कि आँखों की रौशनी चली जायेगी बल्कि इसलिए कि अगर उनकी आँखों की रौशनी चली गई तो फिर उनका फ़िल्म बनाने का सपना अधूरा जो रह जायेगा. ऐसे थे दादा साहब फालके!
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क्या तुम जानते हो:-
- फालके ने जे.जे. स्कूल ऑफ आर्ट से पढ़ाई की थी. उन्होंने कला भवन, बड़ौदा से मूर्तिकला और फोटोग्राफी सीखी. फिर उन्होंने गुजरात के गोधरा में एक फोटोग्राफी स्टूडियो खोला. लेकिन वो चला नहीं, लोगों में यह अफ़वाह जो फैल गई थी कि फोटो खिंचवाने से आदमी की ताक़त नष्ट हो जाती है.
- वे प्रक्षिशित जादूगर भी थे. वे ’केल्फा’ नाम से जादू दिखाते थे. केल्फा मतलब समझे? अरे उनके नाम फालके का उल्टा केल्फा!
- उन्होंने आर्किओलॉजिकल सर्वे ऑफ़ इंडिया के लिए भी काम किया. फिर उन्होंने अपनी प्रिटिंग प्रेस भी खोली. यहाँ उन्होंने महान चित्रकार राजा रवि वर्मा के लिए भी काम किया.
- जो पहली फ़िल्म दादा साहब फालके ने देखी थी वो थी ’लाइफ़ ऑफ़ क्राइस्ट’ और साल था उन्नीस सौ बारह.
- दादासहब फालके की बनाई फ़िल्म ’राजा हरिश्चन्द्र’ जो हिन्दुस्तान की पहली फ़ीचर फ़िल्म थी प्रदर्शित हुई 3 मई 1913 को और थियेटर था कोरोनेशन थियेटर, मुम्बई.
- आगे चलकर उन्होंने अपनी फ़िल्म निर्माण कम्पनी स्थापित की जिसका नाम रखा ’हिन्दुस्तान फ़िल्म कम्पनी’.
- भारतीय सिनेमा के पितामह कहे जाने वाले धुंडीराज गोविन्द फालके के सम्मान में उनके नाम पर भारत सरकार ने सन 1969 में ’दादा साहब फालके’ पुरस्कार की शुरुआत की. यह उनका जन्म शताब्दी वर्ष था. यह पुरस्कार किसी व्यक्ति को सिनेमा के क्षेत्र में जीवन भर के अविस्मरणीय योगदान के लिए प्रदान किया जाता है. पहले साल इस पुरस्कार को गृहण करने वाली अभिनेत्री थीं देविका रानी. साल 2007 के लिए यह पुरस्कार गायक मन्ना डे को दिया गया है. और इस साल गुरुदत्त की फ़िल्मों के लाजवाब सिनेमैटोग्राफर वी. के. मूर्ति को.
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अरे जिस सवाल से बात शुरु की थी वो तो अधूरा ही रह गया. वही वीडियो बनाने वाला. चलो मैं तुम्हें अपने मन की बात बताता हूँ. जब मैं छोटा था तो हर बरसात के मौसम में हमारे बगीचे में एक कुतिया छोटे-छोटे पिल्ले देती थी. पहले-दूसरे दिन तो वो इतने छोटे होते कि उनके मुँह भी ठीक से नज़र नहीं आते. वे बिलकुल गुलाबी होते. मुझे उनसे बहुत ही प्यार था. फिर तेज़ी से वो बड़े होने लगते. इधर-उधर भागते. मैं उन्हें एक के ऊपर एक रख देता और वो फिसल-फिसलकर नीचे गिरते. वे अलग-अलग पहचान में आने लगते. मैं उनके अलग-अलग नाम रख देता. चिंटू, प्यारू, भूरू, कालू. उनके साथ खेलने में बहुत मज़ा आता. इस पूरे दौर में उनमें से कुछ मर भी जाते. अगर मुझे कोई उस वक़्त वीडियो कैमरा दे देता तो मैं उनकी वीडियो ज़रूर बनाता. छोटे पिल्लों से बड़े होने की यात्रा. खूब सारी मस्ती और मज़ा. कितना मज़ेदार ख्याल है न! तुम बताओ, किसका वीडियो बनाते?
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एकलव्य की बाल-विज्ञान पत्रिका ’चकमक’ के दिसंबर अंक में प्रकाशित.
झकास लिखे हो यार …….शुक्रिया कुश काजिसने ये लिंक दिया फिल्मो के तो हम भी दीवाने है पर उन्हें सफ्हो पर इस तरह बांटने की हिम्मत नहीं कर पाए …इतने सलीके ओर इतने करीने से …..
intni saari baatein to mujhe bhi pata nahi thi. ab main nishchay hi CHAKMAK padhna shuru karoonga sath hi main ye film bhi zaroor dekhoonga….
Ssiddhant Mohan Tiwary
Varanasi.
सर,……..
फाल्के साहब तो हिंदी सिनेमा के शिखेर पुरुष थे ….और इसके साथ ही उनकी सोच भी verna हिंदी सिनेमा का इतिहास आज कुछ ही होता….
अंजुले श्याम मौर्य