बीते महीने हमारा सिनेमा अपने सौंवे साल में प्रवेश कर गया। यह मौका उत्सव का है। किसी भी विधा के इतना जल्दी, जीवन में इतना गहरे समाहित हो जाने के उदाहरण विरले ही मिलते हैं। सिनेमा हमारे ’लोक’ का हिस्सा बना और इसीलिए उसमें सदा आम आदमी को अपना अक्स नज़र आता रहा। कथाएं चाहे अन्त में समझौते की बातें करती रही हों, और व्यवस्था के हित वाले नतीजे सुनाती रही हों, उन कथाओं में मज़लूम के विद्रोह को आवाज़ मिलती रही। लेकिन इस उत्सवधर्मी माहौल में हमें उस नमक को नहीं भूलना चाहिए जिसे इस सिनेमा के अंधेरे विस्तारों में रहकर इसके सर्जकों ने बहाया। के आसिफ़ जैसे निर्देशक जिनका सपना उनकी ज़िन्दगी बन गया और उस एक चहेते सपने का साथ उन्होंने नाउम्मीदी के अकेले रास्तों में भी नहीं छोड़ा। शंकर शैलेन्द्र जैसे निर्माता जिन्होंने अपने प्यारे सपने को खुद तिनका-तिनका जिया और उसके असमय टूटने की कीमत अपनी जान देकर चुकाई।
यह सिर्फ़ संयोग नहीं कि था कि हिन्दुस्तान में सिनेमा जिस इंसान का हाथ पकड़कर आया, वो धुंडिराज गोविन्द फ़ालके शौकिया जादूगरी भी करता था। हमारा लोकप्रिय सिनेमा चाहे सदा से यथार्थ से परे जाकर किसी सपनीली दुनिया के बसन्त की बात करता रहा हो, उसके निर्माण की असल कथाएं सदा से खुरदुरी रही हैं। उसमें अपने कथाकार का अनगिन धैर्य मिला होता है, अपने सर्जक के पसीने का नमक घुला होता है। अगर आप उन जुनूनी लोगों की असल कहानियाँ सुनें जिनकी सिनेमाई रचनाशीलता के काँधे पर यह उद्योग आज खड़ा है, तो उनके बनाए शाहकार उन्हें बनाने में आई कसैली कठिनाइयों को मुँह चिढ़ाते जादू के खेल ही तो प्रतीत होते हैं।
क्या हिन्दुस्तान की पहली कथा फ़िल्म ’राजा हरिश्चन्द्र’ के आज बचे चुनिंदा अंश आपको ये बताते हैं कि इसे बनाने का सपना देखने वाले ने इसकी रचना के पीछे अपनी आँखों की रौशनी तक को दाँव पर लगा दिया था? अपने ही घर की रसोई को इस कलारूप के सर्वप्रथम डार्करूम में बदल देने वाली उनकी पत्नी सरस्वती और उन्हीं के घर के अन्य सदस्य उनके इस जुनून में पहले भागीदार बने। फ़ालके अपने समय से आगे के व्यक्ति थे। उन्होंने सिनेमा को उस दौर में अपनाया जब अंधविश्वासों और अनर्गल अफ़वाहों के चलते हिन्दुस्तानी तस्वीर खिंचवाने तक से डरते थे।
उनकी सिनेमा माध्यम को लेकर समझ उन्नीस सौ चौंतीस में लिखे इस कथन से खूब समझ आती है, “फ़िल्मों में गाने बिल्कुल नहीं होने चहिए। अगर गानों का इस्तेमाल करना ही हो तो वे भक्तिगीत के रूप में ही आ सकते हैं। जब फ़िल्मों के पात्र स्वयं गानें गायें तो इन गानों की संख्या सात या आठ से ज़्यादा नहीं होनी चाहिए। गाने हमेशा फ़िल्म की कथा से सम्बन्धित हों और दो-तीन पंक्तियों से ज़्यादा लम्बे न हों। इन गानों को शास्त्रीय संगीत के तरीके से नहीं गाना चाहिए। बल्कि उसी तरह गाया जाना चाहिए जैसे हम दैनिक जीवन में कविता की पंक्तियों के उद्धरण देते हैं।” यह एक ऐसे दौर का कथन है जब सामान्य फ़िल्म में भी तीस, चालीस गीत होते थे और कथा उनके बीच गौण हो जाती थी। दादासाहेब सिर्फ़ हमारे देश के पहले फ़िल्मकार नहीं थे। वे भविष्यदृष्टा थे, दुस्साहसी भविष्यदृष्टा। लेकिन उनके जीते जी हमने उनकी भी कहाँ कद्र की?
क्या उनके नाम पर दिया जाता देश का सबसे बड़ा फ़िल्म सम्मान इस सच्चाई को ज़ाहिर कर पाता है कि जव वे मर रहे थे, न हमें उनकी फ़िकर थी और न ही उनकी फ़िल्मों की। मनमोहन चढ्ढा लिखते हैं, “सोलह फ़रवरी सन उन्नीस सौ चवालीस को जब दादा साहेब फालके का नासिक में देहान्त हुआ, तब तक लोग भारतीय सिनेमा के इस पितामह को भूल चुके थे। अपने जीवन के अन्तिम वर्ष उन्होंने गुमनामी और अकेलेपन में बिताये। वर्षों बाद जब कुछ शोधार्थी नासिक पहुँचे तो वहाँ उन्हें फालके के घर से फ़िल्मों के जंग खाये डब्बे मिले। बहुत सी फ़िल्में मिट्टी हो चुकी थीं।” इन शब्दों को पढ़ मेरा सर आज भी शर्म से झुक जाता है। आज हिन्दुस्तान के पास मनाने के लिए एक तारीख़ तो है, लेकिन इस सौ साला इतिहास के वो पुराने स्तंभ भी वो सुरक्षित नहीं रख पाया जिनके सहारे इसकी आज आकाश की ओर देखती भव्य इमारत खड़ी है।
ऐसी विराट भूल-गलतियों के बीच आप जब शिवेन्द्र सिंह डूंगरपुर जैसे सिनेमाकारों का काम देखते हैं तो उम्मीद की एक नन्हीं लौ कहीं जलती दिखाई देती है। इस साल के ’कान फ़िल्म फ़ेस्टिवल’ में तीन नई हिन्दुस्तानी फ़िल्मों के साथ एक चौथी फ़िल्म भी है, तो इसका श्रेय काफ़ी कुछ उन्हें जाता है। महान नृत्य गुरु उदय शंकर द्वारा उन्नीस सौ अड़तालीस में बनाई गई एकमात्र फ़िल्म ’कल्पना’ के पुन:संरक्षण और उसके कान तक पहुँचने में उनका बहुत बड़ा हाथ है। वही थे जो अपने व्यक्तिगत ज़ोखिम पर फ़िल्म के पुराने प्रिन्ट को पुणे से मुम्बई होते इटली लेकर गये और यह महती काम सम्पन्न हो पाया। (पूरी कहानी यहाँ पढ़ें।)
मई सत्रह को जब इस साठ साल से भी ज़्यादा पुरानी और अपने ही देश में भुला दी गई फ़िल्म ’कल्पना’ का पुन:संरक्षित प्रिंट कान में दिखाया जायेगा, और चौरानवे साल की उदय शंकर की पत्नी और खुद फ़िल्म की नायिका अमला शंकर इस मौके पर ’रेड कारपेट’ पर चलेंगी, वह हिन्दुस्तान के लिए इस फ़िल्मोत्सव में देखा गया सबसे अदम्य सुन्दरता से भरा दृश्य होगा।
इस सौ साला इतिहास की सबसे महान मानी गई फ़िल्म भी युवा फ़िल्मकार की पत्नी के कंगन गिरवी रखे बिना कहाँ पूरी हो पाई थी। पैसे की कमी के चलते सप्ताहांतों में कलकत्ता से साठ मील दूर खुद कैमरा ढोकर ले जाते और ’पाथेर पांचाली’ के शुरुआती दृश्य फ़िल्माते सत्यजित राय का यह चित्र देखकर आखिर कौन फ़िल्मकार बनना चाहेगा? लेकिन हकीकत यही है कि यही फ़िल्मकार आगे आनेवाली पूरी पीढ़ी के लिये उनका मसीह बना और उसकी कलाकृतियाँ सिनेमा प्रेमियों के लिये मक्का-मदीना। सत्यजित के व्यक्तिगत संग्रह में शामिल बीथोवान, बाख़ और मोज़ार्ट के जिन संगीत रिकार्ड्स को बेचकर ’पाथेर पांचाली’ पूरी की गई, उनके संगीत की निर्मलता आज भी इस क्लासिक फ़िल्म के साथ बहती सुनाई देती है।
हमारा सिनेमा अंधेरों से निकला वो चकमक पत्थर है जिससे निकली रौशनाई से हमारी उदास ज़िन्दगियों में थोड़ी सी उजली खुशियाँ आईं। लेकिन इन उजली खुशियों के पीछे के अंधेरे को हमें याद रखना चाहिए। याद रखना चाहिए कि जिस अनुराग की फ़िल्म के ’कान फ़िल्म फ़ेस्टिवल’ में चयन के जश्न में आज हम सब शामिल हैं, उसी अनुराग को कभी प्रतिबंधों और मर्यादाओं के खोखले आडंबरों के चलते हमने मानसिक तनाव की अंतिम हद तक पहुँचा दिया था। जिस इरफ़ान के काँधे पर चढ़ आज हम दुनिया भर में अदाकारी का हर दंगल जीत लेना चाहते हैं, बीस साल तक वो टीवी के परदे पर घिसता रहा और हमने उसका ठीक से कभी हाल-चाल भी नहीं पूछा था।
लेकिन जुनूनी तब भी थे और जुनूनी आज भी हैं। न उनकी फ़ितरत बदली है और न उनका जज़्बा। अच्छा लगता है जब अपनी पहली ही फ़िल्म के दम पर कान पहुँचे ’हलाहल’ के निर्देशक वासन बाला उस शौकिया सिनेमा प्रेमियों की वेबसाइट और उसके संचालक को याद करते हैं जहाँ से उनकी यह कथा सर्वप्रथम शुरु हुई थी। अपनी कथा सुनाते हुए एक हालिया दिये इंटरव्यू में वे कहते हैं,
“अठ्ठाईस का होने तक मैं निरुद्देश्य, नौकरियाँ बदलता भटक रहा था। बैंक, डॉट कॉम बूम और विज्ञापन जगत में आया उछाल इसमें मदद कर रहा था। और ऐसे ही एक दिन, अठ्ठाईस साल की बड़ी उम्र में मैंने वो सबकुछ छोड़ दिया और एक ब्लॉग ’पैशनफ़ॉरसिनेमा’ के ज़रिये होता हुआ अनुराग कश्यप के द्वारा खोजा गया। इसके आगे का रास्ता और मुश्किल था क्योंकि अब मैं वो कर रहा था जो मैं हमेशा से करना चाहता था, इसीलिए कोई शिकायत नहीं कर सकता था। इसलिए मैं आगे बढ़ता गया।“
उन्हें अपनी फ़िल्म बनाने के लिए पैसा नहीं मिलता तो वे सोशल मीडिया के सहारे ज़रूरी रकम जुटाते हैं। यही ’आई एम’ के निर्देशक ओनीर करते हैं और अपनी चमत्कारिक फ़िल्म के साथ राष्ट्रीय पुरस्कारों तक जा पहुँचते हैं। गौर से देखिए, यह वही आदिम बेचैनी है जो गोविन्द फालके के ’घर बेच’ फक्कड़पने में दिखाई देती थी। मुझे फिर आचार्य द्विवेदी याद आते हैं जिन्होंने कहा था, “अगर कुछ अविशुद्ध है तो वो है मनुष्य की अदम्य जिजीविषा।“ समय बदलता है लेकिन इंसान की जिजीविषा नहीं बदलती। हमारे सिनेमा की असल कहानी इन्हीं कुछ जुनूनी इंसानों की अदम्य जिजीविषा की कहानी है। अगली बार सिनेमाहाल के अंधेरे में सिनेमा द्वारा दिखाये जाते सपनीले बसन्त में खो जाने से पहले एक बार इन पसीने के नमक वाली कथाओं को भी याद करें, सिनेमा का स्वाद इस नमक से बढ़ेगा ही।
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साहित्यिक पत्रिका ’कथादेश’ के जून अंक में प्रकशित हुआ आलेख.
शुक्रिया हितेश. अगर मेरा लिखा आपके लिए सिनेमा की तरफ़ कोई एक भी नई पगडण्डी खोलता है, तो यह मेरे लिए सबसे बड़ी तारीफ़ है.
आपके लेखोँ को पढकर सिनेमा की नई समझ,सोच पैदा होती है।
hi
न जाने कितने जीवटों का सम्मिलित प्रयास हैं, सिनेमा के ये सौ वर्ष..
“अगर कुछ अविशुद्ध है तो वो है मनुष्य की अदम्य जिजीविषा।“ समय बदलता है लेकिन इंसान की जिजीविषा नहीं बदलती। हमारे सिनेमा की असल कहानी इन्हीं कुछ जुनूनी इंसानों की अदम्य जिजीविषा की कहानी है।
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सही कहे बंधु। इस तरह की जीजीविषा हांलाकि कभी-कभी हैरान-परेशान कर देती है जीने वाले को भी उसके परिवार वालों को भी लेकिन जो चलते चले जाते हैं, अंत में सुख का आसमान भी देख ही लेते हैं।
बढ़िया लेख रहा। शानदार।