प्रेमचंद की अंतिम कहानियों में से एक ’कफ़न’, जितनी प्रसिद्ध कथा है उतनी ही विवादास्पद भी रही है। मूलरूप से विवाद की जड़ में रहा है कहानी के मुख्य दलित पात्रों ’धीसू’ और ’माधव’ का चित्रण। अपनी मरती हुई पत्नी और बहु के कफ़न के पैसों को उड़ा नाच रहे इन कथापात्रों को ’शोषित’ के रूप में देख पाना बहुत से पाठकों को कठिन लगता है। “क्या ’कफ़न’ एक दलित विरोधी कथा है?” यह सवाल साहित्य की समकालीन बहसों से अछूता नहीं। दरअसल यह इस कथा तक सीमित सवाल नहीं। यह गल्प को, उसके पात्रों को और उसके परिवेश को समझने की दो भिन्न आलोचना दृष्टियों से जुड़ा सवाल है। यह भेद तब और बढ़ जाता है जब इस कहानी की तुलना प्रेमचंद की ही कुछ पुरानी कहानियों से की जाती है जहाँ कथाकार अपने पात्रों से इतना निरपेक्ष नहीं और उनसे उसका ही नहीं पाठकों का भी एक भावनात्मक रिश्ता सा जुड़ जाता है। ’कफ़न’ जैसे इन पूर्व कथाओं की नेगेटिव है। उसके पात्र ’शोषित’ होते हुए भी भोले नहीं। आधुनिक आलोचना की भाषा में कहूँ तो उनमें ’ग्रे’ शेड्स दिखाई देते हैं। लेकिन क्या ’घीसू’ और ’माधव’ के चित्रण को आधार बनाकर प्रेमचंद की सामाजिक प्रतिबद्धता को खारिज किया जा सकता है।
यही तमाम बहस के मुद्दे पिछले दिनों आई कुछ फ़िल्मों और उनपर चली विस्तृत बहसों के संदर्भ में रह-रहकर याद आते रहे।
पहले अनुराग कश्यप की ’गैंग्स ऑफ़ वासेपुर – एक’ की बात। ’गैंग्स ऑफ़ वासेपुर’ के मुख्य नायक ही प्रतिनायकों वाले गुणों से युक्त हैं। वे लम्पट हैं, चरित्रहीन हैं, कई बार अनैतिक हैं और हमेशा पुरुष अहंकार से युक्त हैं। फ़िल्म इशारे में यह भी कहती है कि वे व्यापक समाज हित में नहीं, अपनी जान बचाने के लिए लड़ रहे हैं, अपने व्यक्तिगत बदले की आग बुझाने के लिए लड़ रहे हैं। लेकिन क्या इस आधार पर ही यह कहा जा सकता है कि ’गैंग्स ऑफ़ वासेपुर’ अपनी कहन से समाज में लंपटता को नायकीय चरित्र प्रदान कर व्यापक स्वीकृति दे रही है?
यह सवाल दरअसल रचना को समझने की प्रक्रिया के भेद से निकला है और इसके तार सीधे जुड़ते हैं इस सवाल से कि क्या किसी रचनात्मक कृति की व्याख्या पहले से तय सीमित अर्थों में की जा सकती है या उसे हक़ है अर्थबाहुल्य का असीमित विस्तार पाने का। पहले की फ़िल्मों में इस सवाल का जवाब फ़िल्में आसानी से खुद ही बोलकर दे दिया करती थीं। कौन अच्छा है और कौन बुरा, उनके किए के अनुसार बताया जाता था और उसके अनुसार ही कहानियों के नायक / खलनायक तय होते थे। सत्तर के दशक में भी अनैतिक रास्तों से सफ़लता की सीढियाँ चढ़ अपने जीवन की गाड़ी फ़र्राटे से चला रहे अमिताभ अन्त में मारे जाते थे और नैतिक शशि कपूर के साथ व्यवस्था की पुन: स्थापना होती थी। लेकिन हम अपनी समझदारी से यह जानते हैं कि बड़ी रचना वह है जो सब बोलकर न बताए, बल्कि अपने पाठक की समझ पर भरोसा करे। इसी के साथ खुले सिरों वाली रचनाओं को भी विचार में शामिल किया जाना चाहिए। ऐसी रचनाएं जो एक व्याख्या तक सीमित नहीं की जा सकतीं। नए दौर के सिनेमा में, खासकर नब्बे और उसके बाद के हिन्दी सिनेमा में इन प्रवृत्तियों के चिह्न दिखाई देते हैं। सिनेमा में धूसर चरित्र आते हैं, खुले अन्त वाली बहु-व्याख्यापरक फ़िल्में आती हैं और इसके चलते तमाम तरह की दुविधाएं सिनेमा की व्याख्या में आ जुड़ती हैं।
सवाल यह है कि सिनेमा जैसे चाक्षुष माध्यम को क्या हर चीज़ कहकर ही बतानी चाहिए। सच है कि हमारा समाज अपने वर्तमान स्वरूप में बहु-स्तरीय गैर बराबरियाँ अपने भीतर लिए है। लेकिन इन गैर-बराबरियों का सिनेमा में चित्रण करते हुए रचनाकार का हर बार अपना पक्ष कहकर स्पष्ट करना कैसे संभव है।
इसे एक उदाहरण से समझें। ’गैंग्स ऑफ़ वासेपुर’ में जहाँ दुहाजू नायक एक नवयौवना को राह चलते पकड़ता है और जिस तरह उसका मुंह नोंचता है, इसकी भिन्न प्रकार से व्याख्याएं की जा रही हैं। इसकी अति यह है कि प्रसंग को नायक के लम्पट व्यक्तित्व का जलसाई उत्सवगान कहकर सिनेमा बनाने वाले की विकृत मानसिकता तक ले जाया जा रहा है। लेकिन यहीं क्या यह नहीं देखा जाना चाहिए कि उसी दृश्य में नायिका का विकृत चेहरा परदे पर आता है और देखनेवाले के मन में एक ख़ास तरह की वितृष्णा जगाता है। सिनेमा भिन्न माध्यमों से अपनी बात कहता है, और फ़िल्म के मुख्य किरदार को निर्देशक का या उसकी विचारप्रणाली का प्रतिनिधि मान लेना और कुछ हो न हो, माध्यम के साथ सरासर नाइंसाफ़ी है।
एक और विवादास्पद उदाहरण। ’गैंग्स ऑफ़ वासेपुर’ में शायद पहली बार स्पष्ट शब्दों में ’marital rape’ (शादी के भीतर बलात्कार) का प्रसंग आया है। और यह प्रसंग खलनायक नहीं, स्वयं नायक के किरदार से जुड़ा है, यह अपने आप में दुर्लभ है। आखिर हिन्दी सिनेमा कब अपने नायक किरदारों को ऐसे असहज करने वाले प्रसंग देता है। फ़िल्म कस्बाती शादीशुदा स्त्री की उस विकल्पहीनता को दिखाती है जहाँ उसके सामने घर के भीतर पुरुष द्वारा बलात्कार का शिकार होने या उसे दूसरी स्त्री के पास शरीर सुख के लिए जाते देखने के अलावा कोई तीसरा विकल्प नहीं। लेकिन यहीं पेंच है। एक बारीक़ रेखा है इस घटना को देखने के दो भिन्न तरीकों में और उसके आधार पर फ़िल्म के नज़रिये को लेकर भिन्न राय बनाए जाने में। इसे कस्बाती पुरुष की मर्दानगी का यशोगान और फ़िल्म में उसे उत्सव की तरह मनाए जाने के आरोप लगाकर कई आलोचकों ने फ़िल्म को ही खारिज किया है। इसके बरक़्स क्या यह सिर्फ़ संयोग है कि जिस अकेले आलोचक को मैंने इस प्रसंग को marital rape के संदर्भ में पढ़े जाने की गुहार करते सुना, खुद उनकी पहचान अल्पसंख्यक / स्त्री की है।
तो क्या यह ’हमारी नज़रें वही देखती हैं जो हम देखना चाहते हैं’ का उदाहरण है? क्या सिनेमा को, जिसकी कथा वह सुना रहा है, सदा उसके पक्ष में होने के दबाव से मुक्त नहीं होना चाहिए? वासेपुर का समाज, जिन्हें समाज की वृहत सत्ता के सामने शोषित की जमात में गिना जाना चाहिए, वहाँ भी स्त्री ही शोषण के अन्तिम पायदान पर खड़ी है, क्या यह सच्चाई ’गैंग्स ऑफ़ वासेपुर’ की वाजिब व्याख्या नहीं हो सकती।
अब कुछ बातें दिबाकर बनर्जी की ’शांघाई’ और उसके इसी विवादास्पद ’चरित्र चित्रण’ पर।
कई मायनों में ’शांघाई’ मुझे ’रंग दे बसन्ती’ का नेगेटिव प्रिंट लगती है। इनका पहनावा समान है और इसीलिए इन पर आई प्रतिक्रियाएँ भी तुलना के लिहाज़ से मज़ेदार हैं। दोनों ही फ़िल्मों की कहानी मध्यवर्गीय भारत के भिन्न तबकों से आए कुछ युवाओं द्वारा तय किए गए एक ऐसे सफ़र की कहानी है जिसमें उनके सामने सत्तातंत्र की सच्चाई परत दर परत खुलती है। एक शुरुआती इन्नोसेंस जिसका अन्त फ़िल्म के अन्तिम दृश्यों में जाकर ही होता है। दोनों ही फ़िल्मों के केन्द्र में एक महत्वपूर्ण किरदार की मौत है और जहाँ एक ओर सत्तातंत्र उसे ’एक्सीडेंट’ बनाकर रफ़ा-दफ़ा करने पर आमादा है, कथा के मुख्य किरदार इस साजिशन हत्या के पीछे की अंतिम सच्चाई जानना चाहते हैं। कुछ और समानताएँ दिखती हैं। जैसे ’मारा जाने वाला’ किरदार बाकी सबसे ज़्यादा ’जागृत’ किरदार है। मुख्य किरदार ऐसे मध्यवर्गीय युवा हैं जिनका अपने समय और समाज से जुड़ाव बड़ा तनावकारक है। ’राष्ट्र’ और राष्ट्रभक्ति से जुड़े सवाल फ़िल्म में बार-बार भिन्न संदर्भों में सामने आते हैं।
लेकिन वो क्या है जिसके चलते ’रंग दे बसन्ती’ और ’शांघाई’ दोनों व्यापक स्तर पर भिन्न प्रतिक्रियाओं की वाहक बनती हैं। ’रंग दे बसन्ती’ को मध्यवर्गीय भारत में अपार जनसमर्थन मिला था और इसने जल्दी ही एक फ़िल्म से बढ़कर एक फ़ेनॉमिना का रूप अख़्तियार कर लिया। मध्यवर्गीय युवा ने इसे अपने आन्दोलनकारी हथियार की तरह अपनाया और इंडिया गेट पर ’कैन्डल लाइट मार्च’ ज़माने का चलन बन गए। इसके बरक़्स हमने देखा कि सिनेमा आलोचकों द्वारा व्यापक सराहना के बावजूद ’शांघाई’ को तीखी आलोचनाओं का सामना करना पड़ा।
इन भिन्न प्रतिक्रियाओं का जवाब इन फ़िल्मों के मुख्य किरदारों की गढ़त में छिपा है। जहाँ एक ओर ’रंग दे बसन्ती’ अपने मुख्य किरदारों से एक आत्मीय रिश्ता जोड़ते हुए उनकी इन्नोसेंस को अन्त तक बचाए रखती है, ’शांघाई’ अपने मुख्य किरदारों की इन्नोसेंस को बड़े क्रूर और बेपरवाह तरीके से ध्वस्त करती है। फ़िल्म की आलोचनात्मक नज़र अपने पक्ष के किरदारों पर भी बनी रहती है। आन्दोलन सही के लिए है, और शालिनी आन्दोलन के मुख्य कार्यकर्ताओं में से है। लेकिन हम देखते हैं कि शालिनी को बड़े ही शांत तरीके से आन्दोलन के मंच पर आने से रोक दिया जाता है। क्या पता, शायद उसकी पहचान जनता के जुड़ाव में बाधक हो। खुद शालिनी और कृष्णन के भ्रम भी जब टूटते हैं तो फ़िल्म साथ ही यह अहसास भी करवाती है कि दरअसल सच्चाई तो सदा उनके सामने थी, लेकिन उन्हीं की मध्यवर्गीय सीमित सोच उन्हें कभी सच को सही परिप्रेक्ष्य में जानने नहीं देगी। या यों कहें कि वे जानबूझकर इसे जानना नहीं चाहते। इसके बरक़्स ’रंग दे बसन्ती’ के मुख्य किरदारों के भ्रम टूटना एक कैथार्सिस की तरह है, जिसमें दर्शक भी उनसे एकाकार हो जाते हैं।
’रंग दे बसन्ती’ मध्यवर्ग के साथ खड़े होकर उसके हिस्से की लड़ाई लड़ती है, वहीं ’शांघाई’ उसी मध्यवर्ग के टूटते भ्रमों को प्रश्नांकित करती है। यही भेद इन्हें दो भिन्न फ़िल्में बनाता है और मध्यवर्ग, जिसकी राय आजकल ’सबकी राय’ मानी जाने लगी है, द्वारा दो नितांत भिन्न प्रतिक्रियाओं की वजह बनता है।
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साहित्यिक पत्रिका ’कथादेश’ के अगस्त अंक में प्रकाशित।
बर्फी के अवसाद में कही कही हर जगह एक मीठेपन की झलक ही फिल्म को एक खास पहचान देती है..सवाल ये नहीं है की किस दृश्य की नक़ल किस फिल्म से की गयी है,सवाल ये है की नक़ल करके भी कितनी संवेदनशील फिल्मे बन पाती है…..
फूल से फूल लड़ाने वाली फिल्मों से कहीं अच्छी हैं ये यथार्थ की अभिव्यक्ति..