“हर भले आदमी की एक रेल होती है
जो माँ के घर की ओर जाती है
सीटी बजाती हुई
धुआँ उड़ाती हुई” ~ आलोक धन्वा
अनुराग बासु की ’बरफ़ी’ कुछ मायनों में चुनौतीपूर्ण फ़िल्म है और बहुत से मामलों में बहुत पारम्परिक। पारम्परिक इन मायनों में कि यह एक ख़ास समय, स्थान और किरदारों से जुड़ा नॉस्टेल्जिया तो रचती है, लेकिन उसे कभी खुद आलोचनात्मक निगाह से नहीं देखती। बहुत सारे ’अच्छे’ और कुछ ’बुरे’ किरदारों के बीच ’बरफ़ी’ में उस निगाह की कमी है जो सिनेमा को सिर्फ़ एक खुशनुमा अहसास से आगे ले जाकर एक विचारतलब माध्यम बनाती है। फिर भी, ’बरफ़ी’ एक स्तर पर चुनौती स्वीकार करती है, जहाँ वो हमारे सिनेमाई अनुभव को कथा आधारित बनाने के बजाए सिर्फ़ माहौल रचकर सम्पूर्ण बनाना चाहती है। मुझसे पूछें तो इस फ़िल्म का ’सत्व’ इसकी कथा में नहीं, इसके ’माहौल’ में है।
बरफ़ी और झिलमिल जैसे भिन्न रूप से सक्षम किरदारों के साथ फ़िल्म बनाने से जुड़ी सबसे बड़ी चुनौती, और वो भी ख़ासतौर से हमारे व्यावसायिक सिनेमा की हतबंदी में, यह होती है कि कैसे आप उन भावनात्मक मैलोड्रामा से बजबजाते दृश्यों से बचें जिनको दर्शक की भावनाओं के दोहन के लिए पीढ़ियों से रचा जाता रहा है। और ’बरफ़ी’ भी इनसे पूरी तरह कहाँ बच पाई है। झिलमिल का भरी महफ़िल में खुश होकर गाना और लोगों का उस पर हँसना, और फिर झिलमिल का चिल्लाना, इसे जैसे सीधे संजय लीला भंसाली की उस ’निर्वात में बसी’ दुनिया में ले जाते हैं। या उस सिंगल फ्रेम दृश्य में जहाँ आप एक ओर बरफ़ी के पिता को मौत के आग़ोश में जाता देख रहे हैं और दूसरी ओर ऊपर बरफ़ी को चैन की नींद सोता दिखाया जा रहा है, फ़िल्म जहाँ थी उससे अचानक बहुत नीचे गिर जाती है। जहाँ बरफ़ी श्रुति के घर शादी का प्रस्ताव लेकर आता है, ठीक वहीं उसका नायिका के होनेवाले पति से साक्षात्कार होना है, ठीक वहीं उस होनेवाले पति को बरफ़ी से अपना जन्मजात अंतर देखांकित करते हुए ग्रामोफ़ोन पर कोई गीत चलाना है, और ठीक वहीं बरफ़ी की साइकिल की चेन उतरनी है, और ठीक वहीं उसे श्रुति के पिता द्वारा पैसे माँगने वाला समझ लिया जाना है।
और अब तो चार्ली चैप्लिन से लेकर कोरियन सिनेमा तक, ’नोटबुक’ से लेकर यूरोपियन अखबार के विज्ञापनों तक इसके तमाम ’प्रेरणास्रोत’ भी पब्लिक में खुल चुके हैं। (तफ़सील में यहाँ देखें)
फिर हम ’बरफ़ी’ की बित्ता भर भी तारीफ़ क्यूं करें? आखिर वो क्या है जो इसे संजय लीला भंसाली की ’निर्वात में बसी’ दुनिया से अलगाता है? वो क्या है जिसके चलते ’बरफ़ी’ किसी मैलोड्रामा से भरी मुख्यधारा हिन्दी फ़िल्म से ज़रा अलग है?
’बरफ़ी’ अपने ख़ास देस और काल में बसी फ़िल्म है और यही विशेषता इसे बाक़ी तमाम नकल के बावजूद असलियत के चंद रंग देती है। सत्तर के दशक के बंगाल का एक छोटा, उनींदा सा पहाड़ी शहर जिसकी दुनिया रेल की पटरियों के सहारे ऊपर-नीचे घूमती है। अगर आप इसे बड़े शहर से आई श्रुति की नज़रों से देखें तो पायेंगे कि कैसे ज़िन्दगी जीने का इक भिन्न तरीक़ा ’बरफ़ी’ के किरदार में ढलकर उसके सामने आ जाता है। यहाँ दर्जिलिंग और महानगर कलकत्ता का, उनकी भिन्न गतियों का, उनके रहन-सहन के तरीकों का विलोम है और बरफ़ी उसका जैसे सबसे खुशमिजाज़ प्रतीक है। वो सिर्फ़ बड़े घर के ड्राइवर का लड़का नहीं, पूरे ’शहर’ का अपना लड़का है। यहाँ एक पहाड़ी शहर का सामुदायिक जीवन है और बरफ़ी जैसे उस शहर का गोद लिया लड़का। उससे ख़ार खाया पुलिसवाला भी यहाँ उसे ऐसे मोह से याद करता है जैसे घनघोर बुढ़ापे में पिता अपने घर से दूर जा बसे जवान लड़कों को याद करते हैं। और क्यूंकि वो अपना लड़का है इसीलिए वो शहर उसकी पूरी-पूरी कद्र नहीं जानता। शहर के मुख्य चौराहे पर विमोचित की जा रही सार्वजनिक प्रतिमा की गोद में सोया बरफ़ी और उसके सामने लगी कुर्सियों पर बैठी ताली बजाती जनता, यही दृश्य इस फ़िल्म के सामुदायिक जीवन और उसमें बरफ़ी की जगह का सबसे सुन्दर प्रतीक है। और यही सार्वजनिकता इसे संजय लीला भंसाली की ’निर्वात में बसी’ दुनिया से अलगाती है। इस फ़िल्म के सबसे खूबसूरत दृश्य सार्वजनिक जगहों के, लोगों के ऐन बीच अपनी सपनों की दुनिया रचते बरफ़ी और झिलमिल हैं। हिचकोले खाती और डगमग चलती बस में, चक्करदार सड़कों पर साइकिल में, एक दूसरे के हाथ की चिटकी उंगली थामे रेलगाड़ियों में, सबके बीच अपने प्यार के सबसे दुर्लभ क्षण जीते नायक-नायिका। बरफ़ी समाज से अगल किसी भिन्न दुनिया में नहीं रहता, और उसे रहना भी नहीं चाहिए। वो इस शहर का उतना ही अभिन्न हिस्सा है जितना उसकी सदा की हमसफ़र रेल की वो समांतर पटरियाँ।
यह फ़िल्म छोटे शहर से जुड़ी कुछ और यादें अपने साथ लाती है। फ़रमाईशी गाने बजाता मर्फ़ी का रेडियो, साइकिल की रफ़्तार से चलती धीमी रफ़्तार शहरी सुबह, लकड़ी के खंबो वाले ऊंचे लैम्पपोस्ट, और सबसे ख़ास रेल की पटरियाँ। यहाँ पहले तमाम बिम्ब जहाँ सत्तर-अस्सी के दशक के हिन्दुस्तानी शहरों की स्मृतियों से जुड़े हैं, वहीं अंतिम बिम्ब ख़ास दार्जिलिंग शहर का अपना है। और यही इस फ़िल्म को मेरे लिए ख़ास बनाता है। फ़िल्म देखें तो आप जानेंगे कि किस तरह यहाँ चलने वाली दुर्लभ ’टॉय ट्रेन’ को यहाँ के सामुदायिक जीवन में एक रोज़मर्रा के अंग की तरह अपना लिया गया है। उसी की कांच की खिड़कियों से पलटकर आते दृश्य में बरफ़ी पहली बार नायिका को देखता है, उसी के सहारे उनकी प्रेम कहानी आगे बढ़ती है। वही ट्रेन है जिसका टिकट हाथ में लिए-लिए कभी एक माँ स्टेशन पर ही अपनी मर्यादाओं के साथ खड़ी रह गई थी और उसके सपने धुआँ उड़ाते उसके सामने से गुज़र गए थे। वही ट्रेन है जिसका टिकट हाथ में लिए एक बेटी भीगे हुए प्लेटफ़ॉर्म पर भागती है और दौड़कर अपने सपनों की गाड़ी पकड़ लेती है।
न सिर्फ़ ट्रेन, उसकी पटरियाँ भी शहरी जीवन का हिस्सा हैं। उनके इर्द गिर्द शहरी जीवन चलता है और उनपर न सिर्फ़ ट्रेन चलती है, जब ट्रेन का वक़्त न हो तो उनपर बाज़ार भी लगते हैं। बरफ़ी उनका जैसे अपने घर को जानेवाली पगडण्डी की तरह इस्तेमाल करता है और रात में चलती ट्रेन से बच्चों को खुशियाँ बांटता है। और इन्हीं पटरियों पर अपनी ठेलागाड़ी चलाता वो झिलमिल को उसके सपनों की दुनिया में ले जाता है। यह शहर की अपनी ख़ासियत है जिस तरह ’बरफ़ी’ इसको बिना कहे अपने भीतर उतार लायी है, देखना बहुत खूबसूरत है।
पिछले दिनों आई कलकत्ता शहर को कथाकेन्द्र बनाती फ़िल्म ’कहानी’ भी अपनी कथा में एक औसत फ़िल्म होने के बावजूद अपनी इसी परिवेश की बारीकियों को पकड़ने की कला के चलते समकालीन सिनेमा में ख़ास बनती है। शहर की, उसके लोगों की, उनकी रोज़मर्रा की आदतों की बारीक परख सिनेमा को ज़्यादा प्रामाणिक बनाती है और कई बार कथा के झोल को ढक लेती है। ’कहानी’ ने भी कलकत्ता के सामुदायिक जीवन की एक ज़रूरी आदत, भिन्न ’घर के नाम’ और ’सार्वजनिक नाम’ होने की प्रथा को जिस खूबसूरती से पकड़ा और कथा का हिस्सा बनाया, उससे फ़िल्म ने विश्वसनीयता हासिल कर ली। यही अनुराग बासु की ’बरफ़ी’ करती है और उन रेल की घुमावदार पटरियों की वजह से, रेडियो सिलोन के फ़र्माइशी गानों वाले कार्यक्रम की वजह से, साइकिलों के पैडलों पर पलते लड़कपन के प्यार और एक नन्हीं सी दोस्ती की खातिर घंटाघर की उल्टी घुमा दी गई सुइयों की वजह से ही उनके पटकथा के झोल और नकल चुटकुले कुछ कम तीखे लगते हैं।
फिर भी, मेरे लिए इस ’बरफ़ी’ की खूबी और ख़ामी एक ही है, कि यह बहुत मीठी है।
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साहित्यिक पत्रिका ’कथादेश’ के अक्टूबर अंक में प्रकाशित
अापकी बात काफ़ी हद तक ठीक है अालोक जी। लेकिन संवेदनशीलता ही सिनेमा का अकेला गुण नहीं। फ़िर उस संवेदनशीलता में जगह-जगह ख़ांटी बाॅलीवुडीय मैलोड्रामा की मिलावट हो, तो वो भी मुझे अखरती है। ‘बर्फी’ के साथ भी नकल मेरी छोटी परेशानी है, ज़्यादा बड़ी परेशानी यही दोनों हैं। बाक़ी जो पसन्द अाया वो तो ऊपर लिखा ही।
बर्फी के अवसाद में कही कही हर जगह एक मीठेपन की झलक ही फिल्म को एक खास पहचान देती है..सवाल ये नहीं है की किस दृश्य की नक़ल किस फिल्म से की गयी है,सवाल ये है की नक़ल करके भी कितनी संवेदनशील फिल्मे बन पाती है…..
आपकी तमाम असहमतियाँ सर-आँखों पर। वैसे भी सिनेमा सहमत होने के लिए कहाँ बना है, यह तो वह रस है – जिसे जिसमें रस आए, वही उसका गुड़। अौर आज के माहौल में मुझे यह भी लगता है कि जो सिनेमा असहमतियाँ ज़्यादा बनाए वो सहमति बनाने वाले सिनेमा से आगे का सिनेमा है। तो जिसे आप बर्फी की सफ़लता मानेंगे, मैं उसे उसकी असफलता गिनूँगा
इस फिल्म को देखने के बाद पहला वाक्य मेरि जबान पर यही आया था कि “यह एक अच्छी फिल्म नहीं बल्कि एक मीठी फिल्म है.”
ब्लॉग तो नियमित पढ़ता हूँ लेकिन बहुत दिनों बात किसी फिल्म की व्याख्या पर तुमसे सहमत हो पाया हूँ. शायद यह भी बर्फी की एक सफलता है